29 अक्टूबर 2010 को ‘युगमंच’ द्वारा आयोजित नैनीताल का दूसरा तीन दिवसीय फिल्म महोत्सव शुरू हुआ। इस बार का फिल्म उत्सव जनकवि गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ और सिने सितारे ‘निर्मल पाण्डे’ का समर्पित था। इस उत्सव के पहले दिन के सत्र की शुरूआत गिरदा के गीत ‘एक दिन ते आलो उ दिन यो दुनि में...’ गाने से हुई जिसे युगमंच के कलाकारों ने अपनी दमदार आवाज के साथ गा कर समारोह की शुरूआत की। इस गाने के बाद गिरदा के ही एक और गाने ‘हम लड़ते रया भुलां हम लड़ते रुलों...’ को महिला समाख्या की कार्यकर्ताओं द्वारा गाया गया। इस सत्र में चित्रकार बी. मोहन नेगी व प्रयाग जोशी को सम्मानित किया गया। इस सत्र में फिल्म कलाकार निर्मल पाण्डे और जनकवि गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ पर आधारित 15-15 मिनट की दो फिल्में भी दिखायी गयी जिन्हें प्रदीप पाण्डे ने अपने मित्रों के साथ मिलकर निर्देशित किया था। इसके बाद इस फिल्म उत्सव पर आधारित पत्रिका का उद्घाटन किया गया।
बी. मोहन नेगी
बी. मोहन नेगी के पोस्टर
फिल्म उत्सव में मेरे, शेखर और गिरीजा पाठक द्वारा गिर्दा और निर्मल पाण्डे पर बनाये कोलाज, बी मोहन नेगी द्वारा बनाये चित्रों की प्रदर्शनी व बी सी शर्मा द्वारा शमशेर बहादुर सिंह, फैज़, नागार्जुन और केदारनाथ की कविताओं को पोस्टर भी लगाये गये।
कोलाज: गिर्दा
कोलाज: निर्मल पाण्डे
इस उत्सव की शुरूआत वसुधा जोशी निर्देशित डाॅक्यूमेंट्री ‘अल्मोड़ियाना’ से की गयी। यह डाॅक्यूमेंट्री अल्मोड़ा में दशहरे के दौरान बनाये जाने वाले रावण और दूसरे राक्षसों के पुतलों पर आधारित थी। इस दिन के सत्र की अंतिम फिल्म थी बेला नेगी निर्देशित ‘दांये या बांये’। यह फिल्म बागेश्वर के एक गांव पर आधारित है। इस फिल्म की पूरी शूटिंग इसी गांव में की गयी और यहीं के कलाकारों के साथ मिलकर बनायी गयी है।
अगले दिन की शुरूआत गिरीश तिवारी गिर्दा पर बनी आधे घंटे की डाॅक्यूमेंट्री फिल्म से हुई। इस सत्र की दूसरी फिल्म थी बेहमन गोबादी निर्देशित इराकी फिल्म ‘टर्टल्स केन फ्लाय’। इराकी पृष्ठ भूमि पर बनी यह फिल्म अमरीकी हमलों को झेल रहे इराकी गांव पर आधारित है। यह फिल्म पूरी तरह से बच्चों पर बनी है जो इन हमलों के दौरान घायल हो जाते हैं और एक सेटेलाइट डिश लगाने की कोशिश करते हैं ताकि हमलों के बारे में उन्हें पूरी खबरें मिलती रहें। इन बच्चों के लीडर का नाम भी ‘सैटेलाइट’ ही रख दिया जाता है। इस फिल्म में 14-15 वर्ष की एक लड़की है जिसके साथ एक छोटा बच्चा है जो युद्धों के दौरान उस पर हुए अत्याचार के कारण पैदा होता है और उसका एक भाई है जिसके हाथ नहीं है। बिना किसी युद्ध को दिखाये हुए भी यह फिल्म युद्धों की विभिषिका को पूरी संजीदगी के साथ दिखाती है। अपने दमदार निर्देशन और संजीदा अभिनय के साथ यह फिल्म प्रभावित भी करती है और इमोशनल भी करती है।
इसके बाद वसूधा जोशी की एक और डाॅक्यूमेंट्री ‘फाॅर माया’ दिखायी गयी। यह फिल्म तीनी पीढ़ियों की महिलाओं पर आधारित है। इसके बाद उड़ीसा के नियामगिरि में रहने वाले लोक गायक डोम्बू प्रोस्का द्वारा नियामगिरी के जंगलों पर आधारित एक गीत दिखाया गया। यह लोक गीत हिन्दी उपशीर्षकों के साथ था और निर्देशक सूर्य शंकर दास द्वारा इस बेहद प्रभावशाली ढंग से निर्देशित किया गया। इसके बाद अजय टी.जे. निर्देशित डाॅक्यूमेंट्री ‘अंधेरे से पहले’ दिखायी गयी। इस फिल्म द्वारा अजय यह दिखाने में सफल रहे कि किस तरह छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में गैर कानूनी तरीके से आदिवासियों की जमीनों में कब्जा कर उनको उनकी ही जमीन से किस तरह बेदखल किया जा रहा है। इस सत्र की अगली डाॅक्यूमेंट्री थी ‘फ्राॅम हिन्दू टू हिन्दुत्व’। यह फिल्म अगस्त-सितम्बर 2008 में कंधमाल में हुई जातीय हिंसा पर आधारित थी। इसी सत्र की अगली फिल्म अजय भारद्वाज निर्देशित डाॅक्यूमेंट्र ‘कित्ते मिल वे माही’ थी। यह डाॅक्यूमेंट्री पंजाब के दलितों पर आधारित थी। इस सत्र की अंतिम फिल्म थी परेश कामदार निर्देशित ‘खरगोश’। यह फिल्म प्रियंवद की कहानी ‘खरगोश’ पर आधारित है। यह फिल्म दस साल के बच्चे बंटू के इर्द-गिर्द रहती है। जिसकी पूरी दुनिया घर, स्कूल, मां के चूल्हे की रोटियां और कठपुतलियों के तमाशों के बीच ही सिमटी रहती है। इन सब के बीच बंटू का एक सबसे अच्छा दोस्त है उसका अवनीश भैया जिसके साथ वह बहुत मजा करता है और उनकी प्रेम कहानियों का हिस्सेदार भी है और उनके प्रेम संदेश लाने-ले जाने का काम भी करता है पर बंटू के मन में कहीं न कहीं अवनीश के प्रति एक प्रतिद्वंदिता का भाव भी भरने लगता है। यह फिल्म बालमन में पड़ने वाले प्रभावों को दिखाने में सफल रहती है।
अगले दिन की शुरूआत अनिल कुमार निर्देशित नाटक ‘अकल बड़ी या शेर’ से हुई। नाटक में एक शेर पिंजड़े में बंद हो जाता है और वो जंगल के सभी जानवरों से प्रार्थना करता है कि वो उन्हें बाहर निकाले पर कोई भी जानवर उसे बाहर नहीं निकालता। तभी एक लालची ब्राह्मण शेर के पास रखे एक सोने के कड़े के लालच में उसे बाहर निकाल देता है और बाहर निकल कर शेर ब्राह्मण को ही खाने को तैयार हो जाता है पर खरगोश अपनी चतुराई से शेर को फिर से पिंजड़े में बंद कर देता है। यह नाटक बहुत बेहतरीन ढंग से निर्देशित किया गया और बीच-बीच में इस्तेमाल किये गये सटायर आज के दौर में बढ़ रही महंगाई, घोटालों और देश की दुर्दशा को मजाक मजाक में भी संजीदगी के साथ प्रस्तुत करते हैं। इस नाटक ने दर्शकों का और खास तौर पर बच्चों का अच्छा मनोरंजन किया।
नाटक: अकल बड़ी या शेर
इस सत्र की दूसरी फिल्म थी ‘छुटकन की महाभारत’। यह फिल्म छुटकन के इर्द-गिर्द घूमती है और वो जो सपने में देखता है वो हकीकत में भी सच होने लगता है। उसके गांव में एक बार नौटंकी वाले आते हैं जो महाभारत की कथा को दिखाते हैं। छुटकन अपने सपने में देखता है कि युधिष्ठर के खिलाफ चैसर जीतने के बाद शकुनि मामा और दुर्योधन का दिल परिवर्तित हो जाता है और वो अपना अपराध मान लेते हैं और राज्य पर अपना दावा छोड़ देते हैं और कथा शुरू होने से पहले ही खत्म हो जाती है। पर इससे भी ज्यादा हास्यास्पद यह होता है कि नाटक के कलाकार उसी तरह व्यवहार करने लगते हैं जैसा छुटकन अपने सपने में देखता है साथ ही वो गांव के लोगों के बारे में भी जो सपना देखता है वही सच होने लगता है। इस कारण गांव के लोग मानने लगते हैं कि उस पर को पैशाचिक शक्ति आ गयी है जो उससे यह सब करवा रही है। वो लोग उसमें से भूत भगाने के लिये ओझा को बुलवाते हैं जो उसे बहुत परेशान करता है। इसी बीच छुटकन सो जाता है और उसके सपने में सचमुच की महाभारत के पात्र आ जाते हैं जो सब कुछ सही कर के वापस चले जाते हैं। यह फिल्म भी अपना प्रभाव छोड़ने में सफल रही।
इस सत्र की अगली डाॅक्यूमेंट्री थी वसुधा जोशी निर्देशित डाॅक्यूमेंट्री ‘वायसेसे फ्राॅम बलियापाल’। जब उड़ीसा के बलियापाल को मिसाइल परीक्षण के लिये चुना गया तो वहां के लोगों ने जो आंदोलन शुरू किया यह डाॅक्यूमेंट्री उसी पर आधारित थी। इस फिल्म की अगली डाॅक्यूमेंट्री थी वसुधा श्रीनिवास निर्देशित डाॅक्यूमेंट्री ‘आई वंडर’। यह फिल्म राजस्थान, सिक्किम और तमिलनाडू के ग्रामीण बच्चों की स्कूली शिक्षा पर आधारित थी। इसमें यह दिखाने की कोशिश की गयी थी कि बच्चों के लिये स्कूल का मतलब क्या है ? या स्कूल में बच्चे क्या सीखते हैं इसके साथ ही बच्चों के अनुभवों को उनके सपनों को भी इस फिल्म में दिखाया गया।
इस सत्र की अंतिम डाॅक्यूमेंट्री थी संजय काक निर्देशित ‘जश्न-ए-आजादी’। इस फिल्म ने कश्मीर के लोगों के बारे में दिखाया है कि आखिर वो क्या चाहते हैं। उनके लिया आजादी के क्या मायने हैं। निर्देशक ने इसमें अपनी तरफ से कुछ भी नहीं किया है उन्होंने सिर्फ उन्हीं बातों को सबके सामने रखा है जो वहां के लोग चाहते हैं। उनके लिये आजादी के जो मायने हैं उससे निर्देशक ने सबको रु-ब-रु करवा है। यह फिल्म बहुत प्रभावित करती है और कश्मीर जैसे संजीदा मुद्दे की कई परतों को खोल कर सामने रखने में सफल रही है।
इस फिल्म के साथ ही इस वर्ष का नैनीताल का दूसरा फिल्म उत्सव समाप्त हो गया।