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Thursday, September 3, 2009

नैनीताल का नन्दाष्टमी मेला - 2009

उत्तराखंड अपने मेले-त्यौहारों के लिये काफी मशहूर रहा है। उत्तराखंड में पूरे वर्ष लगभग 100 से ज्यादा मेले लगते हैं। इन्हीं मेलों में एक है नन्दाष्टमी का मेला। इसे कुमाउं में मुख्य तौर पर मनाया जाता है। नैनीताल में यह मेला लगभग 5-6 दिन का लगता है।

नन्दाष्टमी भादो के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को मनायी जाती है। नन्दा को कुमाऊँ में रणचंडी के नाम से भी जाना जाता है तथा यह चन्द वंश के राजाओं की कुलदेवी भी मानी जाती है। नन्दा देवी से संबंधित कई किवदंतियां यहां पर प्रचलित हैं जिनमें से कुछ इस प्रकार है। एक बार नारद ने कंस से कहा कि उनकी बहन देवकी की आठवीं संतान कंस की मौत का कारण बनेगी। कंस ने तभी से देवकी की आठवीं संतान को मारने का निर्णय कर लिया जिसके चलते उसने देवकी और वासुदेव को बंदी बना लिया। जब देवकी ने आठवीं संतान के रूप में कृष्ण को जन्म दिया तो उसने कंस के डर से उसे गोकुल में यशोदा के घर भेज दिया और उनकी पुत्री को अपने पास ले आये। कंस को जब आठवीं संतान के जन्म का पता चला तो वो उसे मारने पहुंचा और जैसे ही बच्ची को मारने के लिये हाथ में पकड़ा बच्ची कंस के हाथ से गायब हो गई और हिमालय की नन्दाकोट पहाड़ी में जाकर बस गई। जिसे आज नन्दा देवी के नाम से जाना जाता है। देवी नन्दा ने राजा दीपचन्द को स्वप्न में आकर कहा कि अल्मोड़ा में उनका मंदिर बनाया जाये। जिसके बाद नन्दा देवी के मंदिर की स्थापना हुई और प्रतिवर्ष पूजा और मेले का आयोजन किया जाने लगा।

दूसरी किवदंती के अनुसार 16वीं सदी के चन्द्रवंशी राजाओं की कुलदेवी थी और राजा कल्याण चन्द की बहिन भी इसी नाम की थी। कहा जाता है कि जब नन्दा मायके आ रही थी उस समय एक भैंसे ने उसका पीछा किया। उससे बचने के लिये वह एक केले के पेड़ के पीछे छुप गई पर केले के पेड़ की पत्तियों को बकरी ने खा दिया और नन्दा को भैंसे ने मार दिया। तब से उसकी याद में ही इस मेले का आयोजन किया जाता है और प्रतिशोध स्वरूप भैंसे और बकरे की बलि दी जाती है। कहा जाता है की केले के पेड़ में उसने आसरा लिया था इसलिये इन मूर्तियों के निर्माण के लिये केले के पेड़ का ही इस्तेमाल किया जाता है।

अल्मोड़ा गजेटियर में एच.डी. बाल्टन लिखते हैं कि - बाजबहादुर चंद ने विजयोपरांत जूनियागढ़ से नन्दा की मूर्ति को अल्मोड़ा के मल्ला महल में स्थापित किया था।

कहा जाता है कि गौरा कुमाउं की ईष्ट देवी है और उनके साथ ही नन्दा का आगमन हुआ। इसलिये नन्दाष्टमी में दो मूर्तियां नन्दा और सुनन्दा की बनाई जाती हैं। इन मूर्तियों के निर्माण का भी अपना ही एक विधान होता है। पूजा में भाग लेने वाले ब्राह्म्ण स्थानीय लागों, परम्परागत नृत्य टोलियों छोलिया आदि के साथ केले के वृक्ष लेने के लिये जाते हैं जिन्हें पूरे शहर में घुमाते हुए मंदिर ले जाया जाता है और फिर मूर्ति विधा में पारंगत कलाकारों द्वारा मूर्तियों का निर्माण किया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि नन्दा/सुनन्दा का चेहरा नन्दा देवी पर्वत के समान ही बनाया जाता है। और अष्टमी के दिन सभी विधि-विधान के बाद इन मूर्तियों को दर्शनों के लिये रख दिया जाता है।

इस दिन से ही मेले की शुरूआत भी हो जाती है। जिसमें बाहर से आये व्यापारी अपनी दुकानें लगाते हैं। आज भी ग्रामीण इलाकों में रहने वालों के लिये इस मेले का खासा महत्व होता है। जो यहां आकर अपने हस्तेमाल की कई चीजें खरीद कर ले जाते हैं। पहले से यह मेला दो-तीन दिन ही चलता था पर समय के साथ-साथ इसका भी व्यापारिकरण हो गया है और इसे 6-7 दिन तक भी लगाया जा रहा है। इसमें आधुनिकता की पूरी झलक दिख जाती है जिस कारण यह मेला अब एक महोत्सव का रूप ले चुका है। जिसमें प्राचीन परम्परायें काफी हद तक गायब होती सी दिखायी पड़ती हैं।

मेले के आखरी दिन देवी के डोले को विदाई के लिये ले जाया जाता है। विदाई से पहले इसे पूरे शहर में घुमाया जाता है जिसमें पारम्परिक वाद्य एवं नृत्य से लेकर आधुनिक बैंड बाजे भी होते हैं। पूरे शहर में डोले को घुमाने के बाद सायं काल में देवी की पूजा के बाद इसे झील में विसर्जित कर दिया जाता है।
मंदिर मे देवी की मूर्ति लोगों के दर्शन के लिये

मेले में लगी दुकानों की कुछ झलकियां




मस्ती टाइम




कुछ खाना हो जाये


बच्चों के लिये मस्ती टाइम


विदाई







Tuesday, March 10, 2009

जो नर जीवें खेलें फाग

वैसे तो कुमाऊँ में होलियों की शुरूआत वसंत पंचमी से ही हो जाती है पर अब लोगों के पास न तो इतना समय है और न ही उतना उत्साह है इसलिये रंग पड़ने वाले दिन से ही होली गाना शुरू किया जाता है। मेरे गांव में होली कुछ इस अंदाज में मनायी जाती है। जिस दिन रंग पड़ता है उस दिन सभी लोग पहले देवी के मंदिर में फिर शिव के मंदिर में एक साथ इकट्ठा होकर होलियों की शुरूआत करते हैं। सबसे पहले भगवान को रंग डाला जाता है उसके बाद लोग आपस में एक दूसरे को रंग डालते हैं। इसी दिन पदम की डाल में चीर भी बांधी जाती है जिसे पूरे गांव में घुमाया जाता है। इसके बाद होलियां गाई जाती हैं तथा पारम्परिक नृत्य भी किये जाते हैं। होलियों की शुरूआत गणेश की होली सिद्धि को दाता विघ्न विनाशन, होली खेलें गिरिजापति नन्दन से होती है और फिर तरह-तरह की होलियां गायी जाती हैं जिनमें कुछ प्रचलित होलियां होती हैं तो कुछ होलियां लोग स्वयं ही अपने परिवेश के आधार पे बना लेते हैं। मंदिर में होलियां गाते हुए लोगों की टोलियां गांवों में घुमने के लिये निकल जाती है और गांव के प्रत्येक घर में जाकर होली गाते हैं और उनके परिवार को आशीष भी देते हैं जिसका अपना एक अलग ही अंदाज होता है जो कुछ इस तरह है -
हो हो होलक रे।
बरस दिवाली बरसे फाग
जो नर जीवें खेलें फाग
हमरा (घर वालों का नाम) जी रौं लाख सो बरीस

इस तरह उनके पूरे परिवार वालों के नाम लिये जाते हैं और उनके परिवार के लिये खूब ढेर सारी आशीष दी जाती है जिसमें हल्का-फुल्का मजाक भी चलता है पर इसे कोई भी लोग बुरा नहीं मानते हैं। परिवार वाले इन होल्यारों को अपनी हैसियत के अनुसार गुड़, चावल रुपये तथा दूसरे सामान देते हैं जिन्हें होल्यार इकट्ठा कर लेते हैं और अंतिम दिन होने वाले भंडारे के लिये इस्तेमाल करते हैं।

गांव में ज्यादातर होलियां शाम के समय में ही होती हैं क्योंकि दिन में सब अपने खेती के कामों में व्यस्त रहते हैं। होलियों के लिये पुरूषों की मंडली अलग होती है और महिलाओं की मंडली अलग होती है और बच्चे भी अपने एक अलग ही मंडली बना लेते हैं। गांव में घुमने का काम ज्यादातर पुरुषों और बच्चों का होता है जबकि महिलायें घरेलू होलियां करती हैं। जिसमें गांव की सारी महिलायें एकत्र होकर रोज किसी न किसी घर जा के घरों में बैठ के हालियां गाती हैं। महिला होली ज्यादातर ऋतु और श्रृंगार रस में डुबी होती हैं जो कुछ इस प्रकार होती हैं - ननदी के बिरन होली खेलो रसिया, जब से पिया परदेश गये हें/सूनी पड़ी है यह बिंदिया और सूनी पड़ी है यह नथनी/ननदी के बिरन.....। या होली खेलो फागुन ऋतु आयी रही/राधे नन्द कुंवर समझाय रही... अब के होली में घर से निकसे कान्हा के चरण दबाय रही ये तो कृष्ण के चरण दबाय रही या फिर जिस होली आई रे आई रे होली आई रे/फागुन मास बसंत ऋतु आई रे/माह बड़ो सुखदाई रे, मन में उमंग भर लाई रे होली/कागा बोले मोर भी नाचे, कोयल कूक सुहाय रही.....। जिस परिवार में होली होती है वो खाने की व्यवस्था भी करते हैं जिसमें प्रमुख होते हैं गुजिया और आलू। इनके अलावा दूसरे तरह के पकवान भी खाने के लिये परोसे जाते हैं। महिला होली पुरुषों की होलियों से अलग होती हैं। इन होलियों में पुरुष नहीं जाते हैं।

होली में स्वांग भी किया जाता है। इसमें लोग किसी और का भेष बना कर एक दूसरे का मजाक करते हैं। कभी कभी स्वांग में गांव के लोग नेताओं या अभिनेताओं का वेश बनाकर भी मजाक करते हैं पर ये स्वांग सिर्फ कुछ देर के हंसी मजाक का हिस्सा होते हैं किसी को भावनात्मक चोट पहुंचाने के लिये स्वांग नहीं किये जाते।

होलिका दहन वाले दिन सब लोग एक साथ इकट्ठा होते हैं और होलिका दहन करते हैं। उसी दिन चीर को भी जलाया जाता है फिर उसी स्थान पे होलियां गायी जाती हैं। ये दौर पूरी रात चलता रहता है। होलिका दहन के दूसरे दिन होली जिसे छरड़ी कहते हैं मनायी जाती है। इस दिन लोग एक दूसरे के उपर रंग और पानी फेंक के होली खेलते हैं। नई दुल्हनों का तो बुरा हाल रहता है। छरड़ी करने के बाद सभी लोग नहा धोकर मंदिर में जाते हैं। वहां पे भंडारा किया जाता है और मंदिर में होली गा के होलियों का समापन कर दिया जाता है।

बहुत जगह होलियों में ठंडाई पीने का भी चलन हैं पर महिलायें और बच्चे इन चीजों से दूर रहते हैं। अब ठंडाई की जगह शराब पीकर भी लोग मस्त हो लेते हैं।

अन्त में होली की ढेर सारी शुभकमानाओं के साथ मैं अपनी पसंद की एक प्रसिद्ध होली यहां पर दे रही हूं जो कुमाउं की एक प्रचलित होली है जिसे आशीष के तौर पर गाया जाता है -

हो मुबारक मंजरि फूलों भरी
ऐसी होरी खेलें जनाब अली

बारादरी में रंग बनो है,
हसन बाग मची होरी।
ऐसी होरी खेलें जनाब अली।।

जुग जुग जीवें मित्र हमारे
बरस-बरस खेलें होरी।
ऐसी होरी खेलें जनाब अली।।