Tuesday, December 22, 2009

मेरी दिल्ली यात्रा - 3

अक्षरधाम में थोड़ा समय बिताने के बाद हम वापस अपनी बस में आ गये। इसके बाद हमें राजघाट जाना था। जहाँ गांधी जी की समाधी है। आजकल दिल्ली में 2010 में होने वाले कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारी जोरों से चल रही हैं जिसने दिल्ली वालों की नाक में दम कर रखा है क्योंकि जितने लोगों से मेरी बात हुई उनमें से ज्यादातर तो परेशान ही नज़र आये। खैर हमें गाइड ने वो मशाल तो दिखायी ही दी थी जिसे जला कर कॉमनवेल्थ गेम्स की शुरूआत की जायेगी। मेरे पूछने पर कि - ये जो इतने बड़े-बड़े भवन बनाये जा रहे हैं इनका गेम्स के बाद क्या होगा ? गाइड ने बताया - इन्हें गेम्स के बाद निलाम कर दिया जायेगा। चलिये ये भी अच्छा है शायद बाद में वहाँ के लोगों को कुछ फायदे मिल जायें। खैर इसी रास्ते पर आगे बढ़ते हुए यमुना नदी के दर्शन हुए। इसे देखने पर निराशा ही हाथ लगी। दिल्ली को जीवन देने वाली नदी खुद अपने जीवन को बचाने के लिये जूझती हुई नज़र आयी।



यहाँ से हम लोग राजघाट की ओर चले गये। राजघाट देखना मेरी तमन्ना थी। एक बार गांधी जी से रु-ब-रु होने का अवसर शायद यहाँ मिल पाता। गांधी जी के बारे में काफी कुछ सुना और पढ़ा है इसलिये उनसे मुलाकात के इस अवसर का मुझे बेसब्री से इंतज़ार था। पर यहाँ हमें सिर्फ 15 मिनट तक रहने की इज़ाजत ही थी। बच्चा इस जगह के बारे में जानना चाहता था हालांकि उसकी उम्र के अनुसार उसे समझा पाना कठिन था पर फिर भी मैंने कोशिश तो की बांकि वो कितना समझ पाया ये मैं नहीं जानती। अपने जूते बाहर उतार कर हम लोग शानदार सी चटाइयों पर चलते हुए गांधी जी के सामने पहुँचे। यहाँ आने पर एक अंजान सी खुशी मिली। राजघाट में काले संगमरमर का एक छोटा सा मंच बना है जिसके ऊपर एक ज्योति हमेशा जलती रहती है और इसके सामने लिखा है `हे राम´ जो कि गांधी जी के अंतिम शब्द थे। ऐसा महसूस हुआ कि हम एक महान हस्ती के सामने खड़े हैं और वो हमें देख रहा है। इस जगह पर काफी बड़े-बड़े हरे-भरे मैदान हैं और साथ में जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इन्दरा गांधी और राजीव गांधी जैसी हस्तियों के समाधी स्थल भी हैं पर हमें सिर्फ राजघाट ही देखना था क्योंकि गाइड की मर्जी थी।

यहाँ से वापस आते हुए मेरी नज़र एक विदेशी महिला पर पड़ी। वो कुछ विचित्र लग रही थी क्योंकि उसने अजीब ढंग से साड़ी पहनी थी उसके साथ टॉप पहना थी और पैरों में ट्रेकिंग शू पहने हुए थे। मुझे समझ नहीं आया कि यह फैशन था, शौक था या किसी संस्कृति को जानने समझने की चाह थी। जो भी था उसे देखकर हँसी रोक नहीं पाई। मैं तस्वीर लेना चाहती थी पर बच्चे ने मेरा हाथ पकड़ा था इसलिये जल्दी से कैमरा ऑन कर पाना संभव नहीं हुआ।


 

इसके बाद अगली मंज़िल थी इंडिया गेट। इंडिया गेट में द्वितीय विश्व युद्ध और द्वितीय अफगान युद्ध में शहीद हुए शहीदों के नाम लिखे गये हैं और इसे उनकी याद में ही बनाया गया था। इंडिया गेट में सन् 1971 से एक ज्योति हर समय जलती रहती है जिसे `अमर जवान ज्योति´ कहते हैं। इंडिया गेट में हमने ज्यादा समय नहीं बिताया बस इसे देखा कुछ देर अमर जवान ज्योति के सामने खड़े रहे। कुछ तस्वीरें ली और आ गये। आजकल इस स्थान में भी काफी भीड़ थी।

अब लंच का समय हो चुका था। ट्रेवल एजेंट ने पहले ही बता दिया था कि लंच हमें अपने पैसों से खुद करना होगा। वो हमें एक रेस्टोरेंट में ले गया। यहाँ एक बार फिर सुरक्षा जांच की गई। जिसका कोई मतलब कम से कम यहाँ तो मुझे समझ नहीं आया। अंदर जाते ही हमारा सामना बेतहाशा भीड़ से हुई। जहाँ हमें पहले पैसे देकर कूपन लेना था और फिर अपने नंबर का इंतज़ार करना था। जब नंबर आयेगा तब हमें टेबल मिलेगा बैठने के लिये। हम लोगों ने भी कूपन लिया और नंबर का इंतज़ार करने लगे। हमारी बस में सब लोगों के नंबर लगभग साथ ही थे। इसलिये हम सबने साथ ही खाना खाया और सबसे बड़ी बात कि मेरा फैलो ट्रेवलर मेरे साथ ही बैठा और उसने खाना भी मेरे ही साथ खाया। खाना बहुत अच्छा था तो नहीं कहा जा सकता, पर हाँ भरपूर जरूर था जिसे जितना खाना था उसे उतना खाना  परोसा जा रहा था। खाने के बाद मेरी नज़र मीठे पानों पर पड़ी। इसलिये खाने के बाद सबने मीठा पाना खाया जो कि इस भोजनालय की सबसे अच्छी चीज़ मुझे महसूस हुई।

खाना खा लेने के बाद भूख से तो थोड़ी राहत मिली पर अब सबके चेहरों में थोड़ी-थोड़ी थकावट भी नज़र आने लगी थी। इसके बाद हमने तीन जगहें और देखनी थी जिसमें सबसे पहले हम बिरला मंदिर या लक्ष्मी नारायण मंदिर की तरफ गये। यहाँ भी वही कड़ी सुरक्षा थी जिसके चलते हमें कुछ भी सामान ले जाने से मना कर दिया गया था। बड़ा मंदिर और सुंदर सी मूर्तियां। मुझे बस यही महसूस हुआ बांकि आस्था तो कुछ आयी नहीं। पंडित ने प्रसाद की एक पुड़िया दी जिसे मैंने रख लिया। उसमें से थोड़ा प्रसाद तो मेरे फैलो ट्रेवलर ने ही खा लिया था। यहाँ पर उसने एक घंटी बजाने की ज़िद की पर घंटी बहुत ऊँचाई पर थी इसलिये बजा पाना मुश्किल था पर वो इस बात पर मान गया कि इस घंटी को विनीता दीदी भी नहीं बजा सकती है तो वो भी नहीं बजा सकता। मंदिर से बाहर निकलते हुए एक खिलौने की दुकान में बच्चे को एक तोता लेने का मन कर गया। मैंने उसे वो तोता खरीद दिया। उसके बाद वो और उसका तोता....उसने इतने ढेर सवाल पूछे के मुझे समझ ही नहीं आ पाया कि क्या जवाब दूँ।

 यहाँ से अब हम अपने इलाके यानी चाणक्यपुरी की तरफ वापस जाने लगे थे। अब हमें इंदिर गांधी म्यूजियम देखने जाना था। जिसे इंदिरा जी के भवन को म्यूज़ियम में परिवर्तित कर बनाया गया है। रास्ते में कई सारे भवन, ऑफिस फिर से दिखाई देने लगे। शीला दीक्षित का ऑफिस भी दिखायी दिया और भी कई सारे ऑफिस आदि थे। इसी रास्ते में हमें गांधी जी की डांडी यात्रा पर आधारित वह मूर्ति भी दिखी जिसे पहले से दूरदर्शन में अकसर टीवी पर देखा करते थे।



खैर हम इंदिरा गांधी म्यूजियम पहुंचे। यहाँ इंदिरा जी से संबंधित सारी चीजें, सारे डॉक्यूमेंट, अखबार की कटिंग, उनके इस्तेमाल होने वाले सामान, उनकी पोशाकें, उनके बर्तन सब संभाल के रखे गये हैं। जिस दिन उन्हें गोली मारी गई थी उस दिन उन्होंने जो पोशाक पहनी थी वो भी सुरक्षित यहाँ पर रखी गई है। उन्हें जो पुरस्कार और तोहफे मिले थे वो भी सब यहाँ रखे गये हैं। इस जगह को देखना भी अच्छा ही लगा।



 
इसके बाद हमारी अंतिम मंज़िल थी तीन मूर्ति भवन या जवाहर लाल नेहरू म्यूज़ियम। यह चाचा नेहरू का भवन था जिसे म्यूजियम में परिवर्तित कर दिया गया है। यहाँ चाचा नेहरू से संबंधित सभी चीजें रखी हुई हैं। यह एक विशाल भवन है। हम लोग आपस में बात भी कर रहे थे कि - चाचा जी इतने बड़े मकान में खो नहीं जाते होंगे क्या ? यहाँ हम लोग जब आगे बढ़ रहे थे तो मैंने एक बंद दरवाज़ा खोल दिया जिसमें से स्कूल के बच्चों का झुंड इस तरह बाहर निकला जैसे किसी मधुमक्खी का छत्ता तोड़ दिया हो और उसमें से मधुमिक्खयां भिनभिनाती हुई बाहर निकल रही हों। यह दरवाजा एक कमरे को जाता था जिसमें संसद का छोटा सा मॉडल बनाया था। उसमें कुछ नेताओं के पुतले रखे थे। एक किनारे में चाचा नेहरू का पुतला भाषण देती मुद्रा में बना था और पीछे से रिकॉर्डिंग चल रही थी जो हकीकत का सा अभास दे रहा था। पहली नज़र में देखने में तो मुझे लगा कि हम लोग शायद सच में ही किसी मीटिंग चल रहे कमरे में आ गये पर कुछ देर में पता चल गया कि ये सिर्फ डिमॉन्स्ट्रेशन देने के लिये ही है।


 

म्यूज़ियम के मैदान में एक एक्जीबिशन लगी हुई थी जो कि प्रतिवर्ष 27, 28 और 29 नवम्बर को वहाँ लगती ही है। उसमें जगह-जगह से आये लोग अपनी स्टॉल लगाते हैं और क्षेत्रों से संबंधित सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित किये जाते हैं। इसे मैं अपनी खुशकिस्मती ही कहूँगी कि उस दिन `उत्तराखंड इवनिंग´ चल रही थी पर इसे देखने का समय हमारे पास था नही। जब उत्तराखंड का नाम पुकारा गया तो बच्चे के मम्मी पापा ने उससे कुछ कहा। जिसके बाद बच्चे ने मासूमियत से मुझसे कहा - दीदी देखो सब लोग आपके घर का नाम ले रहे हैं। अपने फैलो ट्रेवलर के मुँह से यह सुनना और भी ज्यादा अच्छा लगा।

आज का हमारा सफर यहीं पर ख़त्म हो गया। गाइड ने हमें इशारा किया कि तुम्हारा घर आने वाला है तैयार हो जाओ। हम उतरने की तैयारी करने लगे तो बच्चे ने फिर पूछा - दीदी अब हम कहाँ जायेंगे ? मैंने उसे कहा - हम लोग यहीं उतरेंगे और उसे अपने मम्मी-पापा के साथ बैठना होगा। उसका चेहरा उतर गया पर उसने ज़िद नहीं की और प्यार से बाय बोलते हुए कहा - दीदी कल को भी घुमने जायेंगे ? मैंने हां कहा और उतर गयी। अब उस कल का इंतज़ार हमेशा ही रहेगा...

जारी...



12 comments:

Unknown said...

ek bahut hi achha travelogue likha hai tumne vineeta. aage ki kari ka intzaar hai

ताऊ रामपुरिया said...

जितना कुछ आपने इस यात्रा वृतांत मे दिल्ली के बारे मे बता दिया उतना पहली बार जाना है.

वाकई बहुत बहुत धन्यवाद आपको.

रामराम.

Unknown said...

wala aur rochak yatra sansmaran.

agli post ka intzaar hai.

रंजू भाटिया said...

वाह आप तो पूरी दिल्ली घूम गयी अच्छा लगा आपकी नजर से दिल्ली को देखना

Udan Tashtari said...

आनन्द रहा आपकी नजरों से घूम!

Anil Pusadkar said...

दिल्ली याद आ गई।बहुत साल हो गये दिल्ली गये,बहुत कुछ बदल गया होगा।बहुत सुन्दर यात्रा वृतांत है।

Anil Pusadkar said...

दिल्ली याद आ गई।बहुत साल हो गये दिल्ली गये,बहुत कुछ बदल गया होगा।बहुत सुन्दर यात्रा वृतांत है।

दिगम्बर नासवा said...

आपने तो नयी नज़र से दिल्ली दर्शन करा दिया .... बहुत रोचक तरीके से लिखा है आपने .........

आशीष खण्डेलवाल (Ashish Khandelwal) said...

Nice... Interesting way of presentation..

Happy Blogging

मुनीश ( munish ) said...

very heart-felt and full of genuine warmth. ur style is simply beautiful. very nice indeed !

Randhir Singh Suman said...

nice

deepak said...

Really heart- touching journey of a crowded and expensive city. You are lucky mam as you got a little friend to walk with.Your series of Delhi journey would certainly inspire to Delhites to walk and know about delhi who forget that delhi is more than a city. thanks n waiting for fourth-one. bye