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25 जुलाय 1875 को नैनीताल में जन्मे जिम कॉबेंट को मात्र एक शिकारी मानना उनके साथ अन्याय होगा। उनके व्यक्तित्व के कई ऐसे पहलू हैं जो उन्हें शिकारी की जगह प्रकृतिप्रेमी, उत्कृष्ठ लेखक, बेहतरीन खिलाड़ी तथा वन्य जीवन को फोटोग्राफी द्वारा कैद करने वाला बनाते हैं। उन्होंने छ: अविस्मरणीय किताबें लिखी - माई इंडिया, जंगल लॉर, मैन ईटर ऑफ कुमाऊँ, मैन इटिंग लेपर्डस ऑफ रूद्रप्रयाग, टैम्पल टाइगर, ट्री-टॉप। मैन ईटर ऑफ कुमाऊँ की अमेरिका से 536,000 प्रतियाँ प्रकाशित हुई थी। उनकी सभी किताबों का कई अन्य भाषाओं में भी अनुवाद किया गया है।
जिम स्वयं को खुशकिस्मत मानते थे कि वह कुमाऊँ में पैदा हुए। यहाँ की बोली और रीति रिवाज की उन्हें अच्छी जानकारी थी। जिम यहाँ के अंधविश्वासों में भी विश्वास रखते थे और शकुन-अपशकुन मानते थे। अपनी किताब `माई इंडिया´ में उन्होंने इस परिवेश को सजीव ढंग से प्रस्तुत किया है। वह ग्रामीणों से पहाड़ी भाषा में बात करते थे और यहाँ के स्थानीय भोजन को पसंद करते थे। लोगों के साथ उनका व्यवहार आत्मीयतापूर्ण था। उनके दु:ख सुख में जिम हमेशा साथ देते थे और जरूरत पड़ने पर मित्र की तरह सलाह भी देते थे। लोग उन्हें `कार्पेट साहिब´ कहकर सम्बोधित करते थे।
जिम बचपन से ही प्रकृति के नजदीक रहे और हमेशा जंगलों और वन्य प्राणियों के बारे में कुछ न कुछ सीखते रहते थे। अकसर वह जंगलों में घूमने निकल जाते थे। अपनी अच्छी याददाश्त, तीव्र सुनने और विलक्षण अवलोकन क्षमता के कारण जंगल की छोटी बड़ी बात से भली भांति परिचित थे। अपनी पुस्तक `जंगल लॉर´ में उन्होंने अपने यही अनुभव लिखे हैं। वह जानवरों की आवाजों को बड़े ध्यान से सुनते और बाद में उनको जस का तस दोहराते थे। उन्होंने सिर्फ नैनीताल में ही 256 चिड़ियों की पहचान की थी जिन्हें वो उनकी बोली सुनकर ही पहचान लेते थे। जिम नैनीताल को पक्षी-विहार के रूप में विकसित करना चाहते थे पर उनके इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया गया। नैनीझील में उन्होंने ही सबसे पहले महासीर मछली को डाला था। उन्होंने मछलियों के शिकार के लिये कुछ जगहें सुनिश्चित की तथा रात को मछलियों को मारने पर प्रतिबंध भी लगाया।
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जिम लम्बे समय तक नगरपालिका के वरिष्ठ उपाध्यक्ष पद पर भी रहे और अपने शहर को आदर्श शहर बनाने के लिये हमेशा प्रयासरत रहे। अपने शीतकालीन आवास के दौरान जिम कालाढूंगी के अपने घर से नैनीताल पैदल ही आते थे और शाम को उसी से वापस भी जाते थे। कभी कभी वह घोड़े का भी इस्तेमाल करते थे। वह मार्ग आज भी एक अच्छे ट्रेकिंग रूट के रूप में विकसित हो सकता था पर अब उसे काफी जगह में सीमेंट वाला बना दिया गया है। कालाढूंगी वाले उनके निवास को अब कॉबेंट म्यूजियम के रूप में विकसित कर दिया गया है जिसमें कॉबेंट की सभी चीजों को सहेज के रखा गया है। नैनीताल में जिम गर्नी हाउस में रहते थे। नैनीताल का शमशान घाट, भवाली की सड़क जिम की ही देने है।
एक जमाने में नैनीताल की शान माने जाने वाले बैण्ड स्टेंड का निर्माण जिम ने स्वयं के 4000 रुपय से करवाया था। एक समय में इसी बैंड स्टैंड में राम सिंह जी द्वारा बैंड बजाया जाता था जिसकी धुनों पर लोग पागलों की तरह झूमने लगते थे पर आज उसी बैंड स्टेंड को उस तरह से संजो कर नहीं रखा गया जिसका वो हकदार था। नैनीझील में पीने के पानी की जाँच करने वाली प्रयोगशाला का निर्माण भी जिम ने करवाया।
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जिम खेलों के बहुत शौकीन थे। हॉकी और फुटबॉल उनके पसंदीदा खेल थे। नैनीताल में जब भी कोई मैच होता तो जिम उन्हें देखने जरूर जाते थे। नैनीताल के फ्लैट्स को स्टेडियम का आकार देने के लिये उन्होंने ही उसके चारों और सीढ़ियों का निर्माण करवाया। उन्होंने नैनीताल की प्राकृतिक सुन्दरता को बनाये रखने के लिये काफी नियम बनाये जैसे बकरियों द्वारा जंगलों को रहा नुकसान रोकने के लिये बकरियों और ट्रैफिक को नियंत्रित करने के लिये हाथ रिक्शा के लिये लाइसेंस बनवाना अनिवार्य किया।
शुरूआती दौर में कॉबेंट ने 23 वर्षों तक बिहार में नॉर्थ-वेस्ट रेलवे में फ्यूल इंस्पेक्टर के पद पर नौकरी की। नौकरी के दिनों को याद करते हुए वह कहते हैं कि - `नौकरी के दिन बहुत कठिन थे पर मैंने उनका पूरा आनन्द लिया´। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान वह वापस कुमाऊँ आ गये। वह नौकरी के समय से ही नरभक्षी जानवरों का शिकार करने लगे थे। 1907 में उनके द्वारा मारा गया पहला नरभक्षी चम्पावत का था जिसने अकेले ही 436 जानें ली थी। इसके बाद से जिम शिकारी के रूप में चर्चित हो गये। 32 साल के शिकारी जीवन में उन्होंने लगभग एक दर्जन नरभक्षी का शिकार किया था।
सन् 1930 से जिम ने शिकार को पूर्ण रूप से त्याग दिया और शिकार करने का नया तरीका इजाद किया। वो था कैमरे द्वारा जानवरों को कैद करना। उन्होंने साढ़े चार महीनों तक रात-दिन एक करके सात शेरों को अपने कैमरे में कैद किया और `सैवन टाइगर´ नाम से पहली मोशन पिक्चर का निर्माण किया।
जिम प्रकृतिविद भी थे और सिर्फ पेड़े लगाने को पर्यावरण नहीं मानते थे। उनका मानना था कि प्रकृति से जुड़ी हर चीज पर्यावरण का अनिवार्य अंग है वो चाहे जानवर हों या फिर मामूली सी घास-फूस। उन्होंने स्कूली बच्चों को प्रकृति के बारे में बताना शुरू किया ताकि प्रकृति के बारे में उनका ज्ञान बढ़े और वो इसके रक्षक बनें। वह बच्चों को शेर के दहाड़ने और पक्षियों की आवाजों की नकल करके भी दिखाते थे। उन्होंने वन्य प्राणियों की रक्षा के लिये कई संस्थान भी बनाये। भारत का पहला नेशनल पार्क जो रामनगर कुमाऊँ में स्थित है उसकी स्थापना जिम ने ही 1934 में की थी। जिसे उनके देहान्त के बाद उनकी याद में जिम कॉबेंट नेशनल पार्क का नाम दिया गया।
हिन्दुस्तान आजाद होने के पश्चात न चाहते हुए भी जिम 30 नवम्बर 1947 को केन्या (अफ्रिका) चले गये। पर वह निरन्तर पत्र व्यवहार किया करते थे जिनमें वो अपने मित्रों और यहाँ के लोगों के साथ बिताये खुशनुमा दिनों को याद करते थे और अपने वापस आने की इच्छा जाहिर करते थे लेकिन उनकी यह इच्छा कभी पूरी न हो सकी क्योंकि उससे पहले ही 16 अप्रेल 1955 को हार्ट-अटैक से उनका देहान्त हो गया। उनका अंतिम संस्कार केन्या में ही किया गया। जिम के अंतिम शब्द अपनी बहिन मैगी, जो हमेशा जिम के साथ ही रही, के लिये थे 'Make the world a happy place for other people to live'