स्वतंत्रता संग्राम में उत्तराखंड की महिलाओं की भी अहम भूमिकायें रही हैं। मुझे उनमें से ही कुछ महिलाओं के बारे में थोड़ा-बहुत पता चल पाया और उसके आधार पर ही यह पोस्ट बनाने की कोशिश की है। इन सभी महिलाओं ने आजादी की लड़ाई में मुख्य भुमिकायें निभाई थी। इन महिलाओं के अलावा भी ऐसी कई महिलायें होंगी जिनके बारे में अभी पता नहीं चल पाया। उम्मीद करते हैं कि भविष्य में शायद उनके बारे में भी पता चल सके। यह सभी महिलायें नैनीताल से गिरफ्तार की गई थी और इनका अपराध स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेना था जो अंग्रेजी हुकुमत को नागवार गुजरा।
श्रीमती हीरा देवी : इन्हें वाद संख्या 150/42 के तहत दिनांक 30-10-42 को एस.डी.एम. कोर्ट नैनीताल द्वारा 3 माह की सजा दी गई थी।
श्रीमती कुन्ती देवी : इन्हें वाद संख्या 195/41 के तहत दिनांक 12/5/41 को एस.डी.एम कोर्ट नैनीताल द्वारा अदालत उठने तक की सजा और 15 रु. जुर्माने की सजा दी गई थी।
श्रीमती सरली देवी : इन्हें वाद संख्या 189/41 के तहत दिनांक 12/5/41 को एस.डी.एम. कोर्ट, नैनीताल द्वारा अदालत उठने तक की सजा व 20 रुपये जुर्माने की सजा दी गई थी।
श्रीमती धानी देवी पत्नी श्री उर्बादत्त : इन्हें वाद संख्या 190/40 के तहत दिनांक 12/5/41 को एस.डी.एम. कोर्ट, नैनीताल द्वारा अदालत उठने तक की सजा व 20 रुपये जुर्माने की सजा दी गई थी।
श्रीमती चन्द्रावती पत्नी श्री नन्दलाल : इन्हें वाद संख्या 194/41 के तहत दिनांक 12/5/41 को एस.डी.एम. कोर्ट, नैनीताल द्वारा 6 माह की जेल व 20 रुपये जुर्माने की सजा दी गई थी।
श्रीमती हंसा देवी पत्नी ठा. नर सिंह : इन्हें वाद संख्या 176/41 के तहत दिनांक 12/5/41 को एस.डी.एम. कोर्ट, नैनीताल द्वारा अदालत उठने तक की सजा व 5 रुपये जुर्माने की सजा दी गई थी।
श्रीमती सरस्वती : इन्हें वाद संख्या 191/41 के तहत दिनांक 12/5/41 को एस.डी.एम. कोर्ट, नैनीताल द्वारा अदालत उठने तक की सजा व 15 रुपये जुर्माने की सजा दी गई थी।
श्रीमती घना देवी, पत्नी श्री विजय सिंह : इन्हें वाद संख्या 192/41 के तहत दिनांक 12/5/41 को एस.डी.एम. कोर्ट, नैनीताल द्वारा 4 माह की सजा की सजा दी गई थी।
श्रीमती देवकी देवी : इन्हें वाद संख्या 188/41 के तहत दिनांक 12/5/41 को एस.डी.एम. कोर्ट, नैनीताल द्वारा अदालत उठने तक की सजा व 5 रुपये जुर्माने की सजा दी गई थी।
श्रीमती सरस्वती, विधवा धन सिंह : इन्हें वाद संख्या 193/41 के तहत दिनांक 12/5/41 को एस.डी.एम. कोर्ट, नैनीताल द्वारा अदालत उठने तक की सजा व 5 रुपये जुर्माने की सजा दी गई थी।
श्रीमती भागीरथी, पत्नी श्री प्रेम बल्लभ : इन्हें वाद संख्या 174/41 के तहत दिनांक 12/5/41 को एस.डी.एम. कोर्ट, नैनीताल द्वारा अदालत उठने तक की सजा व 5 रुपये जुर्माने की सजा दी गई थी।
श्रीमती कुन्ती, पत्नी श्री गंगाराम : इन्हें वाद संख्या 175/41 के तहत दिनांक 12/5/41 को एस.डी.एम. कोर्ट, नैनीताल 6 माह की सजा व 15 रुपये जुर्माने की सजा दी गई थी।
सभी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को सलाम
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Friday, August 14, 2009
Friday, January 30, 2009
गांधी जी पर कुछ खास
गांधीजी से संबंधित यह कार्टून मैंने बहुत पहले इकट्ठा किये थे जिन्हें आज अपने ब्लॉग पे लगा रही हूं।
ब्रिटेन के कट्टर रूढ़िवादियों ने कहा कि नमक सत्याग्रह को कुचलने के लिये ब्रिटिश राज ने जो नृशंसता अपनाई, उसके फलस्वरूप भारत में भड़के हिंसात्मक दंगों के पीछे सोवियत रूस का हाथ है। भारत की घटनाओं की इस तरह व्याख्या करने की विचारधार स्ट्रूब के इस कार्टून में देखी जा सकती है जो बीवरबुक प्रेस के मुख्य पत्र - कांग्रेस के अत्यंत तीव्र विरोधी डेली एक्सप्रेस के कार्टूननिस्ट ने बनाया था।
सत्याग्रह से विलिंगडन बड़ी उलझन में पड़ गये हैं। 15 जुलाई 1933 को गांधी जी ने उन के नाम एक तार भेजा जिसमें एक मुलाकात निश्चित करने के लिये कहा गया था ताकि संवैधानिक सुधारों के प्रश्न पर कांग्रेस और सरकार के मतभेद को शांतिपूर्वक और सम्मानजनक ढंग से हल करने के लिये बातचीत हो सके। विलिंगडन ने यह स्वीकार नहीं की। होर ने हाउस ऑफ कॉमन्स में कहा : हमने कह दिया है कि हम बातचीत करना नहीं चाहते और हम अपने इस फैसले पर अडि्ग हैं। मिस्टर गांधी एक तरफ तो सरकार से बात करना चाहते हैं, दूसरी ओर सविनय अवज्ञा के अपने अशर्त हथियार को भी अक्षुण्ण रखना चाहते हैं। मैं फिर कह दूं - कानूनों को पालन करने का दायित्व इन्हीं लोगों का है ओर इस के लिये कांग्रेस से किसी किस्म का समझौता करने का सवाल पैदा नहीं होता।
माली ने गांधी जी को अपने कंधों पर समूचा राष्ट्र उठा कर चलते हुए दिखाया है। इंग्लैंड से वापसी पर उन्हें नई गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ा जिनसे गोल मेज सम्मेलन और मैकडॉनल्ड द्वारा दिये गये आश्वासनों का खोखलापन उजागर हो गया। 3 जनवरी 1932 को उन्होंने वाइसराय को सूचना दी कि कांग्रेस बिना किसी दुर्भावना के और बिल्कुल अहिंसक ढंग से सविनय अवज्ञा आंदोलन पुन: छेड़ेगी। विलिंग्डन ने तुरंत प्रहार किया। उसने अगली सुबह गांधी जी को गिरफ्तार कर लिया। जब तक सरकार चाहे तब तक बंदी बनाये रखने के लिये उन्हें यरवडा ले जाया गया। अन्य कांग्रेसी नेताओं की गिरफ्तारियां इसके बाद हुई।
30 जनवरी 1948 की शाम को पांच बजे के कुछ मिनटों बाद चंद गोलियों ने गांधी जी की जान ले ली। वे अपने होठों से हे राम कहते हुए सिधार गये। उन्होंने अपना जीवन एक ध्येय एक उद्देश्य के लिये बलिदान कर दिया और अपने अंतिम दिनों में तन-मन से उसी के लिये काम करते रहे। वह ध्येय था राष्ट्रीय एकता की पुन: स्थापना - वह एकता जो स्वाराज्य के जन्म के साथ ही साम्प्रदायिक बर्बरता के आगे टूट कर बिखर गई थी। अपनी अटूट आस्थाओं और देश प्रेम की इतनी बड़ी कीमत ! लेकिन जो लौ उन्होंने जलाई है, वह हमेशा-हमेशा जलती रहेगी।




Thursday, August 14, 2008
सारे जहां से अच्छा
सभी लोगों को स्वतन्त्रता-दिवस की कोटिशः बधाइयां.
इकबाल का पूरा नाम डॉ. अल्लामा मुहम्मद इकबाल था। इकबाल का जन्म 9-11-1877 को सियालकोट में हुआ था। उपके पूर्वज कश्मीरी ब्राह्मण थे और करीब ढाई तीन सौ साल पहले मुसलमान हो गये थे। इकबाल ने सियालकोट से एफ.ए. करने के बाद लाहौर से बी.ए. किया और फिलोसॉफी की शिक्षा भी प्राप्त की। 23 वर्ष की आयु से उन्होंने मुशायरों में नज्में पढ़ना शुरू कर दिया था। 1905 में इकबाल योरोप चले गये और वहां कैम्बरिज यूनिर्वसिटि से फिलोसॉफी की परीक्षा पास की। ईरान की फलसफे पर एक पुस्तक लिखी जिस पर जर्मन की म्यूनिख यूनिर्वसिटी ने इन्हें पीएचडी प्रदान की। इसके बाद लंदन जाकर बैरिस्टरी का इम्तहान पास किया और 1908 में भारत लौट आये। लाहौर के सरकारी कॉलेज में ढाई साल तक पढ़ाया फिर यहां से त्यागपत्र देकर अपने जीवनयापन के लिये बैरिस्टरी शुरू की। इकबाल 1926 में लाहौर से काउन्सिल की मेम्बरी के लिये खड़े हुए और चुनाव जीत भी गये। इकबाल ने अपनी रिहाईश हमेशा लाहौर में ही रखी और अपने लिये एक खास कोठी बनावाई जिसका नाम अपने बेटे के नाम पर `जावेद मंजिल´ रखा। इकबाल ने फारसी में भी बहुत कुछ लिखा है। इकबाल का 65 वर्ष की आयु में दिनांक 21-04-1938 को देहांत हो गया।
इकबाल के बारे में इतने कम शब्दों में कह पाना मुश्किल हैं क्योंकि उनके जीवन के कई और भी पहलू हैं। जिनके बारे में फिर कभी बात करेंगे फिलहाल प्रस्तुत है उनकी एक नज्म जो उन्होंने अपने प्यारे हिन्दुस्तान के लिये लिखी है।
तराना-ए-हिन्द
सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा
हम बुलबलें हैं उसकी ये गुलसिता हमारा
गुरबत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी दिल है जहा हमारा
पर्वत वो सबसे ऊंचा हम्साया आसमां का
वो संतरी हमारा वो पासबां हमारा
गोदी में खेलती हैं जिसकी हजारों नदियां
गुलशन है जिसके दम से रशके जिनां हमारा
ऐ आबे रौदे गंगा ! वो दिन है याद तुझको
उतरा तेरे किनारे जब कारवां हमारा
मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखनस
हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दुस्तां हमारा
यूनान ओ मिस्र ओ रोमा सब मिट गये जहां से
अब तक मगर है बाक़ी नाम ओ निशां हमारा
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमां हमारा
इकबाल ! कोई मरहम अपना नहीं जहां में
मालूम क्या किसीको दर्दे जहां हमारा
इकबाल का पूरा नाम डॉ. अल्लामा मुहम्मद इकबाल था। इकबाल का जन्म 9-11-1877 को सियालकोट में हुआ था। उपके पूर्वज कश्मीरी ब्राह्मण थे और करीब ढाई तीन सौ साल पहले मुसलमान हो गये थे। इकबाल ने सियालकोट से एफ.ए. करने के बाद लाहौर से बी.ए. किया और फिलोसॉफी की शिक्षा भी प्राप्त की। 23 वर्ष की आयु से उन्होंने मुशायरों में नज्में पढ़ना शुरू कर दिया था। 1905 में इकबाल योरोप चले गये और वहां कैम्बरिज यूनिर्वसिटि से फिलोसॉफी की परीक्षा पास की। ईरान की फलसफे पर एक पुस्तक लिखी जिस पर जर्मन की म्यूनिख यूनिर्वसिटी ने इन्हें पीएचडी प्रदान की। इसके बाद लंदन जाकर बैरिस्टरी का इम्तहान पास किया और 1908 में भारत लौट आये। लाहौर के सरकारी कॉलेज में ढाई साल तक पढ़ाया फिर यहां से त्यागपत्र देकर अपने जीवनयापन के लिये बैरिस्टरी शुरू की। इकबाल 1926 में लाहौर से काउन्सिल की मेम्बरी के लिये खड़े हुए और चुनाव जीत भी गये। इकबाल ने अपनी रिहाईश हमेशा लाहौर में ही रखी और अपने लिये एक खास कोठी बनावाई जिसका नाम अपने बेटे के नाम पर `जावेद मंजिल´ रखा। इकबाल ने फारसी में भी बहुत कुछ लिखा है। इकबाल का 65 वर्ष की आयु में दिनांक 21-04-1938 को देहांत हो गया।
इकबाल के बारे में इतने कम शब्दों में कह पाना मुश्किल हैं क्योंकि उनके जीवन के कई और भी पहलू हैं। जिनके बारे में फिर कभी बात करेंगे फिलहाल प्रस्तुत है उनकी एक नज्म जो उन्होंने अपने प्यारे हिन्दुस्तान के लिये लिखी है।
तराना-ए-हिन्द
सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा
हम बुलबलें हैं उसकी ये गुलसिता हमारा
गुरबत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी दिल है जहा हमारा
पर्वत वो सबसे ऊंचा हम्साया आसमां का
वो संतरी हमारा वो पासबां हमारा
गोदी में खेलती हैं जिसकी हजारों नदियां
गुलशन है जिसके दम से रशके जिनां हमारा
ऐ आबे रौदे गंगा ! वो दिन है याद तुझको
उतरा तेरे किनारे जब कारवां हमारा
मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखनस
हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दुस्तां हमारा
यूनान ओ मिस्र ओ रोमा सब मिट गये जहां से
अब तक मगर है बाक़ी नाम ओ निशां हमारा
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमां हमारा
इकबाल ! कोई मरहम अपना नहीं जहां में
मालूम क्या किसीको दर्दे जहां हमारा
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