गांधीजी से संबंधित यह कार्टून मैंने बहुत पहले इकट्ठा किये थे जिन्हें आज अपने ब्लॉग पे लगा रही हूं।
ब्रिटेन के कट्टर रूढ़िवादियों ने कहा कि नमक सत्याग्रह को कुचलने के लिये ब्रिटिश राज ने जो नृशंसता अपनाई, उसके फलस्वरूप भारत में भड़के हिंसात्मक दंगों के पीछे सोवियत रूस का हाथ है। भारत की घटनाओं की इस तरह व्याख्या करने की विचारधार स्ट्रूब के इस कार्टून में देखी जा सकती है जो बीवरबुक प्रेस के मुख्य पत्र - कांग्रेस के अत्यंत तीव्र विरोधी डेली एक्सप्रेस के कार्टूननिस्ट ने बनाया था।
सत्याग्रह से विलिंगडन बड़ी उलझन में पड़ गये हैं। 15 जुलाई 1933 को गांधी जी ने उन के नाम एक तार भेजा जिसमें एक मुलाकात निश्चित करने के लिये कहा गया था ताकि संवैधानिक सुधारों के प्रश्न पर कांग्रेस और सरकार के मतभेद को शांतिपूर्वक और सम्मानजनक ढंग से हल करने के लिये बातचीत हो सके। विलिंगडन ने यह स्वीकार नहीं की। होर ने हाउस ऑफ कॉमन्स में कहा : हमने कह दिया है कि हम बातचीत करना नहीं चाहते और हम अपने इस फैसले पर अडि्ग हैं। मिस्टर गांधी एक तरफ तो सरकार से बात करना चाहते हैं, दूसरी ओर सविनय अवज्ञा के अपने अशर्त हथियार को भी अक्षुण्ण रखना चाहते हैं। मैं फिर कह दूं - कानूनों को पालन करने का दायित्व इन्हीं लोगों का है ओर इस के लिये कांग्रेस से किसी किस्म का समझौता करने का सवाल पैदा नहीं होता।
माली ने गांधी जी को अपने कंधों पर समूचा राष्ट्र उठा कर चलते हुए दिखाया है। इंग्लैंड से वापसी पर उन्हें नई गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ा जिनसे गोल मेज सम्मेलन और मैकडॉनल्ड द्वारा दिये गये आश्वासनों का खोखलापन उजागर हो गया। 3 जनवरी 1932 को उन्होंने वाइसराय को सूचना दी कि कांग्रेस बिना किसी दुर्भावना के और बिल्कुल अहिंसक ढंग से सविनय अवज्ञा आंदोलन पुन: छेड़ेगी। विलिंग्डन ने तुरंत प्रहार किया। उसने अगली सुबह गांधी जी को गिरफ्तार कर लिया। जब तक सरकार चाहे तब तक बंदी बनाये रखने के लिये उन्हें यरवडा ले जाया गया। अन्य कांग्रेसी नेताओं की गिरफ्तारियां इसके बाद हुई।
30 जनवरी 1948 की शाम को पांच बजे के कुछ मिनटों बाद चंद गोलियों ने गांधी जी की जान ले ली। वे अपने होठों से हे राम कहते हुए सिधार गये। उन्होंने अपना जीवन एक ध्येय एक उद्देश्य के लिये बलिदान कर दिया और अपने अंतिम दिनों में तन-मन से उसी के लिये काम करते रहे। वह ध्येय था राष्ट्रीय एकता की पुन: स्थापना - वह एकता जो स्वाराज्य के जन्म के साथ ही साम्प्रदायिक बर्बरता के आगे टूट कर बिखर गई थी। अपनी अटूट आस्थाओं और देश प्रेम की इतनी बड़ी कीमत ! लेकिन जो लौ उन्होंने जलाई है, वह हमेशा-हमेशा जलती रहेगी।
Friday, January 30, 2009
Saturday, January 24, 2009
आज का नैनीताल
घुघुती जी और गोविन्द प्रकाश जी ने मेरी पिछ्ली पोस्ट 'पुराना नैनीताल' में टिप्पणी की थी कि यदि में 'आज के नैनीताल' की तस्वीरें भी लगाती तो अच्छी तुलना हो जाती।
इस पोस्ट में मैं आज के नैनीताल की कुछ तस्वीरें लगा रही हूं।
इस पोस्ट में मैं आज के नैनीताल की कुछ तस्वीरें लगा रही हूं।
Wednesday, January 21, 2009
पुराना नैनीताल
नैनीताल की यह बहुत पुरानी तस्वीरें मुझे इंटरनेट से मिली हैं
“General view looking down on Naini Tal Lake from the northern hills,” Photograph of Nainital from the Macnabb Collection (Col James Henry Erskine Reid): Album of views of ‘Naini Tal’ taken by Lawrie & Company in 1895.
Oriental and India Office Collection, British Library
Naini Tal, After landslip of 1880.” 1883.
Macnabb Coll.
Oriental and India Office Collection,
British Library.
(Naina (Cheena or China) Peak can be seen on the right in this 1855 photograph, and Deopatta sloping upwards on the left. “View [of Naini Tal] from the Lake.” 1855. Photographer Dr. John Murray (1809-1898). From Murray Collection: ‘Photographic views in Agra and its vicinity.’
Oriental and India Office Collection, British Library.
Alma Hill, Snow View and the Old Government House atop the Sher-ka-Danda Ridge in 1886. “The lake at Naini Tal (U.P.). 9 October 1886.” Water-colour painting of the lake at Naini Tal in the United Provinces by Charles J. Cramer-Roberts (1834-1895), 9 October 1886. Inscribed on front in ink: ‘Naini Tal. Oct 9/86. C.J.C.R.’
Oriental and India Office Collection, British Library.
“General view looking down on Naini Tal Lake from the northern hills,” Photograph of Nainital from the Macnabb Collection (Col James Henry Erskine Reid): Album of views of ‘Naini Tal’ taken by Lawrie & Company in 1895.
Oriental and India Office Collection, British Library
Naini Tal, After landslip of 1880.” 1883.
Macnabb Coll.
Oriental and India Office Collection,
British Library.
(Naina (Cheena or China) Peak can be seen on the right in this 1855 photograph, and Deopatta sloping upwards on the left. “View [of Naini Tal] from the Lake.” 1855. Photographer Dr. John Murray (1809-1898). From Murray Collection: ‘Photographic views in Agra and its vicinity.’
Oriental and India Office Collection, British Library.
Alma Hill, Snow View and the Old Government House atop the Sher-ka-Danda Ridge in 1886. “The lake at Naini Tal (U.P.). 9 October 1886.” Water-colour painting of the lake at Naini Tal in the United Provinces by Charles J. Cramer-Roberts (1834-1895), 9 October 1886. Inscribed on front in ink: ‘Naini Tal. Oct 9/86. C.J.C.R.’
Oriental and India Office Collection, British Library.
Sunday, January 18, 2009
एक यात्री
आज कम्प्यूटर में अपनी पुरानी फाइलों को देखते हुए मुझे यह कविता मिली। जो मैंने किसी पत्रिका या अखबार से लिखी थी।
डेविस लेबर्टोव की लिखी इस कविता का हिन्दी अनुवाद चन्द्र प्रभा पाण्डेय द्वारा किया गया है।
अगर रथ और पैरों में चुनाव करना हो
तो मैं पैरों को चुनूंगी
मुझे रथ की उंची गद्दी पसंद है
उसकी ललकारती रफ्तार, दुस्साहसपूर्ण हवा,
जिसकी तेज गति को पकड़ पाना मुश्किल है
परन्तु मैं जाना चाहती हूं,
बहुत दूर,
और मैं उन रास्तों पर चलना चाहती हूं
जहां पहिये नहीं जा सकते
और मैं नहीं चाहती हमेशा रहना
घोड़ों और साज सामान के बीच
खून, झाग और धूल।
मैं उनके विचित्र सम्मोहन से अपने को मुक्त
करना चाहती हूं,
मैं यात्रा में पैरों को एक
अवसर देना चाहती हूं।
डेविस लेबर्टोव की लिखी इस कविता का हिन्दी अनुवाद चन्द्र प्रभा पाण्डेय द्वारा किया गया है।
अगर रथ और पैरों में चुनाव करना हो
तो मैं पैरों को चुनूंगी
मुझे रथ की उंची गद्दी पसंद है
उसकी ललकारती रफ्तार, दुस्साहसपूर्ण हवा,
जिसकी तेज गति को पकड़ पाना मुश्किल है
परन्तु मैं जाना चाहती हूं,
बहुत दूर,
और मैं उन रास्तों पर चलना चाहती हूं
जहां पहिये नहीं जा सकते
और मैं नहीं चाहती हमेशा रहना
घोड़ों और साज सामान के बीच
खून, झाग और धूल।
मैं उनके विचित्र सम्मोहन से अपने को मुक्त
करना चाहती हूं,
मैं यात्रा में पैरों को एक
अवसर देना चाहती हूं।
Wednesday, January 14, 2009
WHO Deserves MORE?
यह फोटो मुझे मेरे एक मित्र की फॉरवर्ड मेल द्वारा प्राप्त हुआ।
इसे देखने के बाद मुझे लगा की इसे ब्लॉग में लगाया जाना चाहिये......इसलिये लगा दिया
मैं इस मेल को उसी तरह लगा रही हूं जैसे मुझे मिली थी इसलिये मैंने अंग्रेजी को हिन्दी में बदलने की कोई कोशिश नहीं की।
आप को कैसी लगी ये हकीकत---------
The India cricket team bus.
& DON'T MISS the VIJAY RATH
Now lets have a look at the luxury of our commandos
after their 60 hrs sleepless battle!!!
The Black Cat (NSG) commando bus after operation at TAJ .
WHICH VICTORY WAS CRITICAL ??
What a shame and disgrace to every citizen of India that the elite NSG
Force was transported into ordinary BEST buses,
whereas our cricketers are transported into state of the art
luxury buses,
these Jawans lay down their lives to protect every
Indian and these cricketers get paid even if they lose a match,
we worship these cricketers and forget the martyrdom of these brave Jawans.
The Jawans should be paid the salaries of the cricketers
and the cricketers should be paid the salaries of the Jawans.
Do not worry about those who have come thru boats....
Our forces can easily defeat them.
WORRY about those who have come thru votes....
Those are our REAL ENEMIES…
इसे देखने के बाद मुझे लगा की इसे ब्लॉग में लगाया जाना चाहिये......इसलिये लगा दिया
मैं इस मेल को उसी तरह लगा रही हूं जैसे मुझे मिली थी इसलिये मैंने अंग्रेजी को हिन्दी में बदलने की कोई कोशिश नहीं की।
आप को कैसी लगी ये हकीकत---------
The India cricket team bus.
& DON'T MISS the VIJAY RATH
Now lets have a look at the luxury of our commandos
after their 60 hrs sleepless battle!!!
The Black Cat (NSG) commando bus after operation at TAJ .
WHICH VICTORY WAS CRITICAL ??
What a shame and disgrace to every citizen of India that the elite NSG
Force was transported into ordinary BEST buses,
whereas our cricketers are transported into state of the art
luxury buses,
these Jawans lay down their lives to protect every
Indian and these cricketers get paid even if they lose a match,
we worship these cricketers and forget the martyrdom of these brave Jawans.
The Jawans should be paid the salaries of the cricketers
and the cricketers should be paid the salaries of the Jawans.
Do not worry about those who have come thru boats....
Our forces can easily defeat them.
WORRY about those who have come thru votes....
Those are our REAL ENEMIES…
Monday, January 12, 2009
अल्मोड़ा यात्रा - 3
सुबह जब नींद खुली बाहर आकर देखा घुप्प अंधेरा ही था और गजब की ठंडी हो रही थी। मैं वापस रजाई में दुबक गई और फिर करीब 1 घंटे बाद बाहर निकली। इस समय उजाला होने लगा था पर ठंडी अभी भी काफी ज्यादा थी। मैं बाहर आकर थोड़ा इधर-उधर घुमने लगी। मुझे ऐसा लगा कि होटल मे मुझे छोड़ के बांकि सब बंगाली ही रूके हुए हैं क्योंकि उनके अलावा मुझे कोई और नहीं दिखे। बंगाली बहुत अच्छे घुमक्कड़ होते हैं और ज्यादातर बड़े-बड़े ग्रुप में ही यात्रा करते हैं।
आज मेरी वापसी थी सो मैं जल्दी नहा-धो के तैयार हो गई। शंभू जी ने मुझे एक जगह बता दी थी और कहा था कि वो मेरे लिये वहीं रूकेंगे। इसलिये मुझे आज अकेले ही वहां तक जाना था जो बिल्कुल भी कठिन नहीं था। मैंने सामान उठाया और निकल गई। आज इस सड़क में अकेले घुमने में अलग मजा आ रहा था। अल्मोड़ा में आज भी संस्कृति हर जगह नजर आती है शायद इसीलिये अल्मोड़ा को उत्तराखंड की सांस्कृतिक राजधानी माना जाता है। यहां-वहां देखते हुए मैं उस जगह पहुंच गई जो जगह मुझे बताई गई थी। होटल से निकलते वक्त मैंने नाश्ता नहीं किया था इसलिये सबसे पहले रैस्टोरेंट की तलाश की गई जहां कुछ पहाड़ी खाना मिल सके। पर ये संभव न हुआ और टोस्ट खा कर संतोष करना पड़ा।
जब हम रैस्टोरेंट से बाहर निकले तभी शंभू जी ने कहा - कल मैं तुझे एक चीज दिखाना भूल गया था। ये देख - लोहे का शेर। लोहे का शेर.....इसके बारे में मैंने सुना तो था पर देखा नहीं था। मैं उसे देखने के लिये गई तो कुछ समझ ही नहीं पाई क्योंकि बेचारे शेर की हालत खराब थी। उसके चारों तरफ जूते वालों ने अपने फड़ खोल रखे थे और दो-चार जूतों की माला बेचारे शेर को पहना रखी थी। देख के हंसू या अफसोस करूं कुछ समझ नहीं आया। दुकानदारों को पीछे हटाते हुए जैसे ही मैंने शेर की फोटो लेनी चाही एक दुकानदार ने जल्दी से शेर के गले से जूते उतार दिये और बोला - मैडम को फोटो लेने दो भई.......। इस लोहे के शेर को किसने बनाया क्यूं बनाया और कब बनाया इस बारे में कुछ भी पता नहीं है।
वहां से हम पं. गोविन्द बल्लभ राजकीय संग्रहालय देखने चले गये। यहां भी काफी प्राचीन मूर्तियों और उत्तराखंड की प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर जैसे - जेवर, मूर्तिया, सिक्के, वाद्य यंत्र......जैसी कई पारंपरिक चीजों को सहेज के रखा हुआ है। आते-आते इसे देखना भी एक अच्छा अनुभव रहा। यहां फोटोग्राफी करना मना है इसलिये मैं संग्रहालय के दरवाजे की तस्वीर खींच के ले आयी।
आज मुझे फिर अकेले ही वापस आना था सो बस से आने का ही फैसला किया। इस बार मैं समय से स्टेशन पहुंच गयी। जिस बस में मैं चढ़ी वो हल्द्वानी जा रही थी। इसलिये मुझे इसमें भवाली तक ही जाना था। बस में काफी भीड़ थी पर मैं पहले ही आ गयी थी इसलिये अपनी पसंद की सीट मिल गई। तरह-तरह के लोग आते जा रहे थे और धीरे-धीरे बस भरती चली गई। अंत में मेरी बगल की सीट में एक 15-16 साल का लड़का आकर बैठ गया। कंडक्टर सब के टिकट काट रहा था और पूछता भी जा रहा था - कोई बगैर टिकट तो नहीं है। उनका साथ देने के लिये बस में बैठा एक यात्री भी बड़े रौब से सबसे पूछने लगा - टिकट ले लिया है न। अरे भई जिसने नहीं लिया है जल्दी लो ताकि बस चलना शुरू करे। थोड़ी देर बाद पता चला वो खुद ही बगैर टिकट यात्रा करने के मूड में थे पर कंडक्टर ने अपने अनुभव के आधार पर उनको पकड़ लिया। उसके बाद भवाली तक वो चुपचाप बैठे रहे।
गाड़ी ने स्पीड पकड़ ली थी और मैं बाहर के लैडस्केप देखने में लग गई। तभी मुझे लगा कि मेरे कंधे में कुछ गिरा। मैंने सर घुमा के देखा। मेरे बगल में बैठे हुए लड़के को झपकी आ गयी थी और उसका सर बार-बार मेरे कंधे में लुढ़क रहा था। जैसे ही बस कहीं जोर का धक्का खा रही थी तो वो एकदम से सर उठाता मुझे सॉरी बोलता और थोड़ी देर बाद फिर वहीं सब शुरू। भवाली पहुंचने तक करीब 10-12 बार तो उसने मुझे सॉरी बोला ही होगा..........
गाड़ी अपनी मंजिल की तरफ बढ़ी जा रही थी और सब अपने में ही खोये हुए थे कि पीछे से किसी के चिल्लाने की आवाज आने लगी। उनके बगल में खड़े एक बच्चे ने उनके उपर उल्टी कर दी थी। उसके बाद बस में एक भूचाल सा आ गया। उस बच्चे के लिये खिड़की वाली सीट का इंतजाम किया गया। बस लगभग भर हुई ही थी। फिर भी कंडक्टर बीच-बीच में से सवारियों को बस में बिठा रहा था और जो लोग पहले से ही खड़े थे उनको बोले जा रहा था - जरा सा एडजेस्ट कर लो। भवाली से सबको जगह मिल जायेगी। इस बात पे काफी पेसेंजर उससे लड़ने में लगे थे।
मेरे बगल में बैठा लड़का इस सब से बेखबर आराम से सोया हुआ था। एक जगह बस रुकी और कंडक्टर ने बोला - 20 मिनट के लिये गाड़ी रुकेगी। जिसे कुछ खाना हो तो खा लो। इसके बाद गाड़ी हल्द्वानी ही रुकेगी। काफी लोग गाड़ी से नीचे उतरे। जो लोग खड़े थे उन्होंने अपने हाथ-पैर सीधे किये और थोड़ी सांस ली। यह जगह गरमपानी नहीं थी जहां का रायता-पकौड़ी काफी प्रसिद्ध है। बस में ऐसा ही होता है। वो अपनी मर्जी से ही रुकती है। आपकी मर्जी उसके आगे नहीं चलती। पर इसका भी अपना मजा होता है। इसके बाद बस सीधे भवाली में ही रूकी। मैं भवाली में उतरी और नैनीताल के लिये दूसरी बस पकड़ी। 30 मिनट में मैं वापस अपने शहर में थी और झील मेरी नजरों के सामने फैली हुई थी जिसे देखना मेरे लिये सुखद अहसास था......
समाप्त.....
आज मेरी वापसी थी सो मैं जल्दी नहा-धो के तैयार हो गई। शंभू जी ने मुझे एक जगह बता दी थी और कहा था कि वो मेरे लिये वहीं रूकेंगे। इसलिये मुझे आज अकेले ही वहां तक जाना था जो बिल्कुल भी कठिन नहीं था। मैंने सामान उठाया और निकल गई। आज इस सड़क में अकेले घुमने में अलग मजा आ रहा था। अल्मोड़ा में आज भी संस्कृति हर जगह नजर आती है शायद इसीलिये अल्मोड़ा को उत्तराखंड की सांस्कृतिक राजधानी माना जाता है। यहां-वहां देखते हुए मैं उस जगह पहुंच गई जो जगह मुझे बताई गई थी। होटल से निकलते वक्त मैंने नाश्ता नहीं किया था इसलिये सबसे पहले रैस्टोरेंट की तलाश की गई जहां कुछ पहाड़ी खाना मिल सके। पर ये संभव न हुआ और टोस्ट खा कर संतोष करना पड़ा।
जब हम रैस्टोरेंट से बाहर निकले तभी शंभू जी ने कहा - कल मैं तुझे एक चीज दिखाना भूल गया था। ये देख - लोहे का शेर। लोहे का शेर.....इसके बारे में मैंने सुना तो था पर देखा नहीं था। मैं उसे देखने के लिये गई तो कुछ समझ ही नहीं पाई क्योंकि बेचारे शेर की हालत खराब थी। उसके चारों तरफ जूते वालों ने अपने फड़ खोल रखे थे और दो-चार जूतों की माला बेचारे शेर को पहना रखी थी। देख के हंसू या अफसोस करूं कुछ समझ नहीं आया। दुकानदारों को पीछे हटाते हुए जैसे ही मैंने शेर की फोटो लेनी चाही एक दुकानदार ने जल्दी से शेर के गले से जूते उतार दिये और बोला - मैडम को फोटो लेने दो भई.......। इस लोहे के शेर को किसने बनाया क्यूं बनाया और कब बनाया इस बारे में कुछ भी पता नहीं है।
वहां से हम पं. गोविन्द बल्लभ राजकीय संग्रहालय देखने चले गये। यहां भी काफी प्राचीन मूर्तियों और उत्तराखंड की प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर जैसे - जेवर, मूर्तिया, सिक्के, वाद्य यंत्र......जैसी कई पारंपरिक चीजों को सहेज के रखा हुआ है। आते-आते इसे देखना भी एक अच्छा अनुभव रहा। यहां फोटोग्राफी करना मना है इसलिये मैं संग्रहालय के दरवाजे की तस्वीर खींच के ले आयी।
आज मुझे फिर अकेले ही वापस आना था सो बस से आने का ही फैसला किया। इस बार मैं समय से स्टेशन पहुंच गयी। जिस बस में मैं चढ़ी वो हल्द्वानी जा रही थी। इसलिये मुझे इसमें भवाली तक ही जाना था। बस में काफी भीड़ थी पर मैं पहले ही आ गयी थी इसलिये अपनी पसंद की सीट मिल गई। तरह-तरह के लोग आते जा रहे थे और धीरे-धीरे बस भरती चली गई। अंत में मेरी बगल की सीट में एक 15-16 साल का लड़का आकर बैठ गया। कंडक्टर सब के टिकट काट रहा था और पूछता भी जा रहा था - कोई बगैर टिकट तो नहीं है। उनका साथ देने के लिये बस में बैठा एक यात्री भी बड़े रौब से सबसे पूछने लगा - टिकट ले लिया है न। अरे भई जिसने नहीं लिया है जल्दी लो ताकि बस चलना शुरू करे। थोड़ी देर बाद पता चला वो खुद ही बगैर टिकट यात्रा करने के मूड में थे पर कंडक्टर ने अपने अनुभव के आधार पर उनको पकड़ लिया। उसके बाद भवाली तक वो चुपचाप बैठे रहे।
गाड़ी ने स्पीड पकड़ ली थी और मैं बाहर के लैडस्केप देखने में लग गई। तभी मुझे लगा कि मेरे कंधे में कुछ गिरा। मैंने सर घुमा के देखा। मेरे बगल में बैठे हुए लड़के को झपकी आ गयी थी और उसका सर बार-बार मेरे कंधे में लुढ़क रहा था। जैसे ही बस कहीं जोर का धक्का खा रही थी तो वो एकदम से सर उठाता मुझे सॉरी बोलता और थोड़ी देर बाद फिर वहीं सब शुरू। भवाली पहुंचने तक करीब 10-12 बार तो उसने मुझे सॉरी बोला ही होगा..........
गाड़ी अपनी मंजिल की तरफ बढ़ी जा रही थी और सब अपने में ही खोये हुए थे कि पीछे से किसी के चिल्लाने की आवाज आने लगी। उनके बगल में खड़े एक बच्चे ने उनके उपर उल्टी कर दी थी। उसके बाद बस में एक भूचाल सा आ गया। उस बच्चे के लिये खिड़की वाली सीट का इंतजाम किया गया। बस लगभग भर हुई ही थी। फिर भी कंडक्टर बीच-बीच में से सवारियों को बस में बिठा रहा था और जो लोग पहले से ही खड़े थे उनको बोले जा रहा था - जरा सा एडजेस्ट कर लो। भवाली से सबको जगह मिल जायेगी। इस बात पे काफी पेसेंजर उससे लड़ने में लगे थे।
मेरे बगल में बैठा लड़का इस सब से बेखबर आराम से सोया हुआ था। एक जगह बस रुकी और कंडक्टर ने बोला - 20 मिनट के लिये गाड़ी रुकेगी। जिसे कुछ खाना हो तो खा लो। इसके बाद गाड़ी हल्द्वानी ही रुकेगी। काफी लोग गाड़ी से नीचे उतरे। जो लोग खड़े थे उन्होंने अपने हाथ-पैर सीधे किये और थोड़ी सांस ली। यह जगह गरमपानी नहीं थी जहां का रायता-पकौड़ी काफी प्रसिद्ध है। बस में ऐसा ही होता है। वो अपनी मर्जी से ही रुकती है। आपकी मर्जी उसके आगे नहीं चलती। पर इसका भी अपना मजा होता है। इसके बाद बस सीधे भवाली में ही रूकी। मैं भवाली में उतरी और नैनीताल के लिये दूसरी बस पकड़ी। 30 मिनट में मैं वापस अपने शहर में थी और झील मेरी नजरों के सामने फैली हुई थी जिसे देखना मेरे लिये सुखद अहसास था......
समाप्त.....
Wednesday, January 7, 2009
अल्मोड़ा यात्रा - २
मेरे पास सिर्फ आज ही का दिन था अल्मोड़ा घूमने के लिये सो हमने बाजार वाली सड़क पकड़ी क्योंकि आधे से ज्यादा अल्मोड़ा तो इस बाजार में ही मिल जाता है जैसे - थाना बाजार, लाला बाजार, जौहरी बाजार.....। सबसे पहले हम थाना बाजार पहुंचे। दशहरा होने के कारण बाजार में काफी चहल-पहल थी। अल्मोड़े का दशहरा बहुत ही अलग होता है (इस दशहरे के बारे में मैंने चित्रों समेत अपनी पिछली पोस्ट लेबल त्यौहार में दिया है)। इस रास्ते में ही हम आगे बढ़ते रहे। हर मोहल्ले का एक पुतला सड़क पर खड़ा दिखा। कुछ मोहल्ले वालों ने दुर्गा की मूर्तिया भी बना के अपने मोहल्लों के आगे लगा रखी थी। शाम को इन पुतलों की सड़क पे परेड होनी थी सो इन सभी पुतलों को एक स्थान में खड़ा करने के कवायद में सब जन जुटे हुए थे।
इस सड़क में हम सबसे पहले मूरली मनोहर मंदिर में पहुंचे। इस मंदिर का निर्माण सन् 1880 में स्व. कुन्दन लाल साह की धर्म पित्नयों द्वारा कराया गया था। इतने प्राचीन मंदिर को देखना एक अलग अनुभव था पर मुझे जो बात सबसे बुरी लगी वो ये कि - इस मंदिर की बाहरी दीवारों में चूना पोता गया है जो इसकी प्राचीनता को तबाह करता हुआ सा लगा। इस सड़क में बहुत से छोटे-बड़े मंदिर हैं। जिनमे से ज्यादातर मंदिर काफी प्राचीन हैं। जब थोड़ा आगे और बड़े तो एक पुतला और खड़ा दिखा। इस पुतले को छोड़ के हम आगे बढ़ गये
अल्मोड़ा की तहसील जिसे मल्ला महल भी कहते हैं, में पहुंचे। इस महल का निर्माण कुमाऊं के चंद राजाओं द्वारा किया गया था जिसे बाद में 26 मार्च 1815 में ब्रिटिश सरकार द्वारा हथिया लिया गया था। इस परिसर के बाहर एक ऐतिहासिक मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण चंद वंशीय राजा रुद्रचंद द्वारा 1588 ई. में कराया गया था। इस पूरे परिसर में घूमने के बाद इसी सड़क में आगे बढ़े और जिला अस्पताल जा पहुंचे। हम में से कोई भी बीमार तो नहीं था पर फिर भी इसे देखने की इच्छा हमें इसके अंदर ले गयी। अस्पताल के अंदर का माहौल तो अच्छा लग रहा था पर सर्विस कैसी थी ये परखने का मौका नहीं मिला क्योंकि समय थोड़ा कम था पर यहां से मैंने अल्मोड़ा के कुछ तस्वीरें जरूर ले ली।
अब इसके बाद हम जा पहुंचे अल्मोड़ा एक और प्राचीन और विख्यात मंदिर में। जिसका नाम है माँ नन्दा देवी मंदिर। यहां भी कुछ मंदिरों के नमूने जागेश्वर की तरह हैं। इस मंदिर में बाहर से ही घूमने के बाद हमने फैसला किया कि जिस जगह पुतले इकट्ठा होते हैं वहां चला जाये पर तभी किसी ने बताया कि पुतले पहुंचने में तो देर है। शंभू जी का घर वहां से पास ही में था सो हम उनके घर नींबू वाली चाय पीने चले गये। कुछ देर वहां रुकने के बाद वापस बाजार आ गये। दोपहर के 2 बज चुके थे पर अभी भी पुतलों का कोई नामो निशान नहीं था। तभी हमें अपनी पहचान के एक सज्जन दिखे और हम उनका पीछा करते हुए उनके घर चल दिये।
उनको जब पता चला कि मैं अल्मोड़ा घूमने आयी हूं तो उन्होंने मुझसे पूछा - तूने पर्दा नौला (पानी का कुंड) देखा। मैंने उनसे बताया - अभी तो नहीं। उसके बाद हम तीनों जन पर्दा नौला देखने चले गये। उन्होंने बताया - काफी समय तक ये मट्टी के नीचे दबा रहा और अभी कुछ समय पहले ही इसका पता चला। ताजुब्ब की बात थी कि इतने समय तक सीमेंट, मिट्टी में दबे रहने के बाद भी इसमें पानी है जिसका इस्तेमाल आसपास के लोग पीने के लिये करते हैं। उन्होंने बताया - पर्दा नौला पुराने जमाने में महारानियों के लिये बने होते थे जिनका इस्तेमाल वो नहाने इत्यादि के लिये करती थी। उसी सड़क से जब हम वापस लौटे तो मुझे एक मूर्ति बनी हुई नजर आयी। पूछने में पता चला कि यह मूर्ति राजा आनन्द सिंह जी की है। जो अपने वंश के अंतिम राजा थे। इन्होंने ही अल्मोड़ा में बालिका इंटर कॉलेज का निर्माण करवाया था। इसलिये उस स्कूल के आंगन में इनकी भव्य मूर्ति लगी हुई है।
जब हम वापस आ रहे थे तो हमें पुतले इकट्ठे होते हुए दिखने लगे पर भीड़ इतनी ज्यादा थी कि तिल रखने को भी जगह नहीं थी। शंभू जी ने कहा - मैं बाजार में अपने किसी पहचान वाले के यहां तेरे रुकने का इंतजाम कर दूंगा। तू वहां से आराम से देखना और शाम को वापस होटल पहुंचा दूंगा। मुझे उनका ये आइडिया अच्छा लगा और हम लोग अल्मोड़ा की अलियों-गलियों से होते हुए वापस बाजार पहुचे गये। परेड शुरू होने में अभी भी काफी समय था सो हम फिर सड़क में टहलने लगे। इस सड़क में पहले पटालें बिछी हुई थी जो पत्थर की थी पर बाद में उन्हें बदल के टाइल्स लगा दिये गये। जो चिकनी होने के कारण बहुत फिसलती हैं। शंभू जी ने बताया - जबसे ये टाइल्स बिछी हैं तबसे से अल्मोड़ा में हड्डी के डॉक्टर का बिजनेस अच्छा चलता है क्योंकि हर रोज कोई न कोई अपनी हड्डी तो तुड़वाता ही है। मेरे समाने ही कम से कम 8-10 जन तो फिसले ही।
इस बार परेड शुरू होने में बहुत देर हो रही थी। कारण क्या थे मुझे पता नहीं चल पाया। करीब 4 बजे गये थे और कहीं कुछ नहीं दिख रहा था। तभी हम दोनों जन शंभू जी के पहचान वालों के घर चले गये। वो एक मुस्लिम परिवार था। पर अल्मोड़ा की ये एक खासियत है कि यहां के मुस्लिम पहाड़ी ज्यादा हैं। इन लोगों का बोली-व्यवहार, रहन-सहन सब कुछ पहाड़ी जैसा ही है। इस परिवार के साथ शंभू जी मुझे छोड़ कर वापस आ गये। हम लोगों में काफी बातचीत हुई। उन्होंने भी कहा कि और बार तो करीब 6.30 बजे तक पुतले आ जाते थे पर इस बार जाने क्या हुआ। अब मुझे भूख भी सताने लगी थी। उनका दोस्ताना व्यवहार देख के मैंने बिना किसी संकोच के उनसे खाने की फरमाइश कर दी। कुछ ही देर में वो मेरे लिये खाना ले आये। पेट में रोटी गयी तो पुतलों का इंतजार करने की ताकत भी आ गयी और फैसला किया कि चाहे आधी रात तक भी क्यों न रुकना पड़े बिना देखे तो अब वापस नहीं जाउंगी।
रात को करीब 8 बजे पुतले उनके घर के सामने पहुंचे। एक बाद एक पुतले आते जा रहे थे और जिस मोहल्ले के पुतले थे वो उनके साथ नाच गा कर पूरा जश्न मना रहे थे। यहां से ये पुतले सीधे उस स्थान की तरफ जा रहे थे जहां इनका अंतिम संस्कार होना था। 9 बज गये थे और अभी तक भी पूरे पुतले नहीं पहुंचे थे। मुझे वापस होटल पहुंचने की फिक्र भी होने लगी थी। इतने में ही शंभू जी अपने एक मित्र के साथ आ गये। मैंने उनके साथ होटल जाना ही ठीक समझा और उस सड़क के साथ लगी दूसरी गली से हम वापस आ गये जहां कुछ शराबी इधर-उधर लुढ़के हुए थे। दोनों जन मुझे होटल छोड़ के वापस चले गये। मैं जैसे ही कमरे में पहुंची। कुछ हल्ले-गुल्ले की आवाजें आने लगी। बाहर आ कर देखा तो होटल के पीछे वाली सड़क से पुतले जा रहे थे और करीब 1 बजे रात तक ये हल्ला होता रहा।
जारी.........
Saturday, January 3, 2009
अल्मोड़ा यात्रा - 1
मैं पिछले 3-4 सालों से अल्मोड़ा का दशहरा देखने की सोच रही थी पर हर बार कुछ न कुछ ऐसा हो ही जाता कि सारा प्लान धरा का धरा रह जाता। इस बार पक्का इरादा था कि चाहे कुछ भी हो जाये जाना ही है। हालांकि एक बार तो लगा कि शायद इस बार भी न जा सकूं क्योंकि रात को भयानक आंधी-तूफान शुरू हो गये पर सुबह सब ठीक था। इसी कारण उठने में देर हो गई। मुझे सुबह 6.30 बजे स्टेशन पहुंचना था पर 6.15 घर में ही हो गये। मैं जल्दी-जल्दी तैयार हुई अपना सामान उठाया और स्टेशन की तरफ निकल गई। इस बार मैं अकेले ही थी इसलिये पहले ही सोच लिया था कि रोडवेज या के.एम.ओ.यू. की बस से जाउंगी। मुझे पूरी उम्मीद थी कि बस तो निकल गई होगी और अब पता नहीं कैसे पहुंचुगी पर मेरे आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं रहा जब मैंने सामने बस खड़ी देखी। मुझे लगा जैसे कोई बहुत कीमती चीज मिल गई हो जिसके मिलने की उम्मीद में खो चुकी थी।
मैं जल्दी से बस में चढ़ी और टिकट लिया। आगे की सारी सीटें भर चुकी थी इसलिये मुझे टायर के ऊपर वाली सीट में ही संतोष करना पड़ा। बस में यात्रा करने के अवसर कम ही मिलते हैं पर जब भी मिलते हैं तो बड़े मजेदार अनुभव होते हैं। जैसे इस बार हुआ। मेरे आगे की सीट में तीन लड़के बैठे थे। कहीं के भी हों पर पहाड़ी तो नहीं थे। उनको कौसानी जाना था और रात के आंधी-तूफान के कारण वो भी सुबह जल्दी नहीं उठ पाये इसलिये हाथ-मुंह धोये बगैर ही आ गये और एक-दूसरे से लड़ रहे थे कि - मैं तो जल्दी उठ जाता पर इसने उठने नहीं दिया। दूसरा कह रहा था - यार मेरे दिमाग मैं तो अभी भी तूफान चल रहा है। अगले ने कहा - मुझे तो समझ नहीं आ रहा था कि ये हो क्या रहा है ? पता नहीं सब सपने में हो रहा था या सच में।
देखते ही देखते बस इतनी भर गई कि लोगों को खड़े रहना पड़ा। इसमें ज्यादा लोग भवाली जाने वाले थे। खड़े हुए लोगों को देख के लगा कि अगर मुझे थोड़ी और देर होती तो कम से कम भवाली तक तो मुझे भी खड़े-खड़े जाना पड़ता जो मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है। अपनी अच्छी किस्मत के लिये मुझे गर्व महसूस हुआ। पर मेरी ये अच्छी किस्मत ज्यादा देर मेरे साथ नहीं रही क्योंकि मेरे बगल की सीट में एक बुजुर्ग महिला आकर बैठ गई। जैसे ही बस चलनी शुरू हुई उनको उल्टी आने का सा महसूस होने लगा और नहीं चाहते हुए भी मुझे खिड़की वाली सीट उनके लिये छोड़नी पड़ी। मन ही मन में बड़ी कोफ्त हो रही थी क्योंकि मुझे खिड़की से बाहर देखना अच्छा लगता है। उस समय लगा कि काश मुझे भी उल्टी होती तो अपनी सीट नहीं छोड़नी पड़ती लेकिन........। बस में यात्रा करने का ये एक अलग ही मजा है क्योंकि सब जन एक दूसरे से अलग तरह के होते हैं और आपको सब के साथ तालमेल बिठाना पड़ता है।
लगभग 30 मिनट में बस भवाली पहुंच गई। भवाली पहुंचते ही बस खाली हो गई और मुझे अपनी सीट वापस मिल गई। अब कुछ नये यात्री बस में चढ़ गये। इस बार मेरी बगल सीट में फिर एक महिला आ गई जो अल्मोड़ा ही जा रही थी। मैंने उनसे पहले ही पूछ लिया - क्या आपको उल्टी होती है ? उन्होंने कहा - नहीं ! मुझे तो रोजाना ही नौकरी के लिये सफर करना पड़ता है। अब मेरी जान में जान वापस आ गई। मेरे आगे की सीट में जो लड़के बैठे हुए थे उन्होंने भवाली में जाकर हाथ-मुंह धोया और चाय पी। उसके बाद उन्होंने एक नक्शा निकाला और आगे के रास्ते के बारे में देखने लगे। जब बस आगे बड़ी तो उनमें आपस में झगड़ा होने लगा। झगड़ा इस बात का था कि सब जन बारी-बारी से खिड़की वाली सीट में बैठेंगे और कोसी नदी को देखेंगे। एक जन ही पूरे मजे नहीं लेगा।
मेरी बगल वाली महिला ने मुझसे मेरे बारे में पूछा। मैंने उन्हें बताया कि मैं अल्मोड़ा दशहरा देखने जा रही हूं। उन्होंने कहा - उनका भी मायका अल्मोड़ा में है और वो हर साल दशहरे में वहां जाती हैं इससे दो फायदे होते हैं। एक तो दशहरा देखने मिल जाता है और दूसरा सब जन से मुलाकात हो जाती है क्योंकि जो अल्मोड़ा से बाहर रहते हैं वो दशहरे के समय में ही अल्मोड़ा आते हैं। उन्होंने मुझे दशहरे के बारे में कुछ और बताया जिसकी जानकारी मुझे पहले से ही थी। बस सिर्फ यात्रियों को उतराने और बैठाने के लिये ही रुक रही थी। बीच-बीच में झटके भी खा रही थी और मेरी सीट टायर के उपर होने के कारण हल्के झटके भी मुझे कुछ ज्यादा ही जोर से लग रहे थे।
बस में बैठे सब जन अपने-अपने में मस्त थे। कुछ लोग देश की राजनीति सही करने में लगे थे और कह रहे थे - मनमोहन को हटाना चाहिये क्योंकि उसने महंगाई बहुत बढ़ा दी। दूसरा कह रहा था - अरे यार तुम क्या जानते हो। बीजेपी आती तो और बुरा हाल होता। कुछ जो गांव में रहने वाले थे उनकी दुनिया उनकी खेती-किसानी तक थी और इस साल फसल से हुए फायदे नुकसान की बातें कर रहे थे। सब की बातें सुनते हुए रास्ता देखते हुए (इस रास्ते के बारे में मैंने जागेश्वर यात्रा में लिखा है) सफर आराम से कट गया और करीब 9.30 बजे में होटल सेवॉय में थी जहां मैंने पहले से ही रहने का इंतजाम करवाया था। वहां अपने पसंदीदा आलू के पराठे खाये और शम्भू जी, जो अल्मोड़ा में ही रहते हैं, के साथ घुमने निकल गई।
जारी........
मैं जल्दी से बस में चढ़ी और टिकट लिया। आगे की सारी सीटें भर चुकी थी इसलिये मुझे टायर के ऊपर वाली सीट में ही संतोष करना पड़ा। बस में यात्रा करने के अवसर कम ही मिलते हैं पर जब भी मिलते हैं तो बड़े मजेदार अनुभव होते हैं। जैसे इस बार हुआ। मेरे आगे की सीट में तीन लड़के बैठे थे। कहीं के भी हों पर पहाड़ी तो नहीं थे। उनको कौसानी जाना था और रात के आंधी-तूफान के कारण वो भी सुबह जल्दी नहीं उठ पाये इसलिये हाथ-मुंह धोये बगैर ही आ गये और एक-दूसरे से लड़ रहे थे कि - मैं तो जल्दी उठ जाता पर इसने उठने नहीं दिया। दूसरा कह रहा था - यार मेरे दिमाग मैं तो अभी भी तूफान चल रहा है। अगले ने कहा - मुझे तो समझ नहीं आ रहा था कि ये हो क्या रहा है ? पता नहीं सब सपने में हो रहा था या सच में।
देखते ही देखते बस इतनी भर गई कि लोगों को खड़े रहना पड़ा। इसमें ज्यादा लोग भवाली जाने वाले थे। खड़े हुए लोगों को देख के लगा कि अगर मुझे थोड़ी और देर होती तो कम से कम भवाली तक तो मुझे भी खड़े-खड़े जाना पड़ता जो मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है। अपनी अच्छी किस्मत के लिये मुझे गर्व महसूस हुआ। पर मेरी ये अच्छी किस्मत ज्यादा देर मेरे साथ नहीं रही क्योंकि मेरे बगल की सीट में एक बुजुर्ग महिला आकर बैठ गई। जैसे ही बस चलनी शुरू हुई उनको उल्टी आने का सा महसूस होने लगा और नहीं चाहते हुए भी मुझे खिड़की वाली सीट उनके लिये छोड़नी पड़ी। मन ही मन में बड़ी कोफ्त हो रही थी क्योंकि मुझे खिड़की से बाहर देखना अच्छा लगता है। उस समय लगा कि काश मुझे भी उल्टी होती तो अपनी सीट नहीं छोड़नी पड़ती लेकिन........। बस में यात्रा करने का ये एक अलग ही मजा है क्योंकि सब जन एक दूसरे से अलग तरह के होते हैं और आपको सब के साथ तालमेल बिठाना पड़ता है।
लगभग 30 मिनट में बस भवाली पहुंच गई। भवाली पहुंचते ही बस खाली हो गई और मुझे अपनी सीट वापस मिल गई। अब कुछ नये यात्री बस में चढ़ गये। इस बार मेरी बगल सीट में फिर एक महिला आ गई जो अल्मोड़ा ही जा रही थी। मैंने उनसे पहले ही पूछ लिया - क्या आपको उल्टी होती है ? उन्होंने कहा - नहीं ! मुझे तो रोजाना ही नौकरी के लिये सफर करना पड़ता है। अब मेरी जान में जान वापस आ गई। मेरे आगे की सीट में जो लड़के बैठे हुए थे उन्होंने भवाली में जाकर हाथ-मुंह धोया और चाय पी। उसके बाद उन्होंने एक नक्शा निकाला और आगे के रास्ते के बारे में देखने लगे। जब बस आगे बड़ी तो उनमें आपस में झगड़ा होने लगा। झगड़ा इस बात का था कि सब जन बारी-बारी से खिड़की वाली सीट में बैठेंगे और कोसी नदी को देखेंगे। एक जन ही पूरे मजे नहीं लेगा।
मेरी बगल वाली महिला ने मुझसे मेरे बारे में पूछा। मैंने उन्हें बताया कि मैं अल्मोड़ा दशहरा देखने जा रही हूं। उन्होंने कहा - उनका भी मायका अल्मोड़ा में है और वो हर साल दशहरे में वहां जाती हैं इससे दो फायदे होते हैं। एक तो दशहरा देखने मिल जाता है और दूसरा सब जन से मुलाकात हो जाती है क्योंकि जो अल्मोड़ा से बाहर रहते हैं वो दशहरे के समय में ही अल्मोड़ा आते हैं। उन्होंने मुझे दशहरे के बारे में कुछ और बताया जिसकी जानकारी मुझे पहले से ही थी। बस सिर्फ यात्रियों को उतराने और बैठाने के लिये ही रुक रही थी। बीच-बीच में झटके भी खा रही थी और मेरी सीट टायर के उपर होने के कारण हल्के झटके भी मुझे कुछ ज्यादा ही जोर से लग रहे थे।
बस में बैठे सब जन अपने-अपने में मस्त थे। कुछ लोग देश की राजनीति सही करने में लगे थे और कह रहे थे - मनमोहन को हटाना चाहिये क्योंकि उसने महंगाई बहुत बढ़ा दी। दूसरा कह रहा था - अरे यार तुम क्या जानते हो। बीजेपी आती तो और बुरा हाल होता। कुछ जो गांव में रहने वाले थे उनकी दुनिया उनकी खेती-किसानी तक थी और इस साल फसल से हुए फायदे नुकसान की बातें कर रहे थे। सब की बातें सुनते हुए रास्ता देखते हुए (इस रास्ते के बारे में मैंने जागेश्वर यात्रा में लिखा है) सफर आराम से कट गया और करीब 9.30 बजे में होटल सेवॉय में थी जहां मैंने पहले से ही रहने का इंतजाम करवाया था। वहां अपने पसंदीदा आलू के पराठे खाये और शम्भू जी, जो अल्मोड़ा में ही रहते हैं, के साथ घुमने निकल गई।
जारी........
Thursday, January 1, 2009
एक दिन नैनीताल के प्राणी उद्यान में
नैनीताल का प्राणी उद्यान जिसका नाम भारत रत्न पं. गोविन्द बल्लभ पंत उच्च स्थलीय प्राणी उद्यान है। मैं वैसे तो इस प्राणी उद्यान में पहले भी जा चुकी हूं पर इस रविवार को मुझे यहां जितना मजा आया उतना पहले कभी नहीं आया था।
आजकल उद्यान में काफी भीड़-भाड़ थी जिस कारण जानवर बेचारे यहां-वहां छिपते फिर रहे थे। इस उद्यान की विशेषता है यहां का स्नो लेपर्ड। जिसे देखने के लिये काफी लोग इस उद्यान में आते हैं। मैंने पक्षी के पिंजड़ों से देखना शुरू किया। यहां कई प्रजातियों के पक्षी जैसे - फीजेंट, फाउल, पी-फाउल, ईगल, तोते, तथा कई अन्य प्रजाति के पक्षी हैं जिनमें कुछ यहीं मिलते हैं तो कुछ बाहर से लाये गये हैं और कुछ ऐसे पक्षी हैं जिन्हें संरक्षण के लिये यहां पर रखा गया है।
इन पिंजड़ों की देख-रेख करने वाले ने बताया कि जब सुबह का समय होता है तो बाहर के पक्षी इन पिंजड़ों के पास आ जाते हैं और अंदर के पक्षियों के साथ बातें करते हैं। जिसे सुनकर बड़ा रोमांच महसूस हुआ। इस उद्यान में कई तरह के पेड़-पौंधे भी हैं।
बाघ तो दूर बैठा धूप सेक रहा था और उसने किसी को लिफ्ट नहीं मारी। इसके बाद में आगे बड़ी तो गुलदार अपने पिंजड़े में आराम से बैठा धूप सेक रहा था पर जैसे ही उसने भीड़ को अपनी तरफ आते देखा बेचारा गुस्से में गुर्राता हुआ यहां-वहां चक्कर काटने लगा। उसको उसी हालत में छोड़ के मैं तो हिरन और कांखड़ों को देखने के लिये आगे बढ़ गयी। ये बहुत सीधे जानवर होते है। कभी-कभी ये पास आकर हाथ भी चाट लेते हैं पर यदि हल्ला-गुल्ला हो तो दूर ही रहते हैं।
आगे बढ़ने पर मैंने जंगली भालू को धूप सेकते देखा। भालू दादा इतना मस्त हो के धूप सेक रहा था कि मैं उसे देखती ही रही और खूब फोटो खींचे। उसका धूप सेकने का तरीका देख के ऐसा लग रहा था जैसे वो असली भालू न हो के कोई बहुत बड़ा टेडी बियर हो जिसे किसी चीज से कोई फर्क नहीं पड़ता। उसे करीब 15-20 मिनट निहराने के बाद मैं अपने पसंदीदा स्नो लेपर्ड के देखने चली गई। जैसे ही मैं उसके पास पहुंची ही थी कि पीछे से भीड़ का एक रेला आया और उन्होंने इतना हल्ला मचाया कि वो वहां से भाग गया और पहाड़ी के पीछे जा छुपा। मुझे आज तक यह बात समझ में नहीं आयी कि जब लोग इस तरह के प्राणी उद्यानों में जाते हैं तो वहां जाकर ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं कि उन्हें देख के लगता है कि क्या असल में जंगली ये लोग तो नहीं हैं ? मेरे काफी देर तक इंतजार करने के बाद भी वो बाहर नहीं निकला। मैंने उसे उसकी तन्हाई के साथ छोड़ के आगे बढ़ना ही ठीक समझा।
वहां से मैं सराव के पास आयी। इसका नाम पदमा है। जब इसे यहां लाया गया था तो ये 3 महीने की थी। इसे बकरी का दूध पिलाते थे पर अब ये काफी बढ़ी हो गई है। सराव गधे के कान जैसे तथा बकरी की तरह दिखने वाला जानवर है। इसका बहुत ज्यादा शिकार किये जाने के कारण अब यह संरक्षित प्रजातियों में से एक है। वहां से आगे बड़ी तो बारहसिंघे अपनी मस्ती में घुमते हुए दिखे। बेचारा बार-बार पिंजड़े की जाली से टकरा जाता और उसके बड़े-बड़े सींघ उसमें फंस जाते। सांभर तो दूर से ही दर्शन देकर गायब हो गये।
वापस आते समय मैंने देखा कि कुछ लोग बाघ के पिंजड़े जिसे बिल्कुल बंद करके रखा गया था क्योंकि उन्हें अभी दर्शकों के लिये खोला नहीं है, के बाहर कान लगा के उनके गुर्राने की आवाज सुन रहे थे और बाहर से हल्ला मचा के उन्हें परेशान कर रहे थे। पर हद तो तब हुई जब वो दिवार लांघ के उनके पिंजड़े के पास ही जा पहुंचे। इस बार तो मैं स्वयं को रोक नहीं पाई और डांठते हुए मुझे कहना पड़ा - ये सब मैनईटर हैं अगर नैट तोड़ के बाहर निकल गये तो पता भी नहीं चलेगा तुममें से किसी का। इंसान का इस तरह का व्यवहार सच में बहुत अशोभनीय है।
बहरहाल मैं इन सब के साथ एक बहुत ही अच्छा दिन बिता के वापस आ गई।
इन सब की और मेरी तरफ से सभी को नव वर्ष की शुभकामनायें।
आजकल उद्यान में काफी भीड़-भाड़ थी जिस कारण जानवर बेचारे यहां-वहां छिपते फिर रहे थे। इस उद्यान की विशेषता है यहां का स्नो लेपर्ड। जिसे देखने के लिये काफी लोग इस उद्यान में आते हैं। मैंने पक्षी के पिंजड़ों से देखना शुरू किया। यहां कई प्रजातियों के पक्षी जैसे - फीजेंट, फाउल, पी-फाउल, ईगल, तोते, तथा कई अन्य प्रजाति के पक्षी हैं जिनमें कुछ यहीं मिलते हैं तो कुछ बाहर से लाये गये हैं और कुछ ऐसे पक्षी हैं जिन्हें संरक्षण के लिये यहां पर रखा गया है।
इन पिंजड़ों की देख-रेख करने वाले ने बताया कि जब सुबह का समय होता है तो बाहर के पक्षी इन पिंजड़ों के पास आ जाते हैं और अंदर के पक्षियों के साथ बातें करते हैं। जिसे सुनकर बड़ा रोमांच महसूस हुआ। इस उद्यान में कई तरह के पेड़-पौंधे भी हैं।
बाघ तो दूर बैठा धूप सेक रहा था और उसने किसी को लिफ्ट नहीं मारी। इसके बाद में आगे बड़ी तो गुलदार अपने पिंजड़े में आराम से बैठा धूप सेक रहा था पर जैसे ही उसने भीड़ को अपनी तरफ आते देखा बेचारा गुस्से में गुर्राता हुआ यहां-वहां चक्कर काटने लगा। उसको उसी हालत में छोड़ के मैं तो हिरन और कांखड़ों को देखने के लिये आगे बढ़ गयी। ये बहुत सीधे जानवर होते है। कभी-कभी ये पास आकर हाथ भी चाट लेते हैं पर यदि हल्ला-गुल्ला हो तो दूर ही रहते हैं।
आगे बढ़ने पर मैंने जंगली भालू को धूप सेकते देखा। भालू दादा इतना मस्त हो के धूप सेक रहा था कि मैं उसे देखती ही रही और खूब फोटो खींचे। उसका धूप सेकने का तरीका देख के ऐसा लग रहा था जैसे वो असली भालू न हो के कोई बहुत बड़ा टेडी बियर हो जिसे किसी चीज से कोई फर्क नहीं पड़ता। उसे करीब 15-20 मिनट निहराने के बाद मैं अपने पसंदीदा स्नो लेपर्ड के देखने चली गई। जैसे ही मैं उसके पास पहुंची ही थी कि पीछे से भीड़ का एक रेला आया और उन्होंने इतना हल्ला मचाया कि वो वहां से भाग गया और पहाड़ी के पीछे जा छुपा। मुझे आज तक यह बात समझ में नहीं आयी कि जब लोग इस तरह के प्राणी उद्यानों में जाते हैं तो वहां जाकर ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं कि उन्हें देख के लगता है कि क्या असल में जंगली ये लोग तो नहीं हैं ? मेरे काफी देर तक इंतजार करने के बाद भी वो बाहर नहीं निकला। मैंने उसे उसकी तन्हाई के साथ छोड़ के आगे बढ़ना ही ठीक समझा।
वहां से मैं सराव के पास आयी। इसका नाम पदमा है। जब इसे यहां लाया गया था तो ये 3 महीने की थी। इसे बकरी का दूध पिलाते थे पर अब ये काफी बढ़ी हो गई है। सराव गधे के कान जैसे तथा बकरी की तरह दिखने वाला जानवर है। इसका बहुत ज्यादा शिकार किये जाने के कारण अब यह संरक्षित प्रजातियों में से एक है। वहां से आगे बड़ी तो बारहसिंघे अपनी मस्ती में घुमते हुए दिखे। बेचारा बार-बार पिंजड़े की जाली से टकरा जाता और उसके बड़े-बड़े सींघ उसमें फंस जाते। सांभर तो दूर से ही दर्शन देकर गायब हो गये।
वापस आते समय मैंने देखा कि कुछ लोग बाघ के पिंजड़े जिसे बिल्कुल बंद करके रखा गया था क्योंकि उन्हें अभी दर्शकों के लिये खोला नहीं है, के बाहर कान लगा के उनके गुर्राने की आवाज सुन रहे थे और बाहर से हल्ला मचा के उन्हें परेशान कर रहे थे। पर हद तो तब हुई जब वो दिवार लांघ के उनके पिंजड़े के पास ही जा पहुंचे। इस बार तो मैं स्वयं को रोक नहीं पाई और डांठते हुए मुझे कहना पड़ा - ये सब मैनईटर हैं अगर नैट तोड़ के बाहर निकल गये तो पता भी नहीं चलेगा तुममें से किसी का। इंसान का इस तरह का व्यवहार सच में बहुत अशोभनीय है।
बहरहाल मैं इन सब के साथ एक बहुत ही अच्छा दिन बिता के वापस आ गई।
इन सब की और मेरी तरफ से सभी को नव वर्ष की शुभकामनायें।
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