अब तक अंधेरा गहराने लगा था और रास्ते का कुछ पता नहीं चल रहा था। हम लोग अपने टॉर्च जला कर, सामने वाले की एड़ियों पर नजर टिकाये आगे बढ़ रहे थे। कुछ लोगों को छोड़कर ज्यादातर लोग वायुमंडल में तैर रहे थे और जिस भाषा का इस्तेमाल कर रहे थे, उसे सुनकर शर्म ही महसूस की जा सकती थी। तभी एक बिजली के एक खम्भे पर कुछ रोशनी सी दिखाई दी। पूछा तो पता चला कि बिजली तो गाँव में है, पर सिर्फ नाममात्र को। रात में जलाने तो लैम्प ही पड़ते हैं। पीछे से किसी ने कहा - यहाँ तो हर चीज का हाल ऐसा ही है। हमारी फिक्र किसी को नहीं। हमें क्या पता था कि उत्तराखंड राज्य बन जाने के बाद भी हम लोगों के साथ ऐसा सौतेला व्यवहार होगा।
बातें करते-करते हम लोग एक घर में पहुँचे। लगा कि मंजिल पर पहुँच गये हैं, लेकिन तभी किसी ने कहा यहाँ पर तो बारात को सिर्फ चाय-पानी के लिये ही रुकना है। इस जगह हम लोग थोड़ा सुस्ताये चाय-नमकीन खाई और आगे बढ़ गये। अंधेरे में सब कुछ नहीं दिख रहा था, उस पर से शराबियों की धक्का-मुक्की ने और मुश्किल की थी। कुछ बुजुर्ग युवकों को बार-बार चेता रहे थे कि आतिशबाजी सावधानी से करें। ऐसा न हो कि पेड़ों पर बने घास के किसी लूटे पर आग लग जाये।
खैर गिरते-पड़ते आखिरकार हम लोग लड़की वालों के घर तक पहुँच ही गये। वहाँ भी दिखाने के लिये बिजली तो थी, पर सारे काम पेट्रोमेक्स की रोशनी में हो रहे थे। कुछ देर हम लोग वहीं खड़े-खड़े अनुष्ठान देखते रहे। फिर हम उस जगह वापस आ गये जहाँ हमारे रहने की व्यवस्था की गई थी। हमारे दोस्त ने हमें वापस आते हुए देखा तो आवाज लगा के बोला - आधे में छोड़ के जा रहे हो। कैसे दोस्त हो ? इस पर हमने उसे बोला - तुझे यहां तक लाना था सो ला दिया अब शहीद होने के लिये तुझे अकेले ही आगे बढ़ना होगा दोस्त। हम तो चले। हम जब वापस आ रहे थे तो भी वो बेचारा पीछे से हमें डांठे जा रहा था। पर हम काफी थक चुके थे सो वापस आना मजबूरी भी थी।
जिस घर में हमारे रहने का इंतजाम किया गया था उन्होंने अपना पूरा घर हम लोगों के लिये खाली कर दिया था और साफ-सुथरे बिस्तर का भी इंतजाम था। ये देख के महसूस हुआ कि गाँवों में आज भी अतिथि-सत्कार की परम्परा जिन्दा है। कुछ देर आराम से घर में सुस्तान के बाद हम लोग खाना खाने गये। हलांकि हमसे कहा गया कि हमारे लिये खाना कमरे पर ही ले आयेंगे लेकिन हमें पंगत में सबके साथ बैठ के खाने का मन था इसलिये हम सबके साथ बैठ के खाना खाने चले गये और वहां हम लोगों ने अंधेरे में बैठ के सबके साथ `डार्क लाइट डिनर´ किया।
खाते समय हमें एक ग्रामीण ने द्यूली गाँव के बारे में बताया। इस गांव की कुल जनसंख्या 450 है, जिसमें 300 मतदाता हैं। गाँव में समस्याओं के सिवा कुछ नहीं है। पानी के नल तो हैं पर पानी नहीं है। बिजली की लाइनें हैं, पर बिजली नहीं है। 1985-86 में विद्युत कनेक्शन मिले और 10-12 साल तक बिजली जलाई। पर उससे काम कुछ होता नहीं था और बिल 10-12 हजार रुपयों तक के आ जाते थे। कई बार विभाग से शिकायत की पर कुछ नहीं हुआ। अन्तत: बिजली कटवानी पड़ी। उन्होंने बताया कि गाँव में कोई रुकना नहीं चाहता। सभी लोग शहरों की ओर जा रहे हैं। बस महिलायें, बच्चे और बूढ़े बचे हैं। विकास के नाम पर जहाँ पानी नहीं था, वहाँ डिग्गी बना दी गई, गूलों को सीमेंट-पत्थर डाल कर सुखा दिया। भ्रष्टाचार चरम पर पहुँच गया है। जिस पार्टी की सरकार होती है उसी के लोगों को फायदा दिया जाता है।
दुबरौली से 5-6 किमी. सड़क का तीन बार सर्वे भी हो गया था, पर कुछ लोगों के अड़ंगा लगा देने के कारण निर्माण कार्य अटक गया। इन गाँवों को आपस में जोड़ने वाले खड़ंजों की हालत भी बिल्कुल खस्ता है। पंचायत भवन खस्ताहल हो चुका है। यहाँ कोई मनोरंजन कक्ष नहीं है। स्वास्थ्य संबंधी कोई भी सुविधा यहां उपलब्ध नहीं है। बीमार होने पर अल्मोड़ा या हल्द्वानी ही जाना पड़ता है जो कि बहुत ही ज्यादा मुश्किल होता है।
हमारी यह बातें चल ही रही थीं कि एक सज्जन ने एक गंभीर, पर मजेदार बात बतायीं। गाँव में खडं़जा बनाने के लिये 50 हजार रुपया स्वीकृत हुआ। एक बी.डी.सी. सदस्य ने उनसे मस्टर रौल बनाने को कहा। जब उन्होंने काम के बगैर मस्टर रौल बनाने से इन्कार किया तो तर्क दिया गया कि सभी गाँवों में ऐसा ही हो रहा है। अन्तत: उन्होंने मस्टर रौल बना कर, मजदूरों के आड़े-तिरछे हस्ताक्षर और अंगूठे के निशान चस्पाँ कर उन्हें दे दिया। काम शुरू होते ही सात हजार रुपये का चेक लेने उन्हें ब्लॉक बुलाया पर ढाई हजार रुपया बाबू के पास देन को कहा। तत्पश्चात् काम खत्म होने पर 25 हजार रुपये और दिये गये। 50 हजार रुपये में से उनको सिर्फ 27 हजार रुपया ही दिया गया। इस बातचीत से बहस आगे बढ़ी कि गाँवों के विकास का रास्ता क्या हो। ये सब सुनकर हम लोग कह ही बैठे कि - ये है ग्राम गणराज्य। गांधी जी के सपनों का भारत। आये तो थे शादी देखने पर जो देखा उसकी उम्मीद नहीं थी हम लोगों को।
रात में नींद तो किसी को नहीं आई, इसलिये दूसरे दिन सभी जल्दी उठ कर वापसी की तैयारी करने लगे। पिछली रात कुछ दिखाई न देने के कारण गाँव खतरनाक लग रहा था। मगर सुबह की रोशनी में सारा लैण्डस्केप बेहद खूबसूरत हो गया था।
बारात को विदाई के लिये अभी कई घंटे रुकना था, मगर हमें जल्दी जाना था। अब हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या थी कि वापस किस रास्ते से जाया जाये। हमारे साथ के कुछ लोग पिछले दिन वाले रास्ते से जाने को कतई तैयार नहीं थे। हमने गांव वालों से रास्तों के बारे में पूछा और उतने ही रास्ते हमें सुझा दिये गये। अंत में हमने यही तय किया कि जिस रास्ते आये थे, उसी से जाना ठीक होगा।
कल की तीखी चढ़ाई आज ढलान में बदल कर और भी खतरनाक हो गई थी। मगर चलने लगे तो आपस के हँसी-मजाक में कब उस तीखे ढलान से नीचे उतर गये और कब चढ़ाई को पार कर लिया, पता ही नहीं चला। दोस्त के घर पहुँचे तो लगा जैसे कोई जंग जीत ली हो। पर यह अहसास भी हुआ कि जिस रास्ते ने हमें दिन में तारे दिखा दिये, उस रास्ते को स्थानीय ग्रामीण रोजाना पता नहीं कितनी बार पार करते हैं।
यहाँ से दुबरौली का रास्ता लगभग समतल ही है, इसलिये ज्यादा परेशानी नहीं हुई। हम लोग दुबरोली की प्राइमरी पाठशाला के सामने से गुजरे तो वहाँ की शिक्षिका से बात करने चले गये। उसने बताया बहुत ही कम बच्चे यहाँ पढ़ने आते हैं। बहुत से बच्चों को उनके घर वाले आने नहीं देते और कुछ बच्चे जो आते हैं उनका ध्यान खाने की तरफ ही ज्यादा रहता है। पढ़ाई में किसी का मन नहीं लगता। उत्साही होने के बावजूद उसकी अपनी शिकायतें थी, जैसे यह कि इन बच्चों का उच्चारण साफ नहीं है। इनके बोलने में जो पहाड़ी `लटैक´ आता है, उसे लाख कोशिश के बावजूद ये नहीं छोड़ते। हमारे यह समझाने के बावजूद कि पहाड़ी लटैक को लेकर ऐसा हीनभाव रखने की जरूरत नहीं, यह तो हमारी विशिष्टता है, वह अपने तर्क पर अड़ी रही। उससे कुछ देर बातें करके हम लोग वापस उस जगह आ गये जहां हमारी गाड़ी खड़ी थी।
वापस नैनीताल लौटते हुए हमें एक ही बात महसूस हुई कि इस शादी के बहाने हम उस हकीकत से रु-ब-रु हुए जिसे शायद हम कभी भी नहीं जान पाते।
समाप्त