Monday, June 1, 2009

मेरी हरिद्वार यात्रा - 4

आज शाम को हम थोड़ा जल्दी बाजार निकलने की सोची ताकि बाजार देखते हुए हम बिरला घाट की तरफ जा सके। जब हम बाजार की तरफ निकले एक ठंडाई की दुकान पर रुक गये। हालांकि हम पहले दिन से ही ठंडाई की दुकानों को देख रहे थे पर तब हमें लगा कि शायद ये भांग की दुकान होंगी पर होटल मैनेजर ने बताया कि ये भांग वाली ठंडाई नहीं है। सो आज हम पीने चल दिये। इसे बनाने का तरीका बिल्कुल पारम्परिक है। पत्थर के कटोरे जैसे में लम्बे से बेलन नुमा लकड़ी से सभी हर्बल को अच्छे से घोट-घोट के इसे बनाया जाता है। इसका सबसे अधिक आकर्षण है बेलन के उपर लगा झुनझुना। जो हिलता रहता है और बहुत अच्छी धुन निकालता है। इसे पीना भी उतना ही अच्छा लगा। इसके बाद हम आगे की तरफ बाजार में निकल गये।
बाजारों के बीच से भी कई बाजारें निकल रही थी। कहीं किसी चीज की बाजार तो कहीं किसी चीज की बाजार। अचानक मेरी नजर एक दुकान में पड़ी जिसमें घरों में इस्तेमाल होने वाले कई तरह के सामान मिल रहे थे। उसी दुकान में दरवाजों में लगाये जाने वाले नींबू मिर्च भी मिल रहे थे। वो भी बिल्कुल प्लास्टिक के। मैं तो ये पहली बार देख रही थी इसलिये दुकानदार से पूछ ही लिया - कि क्या इनकी बिक्री भी होती है ? उसने कहा - सबसे ज्यादा तो यही बिकते हैं, वैसे भी आज की बिजी लाइफ में रोज के रोज नींबू मिर्च बदलने का समय किसके पास है। ताजुब्ब है आज के आधुनिक युग में अंध विश्वास का भी बाजारीकरण होने लगा है खैर मुझे इसकी जरूरत तो नहीं थी पर हां फोटो लिये बगैर अपने को नहीं रोक पाई।
वैसे तो अब हरिद्वार में ज्यादातर आधुनिक तरह के होटल ही बन गये हैं पर फिर भी कहीं-कहीं पुराने शिल्प की इमारतें दिख जाती हैं। बाजार में घूमते-घूमते हम कुछ देर के बाद बिरला घाट पहुंच गये। यहां हर की पैड़ी जितनी भीड़ नहीं थी। लोग आराम से गंगा के किनारे बैठ के गंगा का नजारा देख रहे थे। इसके किनारे भी कई छोटे बड़े मंदिर हैं। बिरला घाट में कुछ देर बैठने के बाद हम लोग पुल पार करते हुए दूसरी तरफ से हर की पैड़ी की ओर मुड़ गये।
शाम के समय इन रास्तों में लोगों की हलचल बढ़ गयी थी। काफी लोग घाट के किनारे टहल रहे थे। बहुत से लोग अपने-अपने कामों में भी लगे थे। कोई कान साफ कर रहा था, कोई सेविंग कर रहा था, कोई सिक्के बेच रहा था, कोई फूल माला बेच रहा था कोई रुई बेच रहा था....गंगा जी के रहते हुए सब की रोटी का इंतजाम तो पक्का था। ये सब देख के एहसास हुआ कि हिन्दुस्तान में मंदी का असर इतनी आसानी से तो नहीं पड़ने वाला क्योंकि लोगों ने इतने ढेर सारे रोजगार के विकल्प खोज रखे हैं कि उनपे किसी चीज का कोई असर नहीं पड़ता। काफी हद तक ये अच्छा भी है।


हम लोग एक के बाद घाट पार करते हुए हर की पैड़ी की ओर बढ़ रहे थे। तभी अचानक हम गऊ घाट में पहुंचे। इस घाट के नाम में हमारी नजर इसलिये पड़ गयी क्योंकि उसके नीचे बड़ी सी हाथी की मूर्ति लगी थी और उपर बड़े अक्षरों में लिखा था गऊ घाट।
हर की पेड़ी में आरती देखने वालों की काफी भीड़ इकट्ठा होने लगी थी पर अभी आरती शुरू होने में समय था सो हम आगे की ओर निकल गये और आरती शुरू होते समय वापस आ गये। आज भी हमने अपने लिये एक जगह का जुगाड़ कर लिया और आरती देखी। शाम के समय गंगा घाट का नजारा बहुत खुबसूरत होता है और उसमें चार चांद लगाते हैं गंगा में बहने वाले दिये। आरती के बाद हम फिर से बाजार होते हुए उसी होटल में गये और खाना खा कर वापस होटल आ गये।

अगली सुबह हमने हर की पैड़ी को सुबह के समय देखने की सोची और निकल गये घाट की ओर। आज भीड़ बहुत ज्यादा बढ़ी हुई थी क्योंकि अमावस्या थी। घाट का नजारा सुबह के समय दूसरा ही लग रहा था। स्नान करने वालों की संख्या भी काफी बढ़ी हुई थी और पूरा घाट लोगों से भरा पड़ा था।
हम लोग जल्द ही वहां से वापस आ गये और अचानक ही हमने कनखल जाने का इरादा बना लिया और टैक्सी करके हम कनखल की तरफ निकल गये। ऐसी मान्यता है कि राजा दक्ष ने एक यज्ञ करवाया जिसमें उन्होंने सभी देवताओं को बुलवाया पर शिव को नहीं बुलाया। अपने पति का यह अपमान सती स्वीकार नहीं कर पायी और यज्ञ वेदी में कूद कर अपने प्राण त्याग दिये। उसके बाद शिव उनके शरीर को लेकर पूरे संसार में तांडव करने लगे। और जहां-जहां सती के अंग गिरे वहां-वहां शक्तिपीठ बन गये। कनखल में काफी अच्छे और भव्य मंदिर हैं। हम पहले द्शेश्वर महादेव के मंदिर में गये। इस परिसर के बाहर एक कब्रगाह भी है जिसमें बहुत सारी कब्रें बनी हुई हैं शायद साधुओं की होंगी। मुझे ये जानकारी नहीं मिल पायी।
कनखल से ही कुछ दूरी पे आनन्दयी मां का मंदिर है। इस स्थान में सचमुच काफी आनन्द आता है।

यहीं से कुछ दूरी पर श्री पारदेश्वर महादेव का मंदिर था। इस मंदिर की जो विशेष चीज मुझे लगी वो थी रुद्राक्ष का पेड़ जो मैंने पहली बार देखा। इस पेड़ के चारों बड़े-बड़े शिवलिंग रखे हुए थे।


यहां से हम बाहर निकले ही थे कि मेरे साथ वालों को एक नान-खताई वाला दिख गया और एकदम चिल्लाते हुए बोले - अरे वो नानखताई वाला। अब तो ये दिखती ही नहीं है। बचपन में हम बहुत खाते थे। उनके ऐसा कहने का बाद हम लोग नानखताई वाले के पास चले गये और नानखताई ली। मैंने पहली बार नानखताई खायी और बहुत मजा आया इसलिये कुछ हमने खरीद के रख ली।

अब फिर काफी दिन निकल चुका था और गर्मी बहुत बढ़ रही थी। हालांकि पहले हमने सोचा कि मनसा देवी जा सकते हैं पर जैसे ही मनसा देवी के रास्ते पे पहुंचे हमने अपना इरादा बदल दिया क्योंकि शाम को हमने हरिद्वार को छोड़ना भी था सो हमने खाना और गुलाब जामुन खाकर होटल वापस जाना ही ठीक समझा। शाम के समय हम फाइनल बार घाट की तरफ गये थोड़ी देर गंगा के किनारे बैठे रहे और गंगाजी को निहारते रहे और फिर वापस हो लिये....

समाप्त