‘मेरे जीवन में झूठ की काफी बड़ी भूमिका रही है...’ वाक्य से अपनी आत्मकथा शुरू करते हुए इतिहासकार प्रो. लाल बहादुर वर्मा ने बड़ी ईमानदारी से, अपने जीवन प्रसंगों को बेझिझक उजागर किया है। वे लिखते हैं, ’‘मैं गोरखपुर में पैदा नहीं हुआ...वास्तव में मेरा जन्म छपरा में हुआ। यह मुझे पता भी चल गया जिसे मैं सुधार भी सकता था...पर मुझे शर्म आती रही होगी कि पिछड़े इलाके में पैदा होने के कारण मेरे साथी चिढ़ायें न और इस पिछड़ेपन से ही मेरा अवमूल्यन न हो..’’
‘जीवन प्रवाह में बहते हुए’ नाम से प्रकाशित इस आत्मकथा में अपनी माँ को ‘प्रबुद्ध परिवार की बेटी’ कम सुनने वाली और ‘बेहद सुंदर’ बताते हुए वे आगे लिखते हैं ‘‘मैं आज घोषित रूप से ‘फूडी’ माना जाता हूँ इसका कारण भी शायद मेरी माँ ही है। वह लाजवाब खाना बनाती थी...।’’ अपने पिता के बारे में लिखते हैं, ‘‘मेरे पिताजी काफी सुंदर थे...उनकी धूमिल सी छवि ही है दिमाग में...साल में एकाध बार पिताजी खुश दिखते जब ठेकेदारों का पेमेंट होता और ओवरसियर होने के नाते उन्हें भी हिस्सा मिलता...उनकी जुआ पार्टी रात भर चलती...जुए में वह ज्यादातर हारते ही होंगे।’’ आनन्दनगर, जहाँ उनके बचपन का काफी लम्बा जीवन बीता, के बारे में वे लिखते हैं, ‘‘आनंन्दनगर किस तरह मेरे चेतन-अवचेतन मन पर छाया हुआ था इसका एक उदाहरण देता हूँ - 1968 में फ्रेंच सरकार की छात्रवृति पाकर पेरिस में ‘अलियांस फ्रांसेज’ में फ्रेंच भाषा सीख रहा था तब अपने अंतरंग विषय पर फ्रेंच भाषा में निबंध लिखने को कहा गया... मैंने ‘मेरा कस्बाई जीवन’ पर निबंध लिखा।’’ ‘‘लेखन के बीज मेरे अंदर आनंदनगर में ही अंकुरित होने शुरू हुए।’’ वैसे, ‘‘..आनन्दनगर में कोई रिश्तेदार आता तो उसे दिखाने के लिये एक ही चीज थी - चीनी मिल...।’’
नई-नई मिली आजादी के बारे में लाल बहादुर वर्मा लिखते हैं, ‘‘जुलाय 1947 में मेरा चैथे दर्जे में एडमिशन हो गया...स्कूल में 15 अगस्त की तैयारी चल रही थी। मैं आजादी की लड़ाई और देशभक्ति से अनभिज्ञ था...स्कूल में पन्द्रह अगस्त की तैयारियाँ चल रही थी...शाम की सांस्कृतिक संध्या का एक गीत अब भी दिमाग में दर्ज है क्योंकि उसमें मैं भी शामिल था... मेरी माता के सर पर ताज रहे/ये हिंद मेरा आजाद रहे’...इस तरह मेरी एक्स्ट्रा करीक्यूलर एक्टिविटीज में भागीदारी शुरू हो गयी...।’’
उनके बचपन के दोस्त निहाल का जिक्र कई बार आता है। उनके बुरे समय में भी निहाल हमेशा उनके साथ बना रहा। उन्हें और निहाल को जुए की लत लग गयी, जिस कारण वो स्कूल से निकाले भी जा सकते थे पर बच गये। उस कच्ची उम्र में वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में भी शामिल हुए। वे लिखते हैं, ‘‘जब मेरे पिताजी ने पूछा: जानते हो गांधी जी की हत्या हो गयी। अच्छा हुआ कहकर मैं अंदर चला गया...।’’ उनके बचपन में अपनी बहनों और चचेरे भाइयों के साथ बिताये गये शरारत भरे दिन हैं तो गोरखपुर में होने वाली रामलीला भी, ‘‘भरत मिलाप में खूब अद्भुद झाँकियाँ निकलती थी...उँघती सीता बार-बार राम के कंधे में गिर जाती या भगत सिंह फाँसी के फंदे से ही गला खुजलाने लगता...।’’ बचपन में कुछ लड़कियों के प्रति हुए अपने आकर्षण को भी उन्होंने नहीं छोड़ा है।
1952 में हुए आजाद भारत के पहले चुनाव के समय उनकी उम्र 14 वर्ष थी, ‘‘पहला आम चुनाव वास्तव में भारतीय संसदीय राजनीति का उत्कर्ष था। उसके बाद तो पतन बढ़ता ही गया। पहले चुनाव के बाद विधानसभाओं में, खासतौर से लोकसभा में, ऐसे प्रतिभाशाली और जनसमर्थक लोग चुने गये थे कि उन्होंने संसदीय जनतंत्र की एक पुख्ता नींव रख दी। इसे विडम्बना ही कहेंगे कि ऐसी नींव पर इतनी कमजोर और बदसूरत इमारत खड़ी की जा रही है...।’’
आगे की पढ़ाई के लिये आनन्दनगर से गोरखपुर के सेंट ऐंडूªज काॅलेज आना पड़ा। वहाँ उन्होंने पैसों की तंगी के बावजूद मुहल्ले के बच्चों के साथ मिलकर एक क्लब बनाया जिसमें कुछ खेल का सामान और अखबार पढ़ने की व्यवस्था की, पर समय की कमी के कारण में ये क्लब ज्यादा चल नहीं पाया। अपनी उम्र के सोलहवें वर्ष में अपनी शिक्षा के बारे में कठिन निर्णय लेते हुए उन्होंने तय किया कि वे अब साइंस नहीं बल्कि कला की पढ़ाई करेंगे और पिता व शिक्षकों के समझाने के बावजूद भी नहीं माने। अपने विद्यालय के शिक्षकों के बारे में भी उन्होंने विस्तार से लिखा है। इन शिक्षकों के साथ जो आत्मीय संबंध बने वो तो ताउम्र नहीं छूटे। पढ़ाई के दौरान ही पिता के देहांत से उनकी आर्थिक स्थिति दयनीय हो गई, ‘‘सारे कर्मकांड हुए और रिश्तेदार मुँह लटकाये अपने-अपने घर चले गये। किसी ने बात तक नहीं की कि माँ का और मेरी पढ़ाई का क्या होगा...।’’
सेंट एंड्रूज काॅलेज में ही पढ़ाई के दौरान उन्होंने प्रेसीडेंट का चुनाव लड़ा और जीता। इस दौरान काॅलेज की एक शादीशुदा महिला विद्यार्थी से उनकी दोस्ती परवान चढ़ी। उनके कार्यकाल में काॅलेज में बेहतरीन भाषणों का एक दौर शुरू हुआ, जिसमें पं. दीनदयाल उपाध्याय, डाॅ राधाकृष्णन, भगवतशरण उपाध्याय, हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसी हस्तियों के भाषण करवाये गये। ‘‘उस समय भी छात्रों में दादा होते थे और कभी-कभी छात्रों द्वारा गुंडागर्दी के उदाहरण भी मिलते थे, पर आज की तरह छात्रों पर उच्छृंखलता और अभद्रता के आरोप नहीं लगते थे क्योंकि छात्रों के इस ओर ले जाने वाला समाज और संस्थायें आज की तरह गैर जिम्मेदार नहीं हुए थे...।’’
गोरखपुर के बाद वे लखनऊ विश्वविद्यालय में आये। इस विश्वविद्यालय के शिक्षकों और यहाँ हुई दोस्तियों के बारे में उन्होंने बहुत विस्तार से लिखा है। वहाँ हाॅस्टल में बिताये दिन उनके जीवन के सबसे हसीन और खूबसूरत रहे, मगर आर्थिक तंगी के कारण उन्हें माँ के गहने तक पढ़ाई के लिये बेचने पड़े, ‘‘माँ के पास दो तीन जेवर ही थे जिसे शायद उसने अपनी बहू के लिये संजो के रखा हो। मैं अपनी लाचारगी पर क्षुब्ध और शर्मिंदा था पर और कोई उपाय तो था नहीं इसलिये जेवर बेचे गये जिससे दो-तीन हजार रुपये मिले होंगे...।’’
पढ़ाई के बाद बलिया में शिक्षक के तौर पर नौकरी मिल गयी। इस दौरान वे कस्बाई राजनीति के शिकार हुए। जल्दी ही उनकी शादी हो गयी, मगर परिस्थितियों ने उन्हें काफी समय तक पत्नी को उनके मायके, कलकत्ता में ही रखना पड़ा, ‘‘इस दौरान जब हम दूर-दूर थे, हमारे जीवन के सबसे रूमानी दिन थे। हम इतनी लम्बी-लम्बी चिट्ठियाँ लिखते थे कि लिफाफा विद्रोह कर देता था...’’ एक बेबाक टिप्पणी उनकी अपने पिता की भूमिका पर है, ‘‘मैं जानता हूँ कि मैं सामान्य बापों की तुलना में बुरा नहीं हूँ पर स्वयं अपनी नजरों में, मैं अपने को गलत मानता हूँ...।’’
उनके बलिया प्रवास के दौरान ही चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया। उस समय देशभक्ति का आवेग उफान पर था, ‘‘पहले देशभक्ति की सरकारी व्याख्या ही पूरी तरह देशभक्ति मानी जाती थी और जो उसे न माने वह देश-विरोधी करार दिया जाता। हालात आज भी कमोबेश वही हैं...। बहरहाल उस समय मैं सरकारी देशभक्त हुआ करता था और चीन के बारे में सरकारी व्याख्या को ही स्वीकार करता था...।’’
शिक्षक और शोध कार्य के पर उनकी टिप्पणियाँ दिलचस्प और बेबाक हैं। गोरखपुर विश्वविद्यालय में ‘‘...एंग्लो-इंडियन कम्युनिटी इन नाइनटीन्थ सेंच्यूरी इंडिया विषय पर पंजीकरण करवा लिया...मेरा शोध पूरा भी हो गया और मैं डाॅक्टर कहलाने लगा... अब तो कुछ गाइड पैसे लेकर थीसिस थमा देते हैं... वाईवा के समय शोधार्थी के सामने मुस्कुराते हुए गाइड महोदय और बाहर से आये परीक्षक जी मौजूद होते हैं जो अपना टीए वसूलने और मिठाई खाने के बीच चलताऊ सवाल पूछ कर शोधार्थी को बधाई दे देते हैं...।’’ ‘‘अधिकांश तो शिक्षक ही नहीं होते। कोई भी अन्य अयोग्य पेशेवर समाज का उतना नुकसान नहीं कर सकता जितना कि अयोग्य शिक्षक करता है...।’’
इसी दौरान उन्हें फ्रांस जाने के लिये छात्रवृत्ति मिली। मगर आर्थिक तंगी के चलते इसको लेकर तनाव पैदा हो गया, वो लिखते हैं ‘‘एक दिन तो मैंने हद ही कर दी...रजनी ने जैसे ही खाने की थाली मेज पर रखी मैंने उसे झटक कर आंगन में फेंक दिया...उस अमानवीय और आपराधिक कृत्य के लिये मैं आज भी शर्मशार होता हूँ...।’’
फ्रांस में ‘‘सिंथेटिक पैंट और जीजाजी द्वारा दिया गया नीला ओवरकोट पहने हुए जब मैं आॅर्ली हवाई अड्डे पर उतरा तो चकित हो गया........मुझे फ्रेंच भाषा सीखने एक छोटे से नगर ‘रोयां’ जाना था पर सब इतना व्यवस्थित था कि भाषा न आने के कारण भी मुझे कठिनाई नहीं हुई...।’’ रोयां में एक बार उनके घर में आग लगते-लगते बची। निकोल नाम की एक लड़की के साथ गहरी दोस्ती हुई, मगर फिर टूट गई।
वे जब पेरिस पहुँचे थे, उस मई 1968 के ऐतिहासिक छात्र-मजदूर आंदोलन के बाद फ्रांस सामान्यता की ओर लौट रहा था। मगर उस वक्त मिली जानकारियों के कारण उन्होंने अपना उपन्यास ‘मई-68 पेरिस’ लिखा। पेरिस में बिताई जिंदगी अभी भी उनके मन में रची-बसी है। ‘‘पेरिस में मेरी ज्ञानेन्द्रियों और मस्तिष्क को इतनी खुराक मिल रही थी जितनी जीवन में न पहले कभी मिली न बाद में...मैं पेरिस से डिग्री ही नहीं जीने की तमीज लेकर लौटा हूँ...इसलिये लौटने के बाद मेरा जीवन बेहतर होता गया है और बेहतर होता जा रहा है...।’’
फ्रांस में उनके रिसर्च गाइड प्रकांड विद्वान रेमों आरों थे, जिन्होंने अप्रत्याशित रूप से उन्हें अपना शोध छात्र स्वीकार कर लिया। इसी शोध के दौरान जब उनकी मां का देहांत हुआ तो रेमों आरों ने ही उनके भारत जाने और लौटने का सारा इंतजाम करवा दिया।
पेरिस में उनकी दोस्ती तूलिका, मुन्नी व फिरोज से हुई। एक आगा साहब भी थे, जिनका परिवार अल्मोड़ा से कराची चला गया था। उनके साथ ‘‘एक समझौता हो गया कि हम कभी कश्मीर पर बात नहीं करेंगे। हम दोनों को ही डर था कि कहीं रिश्तों में खटास न आ जाये। फिर तो हमारी खूब छनने लगी...।’’
यह एक रोचक, मगर अपने समय की सच्चाइयों का सामना कराने वाली साहसी आत्मकथा है। परन्तु शायद इसे कुछ और कसा हुआ होना चाहिये था। शुरू में यह थोड़ी उबाऊ लगती है, मगर जैसे-जैसे पुस्तक आगे बढ़ती है रोचकता बढ़ती जाती है और पढ़ने में मजा आने लगता है। अलबत्ता प्रूफ की गलतियाँ सुधारने में ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिये था।
जीवन प्रवाह में बहते हुए (आत्मकथा)
लेखक: लालबहादुर वर्मा
प्रकाशक: संवाद प्रकाशन, आई- 499, शास्त्री नगर, मेरठ
मूल्य: 200 रुपये