Thursday, April 29, 2010

उत्तराखंड का राज्यपुष्प ब्रह्मकमल



हालांकि इसका नाम ब्रह्मकमल है पर यह तालों या पानी के पास नहीं बल्कि ज़मीन में होता है। ब्रह्मकमल 3000-5000 मीटर की ऊँचाई में पाया जाता है। ब्रह्मकमल उत्तराखंड का राज्य पुष्प है। और इसकी भारत में लगभग 61 प्रजातियां पायी जाती हैं जिनमें से लगभग 58 तो अकेले हिमालयी इलाकों में ही होती हैं।

ब्रह्मककल का वानस्पतिक नाम सोसेरिया ओबोवेलाटा है। यह एसटेरेसी वंश का पौंधा है। इसका नाम स्वीडर के वैज्ञानिक डी सोसेरिया के नाम पर रखा गया था। ब्रह्मकमल को अलग-अगल जगहों में अलग-अलग नामों से जाना जाता है जैसे उत्तरखंड में ब्रह्मकमल, हिमाचल में दूधाफूल, कश्मीर में गलगल और उत्तर-पश्चिमी भारत में बरगनडटोगेस नाम से इसे जाना जाता है।

ब्रह्मकमल भारत के उत्तराखंड, सिक्किम, अरूणाचल प्रदेश, कश्मीर में पाया जाता है। भारत के अलावा यह नेपाल, भूटान, म्यांमार, पाकिस्तान में भी पाया जाता है। उत्तराखंड में यह पिण्डारी, चिफला, रूपकुंड, हेमकुण्ड, ब्रजगंगा, फूलों की घाटी, केदारनाथ आदि जगहों में इसे आसानी से पाया जा सकता है।

इस फूल के कई औषधीय उपयोग भी किये जाते हैं। इस के राइज़ोम में एन्टिसेप्टिक होता है इसका उपयोग जले-कटे में उपयोग किया जाता है। यदि जानवरों को मूत्र संबंधी समस्या हो तो इसके फूल को जौ के आटे में मिलाकर उन्हें पिलाया जाता है। गर्मकपड़ों में डालकर रखने से यह कपड़ों में कीड़ों को नही लगने देता है। इस पुष्प का इस्तेमाल सर्दी-ज़ुकाम, हड्डी के दर्द आदि में भी किया जाता है। इस फूल की संगुध इतनी तीव्र होती है कि इल्का सा छू लेने भर से ही यह लम्बे समय तक महसूस की जा सकती है और कभी-कभी इस की महक से मदहोशी सी भी छाने लगती है।

इस फूल की धार्मिक मान्यता भी बहुत हैं। ब्रह्मकमल का अर्थ है ‘ब्रह्मा का कमल’। यह माँ नन्दा का प्रिय पुष्प है। इससे बुरी आत्माओं को भगाया जाता है। इसे नन्दाष्टमी के समय में तोड़ा जाता है और इसके तोड़ने के भी सख्त नियम होते हैं जिनका पालन किया जाना अनिवार्य होता है। यह फूल अगस्त के समय में खिलता है और सितम्बर-अक्टूबर के समय में इसमें फल बनने लगते हैं। इसका जीवन 5-6 माह का होता है।

Saturday, April 17, 2010

उत्तराखंड में मनाये जाने वाला प्रमुख त्यौहार है हरेला




उत्तराखंड में मनाये जाने वाले त्यौहारों में से एक प्रमुख त्यौहार हरेला भी है। इस त्यौहार को मुख्यतया कृषि के साथ जोड़ा जाता है।

हरेले को प्रतिवर्ष श्रावण मास के प्रथम दिन मनाया जाता है। इसे मनाने का विधि विधान बहुत दिलचस्प होता है। जिस दिन यह पर्व मनाया जाता है उससे 10 दिन पहले इसकी शुरूआत हो जाती है। इसके लिये सात प्रकार के अनाजों को जिसमें - जौ, गेहूं, मक्का, उड़द, सरसों, गहत और भट्ट (गहत और भट्ट पहाड़ों में होने वाली दालें हैं) के दानों को रिंगाल से बनी टोकरियों, लकड़ी से बने छोटे-छोटे बक्सों में या पत्तों से बने हुए दोनों में बोया जाता है।

हरेला बोने के लिये हरेले के बर्तनों में पहले मिट्टी की एक परत बिछायी जाती है जिसके उपर सारे बीजों को मिलाकर उन्हें डाला जाता है और इसके उपर फिर मिट्टी की परत बिछाते हैं और फिर बीज डालते हैं। यह क्रम 5-7 बार अपनाया जाता है। और इसके बाद इतने ही बार इसमें पानी डाला जाता है और इन बर्तनों को मंदिर के पास रख दिया जाता है। इन्हें सूर्य की रोशनी से भी बचा के रखा जाता है।

इन बर्तनों में नियमानुसार सुबह-शाम थोड़ा-थोड़ा पानी डाला जाता है। कुछ दिन के बाद ही बीजों में अंकुरण होने लगता है और फिर धीरे-धीरे ये बीज नन्हे-नन्हे पौंधों का रूप लेने लगते हैं। सूर्य की रोशनी न मिल पाने के कारण ये पौंधे पीले रंग के होते हैं। 9 दिनों में ये पौंधे काफी बड़े हो जाते हैं और 9वें दिन ही इन पौंधों को पाती (एक प्रकार का पहाड़ी पौंधा) से गोड़ा जाता है। ऐसा माना जाता है कि जिसके पौंधे जितने अच्छे होते हैं उसके घर में उस वर्ष फसल भी उतनी ही अच्छी होती है।

10 वें दिन इन पौंधों को उसी स्थान पर काटा जाता है। काटने के बाद हरेले को सबसे पहले पूरे वििध - विधान के साथ भगवान को अर्पण किया जाता है। उसके बाद परिवार का मुखिया या परिवार की मुख्य स्त्री हरेले के तिनकों को सभी परिवारजनों के पैरों से लगाती हुई सर तक लाती है और फिर सर या कान में हरेले के तिनकों को रख देती है। हरेला रखते समय आशीष के रूप में यह लाइनें कही जाती हैं -
लाग हरियाव, लाग दसें, लाग बगवाल,
जी रये, जागी रये, धरति जतुक चाकव है जये,
अगासक तार है जये, स्यों कस तराण हो,
स्याव कस बुद्धि हो, दुब जस पंगुरिये,
सिल पियी भात खाये

अथाZत - हरेला पर्व आपके लिये शुभ हो, जीते रहो, आप हमेशा सजग रहो, पृथ्वी के समान र्धर्यवान बनो, आकाश के समान विशाल होओ, सिंह के समान बलशाली बनो, सियार के जैसे कुशाग्र बुद्धि वाले बनो, दूब घास के समान खूब फैलो और इतने दीघाZयु होओ कि दंतहीन होने के कारण तुम्हे सिल में पिसा भात खाने को मिले।

जो लोग उस दिन अपने परिवार के साथ नहीं होते हैं उन्हें हरेले के तिनके पोस्ट द्वारा या किसी के हाथों भिजवाये जाते हैं। कुमाऊँ में यह त्यौहार आज भी पूरे रीति-रिवाज और उत्साह के साथ मनाया जाता है।



Tuesday, April 13, 2010

ऐसा होता है पत्थर मारने वाला मेला


कुमाउं के देवीधुरा स्थान में रक्षा बंधन के दिन पत्थर मारने वाला एक मेला मनाया जाता है जिसे बग्वाल कहते हैं। ऐसी मान्यता है कि देवीधुरा के लोग बावन हजार चौसठ योगनियों के आतंक से बहुत दु%खी रहते थे। उन्होंने मिल कर माँ वाराही से प्रार्थना की कि वह उनको इनसे छुटकारा दिलवायें। माँ ने भी भक्तों की फरियाद सुनी और उन्हें इस आतंक से छुटकारा दिलाया और साथ ही देवी माँ ने मांग की कि प्रतिवर्ष श्रावणी पूर्निमा के दिन पत्थरों की मार से एक व्यक्ति के बराबर रक्त निकले जिससे उन्हें तृप्त किया जाये। तभी से हर वर्ष माँ को खुश करने के लिये इस पत्थर मार मेले के आयोजन किया जाता है। 

बगवाल परंपरा का निर्वाह करने वाले महर और र्फत्याल जाति के लोग हैं। इनकी अपनी अलग-अलग टोलियाँ होती हैं जो ढोल-नगाड़ों के साथ मंदिर के प्रांगड़ में पहुँचती है। इनके सर पर कपड़ा, हाथ में लट्ठ और एक ढाल होती है जिसे छन्तोली कहते हैं। इसमें भाग लेने वालों को पहले दिन से ही सातविक व्यवहार करना होता है। देवी की पूजा का दायित्व विभिन्न जातियों का है। फुलारा कोट के फुलारा मंदिर में फूलों की व्यवस्था करवाते हैं। मनटांडे और ढोलीगाँव के ब्राहम्ण श्रावण की एकादशी के अतिरिक्त सभी पर्वों पर पूजन करवा सकते हैं। भैसिरगाँव के गहड़वाल राजपूत बलि के भैंसों पर पहला प्रहार करते हैं।

बगवाल का एक निश्चित विधान होता है। मेले की पूजा अर्चना लगभग आषाढ़ि कौतिक के रूप में एक माह तक चलती है। बगवाल के लिये एक प्रकार का सांगी पूजन एक विशिष्ठ प्रक्रिया के साथ सम्पन्न किया जाता है जिसे परम्परागत रूप से पूर्व से ही संबंधित चारों खाम गहड़वाल, चम्याल, बालिक और लमगड़िया के द्वारा सम्पन्न किया जाता है। मंदिर में रखा देवी विग्रह एक संदूक में बंद रहता है जिसके सामने यह पूजन होता है। यह लमगड़िया खाम के प्रमुख को सौंप दिया जाता है क्योंकि उन्होंने ही प्राचीन काल में रोहिलों के हाथ से देवी विग्रह को बचाया था। इस बीच अठवार का पूजन भी होता है जिसमें सात बकरे और एक भैंस की बलि दी जाती है। पूजा से पूर्व देवी के मूर्ति को संदूक से बाहर निकाल कर स्नान कराया जाता है जिससे लिये पूजारी की आंखों में पहले पट्टी बांध दी जाती है। ऐसा इसलिये करते हैं क्योंकि मूर्ति को निर्वस्त्र देखना अच्छा नहीं समझा जाता है।


श्रावणी पूर्णिमा को देवी विग्रह का डोला मंदिर के प्रांगण में रखा जाता है और चारों खामों के मुखिया इसका पूजन करते हैं। बगवाल युद्ध में भाग लेने वालों को `द्योके´ कहा जाता है। जिन्हें महिलायें आरती उतार कर और पत्थर हाथ में देकर ढोल नगाड़ों के साथ युद्ध के लिये भेजती हैं। चारों खामों के योद्धाओं के मार्ग पहले से ही सुनिश्चित कर दिये जाते हैं। मैदान में पहुंचने के स्थान व दिशा चारों खामों की अलग-अलग होती है। लमगड़िया खाम उत्तर की ओर से, चम्याल खाम दक्षिण की ओर से, बालिक पश्चिम से और गहड़वाल खाम पूर्व की ओर से मैदान में आते हैं।

दोपहर तक चारों खाम देवी के मंदिर के उत्तरी द्वार से प्रवेश करती हुई परिक्रमा करती है और मंदिर के पश्चिम द्वार से बाहर निकल जाती है। फिर मंदिर के प्रांगण में अपना-अपना स्थान घेरने लगते हैं। दोपहर में जब सारी भीड़ इकट्ठा हो जाती है तो मंदिर के मुख्य पुजारी बगवाल शुरू करने की घोषणा करते है। इसके साथ ही चारों खामों के मुखियाओं की अगुवाई में पत्थरों की वर्षा शुरू हो जाती है। जैसे युद्ध अपने चरम पर पहुँचता है ढोल नगाड़ों के स्वर भी ऊंचे हो जाते हैं। प्रत्येक दल के लोग अपनी-अपनी छन्तोली से अपनी सुरक्षा करते हैं। इस बीच जब मुख्य पुजारी को जब यह अहसास हो जाता है कि एक नर के जितना रक्त बह गया होगा तो वह मैदान के बीच में जाकर बगवाल के समाप्त होने की घोषणा करते हैं और उनकी घोषणा के बाद युद्ध को समाप्त मान लिया जाता है। युद्ध समाप्त होने के बाद चारों खामों के लोग आपस में गले मिलते हैं। और प्रांगण से विदा होने लगते हैं। उसके बाद मंदिर में पूजा होती है। ऐसा कहा जाता है कि इस पत्थर वर्षा में जो लोग घायल होते हैं उनका इलाज मंदिर परिसर में पायी जाने वाली बिच्छू घास से किया जाता है। इसे लगाने के बाद घाव शीघ्र भर जाते हैं।

पहले जो बगवाल होती थी उसमें छन्तोली ¼छत्री½ का प्रयोग नहीं किया जाता था परन्तु सन् 1945 के बाद से इनका प्रयोग किया जाने लगा। बगवाल में निशाना साध कर पत्थर मारना पाप माना जाता है। दूसरे दिन संदूक में रखे देवी विग्रह की डोले के रूप में शोभायात्रा निकाली जाती है। और इस तरह बगवाल मेला सम्पन्न हो जाता है।

Friday, April 9, 2010

उत्तराखंड की लोक संस्कृति है जागर

कुमाउंनी संस्कृति के विविध रंग हैं जिनमें से एक है यहां की ‘जागर’। उत्तराखंड में ग्वेल, गंगानाथ, हरू, सैम, भोलानाथ, कलविष्ट आदि लोक देवता हैं और जब पूजा के रूप में इन देवताओं की गाथाओं का गान किया जाता है उसे जागर कहते हैं। जागर का अर्थ है ‘जगाने वाला’ और जिस व्यक्ति द्वारा इन देवताओं की शक्तियों को जगाया जाता है उसे ‘जगरिया’ कहते हैं। इसी जगरिये के द्वारा ईश्वरीय बोल बोले जाते हैं। जागर उस व्यक्ति के घर पर करते हैं जो किसी देवी-देवता के लिये जागर करवा रहा हो।

जागर में सबसे ज्यादा जरूरी होता है जगरिया। जगरिया को ही हुड़का और ढोलक आदि वाद्य यंत्रों की सहायता से देवताओं का आह्वान करना होता है। जगरिया देवताओं का आह्वान किसी व्यक्ति विशेष के शरीर में करता है। जगरिये को गुरू गोरखनाथ का प्रतिनिधि माना जाता है। जगरिये अपनी सहायता के लिये दो-तीन लोगों को और रखते हैं। जो कांसे की थाली को लकड़ियों की सहायता से बजाता है। इसे ‘भग्यार’ कहा जाता है।

जागर में देवताओं का आह्वान करके उन्हें जिनके शरीर में बुलाया जाता है उन्हें ‘डंगरिया’ कहते हैं। ढंगरिये स्त्री और पुरूष दोनों हो सकते हैं। देवता के आह्वान के बाद उन्हें उनके स्थान पर बैठने को कहा जाता है और फिर उनकी आरती उतारी जाती है। जिस स्थान पर जागर होनी होती है उसे भी झाड़-पोछ के साफ किया जाता है। जगरियों और भग्यारों को भी भी डंगरिये के निकट ही बैठाया जाता है।

जागर का आरंभ पंच नाम देवों की आरती द्वारा किया जाता है। शाम के समय जागर में महाभारत का कोई भी आख्यान प्रस्तुत किया जाता है और उसके बाद जिन देवी-देवताओं का आह्वान करना होता है उनकी गाथायें जगरियों द्वारा गायी जाती हैं। जगरिये के गायन से डंगरिये का शरीर धीरे-धीरे झूमने लगता हैं। जागर भी अपने स्वरों को बढ़ाने लगता है और इसी क्षण डंगरिये के शरीर में देवी-देवता आ जाते हैं। जगरिये द्वारा फिर से इन देवी-देवताओं की पूजा की जाती है। अब डंगरिये नाचने लगते हैं और नाचते-नाचते अपने आसन में बैठ जाते हैं। डंगरिया जगरिये को भी प्रणाम करता है। डंगरिये के समीप चाल के दाने रख दिये जाते हैं जिन्हें हाथों में लेकर डंगरिये भूतकाल, भविष्यकाल और वर्तमान के विषय में सभी बातें बताने लगते हैं।

डंगरिये से सवाल पूछने का काम उस घर के व्यक्ति करते हैं जिस घर में जागर लगायी जाती है। बाहरी व्यक्ति भी अपने सवाल इन डंगरियों से पूछते हैं। डंगरिये द्वारा सभी सवालों के जवाब दिये जाते हैं और यदि घर में किसी तरह का कष्ट है तो उसके निवारण का तरीका भी डंगरिये द्वारा ही बताया जाता है। जागर के अंत में जगरिया इन डंगरियों को कैलाश पर्वत की तरफ प्रस्थान करने को कहता है। और डंगरिया धीरे-धीरे नाचना बंद कर देता है।

जागर का आयोजन ज्यादातर चैत्र, आसाढ़, मार्गशीर्ष महीनों में किया जाता है। जागर एक, तीन और पांच रात्रि तक चलती है। सामुहिक रूप से करने पर जागर 22 दिन तक चलती है जिसे ‘बाईसी’ कहा जाता है।

वैसे तो आधुनिक युग के अनुसार इन सबको अंधविश्वास ही कहा जायेगा। पर ग्रामीण इलाकों में यह परम्परा आज भी जीवित है और लोगों का मानना है कि जागर लगाने से बहुत से लोगों के कष्ट दूर हुए हैं। उन लोगों के इस अटूट विश्वास को देखते हुए इन परम्पराओं पर विश्वास करने का मन तो होता ही है।

Monday, April 5, 2010

क्या यही है हिन्दी प्रेम ???

वैसे तो ब्लॉग जगत में फालतू और बकवास पोस्टों पर टिप्पणियों के ढेर लग जाना और उन्हें एक बहुत बड़ा बहस का मुद्दा बना देना होता रहता है, पर अफसोस तब होता है जब कि सच में एक बहुत बड़ा विषय जो हमारे देश, हमारी भाषा, हमारे सम्मान से जुड़ा हो उसके बारे में बात की जाती है तो कोई उस पर ध्यान भी नहीं देता।

अभी कुछ दिन पहले ही रोजनामचा ब्लॉग मैं मैंने एक पोस्ट पड़ी थी। इतना गंभीर और सनसनीखेज विषय होने के बाद भी उस पर लोगों ने अपनी राय तक देने की कोशिश नहीं कि तो इसे क्या कहा जायेगा ???

यह पूरी पोस्ट मैंने रोजनामचा ब्लॉग से ही उठायी है।


आज के दौडते भागते युग में देश के बारे में बच्चों और युवा होती पीढी का सामान्य ज्ञान काफी हद तक कमजोर माना जा सकता है। देश में कितने राज्य और उनकी राजधानियों के बारे में सत्तर फीसदी लोगों को पूरी जानकारी न हो तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। किस सूबे की आधिकारिक भाषा क्या है, इस बात की जानकारी युवाओं को तो छोडिए भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मन्त्रालय के आला अधिकारियों को भी नहीं है।

सिक्किम भारत देश का हिस्सा है। चीन भी इस बात तो स्वीकार कर चुका है, कि सिक्किम भारत गणराज्य का ही एक अंग है। भारत गणराज्य के सूचना प्रसारण मन्त्रालय और प्रसार भारती के अधीन काम करने वाला ऑल इण्डिया रेडियो (एआईआर) इस राय से इत्तेफाक रखता दिखाई नहीं देता है। एआईआर की विदेश प्रसारण सेवा में  नेपाली को आज भी विदेशी भाषा का दर्जा दिया गया है, जबकि सिक्किम की आधिकारिक भाषा नेपाली ही है। इतना ही नहीं 1992 में संविधान की आठवीं अनुसूची में नेपाली को शामिल किया जा चुका है। एआईआर की हिम्मत तो देखिए इसकी अनदेखी कर एक तरह से एआईआर द्वारा संविधान की ही उपेक्षा की जा रही है।

भारत गणराज्य के गणतन्त्र की स्थापना के साथ ही 1950 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू के कार्यकाल में विदेशों में कल्चर प्रोपोगण्डा करने की गरज से विदेश प्रसारण सेवा का श्रीगणेश किया गया था। इस सेवा का कूटनीतिक महत्व भी होता था, इसमें विदेश प्रसारण सेवा के तहत वहां बोली जाने वाली भाषा में प्रोग्राम का प्रसारण किया जाता था। एआईआर ने वहां की भाषा के जानकारों की अलग से नियुक्ति की थी।

मजे की बात तो यह है कि विदेश प्रसारण सेवा में के दिल्ली स्थित कार्यालय में अनुवादकों - उद्घोषकों के वेतन भत्ते और सेवा शर्तें अनकी भाषा के हिसाब से तय होते हैं न कि उनकी वरिष्ठता अथवा योग्यता से। मसलन एक दसवीं पास व्यक्ति  जिसकी मात्र भाषा फ्रेंच है (जो पांडिचेरी की आधिकारिक राजभाषा है) को एक हिन्दी भाषी ग्रेजुएट से काफी अधिक वेतन व सुविधायें पाने की अधिकार है। 50 के दशक में जिन देशों को विदेश प्रसारण सेवा के लिए चिन्हित किया था, उनमें पाकिस्तान, अफगानिस्तान, आस्ट्रेलिया, ईस्ट और वेस्ट आफ्रीका, न्यूजीलेण्ड, मारीशस, ब्रिटेन, ईस्ट और वेस्ट यूरोप, नार्थ ईस्ट, ईस्ट एण्ड साउथ ईस्ट एशिया, श्रीलंका, म्यामांर, बंग्लादेश आदि शामिल थे।

एआईआर द्वारा नेपाली भाषा को विदेशी भाषा का दर्जा दिए जाने के बावजूद भी अनियमित (केजुअल) अनुवादक और उद्घोषकों को भारतीय भाषा के अनुरूप भुगतान किया जा रहा है, जो समझ से परे ही है। बताते हैं कि कुछ समय पहले केजुअल अनुवादक और उद्घोषकों द्वारा भुगतान लेने से इंकार कर दिया गया था। बाद में समझाईश के बाद मामला शान्त हो सका था।

उधर पडोसी मुल्क नेपाल जहां की आधिकारिक भाषा नेपाली ही है, ने भारत के ऑल इण्डिया रेडियो के इस तरह के कदम पर एआईआर के मुंह पर एक जबर्दस्त तमाचा जड दिया है। नेपाल में उपराष्ट्रपति पद की शपथ परमानन्द झा द्वारा हिन्दी में लेकर एक नजीर पेश कर दी। इतना ही नहीं नेपाल सरकार ने एक असाधारण विधेयक पेश कर लोगों को चौंका दिया है। इस विधेयक में देश के महामहिम राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद की शपथ मातृभाषा में लिए जाने का प्रस्ताव दिया गया था।

अब सवाल यह उठता है कि 1992 में आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने के 18 साल बाद भी इस मामले को लंबित कर लापरवाही क्यों बरती जा रही है। यह अकेला एेसा मामला नहीं है, जबकि हिन्दी को मुंह की खानी पडी हो। वैसे भी हिन्दी देश की भाषा है। लोगों के दिलोदिमाग में बसे महात्मा गांधी, पहले प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरू से लेकर आज तक के निजाम हिन्दी को प्रमोट करने के नारे लगाते आए हैं, पर हिन्दी अपनी दुर्दशा पर आज भी आंसू बहाने पर मजबूर है।

लोग कहते हैं कि दिल्ली हिन्दी नहीं अंग्रेजी में कही गई बात ही सुनती है। हिन्दी सहित भारतीय भाषाओं के प्रोत्साहन के लिए अब तक करोडों अरबो रूपए खर्च किए जा चुके हैं, दूसरी ओर सरकारी तन्त्र द्वारा हिन्दी को ही हाशिए पर लाने से नहीं चूका जाता है। हिन्दी भाषी राज्यों में ही हिन्दी की कमर पूरी तरह टूट चुकी है। ईएसडी के प्रोग्राम में प्रेस रिव्यूृृ नाम का प्रोग्राम होता है। इसमें भारतीय अखबारों में छपी खबरों और संपादकीय का जिकर किया जाता है। विडम्बना देखिए कि इसमें हिन्दी में छपे अखबरों को शामिल नहीं किया जाता है। यद्यपि एेसा कोई नियम नहीं है कि इसमें सिर्फ आंग्ल भाषा में छपे अखबारों का ही उल्लेख किया जाए पर यह हिन्दुस्तान है मेरे भाई और यहां अफसरों की मुगलई चलती आई है, और आगे भी अफसरशाही के बेलगाम घोडे अनन्त गति से दौडते ही रहेंगे।

Thursday, April 1, 2010

ऐसा है रुद्रपुर का इतिहास

 
अतरिया देवी का मंदिर

रुद्रपुर का निर्माण चन्द वंश के राजा रुद्र चन्द ने (1565-1597) में किया। कुमाउं में 16वीं सदी में इनका ही शासन था। एक दंत कथा के अनुसार एक बार जब राजा रुद्र चन्द यहाँ से जा रहे थे तो उनके रथ का पहिया दलदली जमीन में फंस गया। उसके बाद उन्होंने इस जगह पर एक मंदिर और एक कुंए का निर्माण करवाया। यह मंदिर आज भी अतरिया देवी मंदिर के नाम से इस स्थान पर है। जो कि बस स्टैंड से 2 किमी. दूर है। हर वर्ष नवरात्र में यहां 10 दिन का मेला लगता है।

आज के रुद्रपुर को 1960 में बसाया गया था। इसे बसाने का मुख्य कारण था बटवारे के दौरान पाकिस्तान, बर्मा, बांग्लादेश, पश्चिमी पंजाब से आये शरणार्थियों को रहने के लिये जगह देना। उस समय के मुख्यमंत्री भारत रत्न गोविन्द बल्लभ पंत द्वारा यहां शरणार्थियों को बसाया गया तब उत्तराखंड उत्तर प्रदेश का हिस्सा था। शासन ने जमीन के छोटे-छोटे टुकड़े इन शरणार्थियों को दे दिये ताकि वो इसमें अपना घर बना सके और खेती कर सकें।

इस तरह से बसा यह छोटा सा शहर अब काफी फैल चुका है और उत्तराखंड के कृषि में सबसे अहम योगदान दे रहा है। रुद्रपुर अपने यहां पैदा होने वाले चावलों के लिये भी जाना जाता है। आज भी रुद्रपुर की लगभग 70 प्रतिशत आबादी कृषि कार्यों से जुड़ी हुई है।