नोबेल पुरस्कार विजेता पोलिश कवयित्री विस्वावा शिम्बोर्स्का की कविता के कुछ अंश.......
.....भला दुनिया के लिये वे दो व्यक्ति किस काम के
जो अपनी ही दुनिया में खोये हों ?
बिना किसी खास वजह के
एक ही ज़मीन पर आ खड़े हुए हैं ये दोनों,
किस अदृश्य हाथ ने लाखों-करोड़ों की भीड़ से उठाकर
अगर इन्हें पास-पास रख दिया
तो यह महज़ एक अंधा इत्तिफाक था,
लेकिन इन्हें भरोसा है कि इनके लिये यही नियत था।
कोई पूछे कि किस पुण्य के फलस्वरूप ?
नहीं, नहीं, न कोई पुण्य था, न कोई फल.....
....क्या ये सभ्यता के आदर्शों को तहस-नहस नहीं कर देगी ?
अजी, कर ही रही है।
देखो, किस तरह खुश हैं दोनों,
कम-से-कम छिपा ही लें अपनी खुशी
हो सके तो थोड़ी सी उदासी ओढ़ लें
अपने दोस्तों की खातिर ही सही। जरा उनकी बातें तो सुनो
हमारे लिये अपमान और उपहास के सिवा क्या है ?
और उनकी भाषा ?
--कितनी संदिग्ध स्पस्टता है उसमें !
और उनके उत्सव, उनकी रस्में,
सुबह से शाम तक फैली हुई उनकी दिनचर्या !
--सब कुछ एक साज़िश है पूरी मानवता के खिलाफ।
हम सोच भी नहीं सकते क्या से क्या हो जाये
अगर सारी दुनिया इन्हीं की राह पर चल पड़े!
तब धर्म और कविता का क्या होगा ?
क्या याद रहेगा, क्या छूट जायेगा
भला कौन अपनी मर्यादाओं में रहना चाहेगा !.....
.....सच्चा प्यार ?
मैं पूछती हूं क्या यह सचमुच इतना जरूरी है ?
व्यावहारिकता और समझदारी तो इसी में है
कि ऐसे सवालों पर चुप्पी लगा ली जाए
जैसे ऊंचे तबकों के पाप-कर्मों पर खामोश रह जाते हैं हम,
जिन्हें कभी सच्चा प्यार नहीं मिला
उन्हें कहने दो कि
दुनिया में ऐसी कोई चीज होती ही नहीं,
इस विश्वास के सहारे
कितना आसान हो जायेगा
उनका जीना और मरना।