अचानक बाहर से महेश और चाचाजी के चिल्लाने की आवाजों से आँख खुली महेश बाहर से मेरे टेंट के ऊपर पड़ी बर्फ को झाड़ रहा है मैं टेंट से बाहर आयी तो देखा जमीन में बहुत मोटी परत बर्फ की जम गयी है और अभी भी तेज बर्फ पड़ रही है बर्फ की मोटी परत से मेरा टेंट भी नीचे दबने लगा।
कैम्प साइट पर
पहुँचते ही गजब
की ठंडी होने
लगी और ये
क्या थोड़ी ही
देर में हल्के
बर्फ के फाये
भी गिरने लगे।
मैंने पहली बार
बर्फ के फाहों
को तारे के
आकार का गिरते
हुए देखा। बर्फ
के फाहों का
ये आकार मेरे
लिये किसी अजूबे
से कम नहीं
है। मुझे लगा
बर्फ कुछ देर
गिरेगी और फिर
मौसम निखर आयेगा
जैसा कि अमूमन
इन जगहों पर
होता है और
मेरा अंदाज सही
निकला। कुछ देर
में ही बर्फ
गिरनी बंद हो
गई और हल्की
सूरज की रोशनी
दिखने लगी। लंच
करने के बाद
मैं टहलते हुए
ब्रहामताल की ओर
आ गयी जो
मेरे टेंट से
कुछ दूरी पर
है...
स्थानीय मान्यता के
अनुसार ऋषि वेद
व्यास जब वेदों
की रचना कर
रहे थे, उस
समय उन्हें पन्ने
पलटने के लिये
पानी की आवश्यकता
पड़ी और उन्होंने
भगवान ब्रह्मा से
प्रार्थना की। ब्रह्मा
ने वेद व्यास
की प्रार्थना पर
इस झील का
निर्माण किया और
इसका नाम ब्रह्मताल
पड़ गया। ब्रह्मताल
का पानी बिल्कुल
पारदर्शी है पर
इसका रंग गहरा
काला नजर आता
है...
गहरे काले
रंग की झील
आजकल थोड़ी सूखी
है इसलिये शायद
किनारों पर काफी
कीचड़ जमी दिखी। हल्की
सूरज की रोशनी
में झील अच्छी
लग रही है।
थोड़ी देर यूँ
ही झील के
किनारे टहलने के मैं
कैमरा लेने टैंट
में वापस लौटी
तो मौसम अचानक
खराब हो गया
और पहले से
ज्यादा तेजी से
बर्फ गिरने लगी।
बर्फ का गिरना
अच्छा लगता है
इसलि
पर बर्फ
तो लगातार तेज
ही होती चली
गयी। महेश ने
गरमा-गरम मोमो
बना दिये। इस
मौसम में मोमो
और गरम-गरम
काॅफी का मजा
ही और था।
बर्फ अभी गिर
ही रही जो
अब परेशानी का
सबब भी बनने
लगी क्योंकि बर्फ
ऐसे ही गिरती
रही तो वापसी
मुश्किल हो जायेगी।
अब अंधेरा होने
लगा और ठंड
भी बढ़ गयी।
टेंट भी बर्फ
के वजन से
थोड़ा दबने लगा
था इसलिये उसके
ऊपर गिरी बर्फ
को झाड़ना जरुरी
हो गया। कुछ
देर में बर्फ
गिरना फिर बंद
हो गया और
बादलों के बीच
से आँख मिचैली
करता हुआ चाँद
नजर आने लगा
तो उम्मीद बन
गयी कि अब
आसमान साफ ही
हो जायेगा...
चाचाजी ने आग
जला दी गयी
जिससे थोड़ी राहत
मिली पर धुँए
का हवा के
साथ घूमते रहना
एक गंभीर समस्या
बन गया। बर्फ
पड़ने से चचाजी
के चेहरे में
रौनक आ गयी
और बोले - हमें
तो बर्फ में
ही अच्छा लगता
है। बर्फ नहीं
पड़ती है तो
दुःःख होता है।
ऐसे मौसम में
तो हम में
दोगुनी ताकत आ
जाती है। उनसे
उनके बारे में
पूछा तो उन्होंने
बताया - मेरे परिवार
में मेरी पत्नी,
दो लड़के और
एक लड़की है।
अपने सफेद बालों
में हाथ फेरते
हुए उन्होंने बीड़ी
का एक लम्बा
कश खींचते हुए
बोले - बच्चे तो पढ़-लिख गये
हैं। दोनों लड़के
काम करते हैं
और लड़की की
जल्दी शादी कर
दूँगा। आसमान की ओर
देखते हुए उन्होंने
मौसम का कुछ
अनुमान लगाया और फिर
बुदबुदाये - मेरा एक
लड़का मुम्बई के
होटल में काम
करता है और
अच्छा कमा लेता
है। वो कभी-कभार मुम्बई
से टूरिस्टों को
यहाँ भेज देता
है जिन्हें मैं
इधर के ट्रेक
करा देता हूँ।
इससे अच्छी कमाई
हो जाती है।
मेरे यह पूछने
पर कि क्या
यहाँ तेंदूआ और
कस्तूरी हिरन भी
दिखते हैं ? उन्होंने
हँसते हुए कहा
- बहुत दिखते हैं। कितने
बार तो मैंने
खुद तेंदुआ देखा
है। फिर खिल-खिला कर
हँसते हुए 22 साल
पुराना किस्सा सुनाया - एक
बार मुझे किसी
के पास कस्तूरी
हिरन की कस्तूरी
मिल गई जिसे
मैंने 15 हजार रुपये
में उससे खरीदा
और दिल्ली की
एक पार्टी को
25 हजार रुपये में बेच
दिया। मुझे 10 हजार
रुपये का फायदा
हो गया। आज
से 22 साल पहले
10 हजार रुपये की बहुत
कीमत थी। तब
तो आप अभी
भी ये सब
काम करते होंगे
मेरे ऐसा पूछने
पर उनका जवाब
था - नहीं अब
ऐसा नहीं करता
बस एक ही
बार यह किया
जिसके लिये मेरे
घर वालों और
जात-बिरादरी के
लोगों ने बहुत
सुनाया फिर उसके
बाद कभी ऐसा
नहीं किया। किस्सा
सुनाने के बाद
उनके झुर्रियों भरे
चेहरे में हँसी
बिखर गयी और
उनकी आँखें लगभग
गायब हो गयी...
अपने अनुभव
से उन्होंने कहा
- बर्फ रात को
भी गिरेगी क्योंकि
मौसम अभी ठीक
से खुला नहीं
है। पर फिलहाल
बर्फ रुकी इसलिये
मुझे उम्मीद है
कि सुबह मौसम
ठीक होगा। इसी
भरोसे के साथ
आग के पास
और बर्फ के
ऊपर खड़े होकर
खाना खाया फिर
टेंट में आ
गयी। आज ठंड
बहुत ज्यादा है
और सन्नाटा भी
महसूस हो रहा
है। नींद तो
नहीं आई पर
अभी आधी रात
भी नहीं हुई
कि बर्फ गिरनी
शुरू हो गयी।
बर्फ से बार-बार टेंट
अंदर की ओर
दबने लगा जिसे
झाड़ना जरुरी हो
गया। काफी देर
तक इसी तरह
समय कटा और
फिर पता नहीं
कब आँख लग
गयी...
अचानक बाहर से
महेश और चाचाजी
के चिल्लाने की
आवाजों से आँख
खुली। महेश बाहर
से मेरे टेंट
के ऊपर पड़ी
बर्फ को झाड़
रहा है। मैं
टेंट से बाहर
आयी तो देखा
जमीन में बहुत
मोटी परत बर्फ
की जम गयी
है और अभी
भी तेज बर्फ
पड़ रही है।
बर्फ की मोटी
परत से मेरा
टेंट भी नीचे
दबने लगा। महेश
और चाचाजी ने
मुझे बार-बार
बर्फ झाड़ते रहने
को कहा ताकि
टेंट दबे नहीं।
सुबह होने में
अभी दो घंटे
बचे हैं। मेरे
ये दो घंटे
टेंट में बैठकर
बर्फ झाड़ते हुए
ही बीते। सुबह
का उजाला देख
जान में जान
आयी और मैं
बाहर आ गयी।
अब तक तो
बेहिसाब बर्फ जम
गयी और उतनी
ही तेजी से
बर्फ गिर भी
रही है...
पहले मेरा
इरादा सामने वाली
चोटी में जाने
का था पर
अब सब जगह
बर्फ ही बर्फ
है। रात की
बची हुई लकड़ियों
को चाचाजी ने
जला दिया जिसके
पास खड़े होकर
चाय नाश्ता किया।
हालांकि आज रात
भी मुझे टेंट में
ही रुकना है
पर चाचाजी ने
कहा अब बर्फ
का रुकना मुश्किल
है। ऐसे में
यहाँ फँसना किसी
मुसीबत से कम
नहीं होगा। इसलिये
तय हुआ कि
लोहाजंग तक का
पूरा टेªक
एक ही दिन
में कर के
आज ही लोहाजंग
पहुँच जायेंगे...
जब चलना
शुरू किया तो
बर्फीली हवाओं ने मुँह
में थप्पड़ बरसाने
शुरू कर दिये।
ताजी गिरी बर्फ
में चलने पर
पाँव अंदर तक
धसक रहे हैं।
थोड़ा चल लेने
के बाद ब्रह्मताल
आ गया। इस
समय झील को
देखना अलग ही
एहसास है क्योंकि
झील के चारों
ओर बर्फ ही
बर्फ है और
ऊपर से भी
बर्फ गिर रही
है। कल कुछ
देर के लिये
ही झील दूसरे
रूप में दिखी
थी पर आज
सब बदला हुआ
है। कुछ देर
झील के पास
खड़े रहने के
बाद फिर चलना
शुरू कर दिया।
अब पथरीली चढ़ाई
शुरू हो गयी।
बार-बार बर्फ
के नीचे दबे
पत्थरों की टोह
लेते हुए धीरे-धीरे आगे
बढ़ना पड़ रहा
है उस पर
तेज हवाऐं चलना
और मुश्किल कर
रही हैं...
कल आते
समय नजारा रंगीन
था और मात्र
कुछ घंटों में
सब बदल गया।
आज रंग के
नाम पर सिर्फ
सफेद ही है।
चाचाजी की बात
सही थी कि
हिमालय का मौसम
कभी भी बदलता
है हालाँकि नैनीताल
के फैशन के
बारे में कुछ
नहीं कह सकती।
जैसे-तैसे पथरीली
चढ़ाई पार की
और बुग्याल पर
आये। कल जो
बुग्याल पीली सूखी
घास से ढका
था वही बुग्याल
आज बर्फ से
ढका है। यहाँ
पहुँच के एक
बार लगा शायद
अब बर्फ कम
हो जाये पर
यह भ्रम ही
निकला क्योंकि थोड़ी
ही देर में
दोगुनी तेजी से
बर्फ गिरने लगी।
अब तो यह
पक्का हो गया
कि यहाँ रुकना
मुसीबत में फँसना
है इसलिये लोहजंग
जाना ही होगा
जो अभी बहुत
दूर है...
कुछ देर
बुग्याल में रुकने
के बाद आगे
चलना शुरू किया।
आज इधर-उधर
देखने को कुछ
नहीं है। हिमालय
कहाँ है इसका
कुछ आभास नहीं
है क्योंकि बर्फिली
धुुंध से सब
ढका है। बुग्याल
में हवायें और
भी तेज हो
गयी जिसने मुसीबत
और बढ़ा दी।
सिर झुकाये हुए
बुग्याल पार किया
और जंगल वाले
इलाके में आ
गये। पेड़ भी
बर्फ से ढके
हैं। सफेद के
अलावा दूसरा कोई
रंग नहीं है।
यहाँ रास्ता थोड़ा
संकरा हो गया
जिसमें फिसलना मतलब गहरी
खाई में गिरना
है...
काफी लम्बा
रास्ता ऐसे ही
तय किया। बीच
में एक जगह
आयी जहाँ बर्फ
बहुत ज्यादा तेजी
से गिरने लगी।
यहाँ फिर से
पाँव गहरे तक
बर्फ में धसकने
लगे। जूतों के
अंदर भी पैर
ठंड से सुन्न
होने लगे और
दस्तानों के अंदर
तो हाथों के
होने का एहसास
भी नहीं हो
रहा...
कठिनाई से ही
पर इस हिस्से
को भी पार
कर लिया। अब
बर्फ गिरनी तो
बंद हो गयी
पर बारिश पड़ने
लगी। लोहाजंग दिखायी
देने लगा पर
अभी भी काफी
चलना है। अब
तो मौसम तरह-तरह के
रंग दिखाने लगा।
कभी बारिश, कभी
बर्फ, कभी धुंध
तो कभी बिल्कुल
साफ। हर कदम
में मौसम ने
नया रूप दिखाया।
धुुंध के बीच
कभी कोई छोटा
सा घर नजर
आ जाता तो
अच्छा लगता। काफी
देर से सफेद
रंग की आदि
हो चुकी आँखों
को भी कोई
दूसरा रंग देखना
सुकुन दे रहा
है। अब रास्ते
में बर्फ नहीं
है। लगता है
जैसे सिर्फ ऊँचाई
में ही बर्फ
गिरी है। खैर
जो भी हो
मौसम का हर
रंग देखते हुए
अंततः शाम होते-होते लोहाजंग
आ ही गया।
मैं थकान और
ठंड से हाल
बेहाल हंू इसलिये
जल्दी ही खाना
खाया और आराम
किया...
सुबह भी
बारिश और धुंध
है। दिन में
मौसम खुला तो
मैं नजदीक ही
अजना टाॅप चली
गयी। जाते हुए
रास्ते में छोटे
बच्चों का स्कूल
दिखा। शायद ठंड
के कारण बच्चे
अंदर न बैठ
के छत पर
बैठे हैं। मेरे
हाथ में कैमरा
देखते ही सारे
बच्चे मेरे सामने
इकट्ठा हो गये
और फोटो के
लिये अपने-अपने
पोज देने लगे।
बच्चों के स्टाइल
को देख के
लगा कि इन्हें
पर्यटकों और कैमरों
की आदत है।
रास्ते में कुछ
घर और खेत
भी दिखे। एक
खेत में किसान
बहुत ही तन्मयता
के साथ बैलों
से हल जोत
रहा है। यही
तो है असली
हार्ड-वर्क। मैं
कुछ देर उसे
हल जोतते हुए
देखती रही फिर
आगे बढ़ गयी
और घने जंगल
में पहुँच गयी।
एक बार लगा
जैसे मैं रास्ता
भटक गयी हूँ
पर आगे बढ़ते-बढ़ते अजना
टाॅप आ गया।
मैं कुछ देर
घास में लेट
कर आसमान को
देखती रही...
अब फिर
से मौसम बिगड़ने
लगा और ओले
गिरने लगे। लौटते
हुए पूरा रास्ता
ओलों के बीच
ही कटा। इन
गिरते हुए ओलों
के बीच अचानक
ही एक 25-26 साल
की महिला दिखायी
दी। गोरे चिट्टे
रंग और ठेठ
पहाड़ी ठसक वाली
उस महिला ने
भी वही पारम्परिक
लिबास ही पहना
है। उसने मुझे
रोकते हुए कहा
- अजना टाॅप से
आ रही हो
? तुम तो भीग
गयी। मेरे घर
चलो मैं आग
जला दूंगी और
तुम्हें चाय पिला
दूँगी। मेरा रेस्ट
हाउस यहाँ से
कुछ ही दूर
था पर मैं
उसके साथ उसके
घर चली गयी...
हम रास्ते
से थोड़ा ऊपर
निकले और खेतों
के बीच से
होते हुए उसके
घर पहुँचे। घर
अंदर से तो
मिट्टी से लिपा
है पर बाहर
से सीमेंट लगा
है जिसे गुलाबी
रंग के पेंट
से रंगा गया
है। छत पारम्परिक
पत्थर की स्लेटों
की है जिसे
तिरछा करके लगाया
है। पशुओं का
कमरा अलग है।
मुझे एक कमरे
में बिठा कर
वो दूसरे कमरे
में चली गयी।
इस कमरे में
एक सोफा दो
कुर्सियाँ और बीच
में एक मेज
है जो हाथ
से बने मेजपोश
से ढकी है।
दिवार में कुछ
सजावट के सामान
के साथ देवी-देवताओं के कैलेंडर
टंके हैं। घर
के एक कोने
में एक टेलिविजन
ने भी अपनी
जगह बनायी है।
कुछ देर उस
कमरे में अकेले
रहने के बाद
मैं महिला जिस
कमरे में गई
थी वहीं चली
गयी। वो वहाँ
रसोई के चूल्हे
में आग जला
रही है। मेरे
आते ही वो
थोड़ा शर्माते हुए
बोली - आप बाहर
बैठो। यहाँ कुर्सी
नहीं है और
लकड़ी का धुँआ
भी है। मैं
आपके लिये आग
वहीं जलाकर लाती
हूँ। परन्तु मैं
रसोई में ही
बैठ गयी। उसका
नाम पूछने पर
वो आग जलाते
हुए बोली - चम्पा।
चम्पा को देख
के लगा है
कि उसकी उम्र
ज्यादा नहीं है
इसलिये मैंने उम्र पूछ
ही ली। चाय
का बर्तन आग
में रखते हुए
बोली- 27 साल।
फिर बोली - मेरी
शादी को 7 साल
हो गये हैं।
मेरा मायका टिहरी
में है। फिर
कुछ सोच के
बोली - अब तो
नई टिहरी में
आ गया है।
पुराना वाला घर
और जमीन तो
टिहरी का बांध
बनने में डूब
गया। उदासी से
बोली - मुझे तो
नये घर की
आदत भी नहीं
है इसलिये मायके
जाने का मन
नहीं करता। मैं
तो जाड़ों में
भी यहीं रहती
हूँ। उस समय
घर पर कोई
नहीं था। कुछ
लोग खेत पर
काम करने गये
थे और कुछ
बाजार की ओर...
चूल्हे से चाय
का बर्तन उतराते
हुए चम्पा ने
कहा - खेती बाढ़ी
से तो गुजर
बसर नहीं होती
उस पर मौसम का
भी कुछ भरोसा
नहीं है। कभी
कैसा तो कभी
कैसा। अपने
मन का हुआ।
सरकार भी कुछ
ध्यान नहीं देती।
सब कुछ खुद
ही करना हुआ।
आग के पास
बैठकर गरम लगने
लगा। मैंने उससे
रसोई गैस के
बारे में पूछा
तो बोली - जाड़ों
में तो लकड़ी
में ही खाना
बनाते हैं। खाना
भी बन जाता
है और गर्मी
भी रहती है।
गैस बहुत महंगी
हो गयी है
इसलिये बचानी पड़ती है।
चम्पा ने स्टील
के ग्लास में
चाय बना के
मेरे हाथ में
दी और फिर
इधर-उधर कुछ
ढूँढने लगी। पूछने
पर बोली - देख
रही हूँ अगर
कहीं कोई बिस्कुट
रखा मिल जाता
तो तुम्हें देती।
तुमको भूख भी
तो लग रही
होगी। इतना अपनापन
और फिक्र ऐसी
जगह में रहने
वाले ही कर
सकते हैं वरना
शहरों में तो
लोगों को अपनी
ही होश नहीं
होती। चाय की
चुस्कियों के साथ
उसकी बातें सुनते
हुए समय जल्दी
बीत गया और
ओले गिरने भी
बंद हो गये।
उसे इजाजत ले
के मैं लौट
गयी। चम्पा सड़क
तक मुझे छोड़ने
आयी और बोली
- कभी आओ तो
मिलने के लिये
आना। चम्पा के
साथ आज आखरी
दिन अच्छा बीता...
यहाँ कुछ
यादगार पल बिता
के अगली सुबह
नैनीताल वापसी की यात्रा
शुरू कर दी...
5 comments:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (01-04-2017) को "रचनाचोर मूर्खों बने रहो" (चर्चा अंक-2927) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
लिखती रहो ऐसे ही।
लिखती रहो ऐसे ही।
लिखती रहो ऐसे ही।
Wow! What a amazing and interesting post. Thanks for sharing beautiful pictures.
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