Tuesday, December 9, 2008

चेन्नई यात्रा - भाग १

मेरी यह यात्रा सुनामी हादसे से सिर्फ कुछ महीने पहले की है। इस यात्रा की तस्वीरें खराब हो जाने के कारण मैं उन्हें नहीं लगा पाउंगी जिसका मुझे अफसोस है।

सुनामी हादसे के बारे में सुना तो एक पल के लिये यकीन ही नहीं हुआ कि कुछ समय पहले जिन लहरों के बीच मैं एक छोटी सी बच्ची रेहा का हाथ थामे हुए इतना मजा ले रही थी, वही शांत लहरें एक दिन विकट रूप लेकर हजारों लोगों को अपने साथ बहा ले जायेंगी। इन लहरों में अपना जीवन तलाशने वाले कितने ही मासूम पूरी जिन्दगी इन लहरों से घृणा करने लगेंगे.......

9 नवम्बर को अपराह्न 1 बजे जब हम चेन्नई पहुँचे, आकाश काले-काले बादलों से घिरा हुआ था और झमाझम बारिश हो रही थी। मेरे जैसे पहाड़ी के लिये यह मौसम अच्छा ही था। नैनीताल में तो हम अक्टूबर की शुरूआत में ही मानसून को अलविदा कह चुके थे। कामराज डोमेस्टिक चिन्नई हवाई अड्डे से वीरूगमबाक्कम जाते हुए टैक्सी से बाहर झाँकने पर तमिल सिनेमा के चर्चित कलाकार रजनीकांत और राजनीति की चर्चित खिलाड़ी जयललिता के पोस्टर सबसे ज्यादा नजर आये। हर गली के नुक्कड़ पर जयललिता की मुस्कुराती तस्वीर मानो आम जनता को मुँह चिढ़ा रही हो कि देखो सिर्फ मैं ही हँस सकती हूँ। क्योंकि जनता तो उन दिनों उनसे मासूम हाथियों की बलि देने के कारण नाराज दिखाई दे रही थी। यह मुद्दा वहाँ के न्यूज चैनलों पर छाया हुआ था।

दूसरे दिन टी नगर (त्यागराज नगर) जाने का मौका मिला। जहाँ-तहाँ पर घंटों का जाम लगा हुआ था। हर तरफ इतनी भीड़ इतना शोरशराबा कि दिमाग खराब हो जाये। जिस चीज ने मेरा सबसे ज्यादा धयान खींचा वह यह कि ज्यादातर दुकानों में औरतें ही काम करती नजर आई। गिनती की ही दुकानों पर पुरुष थे। 3-4 दिन बाद दीवाली आने वाली थी और बाजार में काफी भीड़ थी। मैं जिन दुकानों में भी गई, लोग मुझे अपनी परम्परागत पोशाकें और इसी तरह की चीजें खरीदते दिखे। यहाँ दीवाली में उत्तरी भारत की तरह अमावस्या के दिन लक्ष्मी की पूजा नहीं की जाती, बल्कि नरहर चतुर्दशी को दीवाली मनाते हैं। मान्यता है कि इस दिन नरकासुर के आतंक से मुक्ति मिली थी।

दीवाली के दिन सुबह घर का मुखिया परिवार के सभी सदस्यों के सिर पर तेल लगाता है और फिर सब लोग स्नान कर नये कपड़े पहनते हैं, जिन्हें पहले मंदिर में रखा जाता है। सवेरे से ही खाने का जोर रहता है। ब्राह्मण ज्यादातर शाकाहारी खाना ही खाते हैं, जबकि ब्राह्मणेतर लोग मांस खाकर खुशी मनाते हैं। गलागला नामक एक विशेष प्रकार की मिठाई तैयार की जाती है, जो हमारे घुघुतों की तरह ही होती है। फर्क इतना है कि गुड़ की जगह चीनी का प्रयोग किया जाता है और उनका आकार भी घुघुतों जैसा नहीं होता। भोजन केले के पत्तों में परोसा जाता है। दीवाली के दिन घर में बिजली की मालायें लगाने का रिवाज नहीं दिखायी दिया, पर घर के बाहर ढेर सारे सूखे रंगों से रंगोली बनाने का रिवाज था, जो हमारे ऐपणों से पूरी तरह भिन्न थी। शाम को पटाखों धूम धड़ाके और धुएँ से चेन्नई शहर भरा हुआ था। मैं जबसे वहाँ गयी थी, मुझे कभी भी अपने पहाड़ों के जैसा तारों से भरा नीला आसमान नजर ही नहीं आया था। इस बात पर मैं अपने एक दोस्त को चिढ़ा भी रही थी की मैं तेरे मद्रास के बिना तारों वाले बदरंग आसमान में थोड़ा नीला रंग और दो-चार तारे ढूँढने की कोशिश कर रही हूँ। पर दीवाली वाले दिन तो आसमान की कल्पना करना ही मुश्किल था।

अगले दिन हमने अपनी कुमाउंनी दीवाली मनाई। व्रत रखा और पूरा बाजार छानकर एक खील का पैकेट खरीद कर लाये जिसमें मुश्किल से दो मुठ्ठी खील होगी, पर कीमत थी 30 रु.! बहरहाल खाँड के खिलौने और बताशे तो हमें नहीं ही मिले। सरसों के तेल के दियों की जगह भी दिये के आकार वाली मोमबत्तियाँ जला कर काम चलाया।

(जारी......)