Wednesday, March 18, 2009

नैनीताल के बारे में

नैनीताल का वर्णन स्कंद पुराण के महेश्वर खंड में त्रिऋषि यानी तीन ऋषि - अत्रि, पुलस्त्य और पुलह के सरोवर के रूप में आता है। मान्यता है कि ये संत यात्रा करते-करते जब गागर पहाड़ी श्रृंखला की उस चोटी पर पहुंचे जिसे अब चाइना पीक के नाम से जाना जाता है, तो उन्हें प्यास लग गयी। उस स्थान में पानी नहीं था और तीनों ऋषि प्यास से बेहाल थे। तब उन्होंने मानसरोवर का ध्यान किया और जमीन में बड़ा से छेद कर दिया। वह छेद मानस जल से भर गया। इस प्रकार उनके द्वारा सृजित इस झील का नाम त्रिऋषि सरोवर पड़ा। यह भी मान्यता है कि इस सरोवर में स्नान करने से वही फल प्राप्त होता है जो मानसरोवर में स्नान करने से मिलता है। बाद में इस झील का नाम नैनी झील उस देवी के नाम में पड़ा जिसका मंदिर इस झील के किनारे स्थित है। 1880 के भूस्खलन में यह मंदिर नष्ट हो गया। जिसे फिर दोबारा उस स्थान पर बनाया गया जहां यह इस समय स्थित है।

इस स्थान के बारे में एक अन्य मान्यता के अनुसार नैनीताल को 64 शक्तिपीठों में से एक शक्तिपीठ भी माना जाता है क्योंकि जब भगवान शिव सती के मृत शरीर को लेकर तांडव कर रहे थे उस समय सती की बांयी आंख (नैयन) इस स्थान पर गिरी थी। इसलिये कहा जाता है कि इस झील का आकार आंख के जैसा है।

इस झील के बारे में सर्वप्रथम 1841 के अंत में कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले अखबार `इंग्लिशमैन´ में छपा था। जिसमें यह लिखा गया था कि - `अल्मोड़ा क्षेत्र में झील की खोज´ इसके बाद बैरन ने `पिलिग्रम´ नाम से `आगरा अखबार´ में इस झील का विवरण दिया गया था। बैरन ने आगे लिखा था कि - वह नैनीताल जाते समय खैरना से होकर गया और लौटा रामनगर के रास्ते से। उसने यह भी लिखा था कि - पहले स्थानीय लोग उसे झील दिखाने से लगातार इंकार करते रहे क्योंकि इस झील का उनके लिये बेहद धार्मिक महत्व था और उन्होंने साफ तौर पर कह दिया कि यहां कोई झील नहीं है। पर बाद में बड़ी मुश्किल से स्थानीय लोग मान गये।

वर्ष 1842 में बैरन यहां फिर वापस आया। इस समय तक करीब आधा दर्जन अर्जियां भवन निर्माण के लिये अधिकारी के पास पहुंची और उस समय के कमिश्नर लुशिंग्टन ने एक छोटा सा भवन बनाने की शुरूआत की। 1842 से पहले इस स्थान में एक झोपड़ी भी नहीं थी। सिर्फ नैयना देवी की पूजा के लिये वर्ष में एक बार आस-पास गांव के लोग यहां इकट्ठा होते थे और एक छोटे से मेले का आयोजन भी होता था। जिसे आज भी नंदादेवी मेला के रूप में मनाया जाता है।

मिस्टर लुशिंग्टन ने ही यहां बाजार, सार्वजनिक भवन और एक सेंट जोन्स गिरजाघर का निर्माण करवाया। मिस्टर बैरन ने इस झील में पहली बार नौका को डाला और झील में नौकायान की शुरूआत की।