यदि मानव शरीर को देखा जाय तो यह किसी मशीन से कम नहीं है। सभी छोटे-बड़े हिस्सों का अपना महत्व होता है। इसलिये यह बेहद जरूरी है कि हम अपने शरीर का पूरा खयाल रखें और इसमें होने वाले किसी भी परिवर्तन को नजरअंदाज न करें। क्योंकि हमारी यही लापरवाही कब बड़ी बीमारी बन जाती है पता ही नहीं चलता और फिर पूरी जिन्दगी बोझ की तरह जीनी पड़ती है। वैसे तो आज तकनीक इतनी आगे जा चुकी है कि ज्यादातर बिमारियों का इलाज ढूंढा जा चुका है पर फिर भी कुछ ऐसी बिमारियां हैं जिनके लिये कोईZ इलाज नहीं है। बस इनसे खुद को बचाना ही एक मात्र इलाज है और इसके लिये जरूरी है कि हम अपने और अपने आस-पास के लोगों के स्वभाव में होने वाले परिवर्तनों को गंभीरता से लें और उसके बारे में डॉक्टर से खुल कर बात करें। इसी तरह की एक गंभीर बीमारी है एल्जाइमर। एल्जाइमर के बेहद खतरनाक बीमारी है जिसमें व्यक्ति अपनी पिछली बातों को बिल्कुल भूल जाता है, पर इसके बारे में ज्यादा जानकारी न होने के कारण हम कब इसके चपेट में आ जाते हैं पता ही नहीं चलता। यदि इस बीमारी का शुरूआत में इलाज न किया जाय तो फिर इसका अंत मौत के साथ ही होता है।
पहाड़ों में भी अब इस बीमारी ने अपने पैर पसारने शुरू कर दिये हैं और दिन-ब-दिन इसके मरीजों की संख्या बढ़ती जा रही है। ग्रामीण इलाकों में इसकी संख्या शहरी इलाकों से ज्यादा है। इसका सीधा सा कारण है कि ग्रामीण इलाकों में लोगों को इसके बारे में जानकारी न होने के कारण वह समय पर इसकी जांच नहीं पाते हैं और अकसर ऐसा भी देखने में आता है कि इस तरह के लक्षणों को देख कर लोग उसे या तो पागल मान लेते हैं या फिर हंसी का पात्र बना देते हैं जबकि हकीकत यह है कि इस बीमारी का तुरंत इलाज करवा दिया जाय। क्योंकि यदि यह बीमारी बढ़ती है तो फिर एक स्लो पॉइजन की तरह अपना असर धीरे-धीरे दिखाती है.
सबसे पहले यह जानने की जरूरत है कि एल्जाइमर आखिर है क्या ?
1906 में जर्मन के एक डॉक्टर एलॉइस एल्जाइमर के नाम पर इस बिमार का नाम एल्जाइमर रखा गया। उन्होंने ही सबसे पहले इस बीमारी के लक्षणों के बारे में अध्ययन किया और इसके बारे में लोगों को बताया। एल्जाइमर एक तरह की मानसिक बीमारी है जिसमें दिमाग के विभिन्न हिस्सों में कुछ रासायनिक और स्ट्रकचरल बदलाव होते हैं और दिमाग को नुकसान पहुंचाते हैं जैसे देखने-सुनने और पहचाने की शक्ति को तो धीरे-धीरे कम कर देते हैं और याददाश्त को भी कमजोर कर देते हैं। इससे दिमाग के कार्य करने की शक्ति को क्षीण होती जाती है और मरीज के व्यवहार करने के तौर तरीकों में भी बदलाव आने लगते हैं। यह देखा गया है कि एल्जाइमर एक आनुवांशिक बीमारी है जो जीन्स द्वारा फैलती है। परन्तु कुछ लोगों को यह किसी तरह की गंभीर बीमारी से, लगातार दवाइयों के सेवन से, सिर पर गंभीर चोट लगने के कारण या फिर एनेस्थीसिया लेने के कारण भी हो जाती है। इस बीमारी को पर्सनाइल डिमेन्सिया भी कहते हैं। हालंकि यह वृद्धावस्था में हो जाने वाली बीमारी है पर फिर भी 40 वर्ष के बाद इस बीमारी के होने का चांस काफी बढ़ जाता है। एल्जाइमर से ज्यादातर महिलायें ही पीढ़ित होती हैं।
इस बीमारी की पहचान किस तरह करें ?
इस बीमारी की पहचान होना बहुत जरूरी है क्योंकि यदि इसे शुरूआती दौर में ही पहचान कर इसका इलाज कर दिया जाये तो इससे छुटकारा मिल सकता है। इसके लिये सबसे ज्यादा जरूरी है कि यदि किसी के व्यवहार में थोड़ा सा भी बदलाव हो रहा है तो उसे नजरअंदाज न करके उसकी जांच करवायी जाय। इस बीमारी की प्रमुख पहचान है याददाश्त में कमी आना। चूंकि वृद्धावस्था में याददाश्त का कमजोर होना आम बात है इसलिये हमउम्र लोगों के साथ तुलना भी की जा सकती है। एल्जाइमर से पीढ़ित व्यक्ति अपने नजदीकी लोगों के नाम और शक्ल तक भूलने लगते हैं। दूसरी पहचान है अचनाक ही ज्यादा गुस्सा आना, बात-बात में चिढ़ना, थकावट महसूस करना आदि। इस बीमारी की पहचान का एक तरीका और है कि यदि कोई व्यक्ति धीरे-धीरे कमजोर होने लगता हैं, अपने काम करने की शक्ति भी खो रहा है और तो रहा और जिन कामों को वह पहले बहुत आसानी से कर लेता था अब उन्हीं कामों को करने में मन नहीं लगा पा रहा है और उसकी जीने की इच्छा शक्ति और महत्वाकांक्षा भी कम हो जाती है तो ऐसे व्यक्तियों को डॉक्टर के पास ले जाना चाहिये क्योंकि यह एल्जाइमर की शुरूआत हो सकती है।
इस बीमारी के प्रमुख लक्षण क्या हैं ?
इस बीमारी का प्रमुख लक्षण है भूलना जो बाद में बहुत खतरनाक हो जाती है। वैसे एल्जाइमर के लक्षण अलग-अलग लोगों में अलग-अलग हो सकते हैं। यह निर्भर करता है कि वह इस बीमारी की किस अवस्था में पहु¡च गया है। इसे तीन अवस्थाओं में बांटा जा सकता है। बीमारी की प्रथम अवस्था में मरीज थोड़ा बहुत भूलने लगता है जिसे आदत मान कर नजरअंदाज कर दिया जाये तो यह दूसरी अवस्था में प्रवेश कर जाता है और मरीज की भूलने की आदत बहुत ज्यादा बढ़ जाती है। मरीज अपने घर के लोगों को, उनके नाम तक को भूलने लगता है। घर में हुए किसी बड़े आयोजन जैसे शादी-ब्याह, नामकरण आदि को भी भूल जाते हैं। महत्वपूर्ण कागजात के बारे में भी उन्हें कुछ याद नहीं रहता है और पैसों संबंधी जरूरी बातें भी उन्हें याद नहीं रहती हैं। तीसरी अवस्था में तो मरीज के भूलने की आदत और भी विकट रूप ले लेती है। मरीज समय और स्थान का भी ज्ञान नहीं रख पाता है। जरा-जरा बात में चिढ़ना और लड़ना उसकी आदत में शुमार होने लगता है और अपने भूतकाल के बारे में उसे कुछ भी याद नहीं रहता है। उसका दिमाग लगभग शून्यावस्था में चले जाता है। इस अवस्था में बहुत लोगों को दृष्टिभ्रम (हेल्यूसिनेशन) की समस्या भी पैदा हो जाती है और कई लोगों को तो दौरे या मिर्गी के दौरे भी पड़ने लगते हैं। इस अवस्था में मरीज का बोलना लगभग बंद हो जाता है और वह इधर-उधर आना-जाना, लोगों से मिलना-जुलना भी बंद करने लगता है। मरीज को आत्महत्या करने जैसे घातक विचार भी दिमाग में आने लगते हैं।
क्या इस बीमारी का कोई कारण है ?
इस बीमारी का कोई कारण नहीं है। 10 प्रतिशत लोगों में यह बीमारी पारिवारिक होती है जबकि कुछ लोगों में यह बीमारी हादसे में सिर में चोट लगने के कारण या अत्यधिक दवाइयों के सेवन करने के कारण हो जाती है। दिमागी तनाव भी इस बीमारी का एक बहुत बड़ा कारण है।
इसे रोकने के लिया क्या किया जाय ?
इसे रोकने के लिये विटामिन और मिनरल युक्त अच्छा भोजन करना चाहिये जिससे दिमाग को अच्छी खुराक मिले। अत्यधिक दवाइयों के सेवन से भी बचना चाहिये इसलिये शरीर का स्वस्थ्य रहना बेदह जरूरी है। इससे बचने के लिये दिमागी और शारीरिक व्यायाम भी बेहद कारगर सिद्ध होता है। इस बीमारी से बचने के लिये यह बहुत जरूरी है कि डिप्रेशन से बचा जाय और यदि डिप्रेशन के शिकार हैं तो शुरूआती दौर में ही उसका इलाज करवा लिया जाय। डिप्रेशन दिमाग के काम करने की शक्ति को बहुत क्षीण कर देता है जो बाद में एल्जाइमर का रूप ले लेता है। इसी तरह साइजोफ्रेनिया का भी शुरू में ही इलाज कर लेना चाहिये। आजकल डॉक्टर इस तरह की बिमारियों से बचने के लिये प्राणायाम करने की सलाह देते हैं। उनका मानना है कि प्राणायाम द्वारा इस बीमारी से बचा जा सकता है।
क्या इसके लिये कोई लैबोरेटरी टैस्ट हैं ?
नहीं। वैसे तो इसके लिये ऐसे कोई टैस्ट नहीं है जिसके द्वारा यह पता किया जा सके कि एल्जाइमर है या नहीं पर फिर भी ई एफ जी और ई एम जी टैस्ट के द्वारा स्नायु तंत्र एवं मांस पेशियों के कार्य का विश्लेषण करने से इस बीमारी का पता चल सकता है।
इस बीमारी का इलाज क्या है ?
हालांकि अभी तक इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है। पर फिर भी TACRIN (Cognex) और
DONEPEZIL (Aricept) के द्वारा इसकी गति को कम किया जा सकता है। प्राणायाम भी इस बीमारी में कारगर सिद्ध होता है और आजकल डॉक्टर मरीजों को प्राणायाम करने की सलाह देते हैं जिसका काफी अच्छा परिणाम भी मिल रहा है। इस बीमारी में इलाज का सिर्फ इतना ही उद्देश्य होता है कि मरीज को लम्बे समय तक इसके घातक परिणामों से बचाया जा सके।
मरीज के साथ कैसा व्यवहार करें ?
एल्जाइमर के मरीजों के साथ बहुत ही आत्मीय व्यवहार करना चाहिये। यह मरीज एक बच्चे की तरह ही हो जाते हैं जिनको किसी भी चीज का कुछ ज्ञान नहीं रहता है और हर छोटी बड़ी बात के लिये यह दूसरों पर निर्भर हो जाते हैं। इस तरह के मरीजों के ऊपर गुस्सा नहीं करना चाहिये क्योंकि इन मरीजों को सबसे अधिक जरूरत प्यार और देखभाल की होती है।
यह कितनी लम्बी बीमारी है ?
इस बीमारी के पता चलने के 3 साल से 20 साल तक यह बीमारी चल सकती है। कुछ मरीजों में देखा गया है कि मरीज की जल्दी ही मृत्यु हो जाती है पर कभी-कभी मरीज इसी हालत में 20 से 25 साल तक भी जिंदा रह जाते हैं।
आजकल जिस तरह से यह बीमारी घातक होती जा रही है ऐसे में यह हमारा एक फर्ज बनता है कि यदि हम कभी भी अपने आसपास के लोगों में इस तरह के परिवर्तन देखें तो उसको और उसके परिवार वालों को इसके बारे में अच्छे से समझायें कि उन्हें डॉक्टर से मिलकर इस बारे में सलाह लेनी चाहिये क्योंकि ये महज पागलपन या आदत नहीं है बल्कि एक बहुत गंभीर बीमारी की शुरूआत है।