Monday, August 23, 2010

उत्तराखंड की तीर्थ यात्राओं में पड़ने वाला मुख्य पड़ाव है रुद्रप्रयाग





रुद्रप्रयाग उत्तराखंड की बद्ररीनाथ और केदारनाथ तीर्थ यात्राओं में पड़ने वाला मुख्य पड़ाव है। यह समुद्र तल से 610 मी. की उंचाई पर बसा हुआ है। भगवान रुद्रनाथ का मंदिर यहीं अलकनन्दा व मंदाकिनी के संगम में स्थित है। इसके अलावा शिव और शक्ति की संगम स्थली भगवती का मंदिर भी इस स्थान पर ही है।


महाभारत में इस स्थान को रुद्रावत नाम से जाना गया है। केदारखंड में इस स्थान के बारे में लिखा गया है कि - नारदमुनि ने एक पैर में खड़े होकर यहां शिव की तपस्या की थी। उसके बाद शिव ने उन्हें अपने रौद्र रूप के दर्शन दिये थे। शेषनाग के आराध्य देव शिव के इस स्थान पर अनेकों मंदिर हैं। ऐसा माना जाता है कि नागों ने इसी स्थान पर शिव की आराधना की थी और उनसे वरदान मांगा था कि शिव उन्हें अपना आभूषण बनायें।


संगम के लिये रुद्रप्रयाग स्टेशन से कुछ दूरी पर एक पैदल मार्ग जाता है। इस संगम स्थान पर श्रृद्धालु स्थान करते हैं और भगवान रूद्र के दर्शन करते हैं तथा शिवलिंग पर जल चढ़ाते हैं। यहां शिवलिंग के अलावा गणेश व पार्वती की मूर्तियां भी हैं।


रूद्रप्रयाग में एक संस्कृत महाविद्यालय भी है जिसे स्वामी सिच्चदानन्द जी ने बनवाया था। रुद्रप्रयाग के निकट ही एक स्थान है गुलाबराय। यह वह स्थान है जहां जिम कॉबेZट ने एक खतरनाक नरभक्षी बाघ को मारा था। जिसका उस समय इस इलाके में बहुत ही आतंक था। जिम कॉबेZट ने अपनी पुस्तक `मैन इटिंग लैपर्ड ऑफ रुद्रप्रयाग´ इसी बाघ के उपर लिखी थी।


रुद्रप्रयाग से 4 किमी. आगे कोटेश्वर महादेव का मंदिर पड़ता है। जिसके दर्शन का विशेष महत्व माना जाता है। यह मंदिर 20 फीट लम्बी गुफा में है जिसमें पानी प्राकृतिक रूप से टपकता रहता है। इस स्थान में सावन के प्रत्येक सोमवार और शिवरात्री के दिन मेले लगते हैं। इस स्थान से कुछ दूरी पर उमानारायण का मंदिर भी है।

Friday, August 13, 2010

महात्मा गांधी ने दिया था खुमाड़ गांव को `कुमाऊँ की बारादोली´ का नाम

देश को स्वतंत्र कराने के लिये जहां पूरे देश ने अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया वहीं कुमाऊं में अल्मोड़ा जिले के समीपवर्ती गांव खुमाड़ के लोगों की भी इस आंदोलन में महत्वपूर्ण भागीदारी रही है। 5 सितम्बर 1942 को खुमाड़ में स्वतंत्रता सेनानियों की भीड़ में, उस समय के एस.डी.एम. जॉनसन ने अंधाधुंध गोली चलाकर चार लोगों को मार दिया और कई लोगों को घायल कर दिया। इस हादसे के बाद महात्मा गांधी जी ने स्वयं खुमाड़ को `कुमाऊँ की बारादोली´ का नाम दिया।

गांधी जी के नेतृत्व में जहां भी जो भी आंदोलन हुए खुमाड़ के लोग कभी भी इन आंदोलनों से दूर नहीं रहे। चाहे वह सविनय अवज्ञा आंदोलन, नमक सत्याग्रह आंदोलन, कुली-बेगार आंदोलन, विदेशी बहिष्कार तथा अंग्रेजों भारत छोड़ों आंदोलन हों या फिर कोई और आंदोलन। खुमाड़ के लोगों ने हमेशा ही तन, मन धन से इन आंदोलनों में भरपूर भागीदारी की।



खुमाड़ में आजादी का बिगुल 1920 के दशक में युवा क्रांतिकारी पुरूषोत्तम उपाध्याय ने बजा दिया था। 1922 में जब गांधी जी को गिरफ्तार किया गया तो इन्होंने यहां के लोगों को एकजुट कर इस गिरफ्तारी का जबरदस्त प्रतिकार किया। सन् 1930 में जब इस इलाके में आजादी के लिये लोगों का जज्बा अपनी चरम सीमा पर था तब अंग्रेजों ने इस जज्बे को दबाने के लिये यहां के लोगों की सम्पत्ति कुर्क कर दी, फसलें उजाड़ दी और आंदोलनकारियों की जम कर पिटाई की। अप्रेल 1930 में ही नमक सत्याग्रह आंदोलन के दौरान लोगों द्वारा चमकना, उभरा तथा हटुली में नमक बनाया गया। इस दौरान माल गुजारों ने भी सामुहिक इस्तीफा दे दिया जिससे अंग्रेज और ज्यादा भड़क गये। 1 सितम्बर 1942 को जब आंदोलनकारियों ने स्वतंत्रता आंदोलन को और भी तेज करने की सोची तो अंग्रेजों से ये बरदास्त न हुआ और 5 सितम्बर 1942 को जॉनसन खुमाड़ पहुंच गया।

खुमाड़ सभा में पहुंचने पर गोविन्द ध्यानी ने जॉनसन का रास्ता रोकने की कोशिश की तो जॉनसन ने गोलियां चलानी शुरू कर दी। जब क्रान्तिकारी नैनमणि ने उसका हाथ पकड़ लिया तो जॉनसन ने गोलियां चलाने के आदेश दे दिये। इस गोलाबारी में गंगा राम, खीमानन्द, चूणमणि एवं बहादुर सिंह मेहरा शहीद हो गये जबकि गंगा दत्त शास्त्री, मधूसूदन, गोपाल सिंह, बचे सिंह, नारायण सिंह समेत कई अन्य क्रान्तिकारी घायल हो गये।

इस घटना से महात्मा गांधी बेहद दु:खी हुए और उन्होंने खुमाड़ को `कुमाऊँ की बारादोली´ का नाम दिया। और खुमाड़ को लोगों से अहिंस आंदोलन जारी रखने को कहा। इन शहीदों की याद में खुमाड़ में आज भी 5 सितम्बर को शहीद स्मृति दिवस मनाया जाता है।

Monday, August 9, 2010

पवित्र तीर्थस्थल है यमुनोत्तरी


जिस स्थान से यमुना नीचे आती है उस स्थान को यमुनोत्तरी कहा जाता है। यमुना का उद्गम कालिंदी पर्वत से माना जाता है। इसीलिये यमुना को कालिंदी नाम से भी जाना जाता है। केदारखंड के अनुसार माना जाता है कि - सूर्य की दो पत्नियां थी संज्ञा और छाया। संज्ञा ने गंगा को जन्म दिया तथा छाया ने यमुना व यमराज को। कहा जाता है कि छाया ने यमराज का तिरस्कार कर दिया था जिस कारण उन्हें पृथ्वी पर आना पड़ा। परन्तु सूर्य ने यमुना को भी पृथ्वी का उद्धार करने के लिये ही धरती पर भेजा। यमुनोत्तरी के विशाखयूप पर्वत पर पांडवों ने एक वर्ष बिताया था।

यमुनोत्तरी मंदिर यमुना के बांये तट पर स्थित है। इस मंदिर के कपाट वैशाख महीने कह शुक्ल पक्ष की अक्षय तृतीया को खुलते हैं और कार्तिक मास में आने वाली यम की द्वितीया को यह कपाट बंद हो जाता है। यमुनात्तरी के लकड़ी के मंदिर को 1885ई. में गढ़वाल के राजा सुदर्शनशाह ने बनवाया था और उसमें यमुना की मूर्ति की स्थापना करवाई। इस समय जो मंदिर यहां पर है इसे प्रतापशाह ने बनवाया था। इस मंदिर को सन् 1999 में एक बार फिर ठीक किया गया। मंदिर के गर्भ में एक सिंहासन है जिसमें काले रंग की यमुना व सफेद गंगा व सरस्वती की मूर्तियां रखी हैं। यमुनोत्तरी में पूजा करने वाले ब्राहम्ण ग्रहस्थ हैं और इन ब्राहम्णों को पूजा करने का अवसर बारी-बारी से मिलता है। ये ब्राहम्ण पीढ़ियों से मंदिर की पूजा करते आ रहे हैं।



इस मंदिर के पास एक गरम पानी का कुंड है जिसे सूर्यकुंड कहा जाता है। केदारखंड में इसे ब्रह्मकुंड नाम से भी जाना जाता है। इस कुड के पानी का तापमान 90 डिग्री सेल्सीयस के आसपास रहता है। इस कुंड में यात्री आलू, चावल को पोटली बनाकर डाल कर पकाते हैं और उसे ही प्रसाद माना जाता है। इस स्थान से कुछ दूरी पर एक कुंड और है जिसका नाम गौरीकुंड है। इसका पानी सूर्यकुंड से थोड़ा ठंडा है। इसमें यमुना का ठंडा पानी मिलता है जिस कारण इसके चारों ओर हर समय भाप का घेरा बना रहता है।

Tuesday, August 3, 2010

अपने मंदिरों के लिये विश्व प्रसिद्ध है जागेश्वर धाम

अल्मोड़ा से 34 किमी. दूर स्थित जागेश्वर धाम है जो अपने मंदिरों के लिये विश्व प्रसिद्ध है। जागेश्वर में जो मंदिर हैं ये 8वीं से 12 वीं शताब्दी के बीच बने हुए हैं। जागेश्वर के मंदिर अपने वास्तुकला के लिये बेहद प्रसिद्ध हैं। इन मंदिरों का निर्माण चन्द और कत्यूर वंश के राजाओं के द्वारा किया गया है। जागेश्वर धाम 124 मंदिरों का समूह है जिसमें हर आकार के मंदिर हैं। कुछ बहुत बड़े तो कुछ बहुत छोटे।

जागेश्वर में बेहद कई देवी-देवताओं की बेहद आकर्षक मूर्तियां हैं। शिव-पार्वती और विष्णु भगवान की मूर्तियां विशेष रूप से आकर्षक हैं। महामृत्युंजय और जागेश्वर भगवान के मंदिर सबसे प्राचीन मंदिर माने जाते हैं। जागेश्वर धाम से से पहले दंडेश्वर मंदिर पड़ता है। यहां पर काफी विशाल मंदिर हैं। इन मंदिरों की उंचाई लगभग 100 फुट तक है। इन मंदिरों के उपरी भाग में छत जैसी बनी हुई हैं जिनमें कलश रखे गये हैं।


महामृत्युंजय मंदिर में धातु का तांत्रिक यंत्र भी है। जागेश्वर धाम को भारत के 12 ज्योर्तिलिंगों में से एक माना जाता है। इन मंदिरों में पुष्टिदेवी, नवग्रह, सूर्य भगवान आदि देवी-देवताओं की मूर्तियां भी हैं। मंदिरों की बाहरी दिवारों में कुछ शिलालेख भी लिखे हैं पर इन्हें अभी तक भी पढ़ा नहीं जा सका है।

सावन के माह में यहां पर शिवजी की विशेष पूजा पार्थी पूजा कराने के लिये दूर-दूर से लोग आते हैं। पूरा माह शिव की पूजा की जाती है। इस दौरान एक छोटा सा बाजार भी मंदिर के बाहर लगाया जाता है।


जागेश्वर मंदिरों से लगा हुआ एक शमशान घाट भी है। यहां के लोगों का मानना है कि इसमें दाह संस्कार करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।

इन्हीं मंदिरों से थोड़ी दूरी पर एक पुरात्व विभाग द्वारा संग्रहालय बनाया गया है जिसमें कई प्राचीन मूर्तियों का संरक्षण किया गया है।