कुमाउं के देवीधुरा स्थान में रक्षा बंधन के दिन पत्थर मारने वाला एक मेला मनाया जाता है जिसे बग्वाल कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि देवीधुरा के लोग बावन हजार चौसठ योगनियों के आतंक से बहुत दु%खी रहते थे। उन्होंने मिल कर माँ वाराही से प्रार्थना की कि वह उनको इनसे छुटकारा दिलवायें। माँ ने भी भक्तों की फरियाद सुनी और उन्हें इस आतंक से छुटकारा दिलाया और साथ ही देवी माँ ने मांग की कि प्रतिवर्ष श्रावणी पूर्निमा के दिन पत्थरों की मार से एक व्यक्ति के बराबर रक्त निकले जिससे उन्हें तृप्त किया जाये। तभी से हर वर्ष माँ को खुश करने के लिये इस पत्थर मार मेले के आयोजन किया जाता है।
बगवाल परंपरा का निर्वाह करने वाले महर और र्फत्याल जाति के लोग हैं। इनकी अपनी अलग-अलग टोलियाँ होती हैं जो ढोल-नगाड़ों के साथ मंदिर के प्रांगड़ में पहुँचती है। इनके सर पर कपड़ा, हाथ में लट्ठ और एक ढाल होती है जिसे छन्तोली कहते हैं। इसमें भाग लेने वालों को पहले दिन से ही सातविक व्यवहार करना होता है। देवी की पूजा का दायित्व विभिन्न जातियों का है। फुलारा कोट के फुलारा मंदिर में फूलों की व्यवस्था करवाते हैं। मनटांडे और ढोलीगाँव के ब्राहम्ण श्रावण की एकादशी के अतिरिक्त सभी पर्वों पर पूजन करवा सकते हैं। भैसिरगाँव के गहड़वाल राजपूत बलि के भैंसों पर पहला प्रहार करते हैं।
बगवाल का एक निश्चित विधान होता है। मेले की पूजा अर्चना लगभग आषाढ़ि कौतिक के रूप में एक माह तक चलती है। बगवाल के लिये एक प्रकार का सांगी पूजन एक विशिष्ठ प्रक्रिया के साथ सम्पन्न किया जाता है जिसे परम्परागत रूप से पूर्व से ही संबंधित चारों खाम गहड़वाल, चम्याल, बालिक और लमगड़िया के द्वारा सम्पन्न किया जाता है। मंदिर में रखा देवी विग्रह एक संदूक में बंद रहता है जिसके सामने यह पूजन होता है। यह लमगड़िया खाम के प्रमुख को सौंप दिया जाता है क्योंकि उन्होंने ही प्राचीन काल में रोहिलों के हाथ से देवी विग्रह को बचाया था। इस बीच अठवार का पूजन भी होता है जिसमें सात बकरे और एक भैंस की बलि दी जाती है। पूजा से पूर्व देवी के मूर्ति को संदूक से बाहर निकाल कर स्नान कराया जाता है जिससे लिये पूजारी की आंखों में पहले पट्टी बांध दी जाती है। ऐसा इसलिये करते हैं क्योंकि मूर्ति को निर्वस्त्र देखना अच्छा नहीं समझा जाता है।
श्रावणी पूर्णिमा को देवी विग्रह का डोला मंदिर के प्रांगण में रखा जाता है और चारों खामों के मुखिया इसका पूजन करते हैं। बगवाल युद्ध में भाग लेने वालों को `द्योके´ कहा जाता है। जिन्हें महिलायें आरती उतार कर और पत्थर हाथ में देकर ढोल नगाड़ों के साथ युद्ध के लिये भेजती हैं। चारों खामों के योद्धाओं के मार्ग पहले से ही सुनिश्चित कर दिये जाते हैं। मैदान में पहुंचने के स्थान व दिशा चारों खामों की अलग-अलग होती है। लमगड़िया खाम उत्तर की ओर से, चम्याल खाम दक्षिण की ओर से, बालिक पश्चिम से और गहड़वाल खाम पूर्व की ओर से मैदान में आते हैं।
दोपहर तक चारों खाम देवी के मंदिर के उत्तरी द्वार से प्रवेश करती हुई परिक्रमा करती है और मंदिर के पश्चिम द्वार से बाहर निकल जाती है। फिर मंदिर के प्रांगण में अपना-अपना स्थान घेरने लगते हैं। दोपहर में जब सारी भीड़ इकट्ठा हो जाती है तो मंदिर के मुख्य पुजारी बगवाल शुरू करने की घोषणा करते है। इसके साथ ही चारों खामों के मुखियाओं की अगुवाई में पत्थरों की वर्षा शुरू हो जाती है। जैसे युद्ध अपने चरम पर पहुँचता है ढोल नगाड़ों के स्वर भी ऊंचे हो जाते हैं। प्रत्येक दल के लोग अपनी-अपनी छन्तोली से अपनी सुरक्षा करते हैं। इस बीच जब मुख्य पुजारी को जब यह अहसास हो जाता है कि एक नर के जितना रक्त बह गया होगा तो वह मैदान के बीच में जाकर बगवाल के समाप्त होने की घोषणा करते हैं और उनकी घोषणा के बाद युद्ध को समाप्त मान लिया जाता है। युद्ध समाप्त होने के बाद चारों खामों के लोग आपस में गले मिलते हैं। और प्रांगण से विदा होने लगते हैं। उसके बाद मंदिर में पूजा होती है। ऐसा कहा जाता है कि इस पत्थर वर्षा में जो लोग घायल होते हैं उनका इलाज मंदिर परिसर में पायी जाने वाली बिच्छू घास से किया जाता है। इसे लगाने के बाद घाव शीघ्र भर जाते हैं।
पहले जो बगवाल होती थी उसमें छन्तोली ¼छत्री½ का प्रयोग नहीं किया जाता था परन्तु सन् 1945 के बाद से इनका प्रयोग किया जाने लगा। बगवाल में निशाना साध कर पत्थर मारना पाप माना जाता है। दूसरे दिन संदूक में रखे देवी विग्रह की डोले के रूप में शोभायात्रा निकाली जाती है। और इस तरह बगवाल मेला सम्पन्न हो जाता है।