Saturday, July 25, 2009

जिम कॉबेंट का जन्म दिन है आज


25 जुलाय 1875 को नैनीताल में जन्मे जिम कॉबेंट को मात्र एक शिकारी मानना उनके साथ अन्याय होगा। उनके व्यक्तित्व के कई ऐसे पहलू हैं जो उन्हें शिकारी की जगह प्रकृतिप्रेमी, उत्कृष्ठ लेखक, बेहतरीन खिलाड़ी तथा वन्य जीवन को फोटोग्राफी द्वारा कैद करने वाला बनाते हैं। उन्होंने छ: अविस्मरणीय किताबें लिखी - माई इंडिया, जंगल लॉर, मैन ईटर ऑफ कुमाऊँ, मैन इटिंग लेपर्डस ऑफ रूद्रप्रयाग, टैम्पल टाइगर, ट्री-टॉप। मैन ईटर ऑफ कुमाऊँ की अमेरिका से 536,000 प्रतियाँ प्रकाशित हुई थी। उनकी सभी किताबों का कई अन्य भाषाओं में भी अनुवाद किया गया है।

जिम स्वयं को खुशकिस्मत मानते थे कि वह कुमाऊँ में पैदा हुए। यहाँ की बोली और रीति रिवाज की उन्हें अच्छी जानकारी थी। जिम यहाँ के अंधविश्वासों में भी विश्वास रखते थे और शकुन-अपशकुन मानते थे। अपनी किताब `माई इंडिया´ में उन्होंने इस परिवेश को सजीव ढंग से प्रस्तुत किया है। वह ग्रामीणों से पहाड़ी भाषा में बात करते थे और यहाँ के स्थानीय भोजन को पसंद करते थे। लोगों के साथ उनका व्यवहार आत्मीयतापूर्ण था। उनके दु:ख सुख में जिम हमेशा साथ देते थे और जरूरत पड़ने पर मित्र की तरह सलाह भी देते थे। लोग उन्हें `कार्पेट साहिब´ कहकर सम्बोधित करते थे।

जिम बचपन से ही प्रकृति के नजदीक रहे और हमेशा जंगलों और वन्य प्राणियों के बारे में कुछ न कुछ सीखते रहते थे। अकसर वह जंगलों में घूमने निकल जाते थे। अपनी अच्छी याददाश्त, तीव्र सुनने और विलक्षण अवलोकन क्षमता के कारण जंगल की छोटी बड़ी बात से भली भांति परिचित थे। अपनी पुस्तक `जंगल लॉर´ में उन्होंने अपने यही अनुभव लिखे हैं। वह जानवरों की आवाजों को बड़े ध्यान से सुनते और बाद में उनको जस का तस दोहराते थे। उन्होंने सिर्फ नैनीताल में ही 256 चिड़ियों की पहचान की थी जिन्हें वो उनकी बोली सुनकर ही पहचान लेते थे। जिम नैनीताल को पक्षी-विहार के रूप में विकसित करना चाहते थे पर उनके इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया गया। नैनीझील में उन्होंने ही सबसे पहले महासीर मछली को डाला था। उन्होंने मछलियों के शिकार के लिये कुछ जगहें सुनिश्चित की तथा रात को मछलियों को मारने पर प्रतिबंध भी लगाया।


जिम लम्बे समय तक नगरपालिका के वरिष्ठ उपाध्यक्ष पद पर भी रहे और अपने शहर को आदर्श शहर बनाने के लिये हमेशा प्रयासरत रहे। अपने शीतकालीन आवास के दौरान जिम कालाढूंगी के अपने घर से नैनीताल पैदल ही आते थे और शाम को उसी से वापस भी जाते थे। कभी कभी वह घोड़े का भी इस्तेमाल करते थे। वह मार्ग आज भी एक अच्छे ट्रेकिंग रूट के रूप में विकसित हो सकता था पर अब उसे काफी जगह में सीमेंट वाला बना दिया गया है। कालाढूंगी वाले उनके निवास को अब कॉबेंट म्यूजियम के रूप में विकसित कर दिया गया है जिसमें कॉबेंट की सभी चीजों को सहेज के रखा गया है। नैनीताल में जिम गर्नी हाउस में रहते थे। नैनीताल का शमशान घाट, भवाली की सड़क जिम की ही देने है।
एक जमाने में नैनीताल की शान माने जाने वाले बैण्ड स्टेंड का निर्माण जिम ने स्वयं के 4000 रुपय से करवाया था। एक समय में इसी बैंड स्टैंड में राम सिंह जी द्वारा बैंड बजाया जाता था जिसकी धुनों पर लोग पागलों की तरह झूमने लगते थे पर आज उसी बैंड स्टेंड को उस तरह से संजो कर नहीं रखा गया जिसका वो हकदार था। नैनीझील में पीने के पानी की जाँच करने वाली प्रयोगशाला का निर्माण भी जिम ने करवाया।
जिम खेलों के बहुत शौकीन थे। हॉकी और फुटबॉल उनके पसंदीदा खेल थे। नैनीताल में जब भी कोई मैच होता तो जिम उन्हें देखने जरूर जाते थे। नैनीताल के फ्लैट्स को स्टेडियम का आकार देने के लिये उन्होंने ही उसके चारों और सीढ़ियों का निर्माण करवाया। उन्होंने नैनीताल की प्राकृतिक सुन्दरता को बनाये रखने के लिये काफी नियम बनाये जैसे बकरियों द्वारा जंगलों को रहा नुकसान रोकने के लिये बकरियों और ट्रैफिक को नियंत्रित करने के लिये हाथ रिक्शा के लिये लाइसेंस बनवाना अनिवार्य किया।

शुरूआती दौर में कॉबेंट ने 23 वर्षों तक बिहार में नॉर्थ-वेस्ट रेलवे में फ्यूल इंस्पेक्टर के पद पर नौकरी की। नौकरी के दिनों को याद करते हुए वह कहते हैं कि - `नौकरी के दिन बहुत कठिन थे पर मैंने उनका पूरा आनन्द लिया´। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान वह वापस कुमाऊँ आ गये। वह नौकरी के समय से ही नरभक्षी जानवरों का शिकार करने लगे थे। 1907 में उनके द्वारा मारा गया पहला नरभक्षी चम्पावत का था जिसने अकेले ही 436 जानें ली थी। इसके बाद से जिम शिकारी के रूप में चर्चित हो गये। 32 साल के शिकारी जीवन में उन्होंने लगभग एक दर्जन नरभक्षी का शिकार किया था।

सन् 1930 से जिम ने शिकार को पूर्ण रूप से त्याग दिया और शिकार करने का नया तरीका इजाद किया। वो था कैमरे द्वारा जानवरों को कैद करना। उन्होंने साढ़े चार महीनों तक रात-दिन एक करके सात शेरों को अपने कैमरे में कैद किया और `सैवन टाइगर´ नाम से पहली मोशन पिक्चर का निर्माण किया।

जिम प्रकृतिविद भी थे और सिर्फ पेड़े लगाने को पर्यावरण नहीं मानते थे। उनका मानना था कि प्रकृति से जुड़ी हर चीज पर्यावरण का अनिवार्य अंग है वो चाहे जानवर हों या फिर मामूली सी घास-फूस। उन्होंने स्कूली बच्चों को प्रकृति के बारे में बताना शुरू किया ताकि प्रकृति के बारे में उनका ज्ञान बढ़े और वो इसके रक्षक बनें। वह बच्चों को शेर के दहाड़ने और पक्षियों की आवाजों की नकल करके भी दिखाते थे। उन्होंने वन्य प्राणियों की रक्षा के लिये कई संस्थान भी बनाये। भारत का पहला नेशनल पार्क जो रामनगर कुमाऊँ में स्थित है उसकी स्थापना जिम ने ही 1934 में की थी। जिसे उनके देहान्त के बाद उनकी याद में जिम कॉबेंट नेशनल पार्क का नाम दिया गया।

हिन्दुस्तान आजाद होने के पश्चात न चाहते हुए भी जिम 30 नवम्बर 1947 को केन्या (अफ्रिका) चले गये। पर वह निरन्तर पत्र व्यवहार किया करते थे जिनमें वो अपने मित्रों और यहाँ के लोगों के साथ बिताये खुशनुमा दिनों को याद करते थे और अपने वापस आने की इच्छा जाहिर करते थे लेकिन उनकी यह इच्छा कभी पूरी न हो सकी क्योंकि उससे पहले ही 16 अप्रेल 1955 को हार्ट-अटैक से उनका देहान्त हो गया। उनका अंतिम संस्कार केन्या में ही किया गया। जिम के अंतिम शब्द अपनी बहिन मैगी, जो हमेशा जिम के साथ ही रही, के लिये थे 'Make the world a happy place for other people to live'




Tuesday, July 21, 2009

नैनीताल में भी हैं चिनार के पेड़

अभी कुछ दिन पहले की ही बात है कि दिल्ली में रहने वाले एक मित्र से बात हो रही थी कि अचानक ही बात चिनार के पेड़ों पर आ गई और उसने बोला - चिनार के पेड़ तो कश्मीर में ही होते हैं और क्या खुबसूरत पेड़ होते है।

मेरे आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं रहा क्योंकि चिनार तो नैनीताल में भी होते हैं और हम तो रोज़ाना चिनार को देखते ही रहते हैं।

उसे इस बात पर यकीन नहीं था तो कुछ चिनार की तस्वीरें लेकर उसे मेल कर दी। तस्चीरें देख के उसे यकीन हुआ और बोला कि - मुझे लगता था कि चिनार या कश्मीर में होता है या फिर कनाडा में।

खैर जो भी हो उसकी ये बात तो बिल्कुल सही है कि चिनार का पेड़ होता बहुत सुंदर है और हर मौसम के अनुसार उसकी पत्तियों के जो रंग उभरते हैं वो तो किसी को भी रोमांचित कर दें।

पतझड़ के मौसम में सड़कों में बेहिसाब चिनार के पत्तों का बिखरे रहना भी कुछ कम रोमांचित करने वाला नहीं होता है।

चिनार हिमाचल में भी होते हैं और कनाडा का तो राष्ट्रीय वृक्ष भी चिनार ही है। चिनार के पेड़ काफी विशाल होते हैं और बहुत सालों तक टिके रहते हैं। चिनार के पेड़ का औषधीय उपयोग भी किया जाता है। इसकी पत्तियां विशेष रूप से आकर्षित करती हैं। इसका बॉटनिकल नाम Platanus orientalis होता है।

यहां पर नैनीताल के चिनार की कुछ अलग-अलग तस्वीरों को लगा रही हूं।

























Tuesday, July 14, 2009

मेरे गांव की कुछ तस्वीरें

आज मैं एक मित्र के अनुरोध पर अपने गांव की कुछ तस्वीरें लगा रही हूं। मेरा गांव नैनीताल से 22 किमी. दूर भीमताल के पास पड़ता है।

मेरे गांव को जाने वाली सड़क


मेरे गांव के रास्ते में पड़ने वाले छोटे-छोटे गांव

मेरे गांव के रास्ते में पड़ने वाले छोटे-छोटे गांव

ये है मेरा गांव

मेरे घर से रात को 11.30 पर चांद का नज़ारा

मेरे घर के सामने का नज़ारा

मेरे घर में बनाया बार्न स्वैलो चिड़िया का घर
ये चिड़िया मिट्टी को पानी में गीला करके अपना घर बनाती है। इसे स्थानीय भाषा में गोंतियाली कहते हैं।


बार्न स्वैलो

मानसून में मेरे गांव का नज़ारा




Monday, July 6, 2009

एक शादी ऐसी भी - 2

अब तक अंधेरा गहराने लगा था और रास्ते का कुछ पता नहीं चल रहा था। हम लोग अपने टॉर्च जला कर, सामने वाले की एड़ियों पर नजर टिकाये आगे बढ़ रहे थे। कुछ लोगों को छोड़कर ज्यादातर लोग वायुमंडल में तैर रहे थे और जिस भाषा का इस्तेमाल कर रहे थे, उसे सुनकर शर्म ही महसूस की जा सकती थी। तभी एक बिजली के एक खम्भे पर कुछ रोशनी सी दिखाई दी। पूछा तो पता चला कि बिजली तो गाँव में है, पर सिर्फ नाममात्र को। रात में जलाने तो लैम्प ही पड़ते हैं। पीछे से किसी ने कहा - यहाँ तो हर चीज का हाल ऐसा ही है। हमारी फिक्र किसी को नहीं। हमें क्या पता था कि उत्तराखंड राज्य बन जाने के बाद भी हम लोगों के साथ ऐसा सौतेला व्यवहार होगा।

बातें करते-करते हम लोग एक घर में पहुँचे। लगा कि मंजिल पर पहुँच गये हैं, लेकिन तभी किसी ने कहा यहाँ पर तो बारात को सिर्फ चाय-पानी के लिये ही रुकना है। इस जगह हम लोग थोड़ा सुस्ताये चाय-नमकीन खाई और आगे बढ़ गये। अंधेरे में सब कुछ नहीं दिख रहा था, उस पर से शराबियों की धक्का-मुक्की ने और मुश्किल की थी। कुछ बुजुर्ग युवकों को बार-बार चेता रहे थे कि आतिशबाजी सावधानी से करें। ऐसा न हो कि पेड़ों पर बने घास के किसी लूटे पर आग लग जाये।

खैर गिरते-पड़ते आखिरकार हम लोग लड़की वालों के घर तक पहुँच ही गये। वहाँ भी दिखाने के लिये बिजली तो थी, पर सारे काम पेट्रोमेक्स की रोशनी में हो रहे थे। कुछ देर हम लोग वहीं खड़े-खड़े अनुष्ठान देखते रहे। फिर हम उस जगह वापस आ गये जहाँ हमारे रहने की व्यवस्था की गई थी। हमारे दोस्त ने हमें वापस आते हुए देखा तो आवाज लगा के बोला - आधे में छोड़ के जा रहे हो। कैसे दोस्त हो ? इस पर हमने उसे बोला - तुझे यहां तक लाना था सो ला दिया अब शहीद होने के लिये तुझे अकेले ही आगे बढ़ना होगा दोस्त। हम तो चले। हम जब वापस आ रहे थे तो भी वो बेचारा पीछे से हमें डांठे जा रहा था। पर हम काफी थक चुके थे सो वापस आना मजबूरी भी थी।

जिस घर में हमारे रहने का इंतजाम किया गया था उन्होंने अपना पूरा घर हम लोगों के लिये खाली कर दिया था और साफ-सुथरे बिस्तर का भी इंतजाम था। ये देख के महसूस हुआ कि गाँवों में आज भी अतिथि-सत्कार की परम्परा जिन्दा है। कुछ देर आराम से घर में सुस्तान के बाद हम लोग खाना खाने गये। हलांकि हमसे कहा गया कि हमारे लिये खाना कमरे पर ही ले आयेंगे लेकिन हमें पंगत में सबके साथ बैठ के खाने का मन था इसलिये हम सबके साथ बैठ के खाना खाने चले गये और वहां हम लोगों ने अंधेरे में बैठ के सबके साथ `डार्क लाइट डिनर´ किया।

खाते समय हमें एक ग्रामीण ने द्यूली गाँव के बारे में बताया। इस गांव की कुल जनसंख्या 450 है, जिसमें 300 मतदाता हैं। गाँव में समस्याओं के सिवा कुछ नहीं है। पानी के नल तो हैं पर पानी नहीं है। बिजली की लाइनें हैं, पर बिजली नहीं है। 1985-86 में विद्युत कनेक्शन मिले और 10-12 साल तक बिजली जलाई। पर उससे काम कुछ होता नहीं था और बिल 10-12 हजार रुपयों तक के आ जाते थे। कई बार विभाग से शिकायत की पर कुछ नहीं हुआ। अन्तत: बिजली कटवानी पड़ी। उन्होंने बताया कि गाँव में कोई रुकना नहीं चाहता। सभी लोग शहरों की ओर जा रहे हैं। बस महिलायें, बच्चे और बूढ़े बचे हैं। विकास के नाम पर जहाँ पानी नहीं था, वहाँ डिग्गी बना दी गई, गूलों को सीमेंट-पत्थर डाल कर सुखा दिया। भ्रष्टाचार चरम पर पहुँच गया है। जिस पार्टी की सरकार होती है उसी के लोगों को फायदा दिया जाता है।

दुबरौली से 5-6 किमी. सड़क का तीन बार सर्वे भी हो गया था, पर कुछ लोगों के अड़ंगा लगा देने के कारण निर्माण कार्य अटक गया। इन गाँवों को आपस में जोड़ने वाले खड़ंजों की हालत भी बिल्कुल खस्ता है। पंचायत भवन खस्ताहल हो चुका है। यहाँ कोई मनोरंजन कक्ष नहीं है। स्वास्थ्य संबंधी कोई भी सुविधा यहां उपलब्ध नहीं है। बीमार होने पर अल्मोड़ा या हल्द्वानी ही जाना पड़ता है जो कि बहुत ही ज्यादा मुश्किल होता है।

हमारी यह बातें चल ही रही थीं कि एक सज्जन ने एक गंभीर, पर मजेदार बात बतायीं। गाँव में खडं़जा बनाने के लिये 50 हजार रुपया स्वीकृत हुआ। एक बी.डी.सी. सदस्य ने उनसे मस्टर रौल बनाने को कहा। जब उन्होंने काम के बगैर मस्टर रौल बनाने से इन्कार किया तो तर्क दिया गया कि सभी गाँवों में ऐसा ही हो रहा है। अन्तत: उन्होंने मस्टर रौल बना कर, मजदूरों के आड़े-तिरछे हस्ताक्षर और अंगूठे के निशान चस्पाँ कर उन्हें दे दिया। काम शुरू होते ही सात हजार रुपये का चेक लेने उन्हें ब्लॉक बुलाया पर ढाई हजार रुपया बाबू के पास देन को कहा। तत्पश्चात् काम खत्म होने पर 25 हजार रुपये और दिये गये। 50 हजार रुपये में से उनको सिर्फ 27 हजार रुपया ही दिया गया। इस बातचीत से बहस आगे बढ़ी कि गाँवों के विकास का रास्ता क्या हो। ये सब सुनकर हम लोग कह ही बैठे कि - ये है ग्राम गणराज्य। गांधी जी के सपनों का भारत। आये तो थे शादी देखने पर जो देखा उसकी उम्मीद नहीं थी हम लोगों को।

रात में नींद तो किसी को नहीं आई, इसलिये दूसरे दिन सभी जल्दी उठ कर वापसी की तैयारी करने लगे। पिछली रात कुछ दिखाई न देने के कारण गाँव खतरनाक लग रहा था। मगर सुबह की रोशनी में सारा लैण्डस्केप बेहद खूबसूरत हो गया था।
बारात को विदाई के लिये अभी कई घंटे रुकना था, मगर हमें जल्दी जाना था। अब हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या थी कि वापस किस रास्ते से जाया जाये। हमारे साथ के कुछ लोग पिछले दिन वाले रास्ते से जाने को कतई तैयार नहीं थे। हमने गांव वालों से रास्तों के बारे में पूछा और उतने ही रास्ते हमें सुझा दिये गये। अंत में हमने यही तय किया कि जिस रास्ते आये थे, उसी से जाना ठीक होगा।

कल की तीखी चढ़ाई आज ढलान में बदल कर और भी खतरनाक हो गई थी। मगर चलने लगे तो आपस के हँसी-मजाक में कब उस तीखे ढलान से नीचे उतर गये और कब चढ़ाई को पार कर लिया, पता ही नहीं चला। दोस्त के घर पहुँचे तो लगा जैसे कोई जंग जीत ली हो। पर यह अहसास भी हुआ कि जिस रास्ते ने हमें दिन में तारे दिखा दिये, उस रास्ते को स्थानीय ग्रामीण रोजाना पता नहीं कितनी बार पार करते हैं।
यहाँ से दुबरौली का रास्ता लगभग समतल ही है, इसलिये ज्यादा परेशानी नहीं हुई। हम लोग दुबरोली की प्राइमरी पाठशाला के सामने से गुजरे तो वहाँ की शिक्षिका से बात करने चले गये। उसने बताया बहुत ही कम बच्चे यहाँ पढ़ने आते हैं। बहुत से बच्चों को उनके घर वाले आने नहीं देते और कुछ बच्चे जो आते हैं उनका ध्यान खाने की तरफ ही ज्यादा रहता है। पढ़ाई में किसी का मन नहीं लगता। उत्साही होने के बावजूद उसकी अपनी शिकायतें थी, जैसे यह कि इन बच्चों का उच्चारण साफ नहीं है। इनके बोलने में जो पहाड़ी `लटैक´ आता है, उसे लाख कोशिश के बावजूद ये नहीं छोड़ते। हमारे यह समझाने के बावजूद कि पहाड़ी लटैक को लेकर ऐसा हीनभाव रखने की जरूरत नहीं, यह तो हमारी विशिष्टता है, वह अपने तर्क पर अड़ी रही। उससे कुछ देर बातें करके हम लोग वापस उस जगह आ गये जहां हमारी गाड़ी खड़ी थी।

वापस नैनीताल लौटते हुए हमें एक ही बात महसूस हुई कि इस शादी के बहाने हम उस हकीकत से रु-ब-रु हुए जिसे शायद हम कभी भी नहीं जान पाते।

समाप्त





Friday, July 3, 2009

एक शादी ऐसी भी - 1

इस बार काफी लम्बे समय के बाद हम दोस्तों का एक साथ कहीं जाना हो पाया और मौका था हमारे एक दोस्त की शादी। उसकी शादी उसके पैतृक गांव से होनी थी सो पहले तो हम लोगों को समझ नहीं आया कि जायें जा नहीं पर फिर अंत में तय किया गया कि जायेंगे। एक तो शादी भी निपट जायेगी और साथ ही एक नयी जगह देखने को भी मिलेगी।
रास्ते से हिमालय का नज़ारा हम सुबह 7 बजे नैनीताल से लमगड़ा के लिये निकले। वैसे तो लमगड़ा भी अल्मोड़ा वाले रास्ते से जा सकते थे पर हमे नया रास्ता देखना था सो उसके उल्टा रास्ता पकड़ा जिससे हम पदमपुरी होते हुए धानाचूली बैंड पहुंचे और वहां से लमगड़ा की ओर निकल गये। इन दिनों मौसम बहुत सुहाना था और हिमालय का भव्य नजारा हमारे साथ इस पूरे रास्ते में बना रहा। अब इन क्षेत्रों में भी बाहर से आकर लोगों ने बड़ी-बड़ी इमारतें बना दी हैं। करीब 11 बजे हम लमगड़ा पहुंच गये।

यहां पहुंचने के बाद हमें 5-6 किमी. कच्ची सड़क पर आगे बढ़े और इसके बाद गाड़ी को यहीं छोड़ना पड़ा। अब आगे का सफर पैदल ही तय करना था। इस स्थान पर हमें जो सज्जन लेने आये थे उनका आग्रह था कि पहले उनके घर चल कर थोड़ा सुस्ता लें।
पैदल रास्ता
मालूम पड़ा कि उन्होंने पहले से ही हम सब के लिये भोजन बनवा रखा था। खाने की इच्छा तो नहीं थी, पर जब घर के कुटे लाल चावल और लोबिया की दाल हमारी नजरों के सामने आये तो सबके मुँह में पानी आ गया। हमने तो ऐसे लाल चावल जिन्दगी में पहली बार देखे थे। और स्वाद तो एकदम निराला! गाँव के हवा-पानी का भी असर होता होगा शायद।
यहीं खाये हमने लाल कुटे चावल और लोबिया की दाल
फिर करीब तीनेक किमी. का पैदल सफर तय करके रौतेला जाख पहुँचे। यह रास्ता था तो कच्चा पर सीधा-सीधा ही था सो चलने में ज्यादा परेशानी नहीं हुई और करीब आधे घंटे में हम लोग दोस्त के घर पहुंच गये। घर में शादी का माहौल था। महिला आंगन में अपने नृत्य आदि कार्यक्रमों में लगी थी। बैंड की जगह भी पारम्परिक छोलिया नर्तक थे और साथ में दो मशकबीन बजाने वाले।
शादी का घर

मशकबीन बीन वाले
बारात पास के ही एक गाँव फटक्वाल डुँगरा, को जानी थी, अत: इत्मीनान से निकली। फटक्वाल डुँगरा एकदम सामने की पहाड़ी पर दिखाई दे रहा था। हमसे कहा गया कि ज्यादा नहीं चलना है, सो हम लोग बेफिक्र हो गये। थोड़ा ही आगे बढ़े थे कि एक साथ वाले ने एक घर की तरफ इशारा करते हुए कहा, अरे देखो, यहाँ तो मयखाना खुला है। बहुत से लोग हाथ में नोट लेकर भीतर जा रहे हैं और थोड़ी देर बाद होंठ पोंछते वापस आ रहे हैं। गाँवों में शराब का जो मर्ज फैला है, उसका खालिस नमूना हमारी नजरों के सामने था। बड़े-बूढ़े तो एक तरफ, बच्चों को वहाँ जाने में कोई शर्म नहीं थी। बारात थोड़ा ही आगे पहुँची होगी, आधे बाराती टल्ली हो चुके थे।

आधा किमी. चलने के बाद ही एक तीखी ढलान शुरू हो गयी। चलना थोड़ा मुश्किल था पर फिर भी आपसी हंसी-मजाक के साथ जैसे-तैसे ढलान से तो हम लोग निपट लिये। तभी दोस्त के पिताजी हमारे पास आये और बोले - बच्चो बस अब ये छोटी सी चढ़ाई पार करनी है और फिर हम पहुंच जायेंगे। हमने सामने की तरफ देखा तो एक सीधी चढ़ाई हमारा इन्तजार कर रही थी। हम लोगों ने आपस में कहा कि - अगर ये छोटी सी चढ़ाई है तो बड़ी सी चढ़ाई कैसी होगी भगवान जाने।
सामने की चढ़ाई

खैर हम लोगों को ट्रेकिंग की अच्छी आदत थी सो ज्यादा टेंशन भी नहीं हुआ और हमने आगे बढ़ना शुरू कर दिया। हमसे कुछ ही दूरी पर दुल्हे मियां घोड़े पर सवार होकर चले जा रहे थे। जिसे हमने पीछे से थोड़ा चिढ़ाया तो वो रुक गया और हमारे एक साथी से बोला - यार ! तू घोड़े पर चले जा मैं पैदल ही आ जाउंगा। इस पर साथ वाले ने इस अंदाज में ताना मारते हुए उसे मना किया कि सभी पेट पकड़-पकड़ के हंसने लगे। दोस्त ने बोला - नहीं यार ! तू ही जा घोड़े में वरना लड़की वाले कहेंगे कि दिखाया किसे था और ले किसे आये।

खैर चलते-सुस्ताते, हंसते-हंसाते हम लोग आगे बढ़ते रहे। इस चढ़ाई पर कोई निश्चित रास्ता नहीं रहा। जिसे जहाँ से सुविधाजनक लगा, वह उस रास्ते से चढ़ रहा था। बारात पूरी तरह बिखर चुकी थी। हमारे साथ चल रहे एक ग्रामीण ने बताया कि यहाँ सड़क न होने के कारण हमें बहुत परेशानी झेलनी पड़ती है। सबसे ज्यादा परेशानी तो उस वक्त होती है, जब कोई बीमार हो जाता है। नजदीक कोई अस्पताल भी नहीं है। उस समय तो ऐसा लगता है, जैसे मरीज के वास्ते मुर्दाघाट नजदीक है।

शाम 7 बजे बारात उस पहाड़ी की चोटी पर पहुँच गयी। बिखरे हुए सभी बाराती वहाँ पर इकट्ठा हुए और छिटपुट आतिशबाजी कर आगे बढ़े। थकान से हम लोगों का बुरा हाल था। उस समय तो यही लग रहा था कि अगर पहले पता होता कि इतना खराब रास्ता होगा, तो आते ही नहीं। पर फिर हमें यह भी लगा कि यदि आते ही नहीं तो पता कैसे चलता कि पहाड़ों में लोग आज भी कितनी कठिनाइयों में रहते हैं। हम आपस में यही कह रहे थे कि यदि हमारे नेता लोगों को सिर्फ 1 दिन के लिये भी इन जगहों में भेज दिया जाये तो शायद उन्हें पता चले कि वो कौन से वाले विकास की बात करते हैं।

जारी...