Thursday, December 11, 2008

चेन्नई यात्रा - भाग २

तमिलनाडु में सबसे बड़ी परेशानी भाषा की है। लोग तमिल के अलावा यदि कुछ बोलते हैं तो अंग्रेजी। हिन्दी तो विदेशी भाषा जैसी लगती है। सब कुछ घुमावदार पहाड़ी सड़कों जैसी गोल-गोल तमिल में या फिर अंग्रेजी में ही लिखा देख कर कुछ ही दिनों में अजीब सा तनाव होने लगा। कई बार ऐसा लगता जैसे मैं अपने देश में न हो के परदेश पहुँच गयी हूँ। एक जगह जरूर उटपटाँग हिन्दी एक दीवार पर देखने को मिली, 'कप्या यहा धुमपान न करे'। हिन्दी बोलने, सुनने और देखने के लिये मैं बुरी तरह तरस गई थी। इसी दौरान एक रोचक घटना घटी। दाँत दर्द के कारण मुझे वहाँ दंत चिकित्सक के पास जाना पड़ा। मैं अपनी परेशानी अंग्रेजी में महिला चिकित्सक को समझा रही थी कि तभी अचानक पीछे से किसी ने टूटी-फूटी हिन्दी में कुछ पूछा और मैंने भी तपाक से हिन्दी में ही जवाब दे डाला। तब उस महिला चिकित्सक ने मुझे डाँटते हुए से कहा, '' तुम्हें हिन्दी आती है ? तो फिर इतनी देर से मुझसे क्यों अंग्रेजी उगलवा रही थीं ? तुम्हें पता है, मैं यहाँ हिन्दी बोलने के लिये तरस जाती हूँ।'' तब मुझे पता लगा कि वे काश्मीर से वहाँ आयी हैं।

दीवाली के एक-दो दिन बाद की बात है। मैं टी.वी. पर हिन्दी या अंग्रेजी चैनल की तलाश कर रही थी। रिमोट दबाते-दबाते मुझे अंग्रेजी न्यूज चैनल एनडीटीवी मिल गया। उसमें उस समय उत्तराखंड की कोई खबर चल रही थी। जानी पहचानी जगहों का नाम सुन कर मैं खुशी से उछल पड़ी। पर पूरी खबर सुनकर खुशी एक झटके से गायब हो गई, क्योंकि खबर थी सेराघाट की टैक्सी दुर्घटना की, जिसमें कई सारे मासूम लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। इस खबर के अलावा कभी भी उत्तराखंड का नाम सुनने को नहीं मिला।

दक्षिण भारत के लगभग सभी व्यंजनों का आनंद मैंने उठाया और जमकर नारियल का पानी भी पिया। पर फिर भी अपनी रोटी-सब्जी, दाल-भात के लिये जीभ ललचा ही जा रही थी। जिनके साथ मैं वहाँ रह रही थी, वे लोग मेरे लिये बड़ी मेहनत से चपाती तैयार करते थे, पर उसमें वह बात नहीं थी जो अपने यहाँ की रोटियों में होती है। वे मुझसे रोटी और परांठे बनाना सीखना चाहते थे। मैंने उनको फूलती हुई रोटियाँ बना कर दिखाई तो वे ऐसे चौंके पड़े जैसे भारत को ओलम्पिक में स्वर्ण पदक मिल गया हो। बोले ये तो बिल्कुल विज्ञापन वाली रोटी है, हम तो रोटीमेकर से भी ऐसी रोटी नहीं बना पाते। रसोई में उनसे बातें करते-करते मैंने कहा कि मुझे अपना शहर, अपने लोग, अपनी बोली-भाषा बहुत याद आ रही है। तब उन्होंने बताया कि कुछ महीनों पहले उनके पड़ोस में लखनऊ से एक परिवार आया था, पर चार महीनों में ही उनका ऐसा हाल हो गया कि वो लोग वापस चले गये।

जब हम एम.जी.एम. एम्यूज्मेंट पार्क जा रहे थे तो अचानक ही सामने पहाड़ दिखने लगे। मैं खुशी से चौंकते हुए बोली, अरे यहाँ तो पहाड़ भी हैं। हमारे पहाड़ों के मुकाबले ये बहुत ही छोटे थे, मैंने इनका नामकरण 'बेबी पहाड' किया। घर की याद में मुझे माउंट एवरेस्ट जैसे गगनचुम्बी नजर आ रहे थे।

अन्ना जियोलॉजिकल जू में 'इमू' नामक शुतुर्मुग जैसा एक पक्षी देखा। इतने बड़े चिड़ियाघर के लिये मात्र 2 इलैक्ट्रॉनिक गाड़ियों का इंतजाम है, जिनका टिकट लेने के लिये तमाम पापड़ बेलने पड़ते हैं। मेरे साथ, जिनके वहां में रह रही थी उनके दो छोटे बच्चे, एक तीन साल और एक पाँच साल थे, जिनके लिये हमने पूरा टिकट लिया था, ताकि वे आराम से बैठ सकें। पर गार्ड ने जबरन बच्चों को गोद में बिठलाने के लिये हमें विवश कर दिया। हमारी आपत्ति पर उसने कोई ध्यान नहीं दिया। हमारे टिकट के रुपये भी वापस नहीं किये। पर हमारा गुस्सा तब शांत हो गया, जब हम साँपों के पिंजरे में पहुँचे और उसी समय एक कोबरा अपने घड़े से बाहर निकल कर पूरे पिंजरे में चक्कर लगाने लगा और चक्कर लगाते-लगाते उसने अपनी केंचुल उतारनी शुरू कर दी। तब तक चक्कर लगाता रहा जब तक उसने केंचुल पूरा नहीं उतार दिया। केंचुल उतार लेने के बाद वह वापस अपने घड़े में चला गया।
(जारी..........)