Tuesday, November 30, 2010

मेरा नैनीताल

सर्दियों में नैनीताल के दो अलग अलग रंग

 शाम के समय


सुबह के समय

Saturday, November 20, 2010

एक छोटी सी ट्रेकिग - 2

यह ट्रेकिंग करीब दो साल पहले की है जब मैं और मेरे कुछ दोस्तों ने अचानक ही बज्यून जाने का प्लान बना दिया। बज्यून नैनीताल से करीब 11 किमी. दूर है और सड़क खत्म हो जाने के बाद जब अन्दर गांवों की ओर पैदल ट्रेकिंग की जाये तो ऐसा लगता है कि पुराने वक्त में पहुंच गये हैं जहां सब कुछ थम सा गया है। बज्यून माने चिड़ियां देखने वालों की जन्नत भी है। मेरे जैसे लोगों के लिये यहां पर बहुत कुछ मिल जाता है देखने को। बज्यून को बर्ड वाॅचिंग के लिये इंटरलेशनल मैप में भी जगह मिली है। किसी भी बर्ड वाॅचर की तमन्ना होती है कि वो यहाँ आकर बर्ड वाॅचिंग करे। मेरी भी थी पर कभी वहां जाने का मौका नहीं मिला। इस बार मेरी खुशकिस्मती थी कि मुझे वहां जाने का मौका मिल गया पर मौसम कुछ ऐसा था कि चिड़ियाऐं देखने का ज्यादा अवसर नहीं मिल पाया।

हमें निकलने में देरी हो गयी थी इसलिये यह फैसला किया कि सड़क तक का रास्ता हम लोग अपनी गाड़ी से तय करेंगे और वहां से आगे पैदल निकलेंगे। जिस समय हम निकले उस समय बारिश हो रही थी और पूरी घाटी धुंध की हल्की चादर में लिपटी हुई थी। जिसे देख कर मुझे थोड़ा मायूसी भी हो रही थी क्योंकि कुछ भी दिख नहीं रहा था। बज्यून जाते हुए रास्ते में खुर्पाताल भी पड़ता है। यह झील ऊपर से देखने में बहुत अच्छी लगती है पर धुंध होने के कारण हम इसे देख नहीं पाये। हम लोग एक-डेढ़ घंटे में बज्यून पहंुच गये। वहां सड़क के किनारे बनी एक दुकान में कुछ समय के लिये रुके क्योंकि बारिश काफी तेज हो गयी थी। हमने दुकान में बैठकर चाय समोसे खाये और बारिश के रुकने का इंतजार किया। दुकान में छोटे-छोटे बच्चे भी बन टिक्की, चाउमिन जैसी अपनी पसंद की चीजें खा रहे थे। जब दुकान में कई सारे बच्चे आने लगे तो हमने उनसे पूछ ही लिया कि वो आज छुट्टी वाले दिन कहां से आ रहे हैं ? एक बच्चे ने बताया - आज इतवार होने के कारण वो लोग सुबह 4-5 बजे के लगभग ही सामान बेचने के लिये बाजार चले गये थे। अभी वहीं से वापस आ रहे हैं और अब नाश्ता कर रहे हैं। बच्चों की मेहनत देख कर अच्छा लगा पर क्या यह उनकी उम्र है इतना काम करने की ? लेकिन गांव के बच्चे ऐसे ही होते हैं बहुत मेहनती...
काफी देर तक भी जब बारिश नहीं रुकी तो हम बारिश में ही पैदल निकल गये। इस रास्ते के शुरू होते ही एक गोलू देवता का मंदिर है। करीब 2 किमी. चल लेने के बाद बारिश रूकी और मौसम बिल्कुल खिला-खिला सा हो गया। रास्ते से नीचे देखने में एक खूबसूरत सा गांव नज़र आया बरसात का मौसम होने के कारण बिल्कुल हरा-भरा दिख रहा था और अभी मौसम खिला ही था जो उस गांव की खूबसूरती को और बढ़ा रहा था। 
बज्यून का यह रास्ता जिम कार्बेट के भी पसंदीदा रास्तों में से एक रहा है। वो अकसर इसी रास्ते से कोटाबाग पैदल आया-जाया करते थे। रास्ते में हमें कई सारे गांव के लोग मिले जिनसे हमने खूब बातें की।
बज्यून का रास्ता बहुत ही अच्छा है और ट्रेकिंग के लिये परपफेक्ट है। इस रास्ते में जोंक भी नहीं थी पर काफी जगहों में पहाड़ धसके हुए थे। बज्यून जाकर ऐसा लगा जैसे किसी पुराने जमाने में आ गये हैं। लोग अभी भी घोड़ों से सवारी करते हैं और घोड़ों से ही सामान लाते-ले जाते है। यहां पर भी हमें कुछ स्कूली भी दिखे। जो  मंडी से घर वापस लौट रहे थे। हमें इस बात के लिये बेहद अफसोस भी हुआ की एक ओर जहां जमाने ने इतनी तरक्की कर ली वहीं दूसरी ओर आज भी यह लोग अभी तक भी इतनी कठिन परेशानियों का सामना कर रहे हैं। अभी तक भी वहां कोई अस्पताल नहीं है। बच्चों के लिये अच्छे स्कूल भी नहीं है। और औरतों को उसी तरह काम करना पड़ता है। पता नहीं हमारा विकास किसी गली में जाता है।  
इस रास्ते में आजकल कई पहाड़ी पानी के सोते फूट रखे थे। यह रास्ता आगे पफगूनियाखेत और रौखड़ गांवों को जाता है पर देर हो जाने के कारण हम थोड़ा आगे तक ही गये। वहां एक गांव की दुकान में हमने चाय पी। उस दुकान के सामने एक काला घोड़ा बंधा हुआ था जो ब्लेक ब्यूटी उपन्यास के घोड़े की याद दिला रहा था। हमने उसे एक बन खिलाया जिसे उसने बड़े प्यार से खा भी लिया। वहीं पर मुझे बहुत सारी चिड़िया देखने को मिली। वहां से हम लोग वापस लौट गये...

Thursday, November 18, 2010

नैनीताल का दूसरा फिल्म उत्सव

29 अक्टूबर 2010 को ‘युगमंच’ द्वारा आयोजित नैनीताल का दूसरा तीन दिवसीय फिल्म महोत्सव शुरू हुआ। इस बार का फिल्म उत्सव जनकवि गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ और सिने सितारे ‘निर्मल पाण्डे’ का समर्पित था। इस उत्सव के पहले दिन के सत्र की शुरूआत गिरदा के गीत ‘एक दिन ते आलो उ दिन यो दुनि में...’ गाने से हुई जिसे युगमंच के कलाकारों ने अपनी दमदार आवाज के साथ गा कर समारोह की शुरूआत की। इस गाने के बाद गिरदा के ही एक और गाने ‘हम लड़ते रया भुलां हम लड़ते रुलों...’ को महिला समाख्या की कार्यकर्ताओं द्वारा गाया गया। इस सत्र में चित्रकार बी. मोहन नेगी व प्रयाग जोशी को सम्मानित किया गया। इस सत्र में फिल्म कलाकार निर्मल पाण्डे और जनकवि गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’ पर आधारित 15-15 मिनट की दो फिल्में भी दिखायी गयी जिन्हें प्रदीप पाण्डे ने अपने मित्रों के साथ मिलकर निर्देशित किया था। इसके बाद इस फिल्म उत्सव पर आधारित पत्रिका का उद्घाटन किया गया।
 बी. मोहन नेगी


 बी. मोहन नेगी के पोस्टर 
फिल्म उत्सव में मेरे, शेखर और गिरीजा पाठक द्वारा गिर्दा और निर्मल पाण्डे पर बनाये कोलाज, बी मोहन नेगी द्वारा बनाये चित्रों की प्रदर्शनी व बी सी शर्मा द्वारा शमशेर बहादुर सिंह, फैज़, नागार्जुन और केदारनाथ की कविताओं को पोस्टर भी लगाये गये। 

 कोलाज: गिर्दा

कोलाज: निर्मल पाण्डे
 इस उत्सव की शुरूआत वसुधा जोशी निर्देशित डाॅक्यूमेंट्री ‘अल्मोड़ियाना’ से की गयी। यह डाॅक्यूमेंट्री अल्मोड़ा में दशहरे के दौरान बनाये जाने वाले रावण और दूसरे राक्षसों के पुतलों पर आधारित थी। इस दिन के सत्र की अंतिम फिल्म थी बेला नेगी निर्देशित ‘दांये या बांये’। यह फिल्म बागेश्वर के एक गांव पर आधारित है। इस फिल्म की पूरी शूटिंग इसी गांव में की गयी और यहीं के कलाकारों के साथ मिलकर बनायी गयी है।

अगले दिन की शुरूआत गिरीश तिवारी गिर्दा पर बनी आधे घंटे की डाॅक्यूमेंट्री फिल्म से हुई। इस सत्र की दूसरी फिल्म थी बेहमन गोबादी निर्देशित इराकी फिल्म ‘टर्टल्स केन फ्लाय’। इराकी पृष्ठ भूमि पर बनी यह फिल्म अमरीकी हमलों को झेल रहे इराकी गांव पर आधारित है। यह फिल्म पूरी तरह से बच्चों पर बनी है जो इन हमलों के दौरान घायल हो जाते हैं और एक सेटेलाइट डिश लगाने की कोशिश करते हैं ताकि हमलों के बारे में उन्हें पूरी खबरें मिलती रहें। इन बच्चों के लीडर का नाम भी ‘सैटेलाइट’ ही रख दिया जाता है। इस फिल्म में 14-15 वर्ष की एक लड़की है जिसके साथ एक छोटा बच्चा है जो युद्धों के दौरान उस पर हुए अत्याचार के कारण पैदा होता है और उसका एक भाई है जिसके हाथ नहीं है। बिना किसी युद्ध को दिखाये हुए भी यह फिल्म युद्धों की विभिषिका को पूरी संजीदगी के साथ दिखाती है। अपने दमदार निर्देशन और संजीदा अभिनय के साथ यह फिल्म प्रभावित भी करती है और इमोशनल भी करती है।

इसके बाद वसूधा जोशी की एक और डाॅक्यूमेंट्री ‘फाॅर माया’ दिखायी गयी। यह फिल्म तीनी पीढ़ियों की महिलाओं पर आधारित है। इसके बाद उड़ीसा के नियामगिरि में रहने वाले लोक गायक डोम्बू प्रोस्का द्वारा नियामगिरी के जंगलों पर आधारित एक गीत दिखाया गया। यह लोक गीत हिन्दी उपशीर्षकों के साथ था और निर्देशक सूर्य शंकर दास द्वारा इस बेहद प्रभावशाली ढंग से निर्देशित किया गया। इसके बाद अजय टी.जे. निर्देशित डाॅक्यूमेंट्री ‘अंधेरे से पहले’ दिखायी गयी। इस फिल्म द्वारा अजय यह दिखाने में सफल रहे कि किस तरह छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में गैर कानूनी तरीके से आदिवासियों की जमीनों में कब्जा कर उनको उनकी ही जमीन से किस तरह बेदखल किया जा रहा है। इस सत्र की अगली डाॅक्यूमेंट्री थी ‘फ्राॅम हिन्दू टू हिन्दुत्व’। यह फिल्म अगस्त-सितम्बर 2008 में कंधमाल में हुई जातीय हिंसा पर आधारित थी। इसी सत्र की अगली फिल्म अजय भारद्वाज निर्देशित डाॅक्यूमेंट्र ‘कित्ते मिल वे माही’ थी। यह डाॅक्यूमेंट्री पंजाब के दलितों पर आधारित थी। इस सत्र की अंतिम फिल्म थी परेश कामदार निर्देशित ‘खरगोश’। यह फिल्म प्रियंवद की कहानी ‘खरगोश’ पर आधारित है। यह फिल्म दस साल के बच्चे बंटू के इर्द-गिर्द रहती है। जिसकी पूरी दुनिया घर, स्कूल, मां के चूल्हे की रोटियां और कठपुतलियों के तमाशों के बीच ही सिमटी रहती है। इन सब के बीच बंटू का एक सबसे अच्छा दोस्त है उसका अवनीश भैया जिसके साथ वह बहुत मजा करता है और उनकी प्रेम कहानियों का हिस्सेदार भी है और उनके प्रेम संदेश लाने-ले जाने का काम भी करता है पर बंटू के मन में कहीं न कहीं अवनीश के प्रति एक प्रतिद्वंदिता का भाव भी भरने लगता है। यह फिल्म बालमन में पड़ने वाले प्रभावों को दिखाने में सफल रहती है।

अगले दिन की शुरूआत अनिल कुमार निर्देशित नाटक ‘अकल बड़ी या शेर’ से हुई। नाटक में एक शेर पिंजड़े में बंद हो जाता है और वो जंगल के सभी जानवरों से प्रार्थना करता है कि वो उन्हें बाहर निकाले पर कोई भी जानवर उसे बाहर नहीं निकालता। तभी एक लालची ब्राह्मण शेर के पास रखे एक सोने के कड़े के लालच में उसे बाहर निकाल देता है और बाहर निकल कर शेर ब्राह्मण को ही खाने को तैयार हो जाता है पर खरगोश अपनी चतुराई से शेर को फिर से पिंजड़े में बंद कर देता है। यह नाटक बहुत बेहतरीन ढंग से निर्देशित किया गया और बीच-बीच में इस्तेमाल किये गये सटायर आज के दौर में बढ़ रही महंगाई, घोटालों और देश की दुर्दशा को मजाक मजाक में भी संजीदगी के साथ प्रस्तुत करते हैं। इस नाटक ने दर्शकों का और खास तौर पर बच्चों का अच्छा मनोरंजन किया।
नाटक: अकल बड़ी या शेर
इस सत्र की दूसरी फिल्म थी ‘छुटकन की महाभारत’। यह फिल्म छुटकन के इर्द-गिर्द घूमती है और वो जो सपने में देखता है वो हकीकत में भी सच होने लगता है। उसके गांव में एक बार नौटंकी वाले आते हैं जो महाभारत की कथा को दिखाते हैं। छुटकन अपने सपने में देखता है कि युधिष्ठर के खिलाफ चैसर जीतने के बाद शकुनि मामा और दुर्योधन का दिल परिवर्तित हो जाता है और वो अपना अपराध मान लेते हैं और राज्य पर अपना दावा छोड़ देते हैं और कथा शुरू होने से पहले ही खत्म हो जाती है। पर इससे भी ज्यादा हास्यास्पद यह होता है कि नाटक के कलाकार उसी तरह व्यवहार करने लगते हैं जैसा छुटकन अपने सपने में देखता है साथ ही वो गांव के लोगों के बारे में भी जो सपना देखता है वही सच होने लगता है। इस कारण गांव के लोग मानने लगते हैं कि उस पर को पैशाचिक शक्ति आ गयी है जो उससे यह सब करवा रही है। वो लोग उसमें से भूत भगाने के लिये ओझा को बुलवाते हैं जो उसे बहुत परेशान करता है। इसी बीच छुटकन सो जाता है और उसके सपने में सचमुच की महाभारत के पात्र आ जाते हैं जो सब कुछ सही कर के वापस चले जाते हैं। यह फिल्म भी अपना प्रभाव छोड़ने में सफल रही।

इस सत्र की अगली डाॅक्यूमेंट्री थी वसुधा जोशी निर्देशित डाॅक्यूमेंट्री ‘वायसेसे फ्राॅम बलियापाल’। जब उड़ीसा के बलियापाल को मिसाइल परीक्षण के लिये चुना गया तो वहां के लोगों ने जो आंदोलन शुरू किया यह डाॅक्यूमेंट्री उसी पर आधारित थी। इस फिल्म की अगली डाॅक्यूमेंट्री थी वसुधा श्रीनिवास निर्देशित डाॅक्यूमेंट्री ‘आई वंडर’। यह फिल्म राजस्थान, सिक्किम और तमिलनाडू के ग्रामीण बच्चों की स्कूली शिक्षा पर आधारित थी। इसमें यह दिखाने की कोशिश की गयी थी कि बच्चों के लिये स्कूल का मतलब क्या है ? या स्कूल में बच्चे क्या सीखते हैं इसके साथ ही बच्चों के अनुभवों को उनके सपनों को भी इस फिल्म में दिखाया गया।

इस सत्र की अंतिम डाॅक्यूमेंट्री थी संजय काक निर्देशित ‘जश्न-ए-आजादी’। इस फिल्म ने कश्मीर के लोगों के बारे में दिखाया है कि आखिर वो क्या चाहते हैं। उनके लिया आजादी के क्या मायने हैं। निर्देशक ने इसमें अपनी तरफ से कुछ भी नहीं किया है उन्होंने सिर्फ उन्हीं बातों को सबके सामने रखा है जो वहां के लोग चाहते हैं। उनके लिये आजादी के जो मायने हैं उससे निर्देशक ने सबको रु-ब-रु करवा है। यह फिल्म बहुत प्रभावित करती है और कश्मीर जैसे संजीदा मुद्दे की कई परतों को खोल कर सामने रखने में सफल रही है।

इस फिल्म के साथ ही इस वर्ष का नैनीताल का दूसरा फिल्म उत्सव समाप्त हो गया।

Thursday, November 4, 2010

एक छोटी सी ट्रेकिंग

17 अक्टूबर 2010 को मुझे अचानक ही नैनीताल के नज़दीकी गांव गेठिया जाने का मौका मिला। मेरे आफिस में काम करने वाले एक साथी के घर का गृह प्रवेश था और उसने अपने घर बुलाया था। नैनीताल से कैंट एरिया तक हम लोग गाड़ी से गये और फिर वहां से नये बने रास्ते से गेठिया की ओर कट गये। यह रास्ता बेहद खतरनाक है। बिल्कुल 90 डिग्री में बना हुआ पर गाड़िया इस रास्ते में ध्ड़ल्ले से चलती हैं। इस रास्ते पर आगे बढ़ने पर बारिश से हुई तबाही के निशान भी दिखते जा रहे थे। जब हम हल्द्वानी जाने वाली रोड में पहुंचे तो वहां पर पहचान के एक सज्जन खड़े थे जिनके साथ हमें अपने साथी के घर तक जाना था। जहां हमने गाड़ी रोकी वहां भी सड़क नीचे को धंसी हुई थी। इस बार की बरसात में जमीन अंदर से ही कुछ इस तरह हिली कि जैसे किसी ने जमीन को अंदर से ही चीर दिया हो।

खैर यहां से हम लोग पैदल ही एक खड़ंजे जैसे रास्ते पर नीचे की ओर चल दिये। पहले से खड़ंजे मिट्टी पत्थर के होते थे जिनमें पानी के कटने के लिये रास्ते बनाये जाते थे पर अब खड़ंजे सीमेंट बना दिये जाते हैं जिनमें पानी के कटने के लिये कोई जगह नहीं है। यही कारण है कि थोड़ी सी बारिश में भी भीषण तबाही हो जाती है। खैर इस रास्ते में अच्छी खासी हरियाली छायी हुई थी और रास्ते के इधर-उधर छोटे-छोटे मकान थे। मकान छोटे जरूर थे पर सब लेंटर वाली छत के मकान थे जिनका पहाड़ों में बनाये जाने का कोई तुक नहीं होता है। खैर हम लोग आगे बढ़ ही रहे थे कि मेरे एक साथी की नज़र बेल में लगी एक ककड़ी पर पड़ी और मुझसे बोले - यार ! बेल में बड़ी अच्छी ककड़ी लगी है। अगर मैं बच्चा होता तो पक्का इसे चोर के ले आता। मैंने भी कह दिया कि - चलो ! बचपन को याद कर ही लेते हैं और अगर दूसरी जगह कहीं ककड़ी मिले तो हाथ साफ कर ही लेंगे पर बदकिस्मती से दूसरी जगह ककड़ी मिली नहीं।



इसी रास्ते में एक पुराना सा मकान था जो पूरी तरह खंडहर हो चुका था। सर ने बताया कि - ये नीम करौली बाबा का मकान है। वो पहले यहीं आये थे और फिर यहां से कैंची धाम चले गये थे।

हम लोग आगे को बढ़ ही रहे थे कि दो रास्ते कट गये। एक रास्ता पुनी गांव को गया और दूसरा कुरियागांव को। हमें कुरियागांव को जाना था इसलिये हमने अपना रास्ता बदला और दूसरे रास्ते पर आ गये। इस रास्ते पर थोड़ा आगे पहुंचते  ही काफी बड़े और फैले हुए खेत नज़र आये जिन्हें देखकर तबीयत खुश हो गयी। ये बड़े-बड़े खेत इस छोटे से पहाड़ी इलाके में अचानक ही अपनी ओर ध्यान खींच रहे थे। मैंने कहा - कितने अच्छे खेत हैं। यहां इन खेतों के पास कितना अच्छा लग रहा है। मेरी बात से सभी सहमत थे। यहां से कुछ ही देर बाद ही हम लोग अपने दोस्त के घर पहुंच गये।


उसके घर में काफी चहल-पहल थी। हम लोगों के जाते ही वो पीने के लिये स्रोत का पानी लेकर आया। थोड़ी देर उससे उसके गांव के बारे में बात की तो उसने बताया - यहां पानी की बहुत परेशानी है। मुश्किल से पीने के लिये ही पानी मिल पाता है। सिंचाई करने के लिये पानी नहीं होने के कारण खेती सिर्फ बरसात के महीने में ही होती है। हालांकि मैंने वाॅटर हारवेस्टिंग के लिये कहा पर सबका नजरिया उदासीन ही रहा। खैर चाय पीने के बाद हम लोग खाने के लिये पंगत में बैठ गये। खाना वाकय अच्छा था। घर के कुटे चावल और सेम की दाल। मेरा पसंदीदा खाना। हमने देखा कि लगभग हर मकान का बरामदा थोड़ा-थोड़ा नीचे की तरफ धंसा हुआ था इसलिये खाने के बाद हमने गांव वालों से जानना चाहा कि जमीन नीचे की ओर खिसकी हुई क्यों दिख रही है ? उन्होंने बताया - नीचे जो नाला बहता है वो लगातार मिट्टी को काट रहा है जिस कारण जमीन बैठती जा रही है।

हमारा साथी हमें अपना पुराना मकान दिखाने ले गया जो लगभग 100 से ज्यादा साल ही पुराना था। जिसे शहरी भाषा में हैरिटेज बिल्डिंग भी कहा जा सकता था। यह असली पहाड़ी मकान का नमूना था और शायद यही कारण भी था कि इतने सालों से टिका हुआ था। वहां से वापस लौटते हुए हम अपने एक और साथी के घर भी गये। उसके घर का बरामदा भी ध्ंासा हुआ था। हम जैसे ही उसकी मां से मिले उन्होंने कहा - सिंचाई नहीं हो पाती इसलिये खेती भी नहीं हो पाती है। बरसात में तो पानी हो जाता है पर गर्मियों में तो सिंचाई के लिये सबकी बारी लगती है। हम लोगों ने नालों में पाइप डाले हुए हैं पर वहां से पानी ऊपर खिंचने में बहुत परेशानी होती है। उन्होंने हमसे थोड़ी सब्जी ले जाने का अनुरोध भी किया जिसे हम उस समय मान नहीं पाये। उसके घर से वापस लौटते हुए हमने देखा कि रास्ते में कई जगह दरारें पड़ी थी और जमीन भी टेढ़ हुई थी जो इसी बरसात कि निशानी थीं। रास्ते में एक पहचान के सज्जन का घर भी था सो हम उनके घर भी चले गये। उनके मकान का बरामदा भी धंसा हुआ था। कुछ देर उनके साथ बैठने के बाद हम सड़क कि ओर वापस लौट लिये जहां हमारी गाड़ी खड़ी थी। नैनीताल को ऊपर से ही देखने में यह बात महसूस नहीं की जा सकती है कि नैनीताल से थोड़ी दूरी में ही इतने सुन्दर गांव बसे हुए हैं।

हम जिस रास्ते से आये थे और जिस रास्ते से अब वापस जाने वाले थे उस रास्ते में लिखा था - यह पैदल मार्ग है। पर उसमें गाड़िया खुलेआम चलती ही हैं। कुछ देर बाद एक अच्छा दिन बिता के हम भी उसी सड़क से वापस नैनीताल आ गये...