Monday, July 26, 2010
अहम स्थान रहा है उत्तराखंड की लोक संस्कृति में शकुनाखरों का
उत्तराखंड की लोक संस्कृति में संगीत का एक अहम स्थान रहा है। यहां के लोक गीत, लोक गाथायें, वाद्य, नृत्य इत्यादि यहां के जीवन का अभिन्न अंग हैं। इन लोक गीत को जब यहां के परम्परागत वाद्यों हुड़का, बादी, औजी, मिरासी, डौर-थाली आदि के तान के साथ जब गाया जाता है तो अद्भुद समां बंध जाता है। यह लोकगीत जीवन के हर पहलू से जुड़े हुए हैं इसी आधार पर इनको कुछ भागों में विभाजित किया जा सकता है जैसे - संस्कार गीत, धार्मिक गीत, ऋतु गीत इत्यादि।
इन्हीं में से एक हैं संस्कार गीत। संस्कार गीतों में प्रमुख हैं शकुनाखर। इन गीतों को प्रत्येक शुभ कार्य जैसे - विवाह, जन्मोत्सवों, जनेउ तथा अन्य प्रकार के सभी शुभ कार्यों से पहले गाया जाता है। शकुनाखर का तात्पर्य होता है 'शगुन के अक्षर'। इन्हें गाने वाली ज्यादातर महिलायें ही होती हैं। इन शकुनाखरों में से कुछ इस प्रकार हैं
शकुना दे शकुना दे काज ए अति नीको
सो, रंगीलो, आंचलो कमलो का फूल
सोई फूल मोलावन्त व
गणेश, रामीचन्द्र, लछीमन, जीवा जनम
आधा अमरू होय।
सोई पाटो पैरी रैणा, सिद्धि बुद्धि सीता देवी
बहुराणी, आयुवन्ती पुत्रवंती होय।
अर्थात : शकुन के अक्षरों से शुभ कार्य की शुरूआत हो, इस रंगीले कपड़े के आंचल में कमल का फूल है, जिसके फलस्वरूप गणेश, राम, लक्ष्मण आदिअमरता की प्रतीक हैं। वही पट नई दुल्हन तुमने भी धारण किया है अत: तुम सीता की तरह सिद्धि बुद्धि आयुष्मती एवं पुत्रवती होओ।
इसी प्रकार जब प्राकृतिक शक्तियों की पूजा की जाती है तो उससे पहले मांगल गीत गाये जाते हैं जैसे -
जो जस देने कुर्म देवता, जो जस देने धरती माता।
जो जस देने खोली का गणेश, जो जस देने मोरी को नारैण
जो जस देने भूमि को भुग्याल, जो जस देने पंचनाम देवता
जो जस देने पितर देवता
तुमारी भाती मा यो कारिज वीर्यो, यो कारिज सुफल फल्यान
अर्थात : हे कुर्म देवता, धरती माता, गणेश देवता, नारायण देव, भूमि के दवेता, भुग्याल एवं पंचदेव, हे सभी पितृदेव, यह कार्य आपको ही समर्पित है आप ही इस कार्य को सफल करें।
इसी प्रकार अग्नि एवं गणपति के लिये भी गीत गाये जाते हैं।
यह गीत यहां की जीवनधारा में रचे बसे हुए हैं जिन्हें आज भी इनके मूल रूप में ही गाया जाता है।
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