Friday, March 5, 2010

मेरी बिनसर अभ्यारण्य की यात्रा - 1

मेरी बिनसर अभ्यारण्य की यह यात्रा 30 दिसम्बर 2006 की है। जब हम कुछ दोस्तों ने नये साल में बिनसर अभ्यारण्य जाने की प्रोग्राम बनाया और वहां के टी.आर.सी. में बुकिंग भी करवा ली। हममें से तीन नैनीताल के थे और दो ने दिल्ली से नैनीताल आना था और फिर उसी दिन हम सब ने बिनसर के लिये निकलना था। हमारा इरादा था कि 7 बजे सुबह हम बिनसर के लिये निकल जायेंगे पर हुआ बिल्कुल इसके उलट क्योंकि जिन लोगों ने दिल्ली से आना था वो हल्द्वानी से नैनीताल आते समय ट्रेफिक में ऐसे फंसे कि 9 बजे सुबह नैनीताल पहुंच पाये।

कम से कम पहुंचे तो क्योंकि जिस तरह से अचानक ही इन दिनों नैनीताल में भीड़ बढ़ जाती है उसे देख कर तो लगता है अगर नैनीताल नहीं होता तो लोग नया साल मनाने पता नहीं कहां जाते ? इतनी भीड़ और इतनी गाड़िया जो कि जहां-तहां अटकी हुई थी। अपना नैनीताल ही परदेश सा लग रहा था। खैर हम ने जाने के लिये टैक्सी वाले से बात की पर आज तो कोई टैक्सी वाला भी खाली नहीं था। सब पैसा कमाने में व्यस्त थे। इसलिये हमने बस से जाने का फैसला किया।

बिनसर अभ्यारण्य अल्मोड़ा से आगे पड़ता है इसलिये अल्मोड़ा तक तो हमें जाना ही था पर इस समय अल्मोड़ा के लिये कोई भी बस हमें नैनीताल से नहीं मिली सो यह सोच कर कि भवाली तक बस से चले जाते हैं और उसके आगे के लिये भवाली जा कर देंख लेंगे, हम बस में चढ़ गये। बस लगभग भरी हुई थी। हम सबको बैठने के लिये अलग-अलग जगहों पर सीटें मिली। उसके कुछ देर बाद ही पूरी बस खचाखच भर गई। लोग एक ऊपर एक चढ़े हुए थे। जिसमें की बहुत से ऐसे थे जो रोज़ाना काम के लिये भवाली जाते हैं और बहुत से भवाली के आस-पास के गांव के थे और कुछ हमारे जैसे भी थे जो नया साल मनाने के मूड से यात्रा कर रहे थे। कुल मिलाकर गाड़ी में तिल रखने को भी जगह नहीं थी और लोगों को इस बात पर गुस्सा था एक इस तरह के मौकों पर सरकार कुछ अतिरिक्त बस सेवा क्यों नहीं शुरू करती ? ताकि इस परेशानी से कुछ तो बचा जाये। खैर कुछ देर में बस चलने लगी। हमें कुछ पता नहीं था कौन कहां पर है। बस में लोगों के हल्ले की आवाजें और कंडक्टर के टिकट के लिये चिल्लाने की आवाजें ही सिर्फ कानों में पड़ रही थी। लगभग आधे घंटे बाद हम भवाली पहुँच ही गये।

हमें लगा था कि भवाली पहुंच के हमें आसानी से वाहन मिल जायेगा पर ऐसा हुआ नहीं। भीड़ के चलते यहां भी सारे टैक्सी वाले व्यस्त थे और स्टेशन में जाकर देखा तो वहाँ भी हमें कोई बस नहीं मिली। बड़ी मुश्किल से एक टैक्सी वाला तैयार हुआ चलने के लिये पर उसने भी कह दिया कि वो सिर्फ अल्मोड़ा तक ही जायेगा। अल्मोड़ा से आगे जाने के लिसे हमें वहीं से कोई टैक्सी करनी होगी। उसकी बात मानने के अलावा हमारे पास उस समय और कुछ नहीं था सो हम लोग टैक्सी में अल्मोड़ा चले गये।

अल्मोड़ा को जाते हुए वही जाना पहचाना रास्ता नज़रों के सामने था। अकसर ही ऐसा होता है कि जब भी पहाड़ों में कहीं जाना हो तो कुछ जगहें ऐसी है जिनसे होकर गुजरना ही होता है ऐसा ही कुछ अल्मोड़ा के साथ भी हैं। बहुत सी जगहों तक पहुंचने के लिये अल्मोड़ा प्रवेश द्वार की तरह है। जिसमें से गुज़रना ही होता है। अल्मोड़ा वाले रास्ते में भी बहुत ज्यादा ट्रेफिक था। हम लोग जैसे ही कैंची मंदिर के पास पहुंचे ही थे कि हमारी एक दोस्त ने बोला कि उसे कुछ बेचैनी सी महसूस हो रही है। उसकी बात सुनकर हम लोग चौंक गये क्योंकि हमारी टीम में किसी को भी इस तरह की परेशानी नहीं हुई थी। खैर टैक्सी वाले ने थोड़ी देर के लिये गाड़ी रोक दी और उसे बोला कि - मैडम एक हरी मिर्च खा लो सब ठीक हो जायेगा। मैडम भी एक्सपेरिमेंट करने में पीछे तो रहने वाले थी नहीं सो पूरी की पूरी हरी मिर्च चबा भी दी। आंखों से आंसू तो निकल आये मैडम के पर बेचैनी दूर नहीं हुई।

हममें सब ही इस मामले में बिल्कुल अनाड़ी थे क्योंकि कभी किसी के साथ ऐसा हुआ नहीं था पर टैक्सी वाला भला था सो उसने टैक्सी की स्पीड थोड़ी कम कर दी और बीच-बीच में अपने घरेलू इलाज भी बताता गया जिनको फिर माना नहीं गया। जब आधे से भी ज्यादा रास्ता ऐसे ही बीत गया तो हम लोग एक चाय की दुकान में चाय पीने के लिये यह सोच कर रुक गये कि शायद उसे थोड़ा आराम मिल जाये। यहीं हमने उससे पूछा कि - आखिर हुआ क्या जो उसे इस तरह की बेचैनी हो रही है। उसने बताया कि - नैनीताल से आते समय बस में उसके पास जो सज्जन खड़े थे उनके कपड़ों से तेज़ गंध आ रही थी जो सीधा उसकी नाक में जा रही थी, उसके बाद से ही उसे ऐसी बेचैनी होने लगी। हम कुछ समय उस दुकान में बैठक रहे और चाय पी। उसकी बेचेनी भी थोड़ी कम होने लगी थी। थोड़ा और समय उस जगह पर बिताने के बाद हम आगे बढ़ गये। अल्मोड़ा पहुंचते हुए हमें हल्की सी झलक हिमालय की दिखी।

कुछ देर बाद टैक्सी वाले ने हमें बस स्टेंड छोड़ दिया और बताया कि यहाँ से बिनसर अभ्यारण्य के लिये टैक्सी ले लो और टैक्सी वालों को 450 से 500 रुपये तक ही देना। इनका इतने तक का ही रेट है। उसकी इस छोटी सी टिप ने हमारे अच्छे खासे रुपये बचा दिये थे। क्योंकि जब हमने आगे जाने के लिये टैक्सी की बात की तो हमें सबसे पहले टैक्सी वाले ने ही 800 रुपये बोल दिया। सुन के हमारे होश उड़ गये। खैर उससे हम लोग बहस ही कर रहे थे कि पीछे से दूसरे टैक्सी वाले ने कहा कि वो हमें 650 रुपये में छोड़ देगा। हमने मना कर दिया तो एक टैक्सी वाला आया उसने हमसे पूछा कि हम उसे कितने रुपय देंगे। हमने बोला 450 रुपया मात्र। उसने थोड़ी देर के लिये कुछ सोचा और फिर बोला ठीक है आप 500 रुपया दे देना। हम लोग काफी थक चुके थे और 500 रुपया कुछ ज्यादा भी नहीं लगा इसलिये उसकी टैक्सी में हम बैठ गये...

जारी...