वैसे तो दिल्ली जाना पहले भी कई बार हो चुका है पर कभी भी दिल्ली को घूमने का मौका नहीं मिला और वैसे भी दिमाग में दिल्ली की जो छवि बन चुकी थी उसके चलते कभी घूमने का मन भी नहीं हुआ पर इस बार एक काम से दिल्ली जाना हुआ तो सोचा कि दिल्ली को जरा घूमा भी जाये।
मैं 27 नवम्बर की सुबह 9 बजे दिल्ली के लिये निकली। वैसे तो रेल से जाना आसान होता पर क्योंकि मुझे बस से यात्रा करना ज्यादा अच्छा लगता है इसलिये मैंने बस से ही जाने का फैसला किया। बस मैं यात्रा करना रोचक तो होता ही है पर अगर बस सरकारी हो तो यह रोमांच कहीं ज्यादा बढ़ जाता है।
मैं जिस बस से दिल्ली के लिये निकली थी उसे सवेरे 9 बजे चलना था और 4.30 से 5 बजे दिल्ली पहुँच जाना था। बस को कालाढूंगी होते हुए जाना था इसलिये माल रोड को पार करती हुई आगे बढ़ी। लेकिन बस में बेतहाशा भीड़ के कारण इसे माल रोड पार करने में ही 20-25 मिनट लग गये। कंडक्टर सभी सवारियों को को बस में भरे जा रहा था। बस की हालत ऐसी हो गयी कि सबको लगने लगा था कि गाड़ी अब गयी या तब गयी। लोगों के कहने का भी कंडक्टर पर कोई असर नहीं हुआ। भीड़ का हाल ऐसा था कि मेरी बगल सीट में जो बैठे थे उनका सामान तो सीट पर था पर उनको सीट में आने का रास्ता ही नहीं मिला और काफी देर तक खड़े ही रहे। जैसे ही बस थोड़ा आगे बढ़ती तो कुछ लोगों को उतरना होता। उनके उतरने के लिये बस में खड़े लोग बाहर निकलते फिर चढ़ते। इस बीच 8-10 नये लोग गाड़ी में चढ़ जाते। कंडक्टर बोले जा रहा था - पीछे हो जाओ भाई, थोड़ा पीछे हो लो।´ पीछे वाले चिढ़ के कहते - अरे सिर के ऊपर खाली जगह है वहाँ पर इन लोगों को बिठा लें क्या ? मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। एक यात्री ने बाहर से सामान का थैला मेरे हाथ में पकड़ा दिया और खुद बस के दरवाजे पर लटक गये।
बस की इस हालत को देख कर गुस्सा तो बहुत था पर ये सब किसी नौटंकी से कम भी नहीं था। यही कारण है कि मैं बस यात्रा पसंद करती हूं। जो सज्जन अपना थैला मुझे पकड़ा कर दरवाजे में लटके हुए थे। बस के रुकने पर बाहर उतर गये और अचानक बस ने चलना शुरू कर दिया। बेचारे पीछे से चिल्लाते-चिल्लाते आये - अरे मेरा सामान बस में है, जरा रुको। एक आंटी जी जो रास्ते से बस में चढ़ी, उनके पतिदेव ने स्टेशन से ही उनके लिये जगह बना रखी थी। पर गाड़ी इस कदर भरी हुई थी कि वो अपनी सीट तक पहुंच ही नहीं पाई और अपने पति से बोली - अरे ये तो बताओ मैं आऊँ कैसे ? उनके पतिदेव ने जवाब दिया - अरे बस ये न पूछो। आ जाओ किसी भी तरह फंस फंसा के। अब पहाड़ी रास्ता हो और लोगों को उल्टी न हो ये तो संभव ही नहीं। इतनी भीड़ और उस पर किसी को उल्टी आ जाना। खैर इसका भी पूरा इंतजाम था। दरवाजे के पास खड़े लोगों ने गाड़ी का दरवाजा खोल दिया और चिल्ला-चिल्ला के कहने लगे - जिसे उल्टी करनी है दरवाजे के पास आ जाओ। वहां पर कुछ लोग बैठे उल्टयां कर भी रहे थे। हालांकि हमें दिखायी नहीं दे रहा था पर उनका मधुर संगीत कानों में गूंज रहा था।
इस शोर शराबे के बीच जो सबसे अच्छा था वो था रास्ता। सुंदर घाटी से होता हुआ यह रास्ता आगे को बढ़ता है। जिसमें बीच में सड़ियाताल, खुर्पाताल पड़ते हैं और कुछ झरने भी हैं पर आजकल इनमें पानी कम था। गाड़ी के अंदर अभी भी चिल्लमचिल्ली मची हुई थी। ड्राइवर अभी भी सवारियों को बस में ठूंसे जा रहा था। अब तो हालत इतनी बुरी हो गयी कि सवारियों को छत में बिठाना पड़ा। मेरी सीट के पीछे बैठे एक सज्जन ने कंडक्टर से कहा - अरे कंडक्टर साब ! छत में भी कुछ कुर्सियां डलवा लेते। फायदा हो जाता। एक महाशय ने एक तुर्रा उछाल दिया कि - छत वालों का किराया तो आधा ही होता होगा ना।
इन कारणों से गाड़ी अभी ही लगभग 1 घंटा लेट हो गयी थी उस पर गाड़ी की स्पीड भी न के बराबर थी। सभी यात्री परेशान और गुस्से में थे। मेरी सीट के पीछे बैठे सज्जन सुपरिम कोर्ट में किसी ऊँची पोस्ट में कार्यरत थे। उनसे मेरी पहचान इसलिये हो गयी क्योंकि मुझे आज तक वो पहले मिले जिन्होंने बोला कि उनको बस की यात्रा अच्छी लगती है। फिर हमारी थोड़ी बातें होने लगी। हालांकि हम दोनों आगे-पीछे की सीट में थे पर फिर भी बात कर ही ले रहे थे। उन्होंने बताया कि उन्हें घुमक्कड़ी का बेहद शौक है और अपने इसी शौक के चलते वो पिछले काफी समय से पहाड़ों में घूम रहे हैं।
बीच-बीच बस झटके खा रही थी और कभी कभी तो एक ही तरफ झुक जा रही थी। उस समय तो ऐसा लगा कि पता नहीं क्या होना है आज। खैर हौले-हौले मटकते-मटकते गाड़ी कालाढूंगी पहुंच गयी। यहाँ से मैदानी क्षेत्र शुरू हो जाता है इसलिये अब कम से कम खाई में जा गिरने की संभवना तो नहीं थी। भीड़ का अभी भी वहीं हाल था। मैंने कंडक्टर को बोला कि उन्हें गाड़ी का दरवाजा बंद करना चाहिये। दरवाजा खुला होगा तो कोई भी गाड़ी में आयेगा ही । मेरे साथ वालों ने भी यही बात दोहराई पर हमारी बातों का कोई असर नहीं हुआ। तभी अचानक पीछे से सुपरिम कोर्ट वाले सज्जन ने अपनी गरजती हुई आवाज में कंडक्टर को डांटते हुए कहा - ऐ कंडक्टर गाड़ी साइड में लगा। ये गाड़ी अब यहाँ से थाने जायेगी। उतनी देर से मजाक बना रखा है। फालतू की सवारियों को बिठाये जा रहा है। पहले तो वैसे ही इतनी देर हो गयी है और अभी कितनी देर और करवानी है। उनकी कड़कती हुई आवाज ने सही में कंडक्टर को डरा दिया। कंडक्टर ने डरते-डरते कहा कि साब त्यौहार का दिन है और प्राइवेट गाड़ियां हड़ताल में है इसलिये इतनी भीड़ है। उस दिन या उसके दूसरे दिन मुसलमान लोगों का त्यौहार था जिस कारण लोग अपने घरों को जा रहे थे। कंडक्टर की बात सुनकर लगा कि वो भी ठीक ही कह रहा है। त्यौहार तो लोग अपनों के साथ ही मनाना चाहते हैं। पर गाड़ी की हालत ऐसी थी कि उसमें ज्यादा सवारी बैठाना खतरनाक ही था।
अब गाड़ी से सिर्फ यात्री उतर ही रहे थे चढ़ा कोई नहीं इसलिये कुछ देर बाद गाड़ी अपने असली आकार में वापस आ गयी। मैंने अपने साथ वालों को बोला - अब लग रहा है कि ये बस है वरना अभी तक तो इलास्टिक वाला गुब्बारा लग रही थी जिसमें की हवा भरते ही चले जाओ......। जगहों के नाम तो ठीक से पता नहीं चल सके पर रास्ते में एक जगह कई सारी भैंसे इकट्ठा थी। मैंने एक यात्री से पूछा तो उन्होंने बताया कि यहाँ भैंसों का बाजार लगता है ये सब बिकने के लिये यहाँ आयी हैं और यह बाजार करोड़ों का होता है। मेरे लिये ये बिल्कुल नया था। हालांकि ये बातें सुनी तो थी पर देखी पहली बार।
अब बस की स्पीड भी अच्छी हो गयी थी और बस सड़क पर सरपट दौड़ने लगी लेकिन तभी जैम का लगना शुरू हो गया। 20 मिनट गाड़ी चले और 10 मिनट रुक जाये। त्यौहार के चलते रास्ते में कई जगह बाजारें लगी हुई थी इस कारण यह स्थिति बनी हुई थी। गढ़ गंगा पहुँचने पर मैंने, जिन्होंने हमें दिल्ली बस स्टेशन में लेने आना था उन्हें फोन करके बता दिया कि हम लोग लगभग डेढ़ घंटे में दिल्ली पहुंच जायेंगे पर वो डेढ़ घंटे मेरी जिन्दगी के दूसरे सबसे लम्बे डेढ़ घंटे साबित हुए क्योंकि उसके बाद हम लोग 3.30 - 4 घंटे में दिल्ली पहुंचे। जो हमें लेने आये थे उनका इंतजार और फोन करते-करते बुरा हाल। कब आओगे, कितनी देर और है, हम तो यहाँ आ भी चुके हैं, चलो कोई बात नहीं हम यहीं हैं.........। उस समय तो यह लगा कि पता नहीं कब दिल्ली पहुंचेंगे पर आखिरकार हम दिल्ली पहुंच ही गये.....।
जारी....
मैं 27 नवम्बर की सुबह 9 बजे दिल्ली के लिये निकली। वैसे तो रेल से जाना आसान होता पर क्योंकि मुझे बस से यात्रा करना ज्यादा अच्छा लगता है इसलिये मैंने बस से ही जाने का फैसला किया। बस मैं यात्रा करना रोचक तो होता ही है पर अगर बस सरकारी हो तो यह रोमांच कहीं ज्यादा बढ़ जाता है।
मैं जिस बस से दिल्ली के लिये निकली थी उसे सवेरे 9 बजे चलना था और 4.30 से 5 बजे दिल्ली पहुँच जाना था। बस को कालाढूंगी होते हुए जाना था इसलिये माल रोड को पार करती हुई आगे बढ़ी। लेकिन बस में बेतहाशा भीड़ के कारण इसे माल रोड पार करने में ही 20-25 मिनट लग गये। कंडक्टर सभी सवारियों को को बस में भरे जा रहा था। बस की हालत ऐसी हो गयी कि सबको लगने लगा था कि गाड़ी अब गयी या तब गयी। लोगों के कहने का भी कंडक्टर पर कोई असर नहीं हुआ। भीड़ का हाल ऐसा था कि मेरी बगल सीट में जो बैठे थे उनका सामान तो सीट पर था पर उनको सीट में आने का रास्ता ही नहीं मिला और काफी देर तक खड़े ही रहे। जैसे ही बस थोड़ा आगे बढ़ती तो कुछ लोगों को उतरना होता। उनके उतरने के लिये बस में खड़े लोग बाहर निकलते फिर चढ़ते। इस बीच 8-10 नये लोग गाड़ी में चढ़ जाते। कंडक्टर बोले जा रहा था - पीछे हो जाओ भाई, थोड़ा पीछे हो लो।´ पीछे वाले चिढ़ के कहते - अरे सिर के ऊपर खाली जगह है वहाँ पर इन लोगों को बिठा लें क्या ? मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। एक यात्री ने बाहर से सामान का थैला मेरे हाथ में पकड़ा दिया और खुद बस के दरवाजे पर लटक गये।
बस की इस हालत को देख कर गुस्सा तो बहुत था पर ये सब किसी नौटंकी से कम भी नहीं था। यही कारण है कि मैं बस यात्रा पसंद करती हूं। जो सज्जन अपना थैला मुझे पकड़ा कर दरवाजे में लटके हुए थे। बस के रुकने पर बाहर उतर गये और अचानक बस ने चलना शुरू कर दिया। बेचारे पीछे से चिल्लाते-चिल्लाते आये - अरे मेरा सामान बस में है, जरा रुको। एक आंटी जी जो रास्ते से बस में चढ़ी, उनके पतिदेव ने स्टेशन से ही उनके लिये जगह बना रखी थी। पर गाड़ी इस कदर भरी हुई थी कि वो अपनी सीट तक पहुंच ही नहीं पाई और अपने पति से बोली - अरे ये तो बताओ मैं आऊँ कैसे ? उनके पतिदेव ने जवाब दिया - अरे बस ये न पूछो। आ जाओ किसी भी तरह फंस फंसा के। अब पहाड़ी रास्ता हो और लोगों को उल्टी न हो ये तो संभव ही नहीं। इतनी भीड़ और उस पर किसी को उल्टी आ जाना। खैर इसका भी पूरा इंतजाम था। दरवाजे के पास खड़े लोगों ने गाड़ी का दरवाजा खोल दिया और चिल्ला-चिल्ला के कहने लगे - जिसे उल्टी करनी है दरवाजे के पास आ जाओ। वहां पर कुछ लोग बैठे उल्टयां कर भी रहे थे। हालांकि हमें दिखायी नहीं दे रहा था पर उनका मधुर संगीत कानों में गूंज रहा था।
इस शोर शराबे के बीच जो सबसे अच्छा था वो था रास्ता। सुंदर घाटी से होता हुआ यह रास्ता आगे को बढ़ता है। जिसमें बीच में सड़ियाताल, खुर्पाताल पड़ते हैं और कुछ झरने भी हैं पर आजकल इनमें पानी कम था। गाड़ी के अंदर अभी भी चिल्लमचिल्ली मची हुई थी। ड्राइवर अभी भी सवारियों को बस में ठूंसे जा रहा था। अब तो हालत इतनी बुरी हो गयी कि सवारियों को छत में बिठाना पड़ा। मेरी सीट के पीछे बैठे एक सज्जन ने कंडक्टर से कहा - अरे कंडक्टर साब ! छत में भी कुछ कुर्सियां डलवा लेते। फायदा हो जाता। एक महाशय ने एक तुर्रा उछाल दिया कि - छत वालों का किराया तो आधा ही होता होगा ना।
इन कारणों से गाड़ी अभी ही लगभग 1 घंटा लेट हो गयी थी उस पर गाड़ी की स्पीड भी न के बराबर थी। सभी यात्री परेशान और गुस्से में थे। मेरी सीट के पीछे बैठे सज्जन सुपरिम कोर्ट में किसी ऊँची पोस्ट में कार्यरत थे। उनसे मेरी पहचान इसलिये हो गयी क्योंकि मुझे आज तक वो पहले मिले जिन्होंने बोला कि उनको बस की यात्रा अच्छी लगती है। फिर हमारी थोड़ी बातें होने लगी। हालांकि हम दोनों आगे-पीछे की सीट में थे पर फिर भी बात कर ही ले रहे थे। उन्होंने बताया कि उन्हें घुमक्कड़ी का बेहद शौक है और अपने इसी शौक के चलते वो पिछले काफी समय से पहाड़ों में घूम रहे हैं।
बीच-बीच बस झटके खा रही थी और कभी कभी तो एक ही तरफ झुक जा रही थी। उस समय तो ऐसा लगा कि पता नहीं क्या होना है आज। खैर हौले-हौले मटकते-मटकते गाड़ी कालाढूंगी पहुंच गयी। यहाँ से मैदानी क्षेत्र शुरू हो जाता है इसलिये अब कम से कम खाई में जा गिरने की संभवना तो नहीं थी। भीड़ का अभी भी वहीं हाल था। मैंने कंडक्टर को बोला कि उन्हें गाड़ी का दरवाजा बंद करना चाहिये। दरवाजा खुला होगा तो कोई भी गाड़ी में आयेगा ही । मेरे साथ वालों ने भी यही बात दोहराई पर हमारी बातों का कोई असर नहीं हुआ। तभी अचानक पीछे से सुपरिम कोर्ट वाले सज्जन ने अपनी गरजती हुई आवाज में कंडक्टर को डांटते हुए कहा - ऐ कंडक्टर गाड़ी साइड में लगा। ये गाड़ी अब यहाँ से थाने जायेगी। उतनी देर से मजाक बना रखा है। फालतू की सवारियों को बिठाये जा रहा है। पहले तो वैसे ही इतनी देर हो गयी है और अभी कितनी देर और करवानी है। उनकी कड़कती हुई आवाज ने सही में कंडक्टर को डरा दिया। कंडक्टर ने डरते-डरते कहा कि साब त्यौहार का दिन है और प्राइवेट गाड़ियां हड़ताल में है इसलिये इतनी भीड़ है। उस दिन या उसके दूसरे दिन मुसलमान लोगों का त्यौहार था जिस कारण लोग अपने घरों को जा रहे थे। कंडक्टर की बात सुनकर लगा कि वो भी ठीक ही कह रहा है। त्यौहार तो लोग अपनों के साथ ही मनाना चाहते हैं। पर गाड़ी की हालत ऐसी थी कि उसमें ज्यादा सवारी बैठाना खतरनाक ही था।
अब गाड़ी से सिर्फ यात्री उतर ही रहे थे चढ़ा कोई नहीं इसलिये कुछ देर बाद गाड़ी अपने असली आकार में वापस आ गयी। मैंने अपने साथ वालों को बोला - अब लग रहा है कि ये बस है वरना अभी तक तो इलास्टिक वाला गुब्बारा लग रही थी जिसमें की हवा भरते ही चले जाओ......। जगहों के नाम तो ठीक से पता नहीं चल सके पर रास्ते में एक जगह कई सारी भैंसे इकट्ठा थी। मैंने एक यात्री से पूछा तो उन्होंने बताया कि यहाँ भैंसों का बाजार लगता है ये सब बिकने के लिये यहाँ आयी हैं और यह बाजार करोड़ों का होता है। मेरे लिये ये बिल्कुल नया था। हालांकि ये बातें सुनी तो थी पर देखी पहली बार।
अब बस की स्पीड भी अच्छी हो गयी थी और बस सड़क पर सरपट दौड़ने लगी लेकिन तभी जैम का लगना शुरू हो गया। 20 मिनट गाड़ी चले और 10 मिनट रुक जाये। त्यौहार के चलते रास्ते में कई जगह बाजारें लगी हुई थी इस कारण यह स्थिति बनी हुई थी। गढ़ गंगा पहुँचने पर मैंने, जिन्होंने हमें दिल्ली बस स्टेशन में लेने आना था उन्हें फोन करके बता दिया कि हम लोग लगभग डेढ़ घंटे में दिल्ली पहुंच जायेंगे पर वो डेढ़ घंटे मेरी जिन्दगी के दूसरे सबसे लम्बे डेढ़ घंटे साबित हुए क्योंकि उसके बाद हम लोग 3.30 - 4 घंटे में दिल्ली पहुंचे। जो हमें लेने आये थे उनका इंतजार और फोन करते-करते बुरा हाल। कब आओगे, कितनी देर और है, हम तो यहाँ आ भी चुके हैं, चलो कोई बात नहीं हम यहीं हैं.........। उस समय तो यह लगा कि पता नहीं कब दिल्ली पहुंचेंगे पर आखिरकार हम दिल्ली पहुंच ही गये.....।
जारी....