Saturday, May 23, 2009

मेरी हरिद्वार यात्रा - 2

कुछ देर रेस्ट करने के बाद हम लोग गंगा घाट की तरफ घूमने निकले। गंगा घाट मेरे लिये नये नहीं थे पर फिर भी करीब 12 साल बाद इसे देखना एक अलग अहसास दे रहा था। बहुत कुछ बदल गया था। हमें होटल मैनेजर ने बता दिया था कि आरती के समय बहुत भीड़ रहती है इसलिये दूसरी तरफ जा के यदि आप देखोगे तो ज्यादा अच्छा रहेगा। उसका कहना मानते हुए हमने दूसरी ओर जा कर अपने लिये एक जगह ढूंढी और वहां खड़े हो गये। हर एक मिनट के बाद कोई न कोई कुछ न कुछ लिये सामने पर खड़ा हो जाता। कभी चंदे के लिये, कभी फूलों के लिये, कभी प्यास्टिक चादरों के लिये तो कभी किसी दूसरी चीज के लिये। ये सब देख के थोड़ा चिढ़ भी हो रही थी पर साथ ही यह एहसास भी हो रहा था कि गंगा मां कितनों को पालती है। उसकी इसी महानता के कारण उसके सामने सर श्रद्धा से झुक जाता है। कुछ ही देर बाद आरती शुरू हो गयी। जैसे ही आरती शुरू हुई सब लोग खड़े हो गये और हम कुछ नहीं देख पाये बस सुन रहे थे गंगा मां की आरती।

आरती खत्म होने के बाद कुछ देर चहल कदमी करके हम गंगा के पानी में पैर डाल के बैठ गये और गंगा में बहने वाले दीपों को देखने लगे। यूंही पैर डाले करीब 1 घंटा हम सब लोग सुकून से बैठे रहे और बातें करने लगे। घाट में काफी हलचल थी सब अपने-अपने काम में मशगूल थे। कुछ समय बाद हम वहां से उठे और घाट के किनारे वाले बाजार में चले गये। वहीं एक होटल ढूंढ के खाना खाया और वापस होटल आ गये। आज थोड़ा थकावट भी थी इसलिये सभी लोग आराम से सो गये।

दूसरे दिन सुबह हम पूजा के लिये कुश घाट की ओर निकल गये। मैं जिन पंडित जी को जानती थी उनका तो देहांत हो चुका था इसलिये हमने सोचा की कुश घाट में ही किसी पंडित को ढूंढ लेंगे। हालांकि ये बहुत कठिन काम है पर फिर भी हमारी किस्मत अच्छी रही कि हमें एक 24-25 साल का युवा पंडित मिल गया। उससे हमने अपनी सारी बातें बतायी। उन्होंने हमें सामान कि लिस्ट बतायी और बोला की वो हमारी पूजा अच्छे तरीके से सम्पन्न करवा देगा। और हुआ भी यही उस पंडित ने हमारे सारे काम बहुत अच्छे तरीके से करवा दिये। पर पूजा करते-करते करीब दोपहर के 2 बज चुके थे। गर्मी अपने पूरे शबाब पे थी और अच्छी खासी लू चल रही थी। इसलिये हमने खाना खा कर होटल वापस चले जाना ही बेहतर समझा।

शाम के समय हम फिर बाजार की ओर निकल गये। बाजार देश-विदेशी सभी तरह के यात्रियों से खचाखच भरी हुई थी। आने वाले साल में कुम्भ मेला होने के कारण काफी काम भी चल रहा था इसलिये थोड़ा परेशानी और हो रही थी। सड़कों मे आदमियों की भीड़ इतनी ज्यादा थी कि वाहनों को अपने लिये जगह बना के चलना पड़ रहा था जिसे देख के हमें बहुत अच्छा लगा क्योंकि अकसर तो पैदल चलने वालों को ही वाहनों से बचना पड़ता है। ख्ौर आज हम फिर गंगा घाट की तरफ निकल गये। पूजा कार्य सम्पन्न हो चुकने के कारण हमने सोच रखा था कि आज शाम को हर की पैड़ी में जायेंगे और वहीं से दीप दान करेंगे।

हर की पैड़ी की तरफ जैसे ही जाने को हुए कि कई सारे पंडितों ने हमें घेरना शुरू कर दिया। किसी ने बोला पहले यहां आना पड़ता है नहीं तो काम सफल नहीं होते। किसी ने कहा पहले दीये की पूजा करानी होती है। कोई कुछ तो कोई कुछ ये सब देख के फिर अफसोस हुआ। धर्म के नाम पर भी ठगी। ख्ौर उन सबसे निपटते हुए हम घाट के किनारे चले गये। उसी समय पीछे से एक पंडित ने कहा - माचिस ले लो। मैंने हंसते हुए उससे कहा कि - मैं माचिस नैनीताल से साथ लेकर आयी हूं और दीया जलाने लगी। इतनी देर हुई थी कि फिर एक पंडित ने पीछे से कहा - दीये का मुंह तो उल्टा हो गया। ऐसा नहीं करते। सो हमें जवाब देना ही पड़ा - मन चंगा तो कठौती में गंगा। अंत में जाना तो सब गंगा में ही है। वैसे भी भगवान श्रद्धा देखते हैं न कि दीये का मुंह। और हमने अपने दीये गंगा मां को समर्पित कर दिये। जो कि काफी दूर तक बहते रहे थे। वहां से जब हम पलट रहे थे तो उसी पंडित ने बड़े ही अफसोस के साथ कहा कि - यदि सब आपके जैसा ही सोचने और करने लगे तो हमारा धंधा ही चौपट हो जायेगा। हम क्या करेंगे ? उसकी ये साफगोई हमें अच्छी लगी और उसे दक्षिणा देते हुए हम मंदिरों की तरफ बढ़ गये। फटाफट दर्शन करके घाट के दूसरी ओर आ गये। शाम के समय घाट में काफी हलचल होने लगती है।


आज भी जैसे ही आरती शुरू हुई सामने के लोग उठ गये पर आज मैंन अपने लिये उंचाई वाली एक जगह ढूंढ ली थी जहां से मैं आरती आराम से देख सकती थी। अचानक ही मेरी नजर एक विदेशी जोड़े पर पड़ी जो काफी कोशिश कर रहे थे आरती देखने की पर नहीं देख पाये। मुझे लगा कि ये पता नहीं कहां से आये हैं और इतनी कोशिश कर रहे हैं आरती देखने की। मैं तो फिर भी इसी देश की हूं अत: अतिथि देवो भव की परंपरा को निभाते हुए मैंने अपनी जगह उन्हें दे दी। आरती खत्म होने के बाद आज हम लोग काफी देर तक घाट में घूमने का मजा लेते रहे। एक चीज ने इस बार भी हमें बेहद आहत किया वो थी घाट के किनारे फैली गंदगी। गंगा मां हमारे लिये इतना सब करती है और बदले में हम लोग ही उसे गंदा करते हैं इस बात से बेहद शर्मिंदगी महसूस हुई।

कुछ देर बाद हम लोग बाजार की तरफ निकले। हरिद्वार के बाजार काफी रंग-बिरंगे सामानों से सजे हुए और विविधता भरे दिखायी दिये। कुछ देर बाजार में टहलने के बाद एक रेस्टोरेंट में खाना खाया। होटल वापस आये और सो गये। आज का दिन तो पूरा ऐसे ही निकल गया.....

जारी.....