Tuesday, December 29, 2009

मेरी दिल्ली यात्रा - 4

कल का दिन बहुत अच्छा बीता था। जैसा कि ट्रेवल एजेंट ने वायदा किया था हमें पूरी दिल्ली दिखाने का। वायदे के अनुसार उसने लगभग पूरी दिल्ली के दर्शन करवा दिये थे। आज हमारा दिल्ली में दूसरा दिन था। सुबह हल्की-हल्की सी धुंध की चादर फैली हुई थी और थोड़ी ठंडी भी ज्यादा थी पर खुशगवार मौसम था। पहले हमने सोचा था कि आज दिल्ली के बाहरी इलाकों को देखा जायेगा पर शाम को अचानक ही नैनीताल वापसी का प्रोग्राम बन जाने के कारण चाणक्यपुरी की नजदीकी जगहों को ही देखने की सोची।

आज की शुरूआत नेशनल रेल म्यूजियम को देखने से करने की सोची। 11 बजे हम लोग वहाँ के लिये निकल गये। हल्की सी धुंध की चादर में लिपटी हुई दिल्ली इस समय बेहद खुबसूरत लग रही थी। दिल्ली का ये रूप मेरे लिये चौंका देने वाला था। एम्बेसी कार्यालयों की शानदार इमारतों को देखते हुए, जिसमें मुझे भूटान एम्बेसी सबसे ज्यादा आकर्षक लगी, हम नेशनल रेल म्यूजियम पहुंचे। इस समय म्यूजियम में बिल्कुल भीड़ नहीं थी। बस कुछ विदेशी सैलानी ही नज़र आये।


हमने अपनी गाड़ी पार्क की, टिकट लिया और म्यूजियम के अंदर चले गये। अंदर जाते ही नज़रें बड़ी-बड़ी रेलों में पड़ी। मेरी लिये रेल कभी भी उत्सुकता का विषय नहीं रही हैं। पर जब यहाँ रेलों का इतिहास जानना और देखना शुरू किया तो रेलों के प्रति मेरी उत्सुकता और मेरा आकर्षण बढ़ गया।

इस म्यूजियम की स्थापना 1 फरवरी 1977 को की गई थी। यह 10 एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है जिसने रेलों के 140 साल पुराने इतिहास को अपने में समेटा है। म्यूजियम में रेल के इंजनों और उनके मॉडलों को रखा गया है। यहाँ फेयरी क्वीन रेल आज भी चालू हालत हालत में है। इसका इंजन 1855 में बना था। इसे गिनीज़ बुक ऑफ बल्र्ड रिकॉर्डस में भी स्थान हासिल है।


 

म्यूजियम में सबसे पहले हम भवन के अंदर बने रेलों के मॉडलों और अन्य चीजों को देखने के लिये गये। यहाँ पुराने समय में रेलों में इस्तेमाल होने वाले फर्नीचर, क्रॉकरी, घड़ियों, लैम्प, सिग्नल, लालटेन, उस समय में मिलने वाले टिकट, पास, पोशाकों से लेकर कई अन्य तरह की चीजों को भी संभाल कर रखा गया है। इस म्यूजियम में भारत के राजा महाराजाओं और अंग्रेजों के समय में इस्तेमाल होने वाली चीजों का भी संग्रह किया गया है। इसे देखना वाकय में अचिम्भत कर देने वाला था। इतना कुछ था देखने और जानने को की कई सारे दिन भी शायद कम पड़ जायें। इसे देखने के बाद हम बाहर रखी रेलों को देखने आ गये।

इस पूरे इलाके को देखने के लिये एक छोटी सी रेल चलती है जो लगभग सभी रेलों के पास से होती हुई गुजरती है। हम भी इस रेल में बैठे और पूरे इलाके का देखा। इस रेल के पास एक बहुत पुरानी `वेट मशीन´ भी लगी हुई हैं जिसमें हमने वेट नापने की कोशिश की पर उस समय वो काम नहीं कर रही  थी। उसके बाद पैदल ही रेलों के पास जा-जाकर उन्हें देखने के लिये चल दिये। यहाँ आकर अचानक ही अहसास हुआ कि जैसे समय बिल्कुल रुक सा गया है और हम उस रुक गये समय को एक बार फिर जी रहे हैं।

रेलों को छूने की इजाज़त होने के कारण हम इनके पास जाकर इनके अंदर झांक रहे थे। कई रेलों के अंदर उस रेल से संबंधित लोगों के पुतले बनाकर भी रखे थे। यह बिल्कुल इतिहास को फिर से जी लेने वाला अनुभव था। हम लोग जब अपनी ही मस्ती में थे और रेलों में चढ़ कर उनके अंदर झांक कर देख रहे थे तभी हमारे साथ वाले की नज़र किसी पर पड़ी और उसने मुझसे कहा - विन्नी वो सामने वाली रेल में लटका हुआ बंदा कुछ जाना पहचाना लग रहा है। क्योकि मैं पहचानने के मामले में थोड़ी अनाड़ी हूं इसलिये उसकी बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और बांकि लोगों के साथ घूमने में लगी रहीं। कुछ देर बाद वो उन सज्जन के साथ वापस आ गया। जब हमारी उनसे मुलाकात हुई तो पता चला कि वो `मयखाना´ ब्लॉग के मालिक मुनीष हैं और हमारे दोस्त ने उनके ब्लॉग में लगी तस्वीरों के कारण उन्हें पहचान लिया। मुनीष के साथ हम लोगों ने थोड़ा रेल म्यूजियम घूमा। फिर हम म्यूजियम में बने एक छोटे से रेस्टोरेंट में कॉफी पीने आये पर कॉफी मशीन खराब होने के कारण हमें कॉफी नसीब नहीं हुई।


उसके बाद मुनीष वहाँ से चल दिये और हम बांकी की रेलों को देखने आगे बढ़ गये। इस जगह आने के बाद एक बात तो मैंने तय कर ली थी कि अगली मैदानी यात्रा रेल द्वारा ही की जायेगी। इस म्यूजियम में पटियाला स्टेट मोनोरेल, सेलून ऑफ प्रिंस ऑफ वेल्स, महराजा ऑफ मैसूर महाराजा ऑफ इंदौर,  इलंक्टिªक लोकोमोटिव सर लिजली विलयम, क्रेन टेंक, कालका शिमला रेल बस के साथ और भी कई सारी रेलें सुरक्षित हालत में रखी गयी हैं। मेरे लिये एक पहिये से चलने वाली रेल को देखना एक अच्छा अनुभव था।


 



 

म्यूजियम में बच्चों के लिये एक छोटा सा पार्क है जिसमें कुछ झूले लटके हुए थे। उन्हें देख कर हमारा मन भी उनमें चढ़ने का हो आया और हम लोग झूलने भी लगे। झूल लेने के बाद नज़र सामने लिखे बोर्ड पर पड़ी, जिसमें लिखा था - सात साल से कम उम्र के बच्चों के लिये। हमने सोचा कि यदि किसी ने डांट दिया तो डांट खा लेंगे और साथ में बोलेंगे कि - हम भी तो बच्चे ही हैं बस थोड़े बड़े हैं।

इस जगह पर एक शानदार वक्त गुज़ारने के बाद हम यहाँ से दूसरी जगह की ओर बढ़ गये...

जारी...