प्रकृति हमारे लिये कितनी उपयोगी हो सकती है?
इस सवाल का जवाब मुझे अचानक ही उस दिन मिला जब मैं अपने कुछ मित्रों के साथ ऐसे ही घूमने के लिये हनुमानगढ़ के लिये निकल गयी थी। रास्ते में एक घास की ओर इशारा करते हुए मेरे मित्र ने बताया कि यह `डैन्डीलियन´ कहलाती है और बहुत ही उपयोगी जड़ी-बूटी है। इसकी दो पत्तियां रोज़ खाने पर ही पेट की कई बीमारियां ठीक हो सकती हैं। यह एक बहुत ही अच्छा रक्तशोधक भी है। इसका स्वाद ज़रूर बहुत कड़वा होता है, पर इसके फायदों के सामने यह कड़वा स्वाद कुछ भी नहीं है। मूलत: यह एक फ्रेंच घास है। फ्रांस में यह बहुत अधिक उपयोग में लायी जाती है। विशेष तौर पर सलाद में इसका उपयोग किया जाता है। परन्तु भारत में हम लोग इसकी तरफ देखते भी नहीं हैं। इसकी पत्तियों में शेर के दांत का सा कट होता है, इसीलिये शायद इसे डेन्डीलियन (फ़्रांसीसी में अर्थ- शेर के दांत) कहते हैं।
उस जगह से थोड़ा आगे बढ़े तो एक और वनस्पति मुझे दिखायी वह थी `रूबिया काडीपफोलिया´, जिसका स्थानीय नाम `मंजीठा´ है। यह बालों के उड़ने की बीमारी में बहुत काम आती है। इससे एक कत्थई रंग भी निकलता है, जिसे पहले तिब्बती भिक्षु अपने कपड़े रंगने के लिये प्रयोग करते थे।
तब मुझे पहली बार पता चला कि असल में प्रकृति किस चीज़ का नाम है। हमारे चारों तरफ ही प्रकृति ने इतनी सारी चीजें बिखराई हुई हैं, परन्तु हम उस ओर देखते ही नहीं। उस दिन से अचानक ही मुझे महसूस हुआ कि प्रकृति के इस रूप में मेरा शौक बढ़ रहा है।
उसके बाद एक दिन हम लोगों को एक साथ एक ट्रेकिंग पर जाने का मौका मिला। उस दिन फर पता चला कि मेरी नजरों ने जिन्हें हमेशा एक सामान्य हरी घास की तरह देखा था, वे सिर्फ घास-फूस ही नहीं हैं, बल्कि बहुत कुछ और भी हैं। उनमें से एक घास ऐसी थी जो तेज ज्वर में बहुत प्रभावकारी है। इसका स्थानीय नाम `रतपतिया´ है। इसी तरह से `थैलिक्ट्रम फोलियोलोस´, जिसे स्थानीय भाषा में `ममीरा´ के नाम से जाना जाता है, आंखों की बीमारियों को ठीक करने में बहुत उपयोगी है। यह भी झाड़ की तरह ही होती है। पत्तिया छोटी, गोल व समूह में होती हैं। एक सुन्दर, कटीली झाड़ी भी नजर आयी, जिसका वानस्पतिक नाम `एस्पोरेगस रेसीमोसस´ और स्थानीय नाम `कैरुवा´ है। इसकी जड़ों का रस सिर के जूं साफ करने में प्रयुक्त होता है। इसके नये कल्लों की सब्जी बहुत स्वादिष्ट होती है और अब पाच सितारा होटलों में एक महंगा व्यंजन बन चुकी है।
इसी तरह एक चट्टान पर उग आया कुछ पत्तों का झुंड था। पता चला कि वह `सम्यो´ है, जिसका वानस्पतिक नाम `वेलेरिना वोलिची´ है। इसकी जड़ों में खुशबूदार तेल होता है, जिसे ग्रामीण लोग धूप बनाने के लिये प्रयोग करते हैं। अब इसका व्यापारिक स्तर पर भी सुगंधित तेल बनाने में उपयोग किया जा रहा है। `गुलबनफ्रसा´ का नाम तो मैंने पहले भी कई बार सुना था। यह भी जानती थी कि सदी- जुकाम की दवाओं, विशेषकर `हमदर्द´ की दवाओं, में इसका इस्तेमाल होता है। परन्तु यह जानकर मैं आश्चर्यचकित रह गई कि `गुलबनफ्रसा´, जिसे `वायोला´ के नाम से भी जाना जाता है, नैनीताल में भरा पड़ा है।
इस सवाल का जवाब मुझे अचानक ही उस दिन मिला जब मैं अपने कुछ मित्रों के साथ ऐसे ही घूमने के लिये हनुमानगढ़ के लिये निकल गयी थी। रास्ते में एक घास की ओर इशारा करते हुए मेरे मित्र ने बताया कि यह `डैन्डीलियन´ कहलाती है और बहुत ही उपयोगी जड़ी-बूटी है। इसकी दो पत्तियां रोज़ खाने पर ही पेट की कई बीमारियां ठीक हो सकती हैं। यह एक बहुत ही अच्छा रक्तशोधक भी है। इसका स्वाद ज़रूर बहुत कड़वा होता है, पर इसके फायदों के सामने यह कड़वा स्वाद कुछ भी नहीं है। मूलत: यह एक फ्रेंच घास है। फ्रांस में यह बहुत अधिक उपयोग में लायी जाती है। विशेष तौर पर सलाद में इसका उपयोग किया जाता है। परन्तु भारत में हम लोग इसकी तरफ देखते भी नहीं हैं। इसकी पत्तियों में शेर के दांत का सा कट होता है, इसीलिये शायद इसे डेन्डीलियन (फ़्रांसीसी में अर्थ- शेर के दांत) कहते हैं।
उस जगह से थोड़ा आगे बढ़े तो एक और वनस्पति मुझे दिखायी वह थी `रूबिया काडीपफोलिया´, जिसका स्थानीय नाम `मंजीठा´ है। यह बालों के उड़ने की बीमारी में बहुत काम आती है। इससे एक कत्थई रंग भी निकलता है, जिसे पहले तिब्बती भिक्षु अपने कपड़े रंगने के लिये प्रयोग करते थे।
तब मुझे पहली बार पता चला कि असल में प्रकृति किस चीज़ का नाम है। हमारे चारों तरफ ही प्रकृति ने इतनी सारी चीजें बिखराई हुई हैं, परन्तु हम उस ओर देखते ही नहीं। उस दिन से अचानक ही मुझे महसूस हुआ कि प्रकृति के इस रूप में मेरा शौक बढ़ रहा है।
उसके बाद एक दिन हम लोगों को एक साथ एक ट्रेकिंग पर जाने का मौका मिला। उस दिन फर पता चला कि मेरी नजरों ने जिन्हें हमेशा एक सामान्य हरी घास की तरह देखा था, वे सिर्फ घास-फूस ही नहीं हैं, बल्कि बहुत कुछ और भी हैं। उनमें से एक घास ऐसी थी जो तेज ज्वर में बहुत प्रभावकारी है। इसका स्थानीय नाम `रतपतिया´ है। इसी तरह से `थैलिक्ट्रम फोलियोलोस´, जिसे स्थानीय भाषा में `ममीरा´ के नाम से जाना जाता है, आंखों की बीमारियों को ठीक करने में बहुत उपयोगी है। यह भी झाड़ की तरह ही होती है। पत्तिया छोटी, गोल व समूह में होती हैं। एक सुन्दर, कटीली झाड़ी भी नजर आयी, जिसका वानस्पतिक नाम `एस्पोरेगस रेसीमोसस´ और स्थानीय नाम `कैरुवा´ है। इसकी जड़ों का रस सिर के जूं साफ करने में प्रयुक्त होता है। इसके नये कल्लों की सब्जी बहुत स्वादिष्ट होती है और अब पाच सितारा होटलों में एक महंगा व्यंजन बन चुकी है।
इसी तरह एक चट्टान पर उग आया कुछ पत्तों का झुंड था। पता चला कि वह `सम्यो´ है, जिसका वानस्पतिक नाम `वेलेरिना वोलिची´ है। इसकी जड़ों में खुशबूदार तेल होता है, जिसे ग्रामीण लोग धूप बनाने के लिये प्रयोग करते हैं। अब इसका व्यापारिक स्तर पर भी सुगंधित तेल बनाने में उपयोग किया जा रहा है। `गुलबनफ्रसा´ का नाम तो मैंने पहले भी कई बार सुना था। यह भी जानती थी कि सदी- जुकाम की दवाओं, विशेषकर `हमदर्द´ की दवाओं, में इसका इस्तेमाल होता है। परन्तु यह जानकर मैं आश्चर्यचकित रह गई कि `गुलबनफ्रसा´, जिसे `वायोला´ के नाम से भी जाना जाता है, नैनीताल में भरा पड़ा है।
उसी रोज मालूम पड़ा कि दूब घास, जिसे मैं मां की पूजा के लिये बचपन से तोड़ती चला आ रही थी, के भी कई सारे औषधीय उपयोग हैं। इसका वानस्पतिक नाम `सिनोडोन डैक्टीलोन´ है। `पाती´ भी एक ऐसी ही घास है, जिसे मां के कहने पर `हरेला´ गोड़ने के लिये हम लोग अकसर तोड़ कर लाते थे। `पाती´ का भी औषधीय उपयोग है। इसका वानस्पतिक नाम `आर्टिमेसिया वलगेरिस´ है।
इसी तरह `सिलफोड़´ भी पत्तों का एक समूह है, जो अकसर चट्टानों को तोड़ता हुआ उग आता है। इसे `पाषाणभेद´ के नाम से भी जाना जाता है। यह पथरी की अचूक दवा है। इसका वानस्पतिक नाम `बर्जिनिया लिगुलेटा´ है।
इसी तरह `सिलफोड़´ भी पत्तों का एक समूह है, जो अकसर चट्टानों को तोड़ता हुआ उग आता है। इसे `पाषाणभेद´ के नाम से भी जाना जाता है। यह पथरी की अचूक दवा है। इसका वानस्पतिक नाम `बर्जिनिया लिगुलेटा´ है।
एक दिन हम कुछ लोग साथ- साथ मल्लीताल जा रहे थे तो मैंने सुझाव दिया कि क्यों न ठण्डी सड़क से जायें ? वहा पर भी बहुत सारी वनस्पतियां दिखायी देती हैं। सचमुच उस रोज भी बहुत सारी वनस्पतिया मिल गईं, जिनके बारे में वनस्पति शास्त्र की किताबों में तो भारी- भरकम नामों के साथ हमने पढ़ा तो था, परन्तु अपने शहर में ही इस तरह से वे मिल जायेंगी यह कभी सपने में भी नहीं सोचा था। खैर, उस दिन फिर से हमें डेण्डिलियन घास नजर आ गई, जिसे तोड़ कर हमने खाना शुरू कर दिया। राह चलते कुछ लोग अचरज करने लगे तो उनको भी उसके बारे में बताया। वहा `वन हल्दी´ भी मिली, जिसके फूल हमेशा से मेरे लिये आकर्षण का विषय रहे हैं। मालूम पड़ा कि इसके भी कई औषधीय उपयोग हैं। इसको वानस्पतिक जगत में `हेडिसियम स्पीकेटम´ के नाम से जाना जाता है। इसका उपयोग रक्त व त्वचा संबंधी विकारों में किया जाता है। कुछ स्थानीय लोगों का कहना है कि इसे सांप के काटने में भी दवा के रूप में उपयोग किया जाता है।
जब अपने आसपास छोटे-छोटे रास्तों पर यों ही टहलते हुए ही प्रकृति में हमें इतना कुछ मिल गया तो अगर हम गंभीरतापूर्वक प्रकृति से लें तो पता नहीं कितना कुछ और मिल सकता है। मुझ से तो जिस हद तक प्रकृति के इस खजाने के बारे में जाना जा सकेगा, मैं अपनी ओर से पूरी कोशिश करूगी।
अब अकसर मुझे जिम कॉर्बेट का लिखा यह वाक्य याद आ जाता है - ``हमारे चारों ओर फैली प्रकृति की इस किताब में न जाने क्या-क्या लिखा है। जरूरत है तो बस उन आंखों की, जो इसे पढ़ सकें।´´