आज फिर अपनी डायरी से अलेक्जेंडर पूश्किन की एक कविता लगा रही हूं। इस कविता के अनुवादक हैं कुमार कौस्तुभ
क्या रखा है मेरे नाम में
तेरे लिये ?
खत्म हो जायेगा मेरा नाम भी
जैसे, दूर समुद्र के किनारों से टकराती
लहरों का दुख भरा शोर
जैसे रात में सुनसान जंगल में
कोई आवाज़।
छोड़ जायेगा वह
इस यादगार पन्ने पर
एक बेजान निशान
जैसे किसी कब्र पर
अनजानी भाषा में गढ़ी गई इबारत।
क्या है उसमें ? क्या रखा है
बड़ी देर से
नयी विद्रोही व्याकुलताओं में ?
नहीं दे पायेंगी ये
तेरे दिल को कोमल, साफ यादें।
किंतु, बुरे दिनों में, एकांत में
दुख से लेना वह नाम,
कहना : मेरी याद अभी है
संसार में जिंदा है वह दिल
जहां जी रही हूं मैं.....