Thursday, January 7, 2010

रोचक है नैनीताल की चप्पू वाली नावों का इतिहास


 
नैनीताल की चप्पू वाली नावें नैनीताल की पहचान मानी जाती रही हैं। इन नावों का इतिहास जितना रोचक है उतनी ही रोचक हैं इन नावों को बनाने की विधि।

नावों को बनाने के लिये तुन की लकड़ी का प्रयोग किया जाता है। तुन की लकड़ी का प्रयोग इसलिये किया जाता है क्योंकि ये बहुत हल्की होती है जिस कारण पानी में आसानी से तैरती है साथ ही थोड़ी लोचदार होती है और आसानी से पानी में सड़ती भी नहीं है। नाव की लम्बाई 21.5 से 22 फीट होती है, चौड़ाई 4 फीट व उंचाई 18 इंच होती है और वजन लगभग 1क्वंटल होता है।

नाव को बनाने के लिये सबसे पहले इसके आंतरिक ढांचे (फ्रेम) को बनाया जाता है। जो नाव का सबसे अहम हिस्सा है। दूसरा नम्बर है नूक (आगे का गोलाई वाला हिस्सा)। तीसरा नम्बर आता है गोला (नाव का तला)  का, जिसे नाव की रीढ़ की हड्डी कहा जा सकता है। चौथा नम्बर आता है माड़ा और बाड़ा का जिन्हें आपस में जोड़कर लकड़िया लगायी जाती हैं। नाव के एक तरफ लगाये जाने वाली लकड़ियों की संख्या कम से कम 18 होती है। जो 6 इंच की होती हैं और 1 लाइन में 6 पिट्टयां लगती हैं। यह तो हुआ नाव के बाहर का काम।

इसके बाद बारी आती है अंदरी भाग के निर्माण की। जिसमें होता है नाव में  तांबे की कीलें (रिपिट) लगाना। तांबे की कीलों में जंक नहीं लगता इसलिये यह खराब भी नहीं होती हैं। पत्तियां चिपकाना और बैठने के लिये कुर्सियां लगाना इत्यादि। पूरी नाव में अंदर और बाहर की तरफ साल की राल (पोटीन) लगायी जाता है जो पानी को नाव के अंदर आने से रोकता है। सिंथेटिक व‚निZश लगाया जाता है और इसे तीन-चार दिन तक सूखने के लिये छोड़ दिया जाता है। इसके बाद चप्पू बनाये जाते हैं जिन्हें चीड़ की लकड़ी से बनाते हैं। यह 8 फीट लम्बे और इनकी आगे से चौड़ाई 5 इंच होती है। इनको नाव में लगाने के लिये रोला बनाया जाता है जो लोहे का होता है। एक नाव को बनाने में कम से 30 दिन तो लग ही जाते हैं। वो भी तक जब सुबह से शाम तक लगातार काम किया जाये नहीं तो यह समय थोड़ा बड़ भी जाता है।

नावों को साल में दो बार व‚निZश किया जाता है ताकि ये ठीक रहें और यदि कोई टूट-फूट हो जाती है तो उसे भी इन्हीं दिनों ठीक कर लिया जाता है। ऐसा इसलिये किया जाता है ताकि नाव पानी में आसानी से तैरती रहे और पानी नाव के अंदर न आने पाये।

नाव बनाने लगभग 35,000 से 40,000 रुपये तक की कीमत लग जाती है। इस कीमत को वसूलने में लगभग 3 से 5 साल का समय लग जाता है। यदि नाव वाला स्वयं नाव चला रहा है तो 3 साल लग जाते हैं और यदि उसने किसी को नाव चलाने के लिये रखा है तो कम से कम 5 साल लग जाते हैं।

आजकल नावों के लाइसेंस कम मिलते है इसलिये नाव बनाने के काम में काफी कमी आ गई है। इस समय झील में नावों की कुल संख्या 222 है जिनसे लगभग 400 परिवार पल रहे हैं। साथ ही पैडल बोट की संख्या भी बढ़ रही है इस कारण भी नाव बनाने के काम में थोड़ी कमी आयी है जबकि पैडल बोट से झील को नुकसान होता है लेकिन चप्पू वाली नाव से झील को कोई नुकसान नहीं है।

इन नावों को बनाना काफी समय पहले ब्रजवासी जी ने शुरू किया था पर उन्होंने जो म‚डल बनाये वो अब नहीं बनते हैं। उनके बाद 1930 के लगभग सरदार धन्ना सिंह ने नावों को बनाने का काम शुरू किया। उनसे ही गोपाल राम जी ने नावें बनाना सीखा। सन् 1940-1965 तक गोपाल राम जी अकेले नाव बनाने वाले थे। नई नावों के जो म‚डल आये हैं इसमें गोपाल राम जी का ही योगदान है और गोपाल राम जी से यह विधा आगे और लोगों के पास गई। जो इस विधा से ही अपने परिवार का पालन-पोशण कर रहे है।

इस समय जो नाव बना रहे हैं उन्हें अफसोस है कि उनके पास कोई भी वर्कश‚प नहीं है जहाँ आराम से नावें बना सकें जबकि यह यहाँ का पुश्तैनी काम है और कई परिवारों की रोजी-रोटी इससे जुड़ी हुई है। उनका कहना था कि हमें झील के किनारे नावें बनाने के लिये एक वर्कश‚प दे दी जाये तो हमें काम करने में काफी आसानी हो जायेगी।