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Tuesday, July 26, 2011

एक छोटी सी ट्रेकिंग

कल मैं नैनीताल से कुछ दूर एक गांव की ओर ट्रेकिंग पर निकल गयी थी। हालांकि मौसम धुंध भरा था पर तेज बारिश नहीं थी इसलिये जाने में बुराई तो नहीं थी पर ये जरूर था कि शायद घने धंुध में अच्छी तस्वीरें न मिलें पर फिर भी कभी-कभी धुंध में भी कुछ तस्वीरें मिल ही जाती हैं।

जहां ट्रेकिंग के लिये गई वहां एक छोटा सा गांव था। गांव को पार करते हुए जब जंगल की तरफ निकले तो कुछ ऐसा दिखा जिसकी उम्मीद नहीं थी। उंची पहाड़ी पर स्थानीय मंदिर, जिसके बारे में बाद में पता चला कि वो भूमिया देव का मंदिर है जो गांव की भूमि और जानवरों की रक्षा करते हैं। इस मंदिर से कुछ आगे निकले तो एक बेहद पुराना खंडहर दिखायी दिया। सूनसान जंगल में घने धुंध के बीच वो खंडहर भूतहा इमारत जैसा लग रहा था। जब उसके पास जाकर देखा तो वो ब्रिटिश जमाने की भव्य इमारत लगी जो अब बुरी तरह टूट चुकी थी और इसके अंदर घनी झाडि़यां उग आयी थी। जिस कारण इसके अंदर जाना तो संभव नहीं हुआ पर बाहर से इसकी कुछ तस्वीरें जरूर ले ली। इस खंडहर के बारे में कोई भी जानकारी किसी से नहीं मिल पाई सो कुछ बता पाना तो मुश्किल है पर हां इतना जरूर है कि यह खंडहर लगभग 100 साल से ज्यादा पुराना तो होगा ही। यहां पर इसी छोटी सी ट्रेकिंग की कुछ तस्वीरें...








Saturday, November 20, 2010

एक छोटी सी ट्रेकिग - 2

यह ट्रेकिंग करीब दो साल पहले की है जब मैं और मेरे कुछ दोस्तों ने अचानक ही बज्यून जाने का प्लान बना दिया। बज्यून नैनीताल से करीब 11 किमी. दूर है और सड़क खत्म हो जाने के बाद जब अन्दर गांवों की ओर पैदल ट्रेकिंग की जाये तो ऐसा लगता है कि पुराने वक्त में पहुंच गये हैं जहां सब कुछ थम सा गया है। बज्यून माने चिड़ियां देखने वालों की जन्नत भी है। मेरे जैसे लोगों के लिये यहां पर बहुत कुछ मिल जाता है देखने को। बज्यून को बर्ड वाॅचिंग के लिये इंटरलेशनल मैप में भी जगह मिली है। किसी भी बर्ड वाॅचर की तमन्ना होती है कि वो यहाँ आकर बर्ड वाॅचिंग करे। मेरी भी थी पर कभी वहां जाने का मौका नहीं मिला। इस बार मेरी खुशकिस्मती थी कि मुझे वहां जाने का मौका मिल गया पर मौसम कुछ ऐसा था कि चिड़ियाऐं देखने का ज्यादा अवसर नहीं मिल पाया।

हमें निकलने में देरी हो गयी थी इसलिये यह फैसला किया कि सड़क तक का रास्ता हम लोग अपनी गाड़ी से तय करेंगे और वहां से आगे पैदल निकलेंगे। जिस समय हम निकले उस समय बारिश हो रही थी और पूरी घाटी धुंध की हल्की चादर में लिपटी हुई थी। जिसे देख कर मुझे थोड़ा मायूसी भी हो रही थी क्योंकि कुछ भी दिख नहीं रहा था। बज्यून जाते हुए रास्ते में खुर्पाताल भी पड़ता है। यह झील ऊपर से देखने में बहुत अच्छी लगती है पर धुंध होने के कारण हम इसे देख नहीं पाये। हम लोग एक-डेढ़ घंटे में बज्यून पहंुच गये। वहां सड़क के किनारे बनी एक दुकान में कुछ समय के लिये रुके क्योंकि बारिश काफी तेज हो गयी थी। हमने दुकान में बैठकर चाय समोसे खाये और बारिश के रुकने का इंतजार किया। दुकान में छोटे-छोटे बच्चे भी बन टिक्की, चाउमिन जैसी अपनी पसंद की चीजें खा रहे थे। जब दुकान में कई सारे बच्चे आने लगे तो हमने उनसे पूछ ही लिया कि वो आज छुट्टी वाले दिन कहां से आ रहे हैं ? एक बच्चे ने बताया - आज इतवार होने के कारण वो लोग सुबह 4-5 बजे के लगभग ही सामान बेचने के लिये बाजार चले गये थे। अभी वहीं से वापस आ रहे हैं और अब नाश्ता कर रहे हैं। बच्चों की मेहनत देख कर अच्छा लगा पर क्या यह उनकी उम्र है इतना काम करने की ? लेकिन गांव के बच्चे ऐसे ही होते हैं बहुत मेहनती...
काफी देर तक भी जब बारिश नहीं रुकी तो हम बारिश में ही पैदल निकल गये। इस रास्ते के शुरू होते ही एक गोलू देवता का मंदिर है। करीब 2 किमी. चल लेने के बाद बारिश रूकी और मौसम बिल्कुल खिला-खिला सा हो गया। रास्ते से नीचे देखने में एक खूबसूरत सा गांव नज़र आया बरसात का मौसम होने के कारण बिल्कुल हरा-भरा दिख रहा था और अभी मौसम खिला ही था जो उस गांव की खूबसूरती को और बढ़ा रहा था। 
बज्यून का यह रास्ता जिम कार्बेट के भी पसंदीदा रास्तों में से एक रहा है। वो अकसर इसी रास्ते से कोटाबाग पैदल आया-जाया करते थे। रास्ते में हमें कई सारे गांव के लोग मिले जिनसे हमने खूब बातें की।
बज्यून का रास्ता बहुत ही अच्छा है और ट्रेकिंग के लिये परपफेक्ट है। इस रास्ते में जोंक भी नहीं थी पर काफी जगहों में पहाड़ धसके हुए थे। बज्यून जाकर ऐसा लगा जैसे किसी पुराने जमाने में आ गये हैं। लोग अभी भी घोड़ों से सवारी करते हैं और घोड़ों से ही सामान लाते-ले जाते है। यहां पर भी हमें कुछ स्कूली भी दिखे। जो  मंडी से घर वापस लौट रहे थे। हमें इस बात के लिये बेहद अफसोस भी हुआ की एक ओर जहां जमाने ने इतनी तरक्की कर ली वहीं दूसरी ओर आज भी यह लोग अभी तक भी इतनी कठिन परेशानियों का सामना कर रहे हैं। अभी तक भी वहां कोई अस्पताल नहीं है। बच्चों के लिये अच्छे स्कूल भी नहीं है। और औरतों को उसी तरह काम करना पड़ता है। पता नहीं हमारा विकास किसी गली में जाता है।  
इस रास्ते में आजकल कई पहाड़ी पानी के सोते फूट रखे थे। यह रास्ता आगे पफगूनियाखेत और रौखड़ गांवों को जाता है पर देर हो जाने के कारण हम थोड़ा आगे तक ही गये। वहां एक गांव की दुकान में हमने चाय पी। उस दुकान के सामने एक काला घोड़ा बंधा हुआ था जो ब्लेक ब्यूटी उपन्यास के घोड़े की याद दिला रहा था। हमने उसे एक बन खिलाया जिसे उसने बड़े प्यार से खा भी लिया। वहीं पर मुझे बहुत सारी चिड़िया देखने को मिली। वहां से हम लोग वापस लौट गये...

Thursday, November 4, 2010

एक छोटी सी ट्रेकिंग

17 अक्टूबर 2010 को मुझे अचानक ही नैनीताल के नज़दीकी गांव गेठिया जाने का मौका मिला। मेरे आफिस में काम करने वाले एक साथी के घर का गृह प्रवेश था और उसने अपने घर बुलाया था। नैनीताल से कैंट एरिया तक हम लोग गाड़ी से गये और फिर वहां से नये बने रास्ते से गेठिया की ओर कट गये। यह रास्ता बेहद खतरनाक है। बिल्कुल 90 डिग्री में बना हुआ पर गाड़िया इस रास्ते में ध्ड़ल्ले से चलती हैं। इस रास्ते पर आगे बढ़ने पर बारिश से हुई तबाही के निशान भी दिखते जा रहे थे। जब हम हल्द्वानी जाने वाली रोड में पहुंचे तो वहां पर पहचान के एक सज्जन खड़े थे जिनके साथ हमें अपने साथी के घर तक जाना था। जहां हमने गाड़ी रोकी वहां भी सड़क नीचे को धंसी हुई थी। इस बार की बरसात में जमीन अंदर से ही कुछ इस तरह हिली कि जैसे किसी ने जमीन को अंदर से ही चीर दिया हो।

खैर यहां से हम लोग पैदल ही एक खड़ंजे जैसे रास्ते पर नीचे की ओर चल दिये। पहले से खड़ंजे मिट्टी पत्थर के होते थे जिनमें पानी के कटने के लिये रास्ते बनाये जाते थे पर अब खड़ंजे सीमेंट बना दिये जाते हैं जिनमें पानी के कटने के लिये कोई जगह नहीं है। यही कारण है कि थोड़ी सी बारिश में भी भीषण तबाही हो जाती है। खैर इस रास्ते में अच्छी खासी हरियाली छायी हुई थी और रास्ते के इधर-उधर छोटे-छोटे मकान थे। मकान छोटे जरूर थे पर सब लेंटर वाली छत के मकान थे जिनका पहाड़ों में बनाये जाने का कोई तुक नहीं होता है। खैर हम लोग आगे बढ़ ही रहे थे कि मेरे एक साथी की नज़र बेल में लगी एक ककड़ी पर पड़ी और मुझसे बोले - यार ! बेल में बड़ी अच्छी ककड़ी लगी है। अगर मैं बच्चा होता तो पक्का इसे चोर के ले आता। मैंने भी कह दिया कि - चलो ! बचपन को याद कर ही लेते हैं और अगर दूसरी जगह कहीं ककड़ी मिले तो हाथ साफ कर ही लेंगे पर बदकिस्मती से दूसरी जगह ककड़ी मिली नहीं।



इसी रास्ते में एक पुराना सा मकान था जो पूरी तरह खंडहर हो चुका था। सर ने बताया कि - ये नीम करौली बाबा का मकान है। वो पहले यहीं आये थे और फिर यहां से कैंची धाम चले गये थे।

हम लोग आगे को बढ़ ही रहे थे कि दो रास्ते कट गये। एक रास्ता पुनी गांव को गया और दूसरा कुरियागांव को। हमें कुरियागांव को जाना था इसलिये हमने अपना रास्ता बदला और दूसरे रास्ते पर आ गये। इस रास्ते पर थोड़ा आगे पहुंचते  ही काफी बड़े और फैले हुए खेत नज़र आये जिन्हें देखकर तबीयत खुश हो गयी। ये बड़े-बड़े खेत इस छोटे से पहाड़ी इलाके में अचानक ही अपनी ओर ध्यान खींच रहे थे। मैंने कहा - कितने अच्छे खेत हैं। यहां इन खेतों के पास कितना अच्छा लग रहा है। मेरी बात से सभी सहमत थे। यहां से कुछ ही देर बाद ही हम लोग अपने दोस्त के घर पहुंच गये।


उसके घर में काफी चहल-पहल थी। हम लोगों के जाते ही वो पीने के लिये स्रोत का पानी लेकर आया। थोड़ी देर उससे उसके गांव के बारे में बात की तो उसने बताया - यहां पानी की बहुत परेशानी है। मुश्किल से पीने के लिये ही पानी मिल पाता है। सिंचाई करने के लिये पानी नहीं होने के कारण खेती सिर्फ बरसात के महीने में ही होती है। हालांकि मैंने वाॅटर हारवेस्टिंग के लिये कहा पर सबका नजरिया उदासीन ही रहा। खैर चाय पीने के बाद हम लोग खाने के लिये पंगत में बैठ गये। खाना वाकय अच्छा था। घर के कुटे चावल और सेम की दाल। मेरा पसंदीदा खाना। हमने देखा कि लगभग हर मकान का बरामदा थोड़ा-थोड़ा नीचे की तरफ धंसा हुआ था इसलिये खाने के बाद हमने गांव वालों से जानना चाहा कि जमीन नीचे की ओर खिसकी हुई क्यों दिख रही है ? उन्होंने बताया - नीचे जो नाला बहता है वो लगातार मिट्टी को काट रहा है जिस कारण जमीन बैठती जा रही है।

हमारा साथी हमें अपना पुराना मकान दिखाने ले गया जो लगभग 100 से ज्यादा साल ही पुराना था। जिसे शहरी भाषा में हैरिटेज बिल्डिंग भी कहा जा सकता था। यह असली पहाड़ी मकान का नमूना था और शायद यही कारण भी था कि इतने सालों से टिका हुआ था। वहां से वापस लौटते हुए हम अपने एक और साथी के घर भी गये। उसके घर का बरामदा भी ध्ंासा हुआ था। हम जैसे ही उसकी मां से मिले उन्होंने कहा - सिंचाई नहीं हो पाती इसलिये खेती भी नहीं हो पाती है। बरसात में तो पानी हो जाता है पर गर्मियों में तो सिंचाई के लिये सबकी बारी लगती है। हम लोगों ने नालों में पाइप डाले हुए हैं पर वहां से पानी ऊपर खिंचने में बहुत परेशानी होती है। उन्होंने हमसे थोड़ी सब्जी ले जाने का अनुरोध भी किया जिसे हम उस समय मान नहीं पाये। उसके घर से वापस लौटते हुए हमने देखा कि रास्ते में कई जगह दरारें पड़ी थी और जमीन भी टेढ़ हुई थी जो इसी बरसात कि निशानी थीं। रास्ते में एक पहचान के सज्जन का घर भी था सो हम उनके घर भी चले गये। उनके मकान का बरामदा भी धंसा हुआ था। कुछ देर उनके साथ बैठने के बाद हम सड़क कि ओर वापस लौट लिये जहां हमारी गाड़ी खड़ी थी। नैनीताल को ऊपर से ही देखने में यह बात महसूस नहीं की जा सकती है कि नैनीताल से थोड़ी दूरी में ही इतने सुन्दर गांव बसे हुए हैं।

हम जिस रास्ते से आये थे और जिस रास्ते से अब वापस जाने वाले थे उस रास्ते में लिखा था - यह पैदल मार्ग है। पर उसमें गाड़िया खुलेआम चलती ही हैं। कुछ देर बाद एक अच्छा दिन बिता के हम भी उसी सड़क से वापस नैनीताल आ गये...

Tuesday, August 25, 2009

मेरी कॉर्बेट फॉल की यात्रा

कॉर्बेट फॉल की मेरी यह यात्रा करीब 4 साल पहले की है। इस यात्रा की प्लानिंग भी अचानक ही दोस्तों के साथ बनी थी और अकसर अचानक में बने हुए ऐसे ही प्लान्स मजेदार भी होते हैं।

सुबह 6 बजे अचानक ही मेरी दोस्त का फोन आया और वो बोली की - विन्नी बहुत समय हो गया हम लोग कहीं भी बाहर घुमने नहीं गये हैं। आज छुट्टी है कहीं जा सकते हैं क्या ? पहले तो मुझे भी समझ नहीं आया कि आखिर एक दिन के लिये कहां जायेंगे पर अचानक ही मेरे दिमाग में कॉर्बेट फॉल का खयाल आ गया और फिर अपने बांकी के दोस्तों को भी बता दिया और सब एक स्पॉट पर मिल गये।

सुबह 9 बजे हम लोग कॉर्बेट फॉल के लिये निकल गये। नैनीताल से कॉर्बेट फॉल जाने के लिये मल्लीताल से रास्ता जाता है जो कालाढूंगी को जाता है। उसी रास्ते में कॉर्बेट फॉल भी पड़ता है। कालाढूंगी को जाने वाला यह रास्ता है बड़ा ही अच्छा। यहां से घटियों के बहुत अच्छे सुंदर नजारे देखने को मिलते हैं।

इसी रास्ते में खुर्पाताल नाम की झील भी पड़ती है। जो कि एक समय में एंग्लिंग के लिये काफी प्रसिद्ध थी। इस झील में बहुत अच्छी मछलियां है। इस झील का नजारा ऊपर से देखने में बहुत ही खुबसूरत दिखता है। झील के पास से निकलते हुए हम लोग आगे बढ़ गये। यहां से ही कुछ दूरी पर पानी का एक बड़ा सा झरना है जो सैलानियों के लिये खासे आकर्षण का विषय बना रहता है। इस झरने में बारिश के मौसम में काफी पानी बढ़ जाता है और गर्मी के मौसम में पानी कम हो जाता है। आजकल तो इसमें ठीक-ठाक पानी था। करीब एक डेढ़ घंटे में हम लोग कॉर्बेट म्यजियम में थे। कॉर्बेट म्यूजियम जो कि एक समय में जिम कॉर्बेट का घर हुआ करता था जिसमें वो सर्दियों के समय में अपनी बहन मैगी के साथ रहा करते थे। उनके इस आवास को बाद में कॉर्बेट म्यूजियम बना दिया गया। इस म्यूजियम के अंदर जिम से जुड़ी ही सभी चीजों को संभाल कर रखा गया है। यहां तक की जिम के अपने हाथों से बनाये कुर्सी मेज तक को भी इस म्यूजियम में संभाल के रखा गया है। इस म्यूजियम से कुछ दूरी पर ही कॉर्बेट के कुत्तों की कब्र भी बनी हुई है जो जिम के साथ शिकार में जाया करते थे।
म्यूजियम में अच्छा समय बिताने के बाद हम लोग कॉर्बेट फॉल वाले रास्ते में निकल गये। जो कि वहां से कुछ ही दूरी पर है। कॉर्बेट फॉल पहुंचने के लिये लगभग 2-3 किमी. का एक पैदल रास्ता तय करना पड़ता है। इस रास्ते में अच्छा खासा जंगल है। और कई तरह के हर्बल पेड़े-पौंधे भी यहां पर मिल जाते हैं। करी पत्ता की तो बहुत ही झाड़ियां इस रास्ते में है जिसे हम अपने घर के लिये भी लेकर आये।

इस रास्ते को बहुत अच्छा बनाया गया है और इसका प्राकृतिक सौंदर्य के साथ कोई छेड़-छाड़ नहीं की गई है। बीच-बीच में छोटी-छोटी पानी की जलधाराओं को पार करने के लिये जो लकड़ी के पुल बनाये गये हैं उन्होंने तो मुझे खासा आकर्षित किया। इस रास्ते में काफी पैदल चले जाने के बाद अचानक ही हम लोगों की नजरों के सामने कॉर्बेट फॉल था। आजकल इसमें पानी में काफी था सो कुछ ज्यादा ही विशाल नजर आ रहा था। झरने के देखते हुए हम लोगों की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। इससे पहले तक कॉर्बेट फॉल को चित्रों में ही देखते थे पर अभी वो नजारा हमारी नजरों के सामने था।

बिना कोई समय गंवाये हम सब लोग झरने के नजदीक चले गये और पानी में खेले बगैर तो हममें से कोई भी मानने वाला था नहीं इसलिये काफी देर तक पानी में खेलते रहे। उसके बाद कुछ देर तक हम लोग झरने के आसपास का इलाका घूमते रहे और झरने के उपर की तरफ जाने लगे। तभी हमारे एक दोस्त ने ऐसा करने के लिये मना कर दिया क्योंकि वहां काफी फिसलन थी। हमें भी उसकी बात सही लगी इसलिये वो खयाल हमने छोड़ दिया। इस जगह आकर हमें एक बार फिर यह एहसास हुआ कि प्रकृति कितनी सुंदर होती है और उसमें पता नहीं क्या जादू होता है कि पलभर में ही हमारे सारे तनाव सारी परेशानियों को गायब कर देती है। एक खुशनुमा दिन इस जगह पर बिताने के बाद हम लोग वापस नैनीताल की ओर लौट लिये किसी और दूसरी यात्रा में जाने के लिये...



Friday, June 12, 2009

एक छोटी सी ट्रेकिंग ऐसी भी - 2

किलबरी बाले रास्ते में तो हम लोग सिर्फ अपने जूतों को ही देखते रहे क्योंकि आजकल इस रास्ते में बेतहाशा जोंके भरी पड़ी थी और वो अपने पूरे घर-खानदान के साथ हमसे जंगल की चुंगी वसूलने के लिये तैयार बैठी हुई थी। हमने भी यही सोचा कि उनके इलाके में आये हैं तो चुंगी तो देनी ही पड़ेगी। खैर जोंके झाड़ते-झाड़ते हम लोग आगे बढ़ रहे थे और साथ में प्लानिंग भी कर रहे थे कि अगली बार कभी ऐसे मौसम में आये तो अपने जूतों में नमक-तल की मालिश करके लायेंगे और मोजों को तम्बाकू के पानी में भिगा के लायेंगे ताकि अपने ही जूतों को देखने के अलावा थोड़ा यहां-वहां भी देख लें।

हम लोग इस रास्ते पर थोड़ा आगे बड़े ही थे आसपास के गांवों से आने वाले कुछ लोगों ने बताया कि किलबरी का रास्ता बहुत ही ज्यादा खराब हो रखा है इसलिये हमने समझदारी इसमें ही समझी की किलबरी को छोड़ कर पंगूट की तरफ निकल जाया जाये। बरसात का मौसम होने के कारण रास्ते में कई जगह पानी के सोते निकले हुए थे। इन सोतों के पानी के आगे तो बिसलरी-विसलरी भी कुछ नहीं है। हम इन सोतों से ही अपनी पानी की बोतलें भर रहे थे। वैसे तो इन जंगलों में अभी भी काफी हर्बल पौंधे हैं लेकिन अब लोगों ने इनको उजाड़ना भी शुरू कर दिया है जिस कारण शायद आने वाले समय में इनकी संख्या में कमी भी होती जाये। जोंकें अभी भी हम लोगों को परेशान किये जा रही थी। हर पांच मिनट में हम लोग अपने पैरों से 4-5 जोंकों को तो निकाल ही रहे थे।

रास्ते में आसपास के गांव के कुछ लोग ही किसी किसी समय चलते हुए नजर आ रहे थे। इसी बीच हल्की-हल्की बूंदा-बांदी भी शुरू हो गई। पर हमारी किस्मत अच्छी थी कि ज्यादा तेज बारिश नहीं हुई। इसलिये हम लोग आगे बढ़ते रहे। करीब 1-2 घंटे बाद हम लोग पंगूट पहुंच गये। यहां पर हम लोग बैठ के थोड़ा सुस्ता ही रहे थे कि हमारी नजर हमारे साथ वाले के पैर में पड़ी जो कि खून से लथपथ था। जब हमने उसका पैर देखा तो पता चला की एक जोंक उसके पैर में बहुत गहरे तक घुसी हुई है और बुरी तरह उसके पैर को काट लिया है। इस जोंक को जब बाहर निकाला तो वो फूल के बिल्कुल कुप्पा हो रखी थी।
जोंक की यह फोटो साभार गुगल
हम अपने इसी काम में लगे ही हुए थे कि एक अंग्रेज महिला अपने दो बच्चों के साथ हमारे पास आ गयी। जोकों को देख कर उसे जो ताजुब्ब हुआ वो तो उसके चेहरे पर साफ नजर आ ही रहा था पर सबसे ज्यादा मजा तो तब आया जब उसने अपने बच्चों को जोंक दिखाते हुए कहा - `हाउ इन्ट्रस्टिंग´ और उसके बाद वो हंसते हुए चली गयी। हमारे जिसे दोस्त के पैर में जोंक ने बहुत जोर से काटा था उसने हम लोगों की तरफ देखते हुए बोला - यहां हमारी जान जा रही है और आंटी को ये सब इंन्ट्रस्टिंग लग रहा है। यहां पर आराम से बैठ के हमने अपने साथ में लाया हुआ खाना खाया और बातें करने लगे। किलबरी नहीं जा पाने की थोड़ी हताशा तो थी लेकिन फिर हम नैनीताल की ओर वापस लौट लिये।

आते समय हमने एक सड़क वाला रास्ता पकड़ा जिसमें हम जोंको के आतंक से बच गये। यहां से नैनीताल की दूरी करीब 11-12 किमी. की थी। यहां से हम थोड़ा यहां-वहां भी देख सके। कभी-कभी सड़क के दोनों ओर घने जंगल आ जा रहे थे तो कहीं से घाटियां दिख रही थी और कहीं से नजदीक के गांव नजर आ रहे थे। इन जंगलों में कई तरह की चिड़ियों की प्रजातियां है जिनमें से हमें हिमालयन वुड पैकर, लाफिंग थ्रस, मिनिविट, बुलबुल ही दिखायी दी। कहीं-कहीं पहाड़ी चट्टानों पर बुरांश के छोटे-छोटे पेड़ उग आये थे जिनमें से दो-एक पेड़ मेरे साथ वाले निकाल के अपने घर में लगाने के लिये लेकर भी आये।

हम लोग अपने हंसी मजाक के साथ आगे बढ़ रहे थे और वापस स्नोव्यू पहुंच गये। इस स्नोव्यू में दूर-दूर तक भी हिमालय का नामोनिशान नहीं था। यहां से हम सब लोगों को अपने-अपने रास्तों में जाना था इसलिये हम लोगों की एक छोटी सी बहस इस जगह भी शुरू हो गयी कि कौन सबसे ज्यादा चला ? और जब अच्छे से सोचा गया तो पता चला कि मेरा घर ही सबसे दूरी पे है तो मैं ही सबसे ज्यादा चलने वालों में नं वन रही और दूसरा नं मेरी दोस्त जो मेरे साथ स्टेशन से आयी थी उसका रहा। इस जगह से हम लोगों ने आपस में सबसे विदा ली और अपने-अपने घरों को चल दिये।

समाप्त



Wednesday, June 10, 2009

एक छोटी सी ट्रेकिंग ऐसी भी - 1

मेरी यह ट्रेकिंग आज से करीब 7-8 साल पहले की है। उस समय मुझे और मेरे कुछ दोस्तों को ट्रेकिंग का नया-नया चस्का लगा ही था जो आज भी बदस्तूर जारी है। आजकल थोड़ा समय की कमी और कुछ नया न लिख पाने की मजबूरी के चलते इस पुरानी ट्रेकिंग को ही लगा रही हूं। जो मेरे लिये कई मायनों में खास भी है।

अचानक ही सुबह-सुबह फोन की घंटी बजी और मेरी दोस्त ने हड़बड़ाहट में कहा - विन्नी हम लोगों ने ट्रेकिंग में जाने का जो प्लान बनाया था वो फाइनल हो गया है। तू मुझे जल्दी से जल्दी स्टेशन पर मिलना हम लोग वहां से स्नोव्यू चलेंगे और बांकि लोग हमें वहां ही मिल जायेंगे। मैंने पूछा कितने बजे तक ? उसका जवाब था 7:15 तक। 7:15 बापरे... इस समय घड़ी 6:30 बजा रही थी... मतलब कि बिना आलस दिखाये हुए उठ कर सीधा तैयार होकर भागना पड़ेगा। खैर मैं जल्दी-जल्दी उठी तैयार हुई और बिना कॉफी पिये ही निकल गयी और 7:15 तक स्टेशन पहुंच गयी जहां मेरी दोस्त भी पहुंच गयी थी।

हम दोनों वहां से स्नोव्यू की तरफ निकल गये। सुबह के समय ये रास्ता खासा सूनसान सा लग रहा था और इस रास्ते की चढ़ाई भी अच्छी खासी है। कुछ मॉर्निंग वॉक करने वालों के अलावा यहां कोई हलचल नहीं थी। हम दोनों करीब 7:45 तक स्नोव्यू पहुंच गये जहां हमारे बांकी साथी हमारा इंतजार कर रहे थे। इस जगह को को स्नोव्यू इसलिये कहते हैं क्योंकि यहां से हिमालय की अच्छी खासी रेंज दिख जाती है पर अकसर ही हिमालय में बादल लगे होने के कारण हिमालय के दर्शन नहीं हो पाते लेकिन हमारी किस्मत अच्छी रही कि हमें थोड़ा सा हिमालय देखने को मिल गया। स्नोव्यू से हिमालय

यहां से हम लोग चीनापीक की तरफ निकल गये। रास्ते में हमें एक खंडहर दिखा जो कि किसी जमाने में स्कूल हुआ करता था पर आग लग जाने के कारण ये स्कूल पूरी तरह बर्बाद हो गया। पहले तो इन जगहों में सिर्फ पैदल या घोड़ों की मदद से ही आया जा सकता था पर अब सड़कें बन रही हैं। लेकिन इन सड़कों को देख कर काफी देर तक हम लोग यही सोचते रहे कि बिल्कुल 90 डिग्री की चढ़ाई में बनने वाली इन सड़कों में गाड़िया आयेंगी कैसे ? और यदि आ भी गयी तो क्या सही सलामत रहेंगी भी या नहीं ? हम लोग अपनी बातों में मशगूल थे और आगे बड़ रहे थे। अभी हम जिस जगह में खड़े थे यहां से नैनीताल का बहुत ही शानदार नजारा दिखता है और पूरी झील के ही बार में दिख जाती है। चीनापीक के रास्ते से नैनीताल

थोड़ा लम्बा मोटर मार्ग तय करने के बाद हम लोग एक कच्ची सड़क पे निकल गये। इस कच्ची सड़क के दोनों और काफी घना जंगल है जिसमें कई कई तरह की चिड़ियाऐं और जड़ी-बूटियां दिख जाती हैं। हमारे ग्रुप में कुछ लोग चिड़िया देखने के शौकिन थे तो कुछ जड़ी-बूटियों के इसलिये काफी कुछ जानकारियां हम लोग आपस में शेयर करते रहे। इन जंगलों में चिड़ियां तो बहुत हैं पर उन्हें देख पाना थोड़ा मुश्किल होता है। ये हमारी खुशकिस्मती ही थी कि हमारे नजरों के सामने से सिबिया निकल गयी जिसे देखकर हमने इसका नाम साहिबा रख दिया क्योंकि बहुत मुश्किल से हमें दिख पायी थी।

बारिश का मौसम होने के कारण रास्तों में जहां-तहां बड़ी स्लैग पड़ी हुई थी। जिन्हें देखकर हम आपस में एक दूसरे की डराने की नाकाम कोशिश कर रहे थे कि - ये स्लैग नहीं जोंक हैं जो खून पी पी कर इतनी बड़ी हो गयी हैं। मौसम धूप-छांव का खेल खेल रहा था और हम लोग भी एक दूसरे की टांग खींचते हुए और अपनी बातें करते हुए आगे बढ़ ही रहे थे कि उपर की तरफ से 4-5 लोगों का एक झुंड आया और हमारी तरफ देखते हुए बोला - चीनापीक की तरफ बहुत जोंकें हैं, संभल कर जाना। वो लोग भी शायद ट्रेकिंग पर ही आये थे। हमें चीनापीक पहुंचने के लिये थोड़ा चलना अभी बांकि था। करीब आधे घंटे बाद हम लोग अपने पहले प्वाइंट चीनापीक पर पहुंच ही गये। चीनापीक में एक बड़ा सा खम्बा लगा हुआ है जो नैनीताल शहर से ही आसानी से दिख जाता है। हम लोग सब इस खम्बे के पास खड़े होकर नैनीताल को देख रहे थे। यहां पर अंग्रेजों के जमाने का एक नक्शा भी लगा है जिसमें हिमालय की सारी चोटियों के नाम उनके क्रम के अनुसार ही दिये हैं। अंग्रेजों ने तो शायद इसे एक अच्छे उद्देश्य से ही बनाया होगा पर आज की तारीख में इसकी हालत बहुत दयनीय है।

चीनापीक में पहुंचते ही भूखी-प्यासी जोकों ने हमारा स्वागत बड़े प्यार से किया। अपने पूरे परिवार के साथ हमारी सेवा में हाजिर थी। हम अपने पैरों से जोक भी निकाल रहे थे और चीनापीक के नाम पर भी अपनी-अपनी राय दे रहे थे कि आखिर इस जगह का नाम चीनापीक क्यों पड़ा होगा ? सबसे मजेदार बात तो हमारे साथ वाले ने बतायी कि बहुत से लोग कहते हैं यहां से चीन की चोटियां दिखती होंगी जिस कारण इसका नाम चीनापीक पड़ा होगा। खैर हमें इसके नाम का सही-सही कारण तो पता नहीं चल पाया।

यहां कुछ देर बैठ कर हमने अपने पैरों से जोंकों को निकाला और कुछ बिस्कुल नमकीन खाये फिर आगे की तरफ बढ़ गये। रास्ते में हमें एक सांप दिखा पर वो बेचारा हमें देखते ही फटाफट भाग गया। यहां से हम लोगों ने किलबरी, पंगूट जाने वाला रास्ता पकड़ा जो कि बर्ड वॉचर के लिये जन्नत माना जाता है....

जारी....



Thursday, February 5, 2009

निकले थे कहां जाने के लिये.....

आज का दिन तो बड़ा ही मस्त रहा। असल में हुआ कुछ यूं कि हम कुछ लोगों ने 4-5 महीने से एक ट्रेकिंग में जाने का फैसला किया था। जहां जाना था वो जगह बिल्कुल 90 डिग्री की खड़ी चढ़ाई में थी सो वहां जाने के लिये हम कुछ ज्यादा ही उत्सुक थे।। हमें रास्ते का पता नहीं था इसलिये उसके नजदीक के गांव वालों से रास्ता पता किया। गांव वालों के साथ सबसे मुश्किल होती कहीं का पता उगलवाना। पूरी दुनिया के बारे में बता देंगे पर जिस जगह के बारे में पूछो उसी के बारे में नहीं बताते। या जितने लोग होंगे उतने ही रास्ते बता देंगे। इस कारण हम लोग काफी समय तक सही रास्ते का अनुमान नहीं लगा पाये। एक दिन हमें पहचान के कोई सज्जन मिले उन्होंने हमें एक सीधा रास्ता बताया और कहा कि ये रास्ता थोड़ा लम्बा है पर तुम लोग पहुंच जाओगे। हम लोगों ने निर्णय किया कि सड़क तक का रास्ता हम गाड़ी से तय करेंगे और आगे 14 किमी. का रास्ता पैदल तय करेंगे। उसके बाद वहां जाने की तारीख तय कर ली गई और नियत तारीख को हम लोग चल दिये। सड़क का रास्ता हमने गाड़ी से तय किया और वहां से आगे हम लोग पैदल निकल गये।

जब हम आगे बड़े तो लगा कि सड़क कच्ची जरूर है पर इसमें गाड़ी आराम से आ सकती थी। मैं तो पैदल चलना पसंद करती हूं इसलिये ज्यादा मुझे तो खुशी ही हो रही थी कि अच्छा हुआ जो ये बात पहले पता नहीं चली। पर मेरे साथ के दो लोगों का कहना था कि - यहां तक गाड़ी में आ जाते तो समय बच जाता। अब मुझे उनकी टांग खींचने का अच्छा बहाना मिल गया सो उनसे कह दिया - ये बोलो की रास्ता देख कर डर गये।

खैर हम लोग अपने हंसी-मजाक और टांग खिंचाई के साथ आगे बढ़े जा रहे थे। एक जगह एक मंदिर दिखा और उसके पास ही हमें कुछ छोटी लड़कियां खड़ी दिखायी दी। हमने उनसे उस मंदिर के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया - ये `बुड भूमिया जी´ का मंदिर है जो जंगल और जानवरों की रक्षा करते हैं। इस मंदिर के पास दो रास्ते थे जिस करण हम समझ नहीं पाये कि हमें कौन से रास्ते में जाना चाहिये ? इसलिये हमने अपने दिमाग का इस्तेमाल किया और सोचा कि इनसे पूछ लेना चाहिये। जो हमारी सबसे बड़ी बेवकूफी रही। जिसने हमारी पूरी ट्रेकिंग का रास्ता ही बदल दिया। उन्होंने हमसे कहा कि यहां से थोड़ी सी दूरी पर एक ऐसा ही मंदिर और है, उसके आगे कुछ भी नहीं है। और हमें दूसरे रास्ते पे मोड़ दिया जहां से हमारी पूरी यात्रा का नक्शा ही बदल गया।

हम लोग आने वाली मुसीबत से बेखबर रास्ते में आगे बढ़े जा रहे थे अपने आपसी हंसी थोड़ी मजाक के साथ। काफी आगे चले गये पर जिस जगह जाना था वहां का कोई नामोनिशान ही न था। बस कुछ था तो जंगल ही जंगल। अब तो पेट में भी चूहे दौड़ने लगे थे इसलिये हमने साथ में लाये हुए फल खाने शुरू कर दिये। जब काफी आगे बढ़े गये तो बड़ी मुश्किल से एक घर नजर आया। हमने उसमें आवाज लगायी तो एक बुजुर्ग महिला बाहर निकल के आयी। हमने उनसे जगह के बारे में पूछा, उन्होंने बताया - तुम लोग तो बिल्कुल उल्टे रास्ते में आ गये हो। अब कैसे जाओगे ? अब तो बहुत देर हो जायेगी और ये तो पूरा घना जंगल है और तो और जानवरों और सांपों का डर भी है। तुम लोग अकेले यहां आ कैसे गये मुझे तो ये समझ नहीं आ रहा।

हमने उन्हें बताया कि हमें दो लड़कियों ने ये रास्ता बता दिया और हम इस रास्ते में आ गये। उन्होंने हमसे चाय पीने का अनुरोध किया और हम वहीं चाय पीने रुक गये क्योंकि चाय का अमल तो हमें भी लग रहा था। उन्होंने हमें एक दूसरा रास्ता बताया और कहा कि अब हमें वापस लौट जाना चाहिये क्योंकि इस रास्ते से तो हमें रात हो जायेगी। फिर वापसी कैसे करोगे ? जंगल में रहने की कोई जगह नहीं है। पर हम अभी भी जाने का इरादा बनाये बैठे थे सो उनके बताये रास्ते में आगे बढ़ गये। इस रास्ते से जाते हुए हमें एक गांव मिला। वहां हमने लोगों से आगे का रास्ता पूछा तो सबने यही कहा कि - ये तो उल्टा रास्ता है और हम तो तुम्हें आगे जाने के लिये नहीं कहेंगे क्योंकि इतने खतरनाक जंगल में तो हम भी जाने से पहले सौ बार सोचते हैं। तुम लोग तो शहरी हो। हमने उन्हें बोला कि - आप फिक्र मत कीजिये। हमें जंगलों का पूरा अंदाजा है इसलिये उसकी कोई परेशानी नहीं है। उन्होंने अपनी एक बच्ची को हमारे साथ थोड़ा आगे तक भेज दिया और कहा कि उससे आगे का रास्ता वहां किसी से पूछ लेना और हो सके तो वापस लौट जाइये। यहां से मोटर सड़क थोड़ी दूरी पर ही है। मैं खुद तुम्हें वहां तक छोड़ दूंगा। पर हमें तो अपनी जिद थी कि बस जाना ही है। इसलिये आगे बढ़ गये। उस बच्ची ने हमें थोड़ा आगे तक छोड़ दिया और वापस लौट गयी।


यहां से थोड़ा आगे जाने पर हमें एक घर मिला जिसमें दो बड़ी लड़कियां दिखी, हमने उनसे पूछा - उनकी बातों से लगा की इनको जगह का अच्छा ज्ञान है। उन्होंने हमें रास्ता भी अच्छे से बता दिया और हमारे नोट पैड में हमारे लिये छोटा सा नक्सा भी बना दिया। पर उन दोनों ने भी कहा कि अगर आप लोग सुबह 6-7 बजे से निकलते तो अच्छा था अभी तो 3 बज गये हैं। बहुत रात हो जायेगी और आजकल अंधेरा भी जल्दी होता है। जंगल में बहुत खतरा है आप लोग दूसरे बार कभी आना।

उन्होंने भी हमें सड़क में जाने वाला रास्ता दिखा दिया और कहा कि यदि हम इस समय सड़क पर पहुंच जायेंगे तो कोई गाड़ी मिल सकती है उसके बाद तो गाड़ी भी नहीं मिलेगी। साथ मैं उन्होंने यह भी कह दिया कि यदि ऐसा कुछ होगा तो आप लोग हमारे घर आकर रह लेना। उनके सरल व्यवहार से हम लोगों को अच्छा लगा उनकी बात भी सही लगी पर वापस लौटना हमें बहुत अखर रहा था क्योंकि आज तक हम में से किसी के साथ ऐसा नहीं हुआ कि हम आधे से पलटे हों इसलिये वापस लौटना बेवकूफी लग रही थी। पर जैसे-जैसे हम उस रास्ते में आगे बढ़े हमें लगा कि शायद गांव वाले सही कह रहे हैं। हमारा आगे बढ़ना खतरनाक हो सकता है। उस पर हम लोग रात को रुकने के इंतजाम से भी नहीं आये थे इसलिये एक जगह बैठ के हमने अपने साथ लाया हुआ खाना खाया और लम्बी बहस करने के बाद ये नतीजा निकाला कि हमारे लिये वापस लौटना ही ठीक होगा।

दूसरे बार उस जगह हर हाल में जाना ही है यह फैसला करते हुए हम लोग सड़क की तरफ लौट गये और वहां से एक गाड़ी में लिफ्ट लेकर वापस अपने शहर पहुंच गये। दूसरे दिन जब हमसे हमारे साथ वालों ने हमारी ट्रेकिंग के बारे में पूछा तो हमने सबको बोला कि - हां हम लोग उस जगह पहुंच गये थे और हमारा रास्ता बहुत अच्छा रहा और भी लम्बी-लम्बी छोड़ी। आज तक ये राज किसी और को मालूम नहीं है। कुल मिला कर इस ट्रंकिंग में भी बहुत मजा आया पर अफसोस इस बात का ही रहा कि जिस जगह जाना था वहां नहीं जा सके........

इस जगह का नाम मैं बाद में फिर कभी बताउंगी जब इस जगह पहुंच जायेंगे......