मेरी यह कौसानी यात्रा सन् 2006 की है। इस यात्रा की प्लानिंग भी मैंने और मेरे दोस्तों ने अचानक ही बनायी। हुआ कुछ यूं था कि शनिवार और इतवार की छुट्टी थी इसलिये हमने सोचा की दो दिन के लिये नजदीक की किसी जगह जाया जा सकता है और कौसानी तय हो गया। बस फिर क्या था सीधे कौसानी में कुमाऊँ मंडल विकास निगम के होटल में बुकिंग भी करवा ली।
वो शायद अक्टूबर या नवम्बर का महीना रहा होगा हम लोग सुबह 6.30 बजे वाली बस से कौसानी के लिये निकल गये। सबसे अच्छा यह रहा कि हमें सीधा कौसानी तक की बस मिल गयी। वो भी आगे की सीटें। हमने अपने टिकट ले लिये और आपस में बात करने लगे। कुछ देर बाद जब बस भरी तब चलने के लिये तैयार हो गई और हम भवाली की तरफ निकल गये। करीब 25-30 मिनट में हम भवाली पर थे। यहां से बस अल्मोड़ा के लिये निकली। अल्मोड़ा तक का रास्ता तो हम लोगों के लिये बिल्कुल जाना पहचाना रास्ता है। पूरा रास्ता कोसी नदी के साथ-साथ ही चलता है और बीच में कैंची मंदिर, काकड़ीघाट और सोमवार गिरी महाराज का आश्रम पड़ता है। लेकिन अल्मोड़ा से आगे का रास्ता हम लोगों के लिये नया था। रास्ते में काफी सारे गांव पड़े जिनके नाम अब तो याद नहीं रहे पर हां इतना जरूर है कि काफी सुंदर लग रहे थे। चलती गाड़ी से बाहर दौड़ते-भागते खेतों और गांवों को देखने में बहुत अच्छा लगता है एक के बाद एक नयी-नयी जगह आती हैं और चली जाती हैं। इस रास्ते में सोमेश्वर भी पड़ता है जो कि एक बहुत ही खुबसूरत जगह है।
बस पहाड़ी सड़कों में हौले-हौले आगे बढ़ रही थी और बीच-बीच में लगातार यात्री चढ़ और उतर रहे थे। ज्यादातर यात्री बीच के स्टेशनों में उतर रहे थे और बीच के स्टेशनों से ही चढ़ भी रहे थे। जो शायद उनकी रोजमर्रा कि जिंदगी का एक अहम हिस्सा था। पूरे रास्ते में बस सिर्फ एक ही जगह कुछ देर के लिये रुकी जहां लोगों ने चाय वगैरह पी। आजकल यहां मौसम बहुत अच्छा था। इस समय न तो गरम ही था और न ठंडा। कुछ समय में बस अपनी मंजिल की तरफ बढ़ गयी और फिर से छोटे-छोटे गांव, खेत खलिहान हमारे रास्ते में आते रहे।
दोपहर करीब 12 बजे हम लोग कौसानी में थे। हम लोगों के सामने कौसानी का छोटा सा बाजार था। यहीं एक दुकान में जाकर हमने कु.मं.वि.नि. के रैस्ट हाउस का पता पूछा। दुकानदार ने बताया यहां से तो वहां सिर्फ टैक्सी ही जाती है जो 50 रु. लेती है। हमने टैक्सी ली और रैस्ट हाउस की तरफ चले गये। करीब 20-25 मिनट में हम लोग रैस्ट हाउस पहुंच गये। हमारी बुकिंग पहले से ही थी सो उन्होंने हमें हमारे कमरे तक पहुंचा दिया। हमारे कमरे के सामने ही हिमालय का नजारा था पर इस समय हिमालय के ऊपर बादल आ गये थे इसलिये हमें हिमालय नहीं दिख पाया। हमने अपने लिये कॉफी यहीं मंगायी और बाहर से ही बैठ के पी। थोड़ा-थोड़ा भूख भी सताने लगी थी सो खाने के लिये भी ऑर्डर दे दिया। थके होने के कारण हमने तय किया कि पहले कुछ देर आराम करेंगे और फिर कहीं टहलने निकलेंगे।
करीब 4.30 बजे हम लोग टहलने के लिये निकले। इस समय कौसानी का नजरा बिल्कुल अलग ही था। रैस्ट हाउस वालों ने बताया कि यहां ऐसी तो कोई जगह नहीं है जहां आप इस समय जा सके। बस बाजार तक जा सकते हैं जहां से आप उस समय टैक्सी करके आये थे। आप लोग सड़क ही सड़क जाना कहीं भी दांये-बांये नहीं होना और साथ ही उन्होंने हमें यह भी कहा कि यहां एकदम अंधेरा हो जाता है और रात को रास्ता बिल्कुल सुनसान होता है जिस कारण जंगली जानवरों का खतरा है। इसलिये कोशिश करना कि समय से वापस आ जाओ।
यहां हमें काफी विदेशी सैलानी नजर आये। इस समय हमें महसूस हुआ हुआ कि यह रास्ता इतना लम्बा भी नहीं है शायद 2 किमी. ही होगा और सड़क बिल्कुल अच्छी खासी है। इस सड़क में कुछ और होटल भी हैं। कुछ देर में हम बाजार पहुंचे। सूर्यास्त का ही समय रहा होगा और बाजार लगभग बंद हो चुके थे। कहीं कोई इक्का-दुक्का दुकान ही खुली हुई थी और कहीं कुछ शराबी गिरते पड़ते दिखे।
हमें रैस्ट हाउस वालों की बात याद आ गयी सो वापस लौट गये। वापस लौटते हुए एक छोटा सा पहाड़ी नुमा रैस्टोरेंट हमारी नजरों में आ गया। जाते समय तो हम इसे नहीं देख पाये पर इस समय इसमें नजर पड़ गयी। अब ठंडी भी कुछ ज्यादा ही होने लगी थी। जैकेट पहने होने के बाद भी कपकपी लग रही थी इसलिये हमने वहां चाय पीने की सोची और साथ ही उसके यहां जल रही लकड़ी की आग सेकने का मन भी हो आया।
रैस्टोरेंट वाले से चाय के लिये कहा तो उसने बड़े उत्साह से कहा - आप बैठिये मैं अभी अदरक वाली चाय बना कर लाता हूं। उसके चाय बनाने तक हम लोग सगड़ में जल रही आग सेकने बैठ गये। शहरों में तो सिर्फ हीटर की आग ही होती है इसलिये लकड़ी की आग सेकने का मजा हममें से कोई भी खोना नहीं चाहता था। आग के पास कुछ और भी ग्रामीण बैठे हुए थे जिन्होंने हमसे मुखतिब होते हुए पूछा - आप लोग कहीं बाहर से आये हो ? हमने कहा - नहीं। हम लोग भी पहाड़ी ही हैं बस कौसानी घूमने आये हैं। उन्होंने कहा - अब तो यहां ज्यादा बाहर के लोग ही घूमने आते हैं जिनमें ज्यादातर बंगाली टूरिस्ट होते हैं। हमने कहा - हमें तो यहां विदेशी भी खूब दिख रहे हैं। उन्होंने कहा - कहां के विदेशी ? अब तो ये भी यहीं के पहाड़ी हो गये हैं। इनमें से कई विदेशी ऐसे हैं जो अब यहीं के आसपास के गांवों में बस गये हैं और उन्होंने यहीं के रहन सहन को अपना लिया है। ये लोग हिन्दी तो रही हिन्दी कुमाउंनी भाषा भी फर्राटे से बोलते हैं।
इन्हीं सब बातों के बीच चाय आ गयी। चाय की पहली चुस्की ने ही हमें पूरा तरोताजा कर दिया और उसी समय ये बात तय हो गयी कि जब तक यहां हैं चाय तो इसी दुकान में पियेंगे। उन लोगों के साथ चाय पीते-पीते कुछ और बातें की फिर हम लोग वापस आ गये। रात बिल्कुल गहरा गयी थी अचानक ही हमारी नजर आसमान की ओर पड़ी। आसमान बिल्कुल नीला था और उसमें तारे हीरों की तरह जगमगा रहे थे। इतना स्वच्छ और निर्मल आसमान अब शायद गांवों में ही कहीं दिखता होगा।
हम लोग अपनी बातों में इतने मशगूल थे कि पता ही नहीं चला कि हम कब रास्ता भटक गये और दूसरे रास्ते पर निकल गये। जब इस रास्ते में काफी आगे बढ़ गये तो हमें महसूस हुआ कि हम उंचाई की तरफ जा रहे हैं जबकि हमारा रास्ता बिल्कुल सीधा था। उस समय हमारे समझ में कुछ भी नहीं आया रास्ता एकदम सुनसान था। कहीं कोई हलचल नहीं थी। इस समय तो हम लोग थोड़ा घबरा गये थे क्योंकि ये भी समझ नहीं आ रहा था आखिर रास्ता पूछें भी तो किस से। उस पर से अपने मोबाइल भी रैस्ट हाउस में ही छोड़ गये थे। हम लोगों ने तय किया कि जिस रास्ते से आये हैं उसी रास्ते से वापस जाते हैं और वहीं-कहीं किसी मकान या होटल वालों से कुछ पूछ लेंगे। जब हम वापस लौटे तो हमें अपनी गलती पता चल गयी। असल में हुआ यूं कि एक जगह रास्ता दो सड़कों में कट गया था। हमें सीधे रास्ते पर जाना था लेकिन हम दूसरे रास्ते में निकल गये। सही रास्ता पाकर हमारी जान में जान आयी। उसके थोड़ी देर बाद हम लोग रैस्ट हाउस आ गये। रात के समय तो यहां बिल्कुल सन्नाटा सा पसर गया था। हम लोगों ने रात का खाना खाया और फिर कुछ देर यहां-वहां की बातें की और सो गये।
जारी...