अल्मोड़ा से बिनसर अभ्यारण 30 किमी. की दूरी पर है। बिनसर अभ्यारण्य जाने के लिये हम जिस टैक्सी में बैठे वो तो कमाल थी। टैक्सी सड़क पर चल नहीं उड़ रही थी। हालांकि यह रास्ता बहुत अच्छा है पर ड्राइवर ने तो जैसे कसम खाई थी कि वो धीरे-धीरे नहीं चलेगा। उसे धीरे-धीरे चलने को कहा तो उसने जवाब दिया - मुझे वापस भी तो आना है। यहां तो जंगल का इलाका है और फिर में वापसी में अकेला ही होऊंगा। यहां तो तेंदुए कभी कभी सामने ही दिख जाते हैं और फिर मैं बहुत डर जाता हूं। अपने डर के चक्कर में भाई ने हमारी जान मुसीबत में डाल दी।
खैर हम लोग आगे बढ़ रहे थे और जंगलों के बीच से एक अच्छी सी सड़क जा रही थी। जब हम सेंक्च्यूरी के प्रवेश द्वार में पहुंचे तो हमें वहां पर कुछ टैक्स देना पड़ा शायद 100 रुपया पर अब में भूल चुकी हूं कि ये 100 रुपये सबके लिये था या सिर्फ एक का। खैर ड्राइवर ने हमें बोला कि ये चुंगी हमें देनी होगी। सो हमने टैक्स दे दिया और आगे बढ़ गये।
यहां से रास्ता अच्छा हो गया था और जंगल भी घना हो चला था। इस अभ्यारण्य में बुरांश, जो उत्तराखंड का राजकीय पुष्प है, का जंगल है पर आजकल इनमें फूल नहीं खिले हुए थे। कुछ एक पेड़ों में एक - दो फूल दिख रहे थे। बिनसर में कई तरह के जानवर और पक्षी पाये जाते हैं पर इन्हैं देख पाना थोड़ा मुश्किल ही होता है। आगे बढ़ते हुए एक बहुत प्यारा सा घास का मैदान दिखायी दिया जिसमें कुछ विदेशी सैलानी और कुछ गांव के ही लोग नज़र आये। हमने उसी समय तय कर लिया था कि अगला दिन हम ट्रैक करते हुए इस जगह आयेंगे और कुछ समय यहां पर बितायेंगे।
यहां से रास्ता अच्छा हो गया था और जंगल भी घना हो चला था। इस अभ्यारण्य में बुरांश, जो उत्तराखंड का राजकीय पुष्प है, का जंगल है पर आजकल इनमें फूल नहीं खिले हुए थे। कुछ एक पेड़ों में एक - दो फूल दिख रहे थे। बिनसर में कई तरह के जानवर और पक्षी पाये जाते हैं पर इन्हैं देख पाना थोड़ा मुश्किल ही होता है। आगे बढ़ते हुए एक बहुत प्यारा सा घास का मैदान दिखायी दिया जिसमें कुछ विदेशी सैलानी और कुछ गांव के ही लोग नज़र आये। हमने उसी समय तय कर लिया था कि अगला दिन हम ट्रैक करते हुए इस जगह आयेंगे और कुछ समय यहां पर बितायेंगे।
रास्ता काफी लम्बा था और उस पर ड्राइवर की खतरनाक ड्राइविंग...। हमें अब रैस्ट हाउस पहुंचने की उतावली होने लगी थी। वैस भी सब थक चुके थे और कुछ देर तो आराम करना ही चाहते थे और उस पर भूख के मारे बुरा हाल था। आखिरकार जैसे-तैसे सही सलामत रैस्ट हाउस पहुंच गये।
बुकिंग हम पहले ही करा चुके थे इसलिये आसानी से हमें कमरा मिल गया। जब हमने बुकिंग कराई थी उस समय कोई भी कमरा नहीं लगा था और आज एक भी कमरा खाली नहीं था। यहां ज्यादा बंगाली लोग ही थे। मेरा हमेशा से ही मानना रहा है कि हिन्दुस्तान में सबसे अच्छा घुमक्कड़ बंगाली ही होता है। खैर हम अपना सामान अपने कमरे में ले गये और खाने के लिये पूछा। वहां काम करने वाले ने बताया कि - अभी कुछ देर ही किचन और खुला रहेगा फिर बंद हो जायेगा। इसलिये खाना हो तो जल्दी आओ। एक बात और कही कि - हम खाना कमरे मेें नहीं देते इसलिये आपको डाइनिंग हॉल में ही आना होगा। हम लोग जल्दी से खाने के लिये चले गये और दाल-चावल खाया। जिससे हमारी भूख तो शांत हो गई और फिर कमरे में वापस आकर कुछ देर आराम किया। हमारे कमरे की खिड़की से ही हिमालय को शानदार नज़ारा दिख रहा था पर इस समय हिमालय पर बादल आ चुके थे इसलिये साफ नहीं था।
बिनसर अभ्यारण्य पहुंच कर अच्छा लग रहा था। इस अभ्यारण्य की स्थापना 1988 में हुई। यह 45.59 किमी. स्क्वायर के क्षेत्र में फैला हुआ है। इसके अंदर 9 गांव आते हैं। जिस समय इस अभ्यारण्य की स्थापना की गई, ग्रामीणों द्वारा इसका विरोध किया गया जो आज भी बदस्तूर जारी है क्योंकि इसके बन जाने से उनके जंगलों के अधिकार छिन गये और जंगल से जानवर किसी भी समय गांव के क्षेत्र में आ जाते हैं और फसलों और इंसानों को नुकसान पहुंचाते हैं। बिनसर की पहाड़ियों को झंडी धार पहाड़ियों के नाम से जाना जाता है। यह एक समय में चन्द राआओं की राजधानी हुआ करता था। बिनसर अभ्यारण्य में कई तरह के परिंदे, जानवर और पेड़-पौंधे पाये जाते हैं।
कुछ देर आराम करने के बाद हम जंगल की तरफ घूमने निकल गये। रैस्ट हाउस वाले ने सावधान कर दिया था कि - जंगल में इधर-उधर मत जाइयेगा क्योंकि यह ओपन सेंक्च्यूरी है कहीं से भी कोई आ सकता है। हम एक रास्ते पर आगे बढ़ते चले गये। यह रास्ता ज़ीरो पाइंट को जाता था। पर काफी चल लेने के बाद भी जब हम ज़ीरो पाइंट नहीं पहुंच पाये तो समझ नहीं आया कि वापस हो जायें या आगे ही बढ़े क्योंकि अब सूर्य डूबने लगा था और अंधेरा हो रहा था।
जंगल से कुछ डरावनी सी आवाजे़ भी सुनाई दी और उस सन्नाटे में तो आवाज़ें कुछ ज्यादा ही डरावनी लग रही थी। हम इसी उधेड़बुन में लगे थे कि सामने से दो बंगाली आये और उन्होंने बताया कि ज़ीरो पाइंट यहां से अभी थोड़ा दूर और है पर रात होने लगी है इसलिये आगे न जा कर वापस लौट जाओ। जंगल में रात के समय रहना अच्छा नहीं है। उन की बात मान हम वापस आ गये और रैस्ट हाउस के टैरिस पर चले गये। आकाश चमक रहा था और छोटे-छोटे चमकीले सितारे उसमें बिखरे हुए थे। जिसे देखना बेहद अच्छा लग रहा था और सामने हिमालय की चोटियों में भी चांद की रोशनी पड़ रही थी पर हिमालय बहुत साफ नहीं था इस समय। हम लोग कुछ देर यूहीं टहलते रहे। ठंडी बहुत ज्यादा बढ़ने लगी थी इसलिये हम अपने कमरे में वापस आ गये।
बिनसर सेंक्च्यूरी की एक खास बात और है कि यहां बिजली नहीं है। रैस्ट हाउस की तरफ से दो मोमबत्तियां कमरे में रहती है पर हम अपने साथ खूब मोमबत्तियां लेकर गये थे जिन्हें हमने कमरे में हर जगह जला दिया। रात के समय सन्नाटा इतना अधिक बढ़ गया कि थोड़ा अजीब भी लग रहा था पर अच्छा भी था। लेकिन ठंडी से तो बुरा हाल था उस पर हमें पता चला की यहां आग जलाने की भी मनाही है सो हमारे पास एक ही रास्ता था कि बिस्तर में घुस जायें और गप्पें मारें। 8 बजे रात के भोजन का समय था। सो हम लोग भोजन करने डाइनिंग हॉल आ गये। इस समय डाइनिंग हॉल पूरा भरा हुआ था और कोई संदेह नहीं है कि सबसे ज्यादा बंगाली ही थे जिन्होंने भोजन को लेकर सैकड़ों सवाल पूछे और ये भी कहा कि क्या उन्हें माछू भात नहीं मिल सकता। पर रैस्ट हाउस में शायद शाकाहरी भोजन ही मिलता था सो उनकी फरमाईश पूरी नहीं हो पाई। इस समय यहां पर उम्मीद से कई गुना ज्यादा ठंडी थी और बिजली न होने के हमारा रात्रि भोजन कैंडिल लाइट डिनर की तरह ही रहा। भोजन कर लेने के बाद हम कमरे में वापस लौट आये और गप्पें मारते-मारते सो गये।
जारी...
बिनसर सेंक्च्यूरी की एक खास बात और है कि यहां बिजली नहीं है। रैस्ट हाउस की तरफ से दो मोमबत्तियां कमरे में रहती है पर हम अपने साथ खूब मोमबत्तियां लेकर गये थे जिन्हें हमने कमरे में हर जगह जला दिया। रात के समय सन्नाटा इतना अधिक बढ़ गया कि थोड़ा अजीब भी लग रहा था पर अच्छा भी था। लेकिन ठंडी से तो बुरा हाल था उस पर हमें पता चला की यहां आग जलाने की भी मनाही है सो हमारे पास एक ही रास्ता था कि बिस्तर में घुस जायें और गप्पें मारें। 8 बजे रात के भोजन का समय था। सो हम लोग भोजन करने डाइनिंग हॉल आ गये। इस समय डाइनिंग हॉल पूरा भरा हुआ था और कोई संदेह नहीं है कि सबसे ज्यादा बंगाली ही थे जिन्होंने भोजन को लेकर सैकड़ों सवाल पूछे और ये भी कहा कि क्या उन्हें माछू भात नहीं मिल सकता। पर रैस्ट हाउस में शायद शाकाहरी भोजन ही मिलता था सो उनकी फरमाईश पूरी नहीं हो पाई। इस समय यहां पर उम्मीद से कई गुना ज्यादा ठंडी थी और बिजली न होने के हमारा रात्रि भोजन कैंडिल लाइट डिनर की तरह ही रहा। भोजन कर लेने के बाद हम कमरे में वापस लौट आये और गप्पें मारते-मारते सो गये।
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