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Tuesday, December 6, 2011

मिलम ग्लेशियर और नन्दा देवी ट्रेक


अभी कुछ दिन पहले ही मैं मिलम ग्लेशियर और नन्दा देवी के ट्रेक से बहुत सारी यादों और बहुत सारी तस्वीरों के साथ लौटी हूं। कई लोगों ने मुझे ब्लाॅग में वहां के बारे में लिखने को कहा था इसलिये एक बेहद ही छोटा सा यात्रा वृतांत ब्लाॅग में लगा रही हूं। विस्तार से लिखना मैं शुरू कर चुकी हूं इसलिये जल्दी ही विस्तार यात्रा वृतांत ब्लाॅग में लगाना शुरू कर दूंगी। 

कुछ तस्वीरें में वहां की पहले एक पोस्ट में लगा चुकी हूं कुछ और तस्वीरें अगली पोस्ट में लगाउंगी तब तक आप इसे पढि़ये और बताइये कि कैसा लगा ?

मुझे जब से ट्रेकिंग का चस्का चढ़ा था तब से ही मिलम ग्लेशियर और नन्दा देवी बेस कैम्प जाना सपना था और इस बार यह शानदार मौका मिल ही गया। हमारी ट्रेकिंग मुनस्यारी से शुरू होनी थी सो एक दिन पहले मैं पिथौरागढ़ पहुंची वहां एक रात रुक कर अगले दिन मुनस्यारी के लिये निकल गयी। पिथौरागढ़ से मुनस्यारी वाला रास्ता आजकल बहुत अच्छा लग रहा था। कई झरने इस रास्ते में दिखायी दिये और कुछ तो रोड के उपर भी गिर रहे थे। मैं शाम को 4 बजे मुनस्यारी पहुंची और जाकर अपने गाइड सेंडी और बांकी की टीम से मिली। 

अगली सुबह 10 बजे हमने धापा से ट्रेकिंग शुरू की। आज हमें 8 किमी. ट्रेक करना था। पहले हम पथरीले रास्ते से होते हुए जिमीगाड़ पहुंचे। यहां से एक पुल पार करते हुए लीलाम के लिये खड़ी चढ़ाई शुरू हो गयी। तेज धूप और वजन के साथ इस चढ़ाई को पार करना काफी थका देने वाला रहा पर घाटी की खूबसूरती और रास्ते में आने वाली गुफाओं में बैठने के कारण चढ़ाई थोड़ी आसान लगने लगी। रास्ता खतरनाक था और नीचे गोरी गंगा बह रही थी जो मिलम ग्लेशियर से निकलती है। छोटी सी गलती हमें गोरी में डालने के लिये काफी होती। खैर कुछ समय बाद हम अपने पहले पड़ाव लीलाम (1850 मी.) पहुंचे और टेंट लगा कर खाना बनाया। अब हल्की बारिश भी होने लगी थी। शाम को मैंने कुछ गांव वालों से बातें की पर थोड़ी निराशा हुई क्योंकि सब टल्ली पड़े थे। वहां से लौट कर खाना खाया और अपने टेंट में सोने चली गयी। अगले दिन हमने 16-17 किमी. का ट्रैक करना था।

सुबह हल्की ठंडी थी। ब्रेकफास्ट निपटा कर बोगडियार (2450 मी.) के लिये निकल गये। रास्ते में खूब बड़ी छिपकलियां फुदकती दिखायी दी। इस घाटी को जोहार घाटी कहते हैं। यहां के लोग खानाबदोश होते हैं और इनका काम व्यापार करना है। सर्दियों में ये गर्म इलाकों में आ जाते हैं। कई लोग अपने भेड़ों के साथ मुनस्यारी जाते हुए दिखायी दिये जिनसे मैंने बातें भी की। रास्ते में विशालकाय झरने दिख रहे थे और गोरी अपनी दहाड़ती हुई आवाज और तेज बहाव के साथ हमारे साथ चल रही थी। कई जगह काफी खड़ी चढ़ाई थी पर घाटी का नजारा बेहद खूबसूरत था। यहां बांस का घना जंगल भी दिखा और कई गुफायें मिली। करीब 1 बजे हम रंङगाड़ी होते हुए गरमपानी के चश्मे के पास पहुंचे। यहां कुछ देर पानी में पैर डाल कर थकान मिटाई लंच किया और आगे बढ़ गये। रास्ते में छोटी-छोटी झोपडि़या मिली जिनमें चाय-खाना तो मिलता ही है जरूरत पड़ने पर रहने का इंतजाम भी हो जाता है। रास्ता कई जगह पर टूटा हुआ था इसलिये हम कभी लम्बे रास्ते से या कहीं टूटे हुए रास्तों को ही जैसे-तैसे पार करके आगे बढ़े। शाम करीब 5.30 बजे हम बोगडियार पहुंचे। यहां गोरी के किनारे टेंट लगाये और खाने की तैयारी की। बोगडियार में थोड़ी ठंडी थी पर आसमान बेहद खूबसूरत लग रहा था। जल्दी खाना निपटा कर टेंट में सोने चले गये। अगली सुबह फिर हमें जल्दी ही ट्रेकिंग शुरू करनी थी।

सुबह ठंडी में ही ब्रेकफास्ट कर हम मर्तोली गांव (3430 मी.) के लिये निकल गये। मौसम अच्छा था और ताजगी के साथ हमने ट्रेकिंग शुरू की। शुरू में रास्ता अच्छा था पर फिर खतरनाक और खड़ी चढ़ाई वाला हो गया। रास्ते की खूबसूरती बरकरार थी। ऊँचे-ऊँचे पहाड़, साफ नीला आकाश उसमें बादलों के तैरते हुए टुकड़े और गोरी के बहने का संगीत। इससे अच्छा नजारा कुछ और नहीं हो सकता था। कुछ देर बाद हम मापांग पहुंच गये। रास्ते में अभी भी विशाल झरने मिल रहे थे कुछ तो रास्ते के बीच में भी गिर रहे थे जिनमें से भीगते हुए निकलने में बड़ा मजा आ रहा था। एक तीखी चढ़ाई चढ़ने के बाद हम लास्पा गांव पहुंचे यहां एक झोपड़ी में बैठ कर खाना खाया, चाय पी और कुछ देर आराम कर आगे निकल गये। पेड़ अब गायब होने लगे थे। उनकी जगह बुग्यालों ने ले ली थी। यहां से हमें भूरे पहाड़ दिखने लगे थे। रास्ता अच्छा था और कभी गोरी के करीब जाता तो कभी उससे दूर हो जाता। यह रास्ता एक जगह पर पूरी तरह टूटा हुआ था जिसे मैंने सेंडी की मदद से जैसे-तैसे पार किया। 2-3 घंटे बाद हम रिल्कोट पहुंचे और यहां से मर्तोली गांव को बढ़ गये। अब शाम होने लगी थी और थकावट भी महसूस हो रही थी। मर्तोली के लिये हमें फिर से एक तीखी चढ़ाई चढ़नी थी जो उस समय बहुत अखर रही थी। जैसे-तैसे इसे पार किया पर अभी भी हमें करीब 6-7 किमी. और चलना था। मर्तोली गावं पहुंचने से पहले हमें बुग्याल दिखा जिसे पार कर अंधेरे में हम मर्तोली पहुंचे। गांव पहुंचने पर एक डरावना एहसास हुआ। लगा जैसे किसी भूतहा जगह पर आ गये हों जहां सारे मकान खंडहर पड़े हैं। इधर-उधर भटकने के बाद 2 लोग मिले जिनसे हमने टेंट लगाने की जगह पूछी। मर्तोली में बेहद ठंडी थी और आज हम करीब 22-23 किमी. चल कर बुरी तरह थके थे इसलिये खिचड़ी खाकर ही सोने चले गये। 

सुबह जब मैं अपने टेंट से बाहर आयी तो देखा पाले (फ्राॅस्ट) से सब सफेद हो रखा था और बेहद ठंडी थी। मैं कुछ ही दूरी पर बने नन्दा देवी के मंदिर और गांव को देखने चली गयी। नन्दा देवी जोहारियों की ईष्ट देवी हैं इसलिये हर गांव में उनका मंदिर जरूर होता है। मर्तोली गांव मर्तोली पीक के नीचे बसा है। गांव के मकान पत्थरों के थे जिनका आर्किटेक्ट पारम्परिक था पर लोगों के चले जाने के कारण अब ज्यादातर मकान खंडहर हो चुके हैं। कुछ परिवार जो बचे हैं वो आजकल मुनस्यारी जा रहे थे इसलिये गांव में सन्नाटा पसरा था। गांव में घूमने के बाद मैं वापस आयी और ब्रेकफास्ट करके गनघर की ओर निकलने की तैयारी शुरू की।

आज हमें 10 किमी. का ट्रेक कर गनघर (3328 मी.) पहुंचना था। मर्तोली से एक तीखा ढलान उतर कर पुल पार करते हुए बुर्फू पहुंचे। एक तीखी चढ़ाई के अलावा आज का रास्ता काफी अच्छा था। बीच में हमें बुग्याल मिलतेे रहे जिनमें पीली घास के झुरमुट लगे थे। यहां बहुत तेज हवायें चल रही थी जिसके कारण  चलने में परेशानी हो रही थी। गोरी अभी भी हमारे साथ में थी। हम 2 बजे गनघर पहुंचे। जब हम यहां पहुंचे औरतों ने मेरे हाथ में कैमरा देख कर मोबाइल में गाना लगा कर नाचना शुरू कर दिया। यहां भी बिजली नहीं है पर सोलर लाइट की वजह से थोड़ा बहुत काम चल जाता है। जगह ढूंढ कर हमने टेंट लगाये। आज आराम से खाना बनाया और अगले दिन मिलम ग्लेशियर (3500 मी.) जाने का प्लान बनाया। 

सुबह करीब 6 बजे हम मिलम ग्लेशियर के लिये निकल गये। मिलम ग्लेशियर एशिया का सबसे बड़ा ग्लेशियर है। रास्ते में पाछू नदी और पाछू गांव से निकलते हुए लकड़ी के बने खरतनाक पुल को पार कर मिलम की ओर बढ़े। यहां तिब्बत से आने वाली ग्वांख नदी और गोरी का संगम भी है। मिलम का रास्ता ठीक था पर एक बेहद तीखी खड़ी चढ़ाई ने हालत खराब कर दी। पर हीदेवल पीक के नजारे ने थकान को गायब कर दिया। खैर यहां से उबड़-खाबड़ पथरीला रास्ता पार करते हुए हम आगे बढ़े तो ग्लेशियर  दिखना शुरू हो गया। मेरा सपना पूरा हो रहा था। उस समय मैं क्या महसूस कर रही थी शब्दों मे बता पाना मुश्किल है पर मुझे ग्लेशियर के पास जाना था और गोरी का सोर्स देखना था सो हम आगे निकल गये। हम हजारों वर्ष से इकट्ठा होकर सख्त हो चुकी बर्फ के ऊपर थे। यह जगह किसी स्टोन क्रेशर से कम नही थी। जहां तहां सिर्फ पत्थरों के ढेर थे और इन्हीं के ऊपर से रास्ता बना के हम आगे बढ़े और ग्लेशियर के पास पहुंचे। ग्लेशियर से पानी टपक रहा था और ऊपर से पत्थर गिर रहे थे इसलिये यह जगह बेहद खतरनाक थी। कुछ देर यहां रुकने के बाद हम गोरी का मुहाना देखने निकल गये। जिसके लिये हमें काफी लम्बा रास्ता पत्थरों के ढेरों से तय करना पड़ा। यहां आकर प्रकृति की ताकत का अहसास हो रहा था। गोरी के मुहाने के पास पहुंचे तो देखा वहां इतने ज्यादा पत्थर गिर रहे थे कि ज्यादा रुकना कठिन था इसलिये स्नाउट देखकर फौरन वापस लौट लिये। इस उबड़-खाबड़ रास्ते को पार कर हम ढंग के रास्ते पर पहुंचे। थोड़ी देर सुस्ताने के बाद मिलम गांव की ओर निकल गये। यह गांव 500 परिवारों का है पर अब यहां भी कुछ ही परिवार रह गये हैं। यहां से हम वापस गनघर आ गये। 

अगले दिन हम नन्दा देवी ईस्ट बेस कैम्प (4297 मी.) के लिये निकल गये। यहां जाने के लिये हमें बेहद तीखी चढ़ाई चढ़नी पड़ी पर बीच-बीच में बुग्याल और पानी के सोते थोड़ा थकावट कम कर रहे थे। हमें नीचे से ही नन्दा देवी का नजारा दिखने लगा था। जैसे-जैसे इसके नजदीक पहुंचे हमें बुरांश की झाडि़या और भोज पत्र के पेड़ दिखने लगे। बेस कैम्प में पहुंचने पर हम सुस्ता कर बैठ गये। यहां से पाछू नदी निकलती है जो नीचे जाकर गोरी में ही मिल जाती है। जिस समय हम यहां पहुंचे नन्दा देवी के ऊपर बादल छाने लगे थे पर फिर भी हमें अच्छा नजारा मिल गया। हमारा मिशन यहां पूरा हो चुका था। 
10 दिन के टेªक में हम 155-160 किमी. पैदल चले। मैं इस सफर में एक अलग ही जीवन शैली और प्राकृतिक सुन्दरता से रुबरू हुई जिसे छोड़ कर वापस लौटना बुरा लग रहा था पर वापस तो आना ही था... कुछ समय यहां बिताने के बाद वापसी का सफर तय करते हुए बुर्फू लौट आये। बुर्फू से नाहरदेवी-गरमपानी-लीलाम होते हुए वापस मुनस्यारी। 

विस्तार से जल्दी ही पोस्ट लगाना शुरू करूंगी।

Monday, October 17, 2011

My Milam Glacier And Nanda Devi Base Camp Trek

Friends, just few days ago I am back from Milam Glacier (3500 m.) and Nanda Devi East Base Camp (4297 m.)Trek… Milam Glacier is a snout of Gori Ganga and in our whole trek; Gori was following us with her roaring voice and huge rapids. In 10 days we trekked around 155-160 km. I got lots of experiences from this high altitude trekking which I will share with you all next time…This valley known as Johar Valley. Here I came across with the different sort culture and life style and natural beauty but this time I am sharing some pictures of my trekking… I am still in a spell of the beauty of this valley…

Monday, May 16, 2011

मेरी रानीखेत यात्रा - 2


जिस समय तक हम दोस्त की बहन के घर पहुंचे हमें 4.30 बज गये थे और ठंडी भी बहुत बढ़ गयी थी। घर में दीवाली की रौनक थी जिसमें हम भी शामिल हो गये और हमारा पैदल बाजार आने का प्लान केंसिल हो गया। रानीखेत में भी शाम के समय दीवाली की काफी रौनक थी पर मुझे नैनीताल के मुकाबले थोड़ा कम ही लगी क्योंकि बहुत ज्यादा पटाखों का शोर नहीं सुनाई दे रहा था जो कि हर लिहाज से बहुत अच्छा था। हमने बरामदे में खड़े होकर कुछ देर तक दीवाली का नजारा देखा पर ठंडी से बुरा हाल हो जाने के कारण अंदर आ गये और गप्पें मारने लगे। अगली सुबह करीब 9 बजे हमें वापस नैनीताल लौटना था सो हमने खाना खाया और सो गये।





सुबह थोड़ी आलस भरी थी क्योंकि अच्छी खासी ठंडी थी। थोड़ा आलस करने के बाद हम उठे और बाहर बरामदे में आ गये। यहाँ से हिमालय का नजारा दिखायी दे रहा था पर उसके ऊपर बादल छाये थे। खैर हिमालय का नजारा देखते हुए गुनगुनी धूप में काॅफी पीने का अलग ही मजा होता है जिसका हमने पूरा फायदा उठाया। हमें आज 9 बजे रानीखेत से निकलना था क्योंकि फिर मेरी दोस्त के भाई को दिल्ली जाना था। इसलिये हम नाश्ता कर के ठीक 9 बजे वहाँ से निकल गये। सुबह की धूप में रानीखेत अलग ही मूड में लग रहा था। जब हम वापस लौट रहे थे तब अचानक ही हमने झूला देवी के मंदिर जाने का फैसला कर लिया और गाड़ी वहाँ को मोड़ ली।


यह मंदिर रानीखेत से 7 किमी. दूरी पर चैबटिया जाने वाले रास्ते में है। जब हम इस रास्ते पर बढ़े तो चैबटिया का घना जंगल शुरू हो गया। इस जंगल में कई प्रजाति के पेड़-पौंधे हैं। जंगलों के बीच से जाती हुई सड़क बहुत अच्छी लगती है। झूला देवी मंदिर के बारे में कहा जाता है कि पहले यहाँ काफी घना जंगल था और इसमें कई जंगली जानवर थे जो ग्रामीणों पर हमला कर उन्हें मार देते थे। ग्रामीणों ने मां दुर्गा से अपनी रक्षा की प्रार्थना की। मां दुर्गा ने एक ग्रामीण के सपने में आकर इस स्थान पर अपना मंदिर बनाने के लिये कहा। जब यहाँ पर खुदाई की गई तो मां दुर्गा की मूर्ति निकली जिसे इसी जगह पर स्थापित कर दिया गया। बाद में देवी ने फिर सपने में आकर इस मंदिर में झूला लगाने के लिये कहा जिसके बाद से इसे झूला देवी का मंदिर कहा जाने लगा। इस मंदिर के चारों ओर अनगिनत छोटी-बड़ी घन्टियां टंगी हुई हैं जिन्हें श्रृद्धालु आकर मंदिर में चढ़ा जाते हैं।

यहाँ से फिर हम नैनीताल के लिये वापस लौट लिये। जब हम वापस लौट रहे थे तो अचानक गाड़ी में जोर-जोर से झटके लगने लगे। पीछे बैठे होने के कारण मुझे झटके ज्यादा जोर से लग रहे थे। मैंने अपने दोस्त को गाड़ी की स्पीड कम करने को कहा। उसने बोला उसने स्पीड कम ही रखी है। खैर कुछ देर ऐसे ही चलता रहा और फिर झटके और जोर से लगने लगे। मैंने स्पीड कम करने के लिये कहा तो उसने बोला कि स्पीड तो कम ही है। कुछ देर बाद जब बुरी तरह झटके लगने लगे तो मैंने गुस्से के साथ उसे बोला कि वो गाड़ी रोक के मुझे यहीं उतार दे मैं किसी दूसरी टैक्सी से आ जाउंगी तो उसने मुझे गाड़ी की स्पीड देखने को बोला जो 20-25 की स्पीड पे चल रही थी। मुझे यकीन नहीं हुआ कि इतनी कम स्पीड में इतने झटके क्यों लग रहे हैं। हमने गाड़ी रोक कर जब टायर देखे तो पता चला कि पीछे वाला टायर बुरी तरह फट गया था।


हालांकि रोडसाइड बोर्ड यात्रा के सुखद होने और प्रकृति की सुन्दरता को इन्जाॅय करने की कामना कर रहे थे पर फिर भी हमारा अच्छा खासा सफ़र अंग्रेजी वाला सफर बन गया था पर अच्छा यह था कि हमारे पास स्टेपनी रखी हुई थी सो हमने गाड़ी साइड लगा कर टायर बदलना शुरू कर दिया। जब हम टायर बदल रहे थे तो आने-जाने वाले लोग हमें ऐसे देख रहे थे जैसे हम पता नहीं क्या कर रहे हों...कुछ सज्जन ऐसे भी थे जो ये दिखा रहे थे कि अब तो हमें इस महान मुसीबत से बस वो ही बचा सकते हैं और कुछ लोग अपनी फ्री एडवाइस देने से भी बाज़ नहीं आये। खैर हमने टायर बदला और आगे निकल लिये। इसके आगे का रास्ता अच्छे से बीता पर बेचारे टायर की हालत देख कर बहुत अफसोस हुआ और साथ में अपनी अच्छी किस्मत पर खुशी भी हुई की गाड़ी पलटी नहीं। इस बार समय बहुत कम होने के कारण मैं रानीखेत को बहुत अच्छे से नहीं देख पायी इसलिये एक बार फिर रानीखेत जाना तो तय है...

समाप्त

Monday, May 9, 2011

मेरी रानीखेत यात्रा-1


रानीखेत की मेरी यह यात्रा 5-6 नवम्बर 2010 को दीवाली वाले दिन की है। हमेशा की तरह मेरी यह यात्रा भी अचानक ही बनी और ऐसी यात्रायें हमेशा बहुत मजेदार रहती हैं। हुआ कुछ ऐसा कि दीवाली से एक दिन पहले मेरी दोस्त ने बोला कि वो और उसका भाई दीवाली मनाने अपनी बहन के पास रानीखेत जा रहे हैं। उसने मुझे भी साथ चलने के लिये बोला जिसे मैंने तुरंत स्वीकार कर लिया।

अगली सुबह दीवाली वाले दिन हम 11 बजे रानीखेत के लिये निकल गये। रास्ते में हमें कई जगह ट्रेफिक जैम का सामना करना पड़ा जिस कारण देरी भी हो रही थी। हमें भवाली पहुंचने में ही काफी समय लग गया पर भवाली से आगे फिर इतना बुरा हाल नहीं था। हमने तय किया कि गरमपानी में रुक कर रायता-पकौड़ी खायेंगे। गरमपानी अपने स्पेशल तरह के तीखे रायते और पकौड़ी के लिये प्रसिद्ध है। मेरी दोस्त का भाई रायते से ऐसा बेहाल हुआ कि काफी देर तक बेचारा आंख और नाक पोछते हुए ही गाड़ी चलाता रहा। कुछ समय वहाँ रुकने के बाद हम आगे निकल गये और रानीखेत जाने के लिये खैरना पुल को पार किया। रानीखेत वाला रास्ता मेरे लिये नया था। यह रास्ता मुझे अल्मोड़ा वाले रास्ते से ज्यादा अच्छा लगा। यह रास्ता भी नदी के साथ-साथ ही चल रहा था। इसके किनारे के खेत और गांवों को देखना बहुत अच्छा लग रहा था। आजकल खेतों में सरसों और धान लगे थे जो खेतों को बहुत आकर्षक बना रही थी। हमने कुछ देर गाड़ी रोकी और इस घाटी का नजारा लिया। मौसम सुहावना था इसलिये गुनगुनी धूप में बैठना अच्छा भी लग रहा था। कुछ देर धूप का मजा लेने के बाद हम आगे बढ़ गये। रास्ते में हमें कई छोटे-छोटे गाँव दिखायी दिये। सड़कों के किनारे बनी छोटी-बड़ी बजारें भी दिखायी दे रही थी जिनमें जरूरत का सारा सामान मिल जाता है।





जैसे-जैसे हम रानीखेत के नजदीक पहुंचते गये जमीन की टोपोग्राफी आकर्षित करने लगी। जिसे लाल रंग की मिट्टी और ज्यादा आकर्षक बना रही थी। रानीखेत की समुद्रतल से ऊँचाई 1,869 मीटर है। मान्यता है कि यहां के राजा सुखहरदेव की पत्नी रानी पदमिनी को यह जगह बेहद पसंद थी इसलिये इस जगह का नाम भी रानीखेत पड़ गया। सन् 1869 में ब्रिटिशर्स ने यहाँ कुमाऊँ रेजीमेंट का हैडक्वार्टर बनाया। रानीखेत कैन्टोलमेंट क्षेत्र है इसलिये यह जगह आज भी बेहद व्यवस्थित है। जब हम रानीखेत पहुंचे तो हमने फैसला किया कि हम ताड़ीखेत होते हुए बिनसर महादेव के मंदिर जायेंगे और गाड़ी को ताड़ीखेत वाले रास्ते पर मोड़ लिया।



ताड़ीखेत बहुत अच्छी जगह है। यहाँ का रास्ता भी घने जंगलों के बीच से होता हुआ जाता है। यहाँ से हिमालय का भी शानदार नजारा दिखता है। करीब एक-डेढ़ घंटे में हम बिन्सर महादेव के मंदिर पहुंच गये। यह मंदिर काफी भव्य है। मान्यता है कि यहाँ शिव ध्यान करने के लिये आये थे। शिव के अलावा यहाँ माँ सरस्वती और ब्रह्या की मूर्तियां भी हैं। अपने वास्तु के लिये प्रसिद्ध इस मंदिर का निर्माण 9वीं सदी में राजा कल्याण सिंह ने मात्र एक दिन में ही किया था। मान्यता है कि बैकुण्ठ चतुर्दशी के दिन महिलायें हाथ में दिया जला कर बच्चे की कामना करती है। यह मंदिर चारों ओर से घने जंगल से घिरा हुआ है और इसकी समुद्रतल से ऊँचाई 8,136 फीट है। यहां ठंडी भी बहुत ज्यादा थी। यह मंदिर काफी साफ-सुथरा था और यहाँ एक संस्कृत विद्यालय भी चलता है। जब हम मंदिर से बाहर निकले तो आंगन में लकडि़यों की आग जल रही थी। ठंडी होने के कारण हम आग के पास चले गये। कुछ देर रुकने के बाद हम यहाँ से वापस लौट गये।


जब हम वापस रानीखेत पहुंचे तो शहर में प्रवेश करने से पहले चुंगी देनी पड़ी जिसके बाद ही हमें अंदर प्रवेश करने दिया गया। रानीखेत में आज भी पुराने समय के कोठियां, बंग्ले और मैदान दिख जाते हैं। आर्मी एरिया होने के कारण जगह काफी साफ है और किसी भी तरह का अवैधानिक निर्माण यहाँ नहीं हुआ है। यही कारण है कि इसकी खूबसूरती आज भी बनी हुई है। जब हम रानीखेत बाजार पहुंचे तो बाजार में दीवाली के कारण बहुत चहल-पहल थी और लगभग हर तरह का सामान बिक रहा था बस जेब में पैसा होना चाहिये...

जारी है...

Thursday, February 3, 2011

मेरी पिथौरागढ़ यात्रा - 4

करीब 4.30 बजे हम लोग ट्रेकिंग के लिये निकल गये। समय कम होने के कारण हमने थोड़ा रास्ता गाड़ी से तय किया। उसके बाद करीब 7-8 किमी. ट्रेकिंग की। हम जैसे ही थोड़ा आगे बढ़े कि सुनकड़िया गांव आया। यहां आते ही गांव की गंध आने लगी। हालांकि अब गांवों में शहरीपन का असर बढ़ने लगा है पर फिर भी थोड़े बहुत गंाव अभी बचे हुए हैं। देखने में गांव छोटा था पर मकान काफी अच्छे बने हुए थे। हमारा आगे का रास्ता एक घर से होकर जाता था इसलिये हम उसे घर की तरफ बढ़ गये। घर के बाहर गाय-भैंसे बंधे हुए थे और महिलायें खेतों में काम कर रही थी। एक बच्चा कटोरे में कुछ खा रहा था और हमें देख कर घर के अंदर भाग गया और एक कुत्ते ने जोरों से भोंकना शुरू कर दिया। खुशकिस्मिती से एक महिला आयी, जिसकी पोशाक बिल्कुल पहाड़ी थी और उसके सिर में एक कपड़ा बंधा था। उसने पहाड़ी भाषा में बोला जो मैं नहीं समझी। पिथौरागढ़ में काली कुमाउं बोली जाती है जो बांकी कुमाउंनी भाषा से थोड़ी अलग और कठिन होती है। खैर उसने कुत्ते को बांध दिया और हम आगे निकल गये।



आजकल खेतों में सरसों खिली हुई थी और कुछ मौसमी सब्जियां लगी थी। गांव में एक मंदिर भी था जो यहां के ईष्ट देव का था। अब धीरे-धीरे गांव पीछे छूटता जा रहा था। कुछ आगे पहुंचने पर एक बौद्ध मठ दिखायी दिया। लाल रंग और अच्छे आर्किटेक्ट के कारण दूर से ही नजर आ रहा था, और उसके बैकग्राउंड में हिमालय की चोटियां उसे ज्यादा आकर्षक बना रही थी।

 धीरे-धीरे हम ऊंचाई की ओर बढ़ने लगे थे और पिथौरागढ़ नीचे होता जा रहा था। जब हम थोड़ा आगे बढ़े थे कि एक बंद पड़ी मैग्निज फैक्ट्री को दिखाते हुए नवल दा ने मुझे बताया कि - इस फैक्ट्री से यहां काफी अच्छा काम हुआ। पिथौरागढ़ में इसका होना यहां के विकास के लिये बेहद मददगार था पर स्थानीय राजनीति का शिकार हो गयी। इसका मालिक इतने कर्जे में आ गया कि अंत में उसे फैक्ट्री बंद करनी पड़ी और अब ये खंडहर बन कर रह गयी है।
इस रास्ते में पत्थरों के ऊपर कुछ इस तरह का आकृतियां बनी हुई थी जो बेहद कलात्मक लग रही थी। एक पत्थर के ऊपर मगरमच्छ की खाल जैसे निशान बने थे। हम धीरे-धीरे जंगल की ओर बढ़ते जा रहे थे। जब मैंने कहा कि - जंगल काफी घना है तो साथ वालों ने कहा - अभी असली जंगल तो आया ही नहीं है। यह तो चीड़ का जंगल है जब आगे बढ़ेंगे तब देखना कैसा होता है। हम लोग अपनी बातों के साथ रास्ते में आगे बढ़ ही रहे थे कि मेरे एक दोस्त ने मुझे भृगु पर्वत दिखाया। जिसका नाम भृगु महाराज के नाम पर पड़ा है।

 जब हम इस रास्ते में काफी आगे पहुंचे तो अचानक जंगल इतना घना हो गया कि उसके अंदर बिल्कुल अंधेरा हो गया और ठंडी बहुत ही ज्यादा बढ़ गयी थी। यह देवदार का जंगल था।  इस जंगल में भालू भी हैं पर किस्मत से वो हमें दिखायी नहीं दिये। इस रास्ते में हम काफी चलने के बाद हम अपने पाइंट पर पहुंच गये जिसका नाम ह्यूंपाणी था। कुमाउंनी में ‘ह्यू’ का मतलब बर्फ और ‘पाणी’ का माने पानी होता है। इस जगह का मतलब हुआ बर्फ का पानी। इसलिये ही यहां पर इतनी ज्यादा ठंडी भी थी। खैर इस समय सूर्यास्त होने लगा था इसलिये यहां पर रुके बगैर हम वापस लौट लिये। हम सभी अच्छे ट्रैकर हैं इसलिये बिना किसी परेशानी के अच्छा खासा लम्बा रास्ता आसानी से तय कर लिया।

वापस लौटने के बाद मैं फिर अपने दोस्त की दुकान पर चली गयी। शाम के समय बाजार में सन्नाटा पसरने लगा था। कुछ लोग ठंडी से बचने के लिये बाजार का पूरा कूड़ा इकट्ठा कर उसे जला रहे थे। हम भी कुछ बाजार की ओर निकल गये। मेरा दोस्त मुझे एक नमकीन की दुकान में ले गया। उसने बताया - यहां की मडुवे (कोदो) की नमकीन बहुत प्रसिद्ध हैं। मैंने वहां से अपने लिये कुछ नमकीन ली और फिर पिथौरागढ़ के माॅल में चले गये। लौटते हुए एक पान की दुकान दिख गयी तो मीठा पान भी खाना ही पड़ा। हालांकि पहले हम दोनों शर्त लगाने वाले थे कि कौन कितने पान खा सकता है पर फिर इरादा छोड़ दिया। उसके बाद मैं होटल वापस आ गयी। कल सुबह 4.45 पर मुझे नैनीताल के लिये वापस निकलना था। हालांकि मैं दिल से वहां कुछ समय और रुकना चाहती थी पर...

अगली सुबह कैब वाले ने होटल के बाहर से मुझे फोन कर दिया। मैं कैब की ओर चली गयी। कैब में कुछ लोग बैठे थे और दो लोग मेरे पहुंचने के बाद आये। जिसके बाद हम निकल गये। इस समय घुप्प अंधेरा था और अच्छी खासी ठंडी भी पड़ रही थी। जब अचानक ठंडी का अहसास हुआ तो मैंने देखा ड्राइवर ने खिड़की खोली है। उसने कहा - शीेशे में बार-बार भाप बन रही है इसलिये। इतनी ही देर में पीछे बैठी एक महिला ने भी उल्टियां करना शुरू कर दिया। मैं तो ठंडी से बेहाल हो गयी और ड्राइवर को बोला - गाड़ी में वाइपर अंदर की तरफ से क्यों नहीं होते हैं ? इतने में पीछे बैठे एक सज्जन ने कहा - वाइपर तो अंदर हो जायेंगे पर उल्टियों का क्या होगा। दूसरे सज्जन ने कहा - दवाइ खा लेनी चाहिये। तीसरे ने कहा - बीयर पीने से भी उल्टी नहीं होती। सबसे मजेदार ड्राइवर का आइडिया था, जिसे याद करके अभी तक हंसी आती है, वो बोला - अखबार के ऊपर बैठना चाहिये। खैर जो भी था हमें ठंड खानी थी सो खायी...

जब हम घाट पहुंचे वहां कैब की चैकिंग हुई। जो चैक करने के लिये आये उनकी नजर सीधे मेरे बैग पर पड़ी और बोले - ये नीला बैग किसका है ? खोल के दिखाओ। ड्राइवर ने बोला - पत्रकार मैम का है और मजे से मेरा ट्राइपाॅड पकड़ के भी उनके हाथ में रख दिया। मैं कुढ़ती हुई बाहर निकली, बैग दिखाया फिर चिढ़ते हुए उनसे पूछ भी लिया - आपने मेरा बैग ही क्यों देखा ? वो बोला - क्योंकि आपका बैग बहुत अच्छे स्टैंडर्ड का लग रहा था इसलिये। खैर मुझे चैकिंग से चिढ़ नहीं थी पर उस ठंडी मैं बाहर आना...उफ। अब हल्का सा उजाला होने लगा था। मुझे एक भेड़ों का बड़ा झुंड दिखायी दिया। ड्राइवर ने बताया  - ये खानाबदोश हैं जो ठंडी में मुनस्यारी से गर्म जगहों की तरफ जाते हैं और गर्मियों में पहाड़ों में वापस आते हैं। ये पूरा रास्ता पैदल तय करते हैं और बीच-बीच में रूक कर आराम करते हैं। इनके पूरे झुड मैं दो-तीन कुत्ते भी रहते हैं जो हमेशा इनके साथ ही चलते हैं और कुछ खच्चर होते हैं जिनमें ये अपना सामान रखते हैं। मैंने इनके बारे में सुना था पर देखा आज पहली बार।

करीब 9.15 पर हम अल्मोड़ा पहुंच गये। वहां पहुंचने पर पता चला कि सिलेंडर का ट्रक रास्ते में पलट गया है इसलिये स्टेशन जाना मुश्किल है। खैर थोड़ा पैदल चल कर मैंने नैनीताल के लिये दूसरी टैक्सी की और करीब 11.15 पर मैं नैनीताल पहुंच गयी...

समाप्त

Saturday, January 22, 2011

मेरी पिथौरागढ़ यात्रा - 3

भाटकोट से वापस आकर कुछ देर आराम कर अपने दोस्त की दुकान में चली गयी। इस समय बाजार में काफी हलचन दिखने लगी थी। लोग अपनी रोजाना की जिन्दगी में व्यस्त होने लगे थे। जब दुकान पहुंची उस समय मेरे दोस्त के डैडी भी दुकान में ही थे। मेरी कुछ देर उनके साथ बातें हुई और फिर मैं बाजार की चहल-पहल देखने के लिये निकल आयी। इस समय इस चैराहे में सब्जी और फलों की दुकानें लगी हुई थी। ये सब देखना एक अलग ही एहसास देता है। इस समय तो दुकानें भी खुल चुकी थी। हालांकि ये दुकानें बहुत बड़ी-बड़ी नहीं हैं पर फिर भी इनमें जरूरत का सारा सामान मिल जाता है। मैं पूरा एक चक्कर इस रास्ते में फिर से गयी। सुबह यहां बिल्कुल सन्नाटा पसरा हुआ था पर इस समय उतनी ही चहल-पहल थी। मैं जब दुकान वापस लौटी तब तक मेरा दोस्त भी अपने काम निपटा चुका था। उसके बाद मैंने उसके डैडी से विदा ली और हम लोग निकल गये। आज हमें गुफा देखने के लिये जाना था।



पर उससे पहले कुछ काम निपटाने थे सो इसी बहाने मुझे पिथौरागढ़ की अलियों-गलियों में झांकने का भी मौका मिल गया और इन्हीं अलियों-गलियों से होते हुए हम नवल दा की दुकान पहुंचे। पहले नवल दा भी हमारे साथ आने वाले थे पर फिर उन्होंने कहा कि वो शाम को टेªकिंग में साथ चलेंगे। आज हमें फिर कल वाले ही रास्ते पर जाना था। सुबह के समय हल्की सी धुंध पूरी घाटी में बिखरी हुई लग रही थी हालांकि मौसम काफी गरम था। इस समय इस रास्ते से पिथौरागढ़ एक अलग ही मूड में नजर आ रहा था। कुछ देर बाद हम लोग भगवान दा की दुकान में पहुंच गये। वहां पहुंचने पर हम वहीं से थोड़ी दूरी में छड़ा गांव की ओर निकल गये जहां से हिमालय का नजारा भी अच्छा लगता है और गांव भी काफी अच्छा है। यहां से वाकय में नजारा बहुत अच्छा था। गांव कुछ ऐसा लग रहा था जैसे हिमालय की आगोश में सिमटा हुआ हो। कुछ देर यहां फोटोग्राफी करने के बाद हम वापस आ गये। लौटते हुए हमें रास्ते में भीमशिला दिखी जो पहले काफी बड़ी थी पर अब टूट गयी है। इस गांव को जाने वाला रास्ता भी बेहद खूबसूरत है।



जब हम लोग वापस दुकान पहुंचे भगवान दा ने पीने के लिये छांछ दी। उस समय छांछ की जरूरत भी थी क्योंकि आज सुबह से ही मुझे पानी की कुछ ज्यादा ही प्यास लग रही थी। फ्रिज में रखी होने के कारण मैंने अपनी छांछ बाद में पीने के लिये रख दी। भगवान दा की दुकान में एक युवक बैठा था जो पेशे से पंडित था और उसे कहीं शादी करवाने भी जाना था। वो एक फालतू विषय पर मेरे दोस्त से उलझ गया और शास्त्रों का ज्ञान बिखेरने लगा। जब हमने उसे अपने लाॅजिक बता दिये तो बेचारा खिसियाते हुए बोला - अगर में इस पूरे विधि-विधान से शादी करवाउं तो एक दिन में एक शादी भी नहीं हो पायेगी और मुझे तो एक दिन में दो-तीन शादियां करवानी होती हैं। एक बार फिर अपने धर्म के नियम-कायदों पर हमें हंसी आ गयी जिन्हें अपनी जरूरत के अनुसार जब जैसे चाहे बदल सकते हैं।

खैर हम लोग वहां से गुफा देखने निकल गये। गुफा जाने के लिये हमने थोड़ा रास्ता गाड़ी से तय किया और फिर उसके बाद गाड़ी रास्ते में खड़ी कर हम एक जंगल की ओर निकल गये। यहां पर थोड़ी ठंडी लगी क्योंकि जंगल बेहद घना था और पाला गिरा होने के कारण बेहद ठंडा हो रहा था। हमने करीब आधा किमी. का रास्ता इस जंगल के बीच से तय किया। जब हम गुफा के पास पहुंचे तो उसके अंदर जाने का रास्ता देख कर ही मैं तो बेहद उत्साहित हो गयी। पहले हमने तय किया था कि सब अंदर जायेंगे पर भगवान दा ने कहा कि उन्हें बहुत ठंड लग रही है इसलिये वो बाहर खड़े रहेंगे।

यह गुफा अभी कुछ समय पहले ही मिली है। आर्कियोलाॅजिकल वालों ने इसे अपने अधिकार में ले रखा है और इसकों ठीक करवाने का काम उनके द्वारा ही किया जाना है। पर फिलहाल अभी यह गुफा बिल्कुल उसी हालत में है जिस हालत में मिली थी। जब हम इसके अंदर गये जमीन बिल्कुल कीचड़ से भरी हुई थी और पानी थोड़ा ठंडा लग रहा था। जब हम गुफा के पहले स्ट्रैच में पहुंचे ही थे कि एक चमगादड़ महाशह लटके हुऐ दिखायी दिये जो हमसे बेफिक्र सोया हुआ था। उसे उसकी बेफिकरी के साथ छोड़ कर हम आगे बढ़ गये। गुफा का पहला स्ट्रेच हमने लगभग घुटनों के बल चलते हुए तय किया। गुफा के अंदर बेहद अंधेरा था इसलिये हम अपने टाॅर्च साथ में लेकर गये थे और उन्हीं से रोशनी कर रहे थे। इसके आगे का काफी लम्बा स्ट्रैच हमने आधा झुक कर पार किया। हर जगह पर यह डर बना हुआ था कि कहीं सर किसी नुकीले पत्थर से न टकरा जाये या हमारे कैमरे दिवारों से न टकरा जायें। इसके आगे का तीसरा स्ट्रैच हमने खड़े-खड़े तय किया पर यह रास्ता इतना पतला था कि चलने में परेशानी हो रही थी पर क्योंकि हम पतले दुबले प्राणी हैं तो आसानी से रास्ता पार कर गये।। मैंने अपने दोस्त से कहा भी कि - पतले होने के फायदे तो बहुत होते हैं। खैर गुफा के अंदर मौसम एकदम बदल गया था। यहां बिल्कुल ठंड नहीं थी और पानी भी थोड़ा गर्म लग रहा था। जब हम गुफा के अंतिम छोर पर पहुंचे वहां पानी का कुड दिखा। हम इस कुड से दूर ही रहे क्योंकि इसमें फूल चढ़े हुए दिखायी दिये। गुफा की दिवारों पर कैल्सियम की पपड़िया जमी हुई थी। इस गुफा के अंदर हालांकि अभी कुछ साफ नहीं है पर गहराई से देखने पर लगा की प्राचीन देवी-देवताओं की मूर्तियां बनी हुई हैं। मेरी अपनी समझ के अनुसार मुझे शिव और देवी की मूर्तियों के से नमूने भी इसमें दिखायी दिये।

  कुछ देर तक हम लोग गुफा को देखते रहे और हर एंगिल से फोटो लेते रहे। इस समय बिल्कुल ऐसा लग रहा था जैसे हम डिस्कवरी का कोई प्रोग्राम कर रहे हैं जिसकी रिसर्च के लिये यहां आये हुए हों। खैर झूठा ही सही पर वो अहसास भी अपने आप में रोमांचित कर देने वाला था। कुछ समय बाद हम उसी तरह वापस लौट आये जिस तरह अंदर गये थे। बाहर लौटते हुए मैंने चमकादढ़ के कुछ तस्वीरें उसे परेशान किये बगैर ले ली। गुफा के बाहर एक पानी की टंकी बनायी है जिसमें अंदर के कुंड का पानी आकर जमा होता है। हमने यहां यह पानी पिया अपने हाथ-पैर धोये जो कि बुरी तरह कीचढ़ में सने हुए थे। उसके बाद जंगल का रास्ता तय करते हुए गाड़ी तक आये और फिर दुकान वापस आ गये। (फिलहाल मैं इस गुफा की तस्वीरें नैट पर नहीं लगा सकती हूं।)


 वापस आकर छांछ पी और खाना बनने तक तय किया कि हम पास में ही मोस्टमानूं के मंदिर जायेंगे। कहा जाता है कि मोस्टमानूं भगवान कुमाउं के राजा थे। यहां एक मेले का आयोजन भी होता है। इस मंदिर के अंदर जाते हुए बाहर प्रांगण में विशाल झूला टंगा हुआ है। इस झूले से गंगोलीहाट का नजारा दिखायी देता है। हालांकि यह एक प्राचीन मंदिर है पर अब इसे पूरी तरह आधुनिक कर दिया गया है जो इसकी प्राचीनता को कहीं से भी नहीं दिखाता है। जब मैंने पहले दिन भी इस मंदिर के गेट को देखा था तो मुझे लगा था कि शायद कोई रिजाॅर्ट होगा पर बाद में पता चला कि मोस्टमानू का मंदिर यही है। मैं इस मंदिर के अंदर अकेले ही गयी और अच्छे से इस मंदिर को देखा और बात का दुःख होता रहा कि हमारी अपनी चीजों को हम खुद ही कितनी आसानी से छोड़ के आधुनिकता के रंग में रंग जाते हैं। इस मंदिर के अंदर शिव की मूर्ति स्थापित है। मुझे तो वह मूर्ति भी प्राचीन नहीं लगी खैर थोड़ा उदासी के साथ हम वापस दुकान आये। जहां हमारे लिये आलू-गोभी की सब्जी और पूरी इंतजार कर रहे थे। खाना खाने के बाद हम वापस लौट लिये क्योंकि अभी हमें एक ट्रेकिंग के लिये भी निकलना था...

जारी...

Wednesday, January 12, 2011

मेरी पिथौरागढ़ यात्रा - 2

मुझे लगा था कि पिथौरागढ़ में काफी ठंडी होगी पर यहां का मौसम नैनीताल के मौसम से कहीं ज्यादा अच्छा और सुहावना था। पिथौरागढ़ की समुद्रतल से उंचाई 4,967 फीट है। मैंने कुछ देर आराम किया और फिर हम लोग 4.30 बजे के लगभग पिथौरागढ़ के पशुपतिनाथ मंदिर की ओर निकल गये जो चंडाक वाली साइड में पड़ता है। यहां से शाम के समय हिमालय का नजारा काफी अच्छा दिखायी देता है। यहां जाते हुए पिथौरागढ़ का काफी अच्छा नजारा दिखायी दिया। इस जगह से पिथौरागढ़ को देखने में लगा कि वाकय पिथौरागढ़ बहुत खूबसूरत जगह है। हम करीब आधे घंटे में पहुंच गये थे। 

जिस समय हम पहुंचे उस समय थोड़ा अंधेरा सा होने लगा था पर फिर भी हिमालय में अच्छी रोशनी पड़ रही थी इसलिये कुछ अच्छे शाॅट्स मिल गये। पहले हमारा इरादा था कि पशुपतिनाथ मंदिर के अंदर से फोटो लेंगे पर इस समय मंदिर बंद हो चुका था। यहां से शोर घाटी का नजारा भी बिल्कुल साफ दिखायी दे रहा था। पिथौरागढ़ का इलाका शोर घाटी में आता है। मेरे दोस्त ने बताया कि यह कप के आकार का है इसलिये यहां मौसम अच्छा ही रहता है। कुछ समय यहां बिताने के बाद हम हमारे एक दोस्त के पहचान के भगवान दा की दुकान में आये।
भगवान दा के खेत में एक गुफा अभी कुछ समय पहले ही निकली है जिसे देखने के लिये हमने कल का दिन तय किया क्योंकि इस समय काफी अंधेरा हो गया था। भगवान दा ने जाते ही हमें खाने के लिये शहद दिया। इस शहद की खास बात यह थी कि इसमें शहद के साथ मोम भी मिला हुआ था जो कि खाने में ऐसा लग रहा था जैसे कि मुंगफली को बारिक टुकड़ों में पीस कर मिलाया गया हो। खैर कुछ समय दुकान में बिताने के बाद हम लोग वापस पिथौरागढ़ की ओर आ गये।
 रास्ते में आते समय हम पर्यावरण पार्क में रुके। यहां से रात के समय पिथौरागढ़ का बहुत अच्छा नजारा दिखायी देता है। जिस समय हम यहां पर पहुंचे बिल्कुल अंधेरा हो गया था और पिथौरागढ़ रोशनी में डूबा हुआ दिखायी दे रहा था। जिसे देखना अपने आप में एक अद्भुत अहसास था। हालांकि इस समय हल्की सी ठंडी भी होने लगी थी पर नैनीताल के मुकाबले मुझे तो मौसम अच्छा लग रहा था। कुछ समय हमने यहां से रोशनी में नहाये पिथौरागढ़ के फोटो लिये और फिर एक जगह पर आकर बैठ गये। आसमान बिल्कुल साफ था और आसमान में छोटे-छोटे तारे हीरों के टुकड़ों की तरह बिखरे हुए थे। जिसे देखना मेरा पसंदीदा काम है। काफी समय तक हम नजरें गढ़ाये तारों को देखते रहे। हल्की सी ठंडी होने के बावजूद भी उस शाम में ऐसा कुछ था जो हमें वहीं बांधे हुए था। हालांकि मैं अकसर तारों भरा आसमान देखती हूं पर उस दिन जो बात थी वो पहले कभी महसूस नहीं हुई। तारों के बीच से कभी-कभी सैटेलाइट गुजरता हुआ भी दिख रहा था जिसे देख कर टूटते हुए तारे का सा अहसास हो रहा था। कुछ देर वहीं बैठे रहने के बाद आखिरकार हमें वापस आना ही पड़ा क्योंकि अंधेरा गहराता जा रहा था। हम गाड़ी में बैठे और वापस लौट लिये। वापस लौटने के बाद हमने कुछ देर गप्पें मारी और बातों ही बात मैं मेरा अगली सुबह अकेले ही भाटकोट जाने का प्लान बन गया।

सुबह करीब 5.30 बजे मैं उठी। मौसम में हल्की सी ठंडक थी। मैं अकेले ही भाटकोट की ओर निकल गयी। सुबह के समय पिथौरागढ़ में न के बराबर हलचल थी। सब्जी वाले अपनी आढ़त लगाने की तैयारी कर रहे थे। बाजार बिल्कुल सुनसान था। कोई-कोई दुकान वाले ही दुकानों को खोलने की तैयारी कर रहे थे। कुछ सफाई कर्मचारी सफाई करने में लगे थे। मैं गांधी चैक होते हुए सिलथाम चैराहे की ओर पहुंची और वहां से आगे भाटकोट की ओर निकल गयी। मुझे बताया गया था कि भाटकोट से भी हिमालय का अच्छा नजारा दिखायी देता है और पिथौरागढ़ भी एक दूसरे ही मूड में दिखता है।

मैं सड़क के रास्ते आगे निकल गयी। इस समय माॅर्निंग वाॅक करते हुए काफी लोग नज़र आ रहे थे। पिथौरागढ़ अब काफी आधुनिक शहर हो गया है। यहां पुराने जमाने के मकानों के निशान कम ही दिखे। ज्यादातर मकान आधुनिक स्टाइल के ही दिखे। यहां अपर जिलाधिकारी जैसे लोगों के मकान और कार्यालय ज्यादा दिखायी दिये। मुझे लगा कि शायद यह पुलिस क्षेत्र भी था क्योंकि पुलिस कार्यालय और पुलिस आॅफिसर्स के भी काफी मकान इस इलाके में दिखायी दे रहे थे और जगह भी काफी साफ-सुथरी और अच्छी लग रही थी। अब सूर्योदय हो गया था पर काफी चलने के बाद भी जब मुझे हिमालय नजर नहीं आया तो मैंने एक बच्ची से रास्ता पूछा। उसने बताया कि मैं सही रास्ते पर हूं थोड़ा आगे जाने पर मुझे हिमलाय दिखायी दे जायेगा। वो बच्ची स्कूल ड्रेस में थी और इतनी सुबह शायद ट्यूशन पढ़ने जा रही होगी। खैर कुछ देर चलने के बाद में मुख्य पाइंट पर पहुंच भी गयी।
जब मैं यहां पर पहुंची तो एक आदमी एक बच्चे की बुरी तरह शिकायत कर रहा था और कह रहा था कि - इसने इस जगह इतनी शराब की बोतलें इकट्ठा करके रखी हैं और स्कूल जाने के बहाने यह यहां आकर मटरगश्ती करता है और जब मैंने इसे डांठा तो मुझे कहता है ‘अबे मास्टर तुझे तो मैं देख लूंगा।’ गुस्से में भुनभुनाते हुए कुछ देर बाद वो शिक्षक महोदय वहां से चले गये और माहौल में कुछ शांति आयी। वैसे उन शिक्षक महोदय का गुस्सा तो जायज था खैर मैं जिस तरह का हिमालय देखने की उम्मीद कर रही थी वो नजारा मुझे नहीं मिल पाया क्योंकि मुझे पहुंचने में थोड़ी देरी हो गयी पर फिर भी काफी अच्छे शाॅट्स मिल गये। कुछ समय इस जगह पर बिताने के बाद मैं वापस लौट गयी। मुझे वो सुबह वाली लड़की इस समय भी मिली और उसने मुझसे पूछ भी लिया था कि - दीदी आपको वो जगह मिल गयी थी ? 
जब मैं बाजार के इलाके में पहुंची तो रास्तों को लेकर थोड़ा गड़बड़ा गयी इसलिये कुछ लोगों से रास्ता पूछना पड़ा। इस सब में हुआ कुछ यूं कि मैं पहुंच तो गयी पर सुबह के समय जिस गांधी चैक से आयी थी वो रास्ता इस समय नहीं था। इस समय मैं किसी दूसरे ही रास्ते से वापस लौटी पर जो भी था मेरी सुबह बहुत अच्छी बीती...

जारी...

Wednesday, January 5, 2011

मेरी पिथौरागढ़ यात्रा - 1

मेरा पिथौरागढ़ जाने का इरादा काफी पहले से बना था पर हमेशा कुछ न कुछ अड़चन आ जाती और मेरा जाना अटक जाता था। वैसे ऐसा मेरे साथ अकसर ही होता है कि जब अच्छे से प्लान बनाओ तो चैपट हो जाता है और फिर अचानक ही ऐसा कुछ हो जाता है कि जाना तय हो जाता है। ऐसा ही कुछ इस बार भी हुआ। नैनीताल से मुझे अकेले जाना था और बांकि दोस्त मुझे पिथौरागढ़ पर ही मिलने वाले थे।

हमेशा की तरह मैंने बस से जाना तय किया इसलिये सुबह कड़कड़ाती ठंडी में 6.30 बजे बैग लेकर स्टेशन पहुंच गयी। जब मैं स्टेशन पहुंची तब तक बस खचाखच भर गयी थी। एक पल तो ऐसा लगा कि जैसे इस बार भी जाना संभव नहीं हो पायेगा पर फिर मैंने अपने लिये बोनट पर बैठने की जगह बना ली। यह जगह अच्छी तो नहीं थी पर बांकी के लोग जिस हाल में थे उनके मुकाबले कहीं बेहतर थी। यहां पर बैठने का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि सामने का नजारा साफ-साफ दिखायी दे रहा था। इस बार की बारिश के बाद यह मेरी पहली यात्रा थी इसलिये मुझे सड़कों की हालत साफ नज़र आ रही थी जो पूरी तरह तबाह हो गयी थी। नैनीताल-भवाली सड़क भी कई जगहों पर टूटी हुई थी। वो तो आर्मी ने अपने पुल बना रखे हैं इसलिये काम चल रहा था। एक बात जो मुझे बेहद अखर रही थी वो ये कि सरकारी बस के खचाखच भरे होने के बावजूद भी बस में बिल्कुल सुनसानी थी जिसकी मुझे बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी।

खैर भवाली पहुंचने पर बस कुछ देर रूकी। कुछ यात्री और चढ़ गये जो रोज के ही थे और आसपास के गांवों में जाने वाले थे इसलिये ड्राइवर ने उन्हें बस में चढ़ा लिया। उनके चढ़ने से पहले से ही खड़े यात्रियों के लिये मुसीबतें और बढ़ गयी पर मैं काफी अच्छी जगह में थी। भवाली अब हमें अल्मोड़ा जाना था और फिर वहां से पिथौरागढ़। कुछ आगे आने पर कोसी नदी ने हमारा साथ देना शुरू कर दिया। इस समय कोसी इतनी शांत दिख रही थी कि कोई यकीन भी नहीं कर सकता था कि यही वो नदी है जिसने बरसात में इतना विकराल रूप रखा कि इतनी ऊंचाई तलक आकर लोगों के घरों और इतनी बड़ी सड़क का वजूद तक मिटा दिया। इस सड़क में सबसे ज्यादा तबाही हुई थी। सड़क के आसपास बने हुए कई मकान और दुकानों का तो अभी तक भी कुछ पता नहीं चला और बहुत से मकानों की छतें टेड़ी हो गयी। बहुत से मकान और दुकानें तो अब मात्र ढांचे की तरह खड़े हैं। सड़कों की हालत भी इतनी ही बुरी थी। यह पता नहीं चल पा रहा था कि गाड़ी सड़क पर से जा रही है या मिट्टी के ढेर के ऊपर से। कहीं सड़कें नदी ने काट दी तो कहीं सड़कों में ऊपर से पहाड़ कट कर आ गये। मैंने अपने मोबाइल से कुछ तस्वीरें लेने की कोशिश की पर चलती गाड़ी से तस्वीरें इतनी अच्छी नहीं आईं।




9ः18 बजे हम अल्मोड़ा पहुंचे। यहां गाड़ी कुछ देर रुकी। कुछ यात्री अल्मोड़ा में उतरे इसलिये मुझे एक सीट मिल गयी। जितनी सवारियां उतरी उससे ज्यादा बस में चढ़ गयी इसलिये बस की हालत में अभी भी कोई फर्क नहीं आया। जब ड्राइवर ने बस को स्टार्ट किया तो बस अटक गयी। उसने बोला - बस में धक्का लगाना पड़ेगा। यह अनुभव मेरे लिये नया था। खैर मैंने तो धक्का नहीं लगाया पर कुछ उत्साही लोग धक्का लगाने उतर गये। बस थोड़ा आगे-पीछे होती और फिर रुक जाती। ड्राइवर ने आगे झांक कर देखा तो कुछ अति उत्साही बस को आगे से पीछे की ओर धक्का लगा रहे थे। जब उन्होंने पीछे से जाकर धक्का लगाया तो बस ने स्टार्ट हो गयी। अल्मोड़ा से मौसम थोड़ा गर्म हो गया था पर मेरी सीट से मुझे कुछ दिखायी नहीं दे रहा था और मेरी बगल में जो सज्जन बैठे हुए थे वो वैसे तो अच्छे थे पर बेहद वाचाल थे और उनके बोलने पर उनके मुंह से गुटखे का जो भभका आ रहा था उसने मुझे परेशान कर दिया था। मन हुआ कि वापस बोनट में ही जाकर बैठ जाऊं पर वो जगह घिर चुकी थी। खैर बाड़ेछीना, धौलादेवी जैसे गांवों से होते हुए जब हम पनुवानौला पहुंचे तो मुझे फिर से आगे वाली सीट मिल गयी। जो मेरे लिये हर मायने में वरदान ही थी। यहां से नजारा भी दिख रहा था और गुटखे के भभखे से भी निजात मिल गयी। रास्ते में कई छोटे-छोटे गांव पड़ रहे थे और सड़क के किनारे दो-चार पहाड़ीनुमा दुकानें भी मिल जाती।

इसके बाद हम दन्या पहुंचे। मैंने दन्या के आलू के पराठों की काफी चर्चा सुनी थी इसलिये सोच लिया था कि  यहां आलू के पराठे ही खाउंगी पर आलू के पराठे खाने पर मुझे ऐसा कुछ खास नहीं लगा जो स्पेशल हो। ऐसे पराठे तो सब जगह ही मिलते हैं खैर जो भी हो पर इस रैस्टोरेंट के सामने एक गोलू देवता का मंदिर था। मेरा मन था उसमें जाने का पर समय न मिल पाने के कारण मैं जा नहीं पाई। यहां गाड़ी करीब आधा घंटा रुकी और फिर एक धक्का लगाने के बाद आगे बढ़ गयी।

12 : 53 मिनट पर बस ध्याड़ी पहुंची। ध्याड़ी वो जगह है जहां बरसात ने सबसे विकराल रूप दिखया था और ये पूरा गांव बुरी तरह बर्बाद हुआ था। यहां की बुरी तरह टूटी सड़कें अभी भी इस बात की गवाही दे रही थी। कई जगहों में तो बस लगभग आधी नीचे की ओर ही झुक जा रही थी। यहां से आगे निकल जाने पर एक जगह बस थोड़ी देर के लिये रुकी और जब चलने लगी तो एक सवारी कम थी। जब कन्डक्टर ने उसके साथ वाले से पूछा तो उसने जवाब दिया - उसका सिक्किम ब्रांड टूट गया और वो उसे लेने के लिये उतर गया। मुझे लगा कि सिक्कम ब्रांड शायद यहां की कुछ खास चीज होगी इसलिये मैंने भी तय कर लिया था कि पिथौरागढ़ में मिलेगी तो मैं खरीदूंगी पर पिथौरागढ़ पहुंचने पर विशेषज्ञों ने मुझे सिक्किम ब्रांड की मतलब बताया तो मुझे अपने फैसले के ऊपर बहुत हंसी आई और मैंने अपना इरादा बदल लिया।

खैर इस जगह ड्राइवर-कन्डक्टर में कुछ कहासुनी हो गयी। कन्डक्टर के एक पहचान वाले को पिथौरागढ़ से आगे कहीं जाना था इसलिये उसने ड्राइवर को बोला - गाड़ी तेज चलाना और बीच में कहीं किसी भी सवारी के लिये गाड़ी नहीं रोकना। इस बात पर ड्राइवर ने कहा - मैं इतनी जल्दी पहुंचा देता हूं फिर भी ऐसे बोलते हो और यह बस यहां के लोगों के लिये ही है इसलिये मैं हर सवारी को उठाउंगा। जिसे जो करना है करे। इसके बाद ड्राइवर ने बस की स्पीड भी कम कर दी। हम करीब 2 बजे घाट पहुंचे जहां से पिथौरागढ़ की सीमा शुरू हो जाती है। रास्ते से हिमालय का अच्छा नजारा दिख रहा था। यहां नदी पर कुछ परियोजनायें भी चल रही थी।



कुछ आगे जाने पर हम एक जगह पहुंचे गुरुना। यहां सड़क के किनारे पाषाण देवी या गुरना देवी का मंदिर है। ऐसा कहा जाता है कि पहले इस जगह पर बहुत दुर्घटनायें होती थी। बाद में किसी के सपने में आया कि देवी का मंदिर बनाओ। उसके बाद यहां पर देवी की स्थापना की गयी। तब हमेशा हर गाड़ी इस जगह पर थोड़ी सी देर के लिये रुकती जरूर है।


इसके बाद का रास्ता काफी अच्छा था पर ड्राइवर की स्पीड कम करने से मुझे बहुत नुकसान हो रहा था। मेरे दोस्त के लगातार फोन आ रहे थे कि - कितनी देर लगेगी ? अभी कहां है ? मैंने ड्राइवर से पूछा कि - हम किस जगह हैं तो उसने कहा - घाट से थोड़ा ऊपर। फिर बोला - वैसे मैं अभी तक पिथौरागढ़ पहुंचा देता पर कन्डक्टर ने जिस तरह मुझसे बात की मुझे गुस्सा आ गया इसलिये मैंने जानबूझ कर गाड़ी की स्पीड कम कर दी।

मैं लगभग 3.30 बजे पिथौरागढ़ पहुंची। स्टेशन मैं मेरे दोस्त मुझे लेने के लिये आये हुए थे उनके साथ मैं जहां रुकना था उस जगह चली गयी।

जारी...

Wednesday, September 29, 2010

इब्नबतूता की यात्रायें


यात्री इब्नबतूता
मोरक्कन यात्री इब्नबतूता का जन्म 24 फरवरी 1304 ई. को हुआ था। इनका पूरा नाम अबू अब्दुल्ला मुहम्मद था। इब्बनबतूता इनके कुल का नाम था पर आगे चलकर इनकी पहचान इसी नाम से बनी। यह 22 वर्ष की अवस्था में ही माता-पिता और जन्म भूमि को छोड़कर मक्का आदि सुदूर पवित्र स्थानों की यात्रा करने की ठान ली थी आक्र 14 जून 1325 को मक्का मदीना की पवित्र यात्रा पर निकल पड़े। यहां बतुता सिर्फ हज यात्रा के उद्देश्य से ही आया था पर एक संत की भविष्यवाणी की - तू बहुत लम्बी यात्रा करेगा, ने बतूता पर ऐसा जादू किया कि बतुता सीधे काहिरा की ओर चल दिया और वहां से मिश्र होता हुआ सीरिया और पैलेस्टाइन में गजा, हैब्रोन, जेरूशलम, त्रिपोली, एण्टिओक और तताकिया आदि नगरों से सैर की। उसके बाद 9 अगस्त 132 को दमिश्क जा पहुंचा। वहां से बतुता बसरा होता हुआ पहले मदीने पहुंचा और यहां से इराकी यात्रियों के साथ बगदाद चला गया। वहां से मक्का की ओर वापस लौटा। बिमारी की अवस्था में ही काबा की परिक्रमा की और मदीना चला गया। वहां स्वस्थ होकर मक्का वापस आया।

उसको बाद बतुता ने पूर्व अफ्रिका की यात्रा की और वहां से लौट कर भारत यात्रा पर निकलने की सोची। लगभग नौ वर्ष तक बतूता दिल्ली में ही रहा। इसके बाद चीन देश की यात्रा के लिये निकल गया। उसके बाद मालद्वीप चला गया। जहां से 43 दिन की यात्रा कर बंगाल पहुंचा और वहां से मुसलमानों के जहाज़ में बैठ कर अराकनन, सुमात्रा, जावा की यात्रा पर चला गया। समस्त मुस्लिम मेें से केवल दो ही देश शेष रह गये थे - अंदू लूसिया और नाइजर नदी के तट पर बसा नीग्रो -देश। अगले तीन वर्ष बतूता ने इन जगहों की यात्रा में व्यतीत किये। मध्यकालीन मुसलमानों और विधर्मियों के देश की इस प्रकार यात्रा करने वाला सबसे पहला और अंतिम यात्री बतूता ही था। एक अनुमान के अनुसार इसकी यात्रा का विस्तार कम से कम 75000 मील लगभग है।

750 हिजरी को यह मोरक्को वापस लौट गया। स्वदेश पहुंचने से पहले बतूता को यह पता चल गया था कि उसके पिता का देहांत 15 वर्ष पूर्व और कुछ दिन पूर्व माता का देहांत हो चुका है। 73 वर्ष की आयु में सन् 1377-78 ई. में बतूता ने अपने ही देश में अपने प्राण त्यागे।

इब्नबतूता की यात्रायें

हन्नौल, वजीरपुरा, वजालस और मौरी

कन्नौज से चलकर हन्नौत, वजीपुरा, वजालसा होते हुए हम मौरी पहुंचे। नगर छोटा होने के पर भी यहां के बाजार सुन्दर बने हुए हैं। इसी स्थान पर मैंने शेख कुतुबुदीन हैदर गाजी के दर्शन किये। शैख महोदय ने रोग शय्या पर पड़े होने पर भी मुझे आशीर्वाद दिया, मेरी लिये ईश्वर से प्रार्थना की और एक जौ की रोटी मेरी लिये भेजने की कृपा की। ये महाशय अपनी अवस्था डेढ़ सौ वर्ष बताते थे। इनके मित्रों ने हमें बताया कि यह प्रायः व्रत और उपवास में ही रहते हैं और कई दिन बीत जाने पर कुछ भोजन स्वीकार करते हैं। यह चिल्ले में बैठने पर प्रत्येक दिन एक खजूर के हिसाब से केवल चालीस खजूर खाकर ही रह जाते हैं। दिल्ली में शैख रजब बरकई नामक एक ऐसे शैख को मैंन स्वयं देखा है जो चालीस खजूर लेकर चिल्ले में बैठते हैं और फिर भी अंत में उनके पास तेरह खजूर शेष रह जाते हैं।

इसके पश्चात हम ‘मरह’ नामक नगर में पहुँचे। यह नगर बड़ा है और यहाँ के निवासी हिंदु भी जिमी हैं (अर्थात धार्मिक कर देने वाले)। यहाँ यह गढ़ भी बना हुआ है। गेहूँ भी इतना उत्तम होता है कि मैंने चीन को छोड़ ऐसा उत्तम लम्बा तथा पीत दाना और कहीं नहीं देखा। इसी उत्तमता के कारण इस अनाज की दिल्ली की ओर सदा रफ्तनी होती रहती है।

इस नगर में मालव जाति निवास करती है। इस जाति के हिंदु सुंदर और बड़े डील डौल वाले होते हैं। इनकी स्त्रियां भी सुंदरतया तथा मृदुलता आदि में महाराष्ट्र तथा मालद्वीप की स्त्रियों की तरह प्रसिद्ध हैं।

अलापुर
इसके अंनतर हम अलापुर नामक एक छोटे से नगर में पहुँचे। नगर निवासियों में हिुुंदुओं की संख्या बहुत अधिक है और सब सम्राट के अधीन हैं। यहां के एक पड़ाव की दूरी पर कुशम नामक हिन्दू राजा का राज्य प्रारंभ हो जाता है। जंबील उसकी राजधानी है। ग्वालियर का घेरा डालने के पश्चात राजा का वध कर दिया था...

इसके पश्चात हम गालियोर की ओर चल दिये। इसको ग्वालियर भी कहते हैं। यह भी अत्यंत विस्तृत नगर है। पृथक चट्टान पर यहां एक अत्यंत दृढ़ दुर्ग बना हुआ है। दुर्गद्वार पर महावत सहित हाथी की मूर्ति खड़ी है। नगर के हाकिम का नाम अहमद बिन शेर खां था। इस यात्रा के पहले मैं इसके यहां एक बार और ठहरा था। उस समय भी इसने मेरा आदर सत्कार किया था। एक दिन मैं उससे मिलने गया तो क्या देखता हूँ कि वह एक काफिर (हिन्दू) के दो टूक करना चाहता है। शपथ दिलाकर मैंने उसको यह कार्य न करने दिया क्योंकि आज तक मैंने किसी का वध होते नहीं देखा था। मेरे प्रति आदर-भाव होने के कारण उसने उसको बंदी करने की आज्ञा दे दी और उसकी जान बच गयी।

बरौन

ग्वालियर से चलकर हम बरौन पहुंचे। हिन्दू जनता के मध्य बसा हुआ यह छोटा सा नगर मुसलमानों के आधिपत्य में आता है और मुहम्मद बिन बैरम नामक एक तुर्क यहां का हाकिम है। यहां हिंसक पशु बहुतायत में मिलते हैं...

चंदेरी
इसके पश्चात हम चंदेरी पहुंचे। यह नगर भी बहुत बड़ा है और बाजारों में सदा भीड़ लगी रहती है। यह समस्त प्रदेश अमील-उल-उमरा अज्जउदीन मुलतानी के अधीन है। ये महाशय अत्यंत दानशीन और विद्वान हैं और अपना समय विद्वानों के साथ ही व्यतीत करते हैं।

इब्नबतूता की भारत यात्रा या चैदहवीं शताब्दी का भारत’ पुस्तक से साभार

Tuesday, May 18, 2010

ऐवरेस्ट में चढ़ने वाला पहला पर्वतारोही


George Mallory
जॉर्ज मैलेरी एक मात्र पर्वतारोही था जिसने ब्रिटिश सरकार के ऐवरेस्ट में पर्वतारोहण करने के के सन् 1921, 1922 और 1924 के अभियानों में हिस्सा लिया था। मैलोरी का जन्म 18 जून 1886 में हुआ था और उसका देहान्त 1924 के अभियान के दौरान 8 जून 1924 में हुआ। उस समय उसकी आयु 38 साल से कुछ कम थी।


बचपन से ही मैलेरी एडवेंचर के शौकिन थे और रॉक क्लाइम्बिंग किया करते थे। उन्होंने 1905 में मैग्डेलेन कॉलेज में हतिहास के शिक्षक के तौर पर लिया। उनके इस काम में उस समय रुकावट पैदा हुई जब 1914-18 में विश्व युद्ध की शुरूआत हुई जिसके दौरान उन्हें फ्रांसीसी सेना में गनर के तौर पर जाना पड़ा। इस युद्ध के बाद उनकी छवि एक साहसिक पर्वतारोही की बन गयी।

सन् 1921 तक ऐवरेस्ट बिल्कुल अनछुआ था और इसके बारे में कोई भी जानकारी उपलब्ध नहीं थी। इसकी जानकारियों को इकट्ठा करने के लिये ब्रिटिश पर्वतारोहियों ने इस पर जाने का निर्णय किया। जिसमें मैलरी का चयन भी किया गया।


मैलरी इस अभियान दल के लीडर थे। यहाँ की स्थितियाँ बहुत विकट थी और इन पर्वतारोहियों के पास इन स्थितियों से निपटने के लिये भरपूर संसाधन न होने के कारण वापस आना पड़ा।

सन् 1922 में अच्छी तैयारियों के साथ अभियान दल ने फिर से एक नई शुरूआत की। उस समय यह अभियान दल 27,000 फीट की ऊँचाई तक पहुँच गया था जो कि एक रिकॉर्ड था पर अभी भी उन्हें 2,000 फीट ऊपर और जाना था ऐवरेस्ट में विजय पाने के लिये। मैलरी ने निर्णय किया था कि दूसरी बार वो इसमें सफलता पा लेंगे पर इस समय एक भयानक ऐवेलॉन्च आ गया जिसमें 7 शेरपा दफन हो गये और इस अभियान को आधे में छोड़ कर बेहद दुःखी मन से मैलरी को वापस आना पड़ा। उन्हें शेरपाओं को खो देने का मलाल हमेशा बना रहा जिसके लिये वह स्वयं को भी दोषी मानते थे।


1924 में जब फिर से एक बार ऐवरेस्ट पर पर्वतारोहण की बात हुई तो मैलरी इसमें जाने के इच्छुक नहीं थे क्योंकि वो पिछले हादसे को अपने ज़हन से निकाल नहीं पाये थे साथ ही वो अपनी पत्नी रुथ और अपनी नौकरी को भी नहीं छोड़ना चाहते थे पर अंततः वो इस अभियान में जाने के लिये तैयार हो गये।

इस अभियान में वो अपने सह पर्वतारोही इरविन के साथ ऐवरेस्ट के काफी निकट तक जा पहुंचे थे। उस समय वो ऐवेस्ट से मात्र 650 फीट नीचे थे। पर उसी समय मौसम फिर से गड़बड़ा गया और वो और इरविन इसमें गायब हो गये। उनके मित्र ओडल दो बार 27000 फीट तक जाकर उन्हें ढूँढने के कई प्रयास किये पर उनके हाथ कुछ भी नहीं लगा।


उसके बाद से यह एक पहेली बनकर रह गया कि मैलरी व इरवीन ऐवरेस्ट से वापस आते समय गायब हुए थे या ऐवरेस्ट पर चढ़ते समय। 75 साल बाद 1 मई 1999 में मैलोरी का शरीर मिला। उसके कपड़ों मे उसका नाम कढ़ा हुआ था और उसके साथ वह रस्सी भी थी जिसका इस्तेमाल 1924 में हुआ था। उनका शरीर ऐवरेस्ट से लगभग 2,000 फीट नीचे मिला। इरविन का शरीर अभी तक भी नहीं मिल पाया है। मैलेरी के कुछ कागजाद उनके शरीर के साथ मिले पर उनकी पत्नी रुथ की तस्वीर उनके साथ नहीं थी जिसे वो हमेशा अपने पास रखा करते थे। इस तस्वीर के न मिलने से इस बात के कयास लगाये जाते रहे कि वो शायद एवेरस्ट तक पहुंचे थे क्योंकि वो हमेशा कहा करते थे कि वो अपनी पत्नी रुथ की तस्वीर दुनिया की सबसे उंची चोटी पर रख कर आयेंगे।

पर यह सबे अभी तक भी अनबुझ पहेली की तरह बना हुआ है।

George Mallory and Andrew Irvine preparing to leave their camp near Everest in 1924.

mallory and wife

return from 1st

The 1924 expedition at base camp. Back row, left to right Andrew Irvine


Monday, May 10, 2010

हिमालय की यात्रायें





रामनाथ पसरीचा (1926-2002) पांच से अधिक दशकों तक हिमालय की यात्रायें करते रहे। अपने पिट्ठू पर कागज, रंग और ब्रश लिये उन्होंने 65 शिखरों के चित्र 10,000 फुट से 20,500 फुट की उंचाई पर बैठ कर बनाये हैं।

पसरीचा जी ने कई राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय प्रदर्शनियों में हिस्सा लिया। ललित कला अकादमी द्वारा उन्हें श्रेष्ठ कलाकार का सम्मान दिया गया। भारत सरकार के सांस्कृतिक विभाग ने उन्हें सीनियर फैलोशिप प्रदान की। आज भी उनके बनाये चित्र देश-विदेश के संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रहे हैं।


रामनाथ पसरीचा ने जितने सुंदर चित्र बनाये उतने ही सीधे और सरल भाषा में अपनी यात्राओं को लिखा भी है। यहां उनकी मसूरी में की गई यात्रा का यात्रा वृतांत दिया जा रहा है। यह यात्रा वृतांत उनकी पुस्तक हिमालय की यात्रायें से लिया गया है।


मसूरी


1947 की बात है। मुझे चित्रकला को अपनाये तीन साल हुए थे। अपने चित्रों के लिये नई प्ररेणा लेने मैं मसूरी गया। हम देहरादून से बस में सवार हुए। बस छोटी और टूटी-फूटी थी, लगता था जैसे पहाड़ी चढ़ाई पर उसका दम फूल रहा हो। अभी हम 6 मील भी नहीं गये होंगे कि हमें बादलों और धुंध ने आ घेरा। ऐसा लगा जैसे बस किसी शून्यता में चढ़ाई चढ़ती जा रही है।

रास्ता केवल 25 मील था मगर उसे पार करने में तीन घंटे लग गये। उस जमाने में मसूरी का बस अड्डा शहर से काफी नीचे की ओर था। बस अड्डे पर बोझा उठाने वाले बीसियों नेपाली ठंड में यात्रियों की प्रतीक्षा में बैठे रहते। वहीं मैंने एक बोझी से सामान उठवाया और लंढौर बाजार के एक छोटे से होटल में कमरा किराये पर ले लिया। खाना खाने के लिये होटल के आसपास कई पंजाबी ढाबे थे जिनमें अच्छा खाना मिल जाता था।

मसूरी के माल पर तब भी भीड़ होती मगर इतनी नहीं जितनी अब होती है। तब भी माल पर नौजवान युवक-युवतियों के जमघट लगे रहते और मौज-मस्ती रहती। मगर प्रकृति के शौकीनों के लिये मसूरी के चारों ओर पगडंडियों जाती, जिन पर घूमने में बहुत आनंद आता। मुझे टिहरी जाने वाली पगडंडी बहुत अच्छी लगी। मैं उस पगडंडी पर हर रोज प्रात:काल निकल जाता और खूब घूमता। पौंधों, जंगलों और पहाड़ों के चित्र बनाता। बारिश में धुलकर पेड़-पौंधों पर निखार आ जाता था। धूप से उनके रंग चटख हो जाते और गीली मिट्टी की सुगंध तथा पक्षियों की चहचहाहट से तबीयत खुश हो जाती। खच्चरों के गलों में बंधी हुई घंटियों की दूर से आती आवाज कानों को मीठी लगती है। धीरे-धीरे वह आवाज पास आ जाती और खच्चरों का काफिला पास से गुजर जाता। लाल टिब्बा अथवा गनहिल की चढ़ाई कठिन है। उस पर चढ़ने से शरीर की अच्छी खासी वर्जिश हो जाती। यहां से बंदरपूंछ, केदारनाथ, श्रीकंठ, चौखंबा और नंदादेवी शिखरों के दर्शन होते तो चढ़ाई चढ़ना सार्थक हो जाता। उन शिखरों पर सूर्योदय की लालिमा ने मुझे मोहित किया, अपनी ओर आकषिZत किया और उनके चित्र बनाने की प्रेरणा दी।
मसूरी में मौसी फौल के नाम से एक प्रसिद्ध झरना है। वहां जाने का रास्ता किसी की निजी जमीन से होकर जाता था। जमीन का मालिक अपना पुरान हैट पहने अपने मकान की खिड़की में बैठा रहता और एक अठन्नी लिये बिना किसी को वहां से निकलने न देता। झरने के आसपास शांति थी, मैं कई बार वहां, लेकिन हर बार जोंके शरीर पर चिपट जाती और जी भरकर खून चूसती। रात को किसी बैंच पर बैठकर शहर की बत्तियों को आसमान में खिले सितारों में घुलते-मिलते देखना अच्छा लगता। मैं यह दृश्य उस समय तक देखता रहता जब तक ठंड बढ़ नहीं जाती।

देहरादून से मसूरी जाने वाली पुरानी सड़क राजपुर से होकर निकलती। राजपुर से मसूरी तक एक पगडंडी भी जाती है। लगभग चार घंटे का पैदल रास्ता है। राजपुर से थोड़ा ऊपर जाने पर दून घाटी दिखाई देती है। दूर क्षितिज में गंगा और यमुना नदियों के भी दर्शन हो जाते हैं। आधे रास्ते में कुछ पुराने में कुछ पुराने समय से चली आ रही चाय की दुकानें हैं। पहाड़ी लोग वहां सुस्ताने बैठ जाते हैं और चाय पीते हैं। यहां रुककर चाय पीने में बड़ा मजा आता है। यहां से आगे पहले फार्म हाउस, फिर सड़क के दोनों ओर ऊँची-ऊँची इमारतें और फिर मसूरी दिखाई देने लगती है।

अब तो मसूरी एक बड़ा शहर हो गया है। जहां होटलों की भरमार है, जहां शनिवार और रविवार को मौज मस्ती के लिये लोगों की भीड़ देहरादून और दिल्ली से पहुंच जाती है। गनहिल पर भी चाट पकौड़ी वालों ने दुकानें बना ली हैं। अब वहां लोगों की भीड़ `केबल कार´ में बैठकर पहुंचती है। लोग चाट पकौड़ी खाते हैं, तरह-तरह के ड्रेस पहनकर फोटो खिंचवाते हैं और मस्ती करते हैं। इन दुकानों में हिमालय के वास्तविक सौंदर्य को ढक लिया है। पर्यटक नजर उठाकर उन्हें देखने का प्रयास भी नहीं करते। लेकिन `कैमल बैक वयू´ वाले रास्ते पर अभी भी शांति है। वहां ईसाइयों का पुराना कब्रिस्तान है और रास्ता बलूत और देवदार के पुराने जंगलों में से होकर निकलता है। लंढौर बाजार भी ज्यादा नहीं बदला है। उस बाजार के साथ पुराने लोगों की कुछ यादें अभी भी जुड़ी हैं।




लेखक द्वारा बनाया गया मसूरी का एक स्कैच