Monday, January 12, 2009

अल्मोड़ा यात्रा - 3

सुबह जब नींद खुली बाहर आकर देखा घुप्प अंधेरा ही था और गजब की ठंडी हो रही थी। मैं वापस रजाई में दुबक गई और फिर करीब 1 घंटे बाद बाहर निकली। इस समय उजाला होने लगा था पर ठंडी अभी भी काफी ज्यादा थी। मैं बाहर आकर थोड़ा इधर-उधर घुमने लगी। मुझे ऐसा लगा कि होटल मे मुझे छोड़ के बांकि सब बंगाली ही रूके हुए हैं क्योंकि उनके अलावा मुझे कोई और नहीं दिखे। बंगाली बहुत अच्छे घुमक्कड़ होते हैं और ज्यादातर बड़े-बड़े ग्रुप में ही यात्रा करते हैं।

आज मेरी वापसी थी सो मैं जल्दी नहा-धो के तैयार हो गई। शंभू जी ने मुझे एक जगह बता दी थी और कहा था कि वो मेरे लिये वहीं रूकेंगे। इसलिये मुझे आज अकेले ही वहां तक जाना था जो बिल्कुल भी कठिन नहीं था। मैंने सामान उठाया और निकल गई। आज इस सड़क में अकेले घुमने में अलग मजा आ रहा था। अल्मोड़ा में आज भी संस्कृति हर जगह नजर आती है शायद इसीलिये अल्मोड़ा को उत्तराखंड की सांस्कृतिक राजधानी माना जाता है। यहां-वहां देखते हुए मैं उस जगह पहुंच गई जो जगह मुझे बताई गई थी। होटल से निकलते वक्त मैंने नाश्ता नहीं किया था इसलिये सबसे पहले रैस्टोरेंट की तलाश की गई जहां कुछ पहाड़ी खाना मिल सके। पर ये संभव न हुआ और टोस्ट खा कर संतोष करना पड़ा।

जब हम रैस्टोरेंट से बाहर निकले तभी शंभू जी ने कहा - कल मैं तुझे एक चीज दिखाना भूल गया था। ये देख - लोहे का शेर। लोहे का शेर.....इसके बारे में मैंने सुना तो था पर देखा नहीं था। मैं उसे देखने के लिये गई तो कुछ समझ ही नहीं पाई क्योंकि बेचारे शेर की हालत खराब थी। उसके चारों तरफ जूते वालों ने अपने फड़ खोल रखे थे और दो-चार जूतों की माला बेचारे शेर को पहना रखी थी। देख के हंसू या अफसोस करूं कुछ समझ नहीं आया। दुकानदारों को पीछे हटाते हुए जैसे ही मैंने शेर की फोटो लेनी चाही एक दुकानदार ने जल्दी से शेर के गले से जूते उतार दिये और बोला - मैडम को फोटो लेने दो भई.......। इस लोहे के शेर को किसने बनाया क्यूं बनाया और कब बनाया इस बारे में कुछ भी पता नहीं है।

वहां से हम पं. गोविन्द बल्लभ राजकीय संग्रहालय देखने चले गये। यहां भी काफी प्राचीन मूर्तियों और उत्तराखंड की प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर जैसे - जेवर, मूर्तिया, सिक्के, वाद्य यंत्र......जैसी कई पारंपरिक चीजों को सहेज के रखा हुआ है। आते-आते इसे देखना भी एक अच्छा अनुभव रहा। यहां फोटोग्राफी करना मना है इसलिये मैं संग्रहालय के दरवाजे की तस्वीर खींच के ले आयी।

आज मुझे फिर अकेले ही वापस आना था सो बस से आने का ही फैसला किया। इस बार मैं समय से स्टेशन पहुंच गयी। जिस बस में मैं चढ़ी वो हल्द्वानी जा रही थी। इसलिये मुझे इसमें भवाली तक ही जाना था। बस में काफी भीड़ थी पर मैं पहले ही आ गयी थी इसलिये अपनी पसंद की सीट मिल गई। तरह-तरह के लोग आते जा रहे थे और धीरे-धीरे बस भरती चली गई। अंत में मेरी बगल की सीट में एक 15-16 साल का लड़का आकर बैठ गया। कंडक्टर सब के टिकट काट रहा था और पूछता भी जा रहा था - कोई बगैर टिकट तो नहीं है। उनका साथ देने के लिये बस में बैठा एक यात्री भी बड़े रौब से सबसे पूछने लगा - टिकट ले लिया है न। अरे भई जिसने नहीं लिया है जल्दी लो ताकि बस चलना शुरू करे। थोड़ी देर बाद पता चला वो खुद ही बगैर टिकट यात्रा करने के मूड में थे पर कंडक्टर ने अपने अनुभव के आधार पर उनको पकड़ लिया। उसके बाद भवाली तक वो चुपचाप बैठे रहे।

गाड़ी ने स्पीड पकड़ ली थी और मैं बाहर के लैडस्केप देखने में लग गई। तभी मुझे लगा कि मेरे कंधे में कुछ गिरा। मैंने सर घुमा के देखा। मेरे बगल में बैठे हुए लड़के को झपकी आ गयी थी और उसका सर बार-बार मेरे कंधे में लुढ़क रहा था। जैसे ही बस कहीं जोर का धक्का खा रही थी तो वो एकदम से सर उठाता मुझे सॉरी बोलता और थोड़ी देर बाद फिर वहीं सब शुरू। भवाली पहुंचने तक करीब 10-12 बार तो उसने मुझे सॉरी बोला ही होगा..........

गाड़ी अपनी मंजिल की तरफ बढ़ी जा रही थी और सब अपने में ही खोये हुए थे कि पीछे से किसी के चिल्लाने की आवाज आने लगी। उनके बगल में खड़े एक बच्चे ने उनके उपर उल्टी कर दी थी। उसके बाद बस में एक भूचाल सा आ गया। उस बच्चे के लिये खिड़की वाली सीट का इंतजाम किया गया। बस लगभग भर हुई ही थी। फिर भी कंडक्टर बीच-बीच में से सवारियों को बस में बिठा रहा था और जो लोग पहले से ही खड़े थे उनको बोले जा रहा था - जरा सा एडजेस्ट कर लो। भवाली से सबको जगह मिल जायेगी। इस बात पे काफी पेसेंजर उससे लड़ने में लगे थे।

मेरे बगल में बैठा लड़का इस सब से बेखबर आराम से सोया हुआ था। एक जगह बस रुकी और कंडक्टर ने बोला - 20 मिनट के लिये गाड़ी रुकेगी। जिसे कुछ खाना हो तो खा लो। इसके बाद गाड़ी हल्द्वानी ही रुकेगी। काफी लोग गाड़ी से नीचे उतरे। जो लोग खड़े थे उन्होंने अपने हाथ-पैर सीधे किये और थोड़ी सांस ली। यह जगह गरमपानी नहीं थी जहां का रायता-पकौड़ी काफी प्रसिद्ध है। बस में ऐसा ही होता है। वो अपनी मर्जी से ही रुकती है। आपकी मर्जी उसके आगे नहीं चलती। पर इसका भी अपना मजा होता है। इसके बाद बस सीधे भवाली में ही रूकी। मैं भवाली में उतरी और नैनीताल के लिये दूसरी बस पकड़ी। 30 मिनट में मैं वापस अपने शहर में थी और झील मेरी नजरों के सामने फैली हुई थी जिसे देखना मेरे लिये सुखद अहसास था......

समाप्त.....

23 comments:

अभिषेक मिश्र said...

लोहे के शेर का ऐसा हाल, ताज्जुब है! बस के सफर की दास्तान भी अनूठी रही. काफी जिवंत रहता है बस का सफर.

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत जीवंत यात्रा वृतांत. आनन्द आगया इसमे.बहुत शुभकामनाएं.

रामराम.

P.N. Subramanian said...

s5102अल्मोडा में आज भी संस्कृति हर जगह दिख जाती है कह कर तो आपने हमें भी उकसा दिया है. बहुत ही सुंदर रही आपकी यात्रा. काश दो चार दिन आप किसी परिचित के घर रुक सकते तो वहां के जीवन को करीब से देख पाते. आभार.

रंजू भाटिया said...

पढ़ कर ही आनंद आ गया ..बहुत रोचक लिखा है आपने .कभी जाने का मौका मिला तो यह लेख ध्यान में रहेंगे शुक्रिया

संगीता पुरी said...

आपकी अल्‍मोडा यात्रा की तीनो कडियां आज ही पढ पायी....सुंदर एवं जीवंत चित्रण के लिए बहुत बहुत बधाई....हमें भी अल्‍मोडा घूमा दिया , इसके लिए बहुत बहुत धन्‍यवाद।

Unknown said...

bahut accha laga aapka yaatra vritaant padh kar...

ghughutibasuti said...
This comment has been removed by the author.
ghughutibasuti said...

पढ़कर आनन्द आया और अल्मोड़ा की बहुत पुरानी यादें ताजा हो गईं।
जब आप किसी पुरानी पोस्ट की बात करती हैं तो सका लिंक भी दिया करिये. यह करना बहुत सरल है। इससे पाठक यदि चाहें तो पुरानी पोस्ट पर भी चटखा लगाकर पढ़ सकते हैं।
घुघूती बासूती

Science Bloggers Association said...

आपके संस्‍मरण के बहाने अपनी भी वर्चुअल यात्रा सम्‍पन्‍न हो गयी।

Unknown said...

Vineeta bahut achhi aur yadgaar yatra karwai apne Almora ki...

ab kaha ki baari hai.

उन्मुक्त said...

कई साल पुरानी यादें ताजा हो गयीं।

Unknown said...

achha yatra vritant..

डॉ .अनुराग said...

लोहे के शेर.....ओंर बस की अभूतपूर्व यात्रा ...अल्मोडा को आपने नजदीक से दिखा दिया....शुक्र है आपने उस बेचारे को डपटा नही.....दस बार सॉरी बोलने के बाद भी.....ऐसे कई नींद के मारे बस मे दिखते है....

Dev said...

बहुत रोचक लिखा है आपने अल्मोड़ा यात्रा ,हमें भी अल्‍मोडा घूमा दिया ...

बहुत शुभकामनाएं.

Harshvardhan said...

almora ki poori yatra bahut achchi lagi. asha karta hoo ki aage bhee aapki yatra jaari rahege aur hum aapke blog se seedhe rubaroo honge

es baar maine apne blog me aapke elake se lage neem karoli ke bare me likha hai. aapka almora ka rasta bhee yahin se gujarta hai. samay ho to blog par jarur aaye

hem pandey said...

-तो लोहे का शेर का वजूद अभी तक है, खुशी की बात है.

Udan Tashtari said...

बड़ा ही रोचक यात्र वृतांत रहा...बहुत बढ़िया.

Anonymous said...

jeevant vrittant
dhanyvaad

प्रकाश गोविंद said...

विनीता जी
आप निश्चित रूप से सराहना की पात्र हैं !
बतौर लेखिका तो आप पाठकों के मध्य
लोकप्रिय हैं ही, लेकिन आपने जिस तरह
प्रतिक्रिया व्यक्त करने वाले की हौसला हाफजाई
की, उसकी मैं खुले दिल से प्रशंसा करता हूँ !
ब्लॉग लिखने वाले की तारीफ करके प्रोत्साहित करने का काम तो सभी करते हैं,लेकिन कमेन्ट करने वाले की तारीफ करके आपने एक लाजवाब शुरुआत की है !
मैं आपके इस कृत्य को सैल्यूट करता हूँ !

और हाँ अब आप यात्रा वृतांत लिखने में
तेजी से दक्षता हासिल करती जा रही हैं !

बधाई !!!

मुनीश ( munish ) said...

mast ..mast!

Unknown said...

I myself had been from Almora.. n the quest of "lohe ka sher" landed me to your blog.. I really want to know its origin

Unknown said...

I myself had been from Almora.. n the quest of "lohe ka sher" landed me to your blog.. I really want to know its origin

hem pandey(शकुनाखर) said...

लोहे का शेर अल्मोड़ा की पहचान है। यह कितना पुराना है कोई बता सके तो अनुगृहीत होऊगा।