Thursday, July 29, 2010

नैनीताल की बारिश

आजकल मेरा कैमरा खराब हो गया है इसलिये अपना शौक मोबाइल से पूरा कर रही हूं और उसकी के चलते बारिश के कुछ चित्र ले लिये...

बारिश का मौसम है छाते ले लो छाते


 
बारिश में कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है


 
बारिश में झील को देखना


 
बारिश में झील को देखना


 
बारिश में भी घर तो जाना ही है


 
अकेले अकेले बारिश का मजा


Monday, July 26, 2010

अहम स्थान रहा है उत्तराखंड की लोक संस्कृति में शकुनाखरों का


उत्तराखंड की लोक संस्कृति में संगीत का एक अहम स्थान रहा है। यहां के लोक गीत, लोक गाथायें, वाद्य, नृत्य इत्यादि यहां के जीवन का अभिन्न अंग हैं। इन लोक गीत को जब यहां के परम्परागत वाद्यों हुड़का, बादी, औजी, मिरासी, डौर-थाली आदि के तान के साथ जब गाया जाता है तो अद्भुद समां बंध जाता है। यह लोकगीत जीवन के हर पहलू से जुड़े हुए हैं इसी आधार पर इनको कुछ भागों में विभाजित किया जा सकता है जैसे - संस्कार गीत, धार्मिक गीत, ऋतु गीत इत्यादि।



इन्हीं में से एक हैं संस्कार गीत। संस्कार गीतों में प्रमुख हैं शकुनाखर। इन गीतों को प्रत्येक शुभ कार्य जैसे - विवाह, जन्मोत्सवों, जनेउ तथा अन्य प्रकार के सभी शुभ कार्यों से पहले गाया जाता है। शकुनाखर का तात्पर्य होता है 'शगुन के अक्षर'। इन्हें गाने वाली ज्यादातर महिलायें ही होती हैं। इन शकुनाखरों में से कुछ इस प्रकार हैं


शकुना दे शकुना दे काज ए अति नीको


सो, रंगीलो, आंचलो कमलो का फूल


सोई फूल मोलावन्त व


गणेश, रामीचन्द्र, लछीमन, जीवा जनम


आधा अमरू होय।


सोई पाटो पैरी रैणा, सिद्धि बुद्धि सीता देवी


बहुराणी, आयुवन्ती पुत्रवंती होय।


अर्थात : शकुन के अक्षरों से शुभ कार्य की शुरूआत हो, इस रंगीले कपड़े के आंचल में कमल का फूल है, जिसके फलस्वरूप गणेश, राम, लक्ष्मण आदिअमरता की प्रतीक हैं। वही पट नई दुल्हन तुमने भी धारण किया है अत: तुम सीता की तरह सिद्धि बुद्धि आयुष्मती एवं पुत्रवती होओ।

इसी प्रकार जब प्राकृतिक शक्तियों की पूजा की जाती है तो उससे पहले मांगल गीत गाये जाते हैं जैसे -


जो जस देने कुर्म देवता, जो जस देने धरती माता।


जो जस देने खोली का गणेश, जो जस देने मोरी को नारैण


जो जस देने भूमि को भुग्याल, जो जस देने पंचनाम देवता


जो जस देने पितर देवता


तुमारी भाती मा यो कारिज वीर्यो, यो कारिज सुफल फल्यान


अर्थात : हे कुर्म देवता, धरती माता, गणेश देवता, नारायण देव, भूमि के दवेता, भुग्याल एवं पंचदेव, हे सभी पितृदेव, यह कार्य आपको ही समर्पित है आप ही इस कार्य को सफल करें।


इसी प्रकार अग्नि एवं गणपति के लिये भी गीत गाये जाते हैं।


यह गीत यहां की जीवनधारा में रचे बसे हुए हैं जिन्हें आज भी इनके मूल रूप में ही गाया जाता है।








Monday, July 19, 2010

कुमाऊँ का मुख्य पर्यटन स्थल है बैजनाथ

बैजनाथ अल्मोड़ा से 41 मील दूर स्थित है। इसको प्राचीन समय में वैद्यनाथ के नाम से भी जाना जाता है। वैजनाथ को कत्यूरी राजवंश के लोगों ने बसाया था। बैजनाथ के पास में ही सरयू नदी बहती है।



बैजनाथ के मुख्य मंदिर के पास ही केदारनाथ का मंदिर स्थित है। इस मंदिर में शिव की मूर्ति के साथ-साथ गणेश, ब्रह्मा, महिषमर्दिनी की मूर्तियां रखी हुई हैं। इस मुख्य मंदिर के चारों ओर 15 छोटे-छोटे मंदिरों का समूह है। यह मंदिर उत्तरीय शिखर शैली से बनाये गये हैं।


बैजनाथ के मुख्य मंदिर से कुछ दूरी पर सत्यनारायण, रकस देव तथा लक्ष्मी के मंदिर स्थित हैं। सत्यनारायण मंदिर की चर्तुभुजी विष्णु प्रतिमा खासी दर्शनीय है। इस मूर्ति को काले पॉलिशदार पत्थर से बनाया गया है। यह मूर्ति बहुत विशाल है।

बैजनाथ की कई मूर्तियों को अब केन्द्रीय पुरातन विभाग ने अपने पास संरक्षित कर लिया है। इन संरक्षित मूर्तियों में शिव-पार्वती की मूर्ति तथा ललितासन में बैठे कुबेर की मूर्ति हैं। इनके अतिरिक्त सप्तमातृका, सूर्य, विष्णु, माहेश्वरी, हरिहर, महिषमर्दिनी आदि की मूर्तियां हैं।



Thursday, July 15, 2010

कुमाऊँ का एक मुख्य पर्यटन स्थल है बागेश्वर


बागेश्वर कुमाऊँ का एक मुख्य पर्यटन स्थल है। यह नीलेश्वर और भीलेश्वर पर्वत श्रृंखलाओं के बीच सरयू, गोमती व विलुप्त सरस्वती नदी के संगम पर बसा है। पुराने समय से ही बागेश्वर को व्यापारिक मंडी के रूप में जाना जाता है। बागेश्वर में प्रतिवर्ष के बागनाथ मंदिर में ही प्रतिवर्ष विश्वप्रसिद्ध उत्तरायणी मेला भी लगता है।

प्राचीन समय में दारमा, व्यास, मुनस्यारी के निवासी भोटियों और साथ ही मैदान के व्यापारी भी इस मेले में आते थे। भेटिया जाति के लोग ऊन से बने वस्त्रों और जड़ी-बूटियों को बेचते थे और उसके बदले में अनाज व नमक इत्यादि जरूरत का सामान यहां से ले जाया करते थे। इसी कारण वर्तमान में नुमाइश मैदान कहे जाने वाले स्थान को पहले दारमा पड़ाव व स्वास्थ्य केन्द्र वाले स्थान को भोटिया पड़ाव कहा जाता था।

बागेश्वर के संगम पर हमेशा ही स्नान पर्व चलते रहता है। अयोध्या में बहने वाली सरयू और बागेश्वर की सरयू नदी एक ही मानी जाती है। सरमूल से निकलकर बागेश्वर से बहते हुए पिथौरागढ़ तक इसे सरयू उसके आगे टनकपुर तक इसे रामगंगा तथा टनकपुर से आगे इसे शारदा नाम से जाना जाता है। तथा अयोध्या में इसे पुन: सरयू नाम से पुकारा जाता है।

बागेश्वर का जिग्र स्कन्द पुराण के मानस खंड में भी किया गया है। इसके अनुसार बागेश्वर की उत्पत्ति आठवीं सदी के आस-पास की मानी जाती है। और यहां के बागनाथ मंदिर की स्थापना को तेरहवीं शताब्दी का बताया जाता है।


1955 तक बागेश्वर ग्राम सभा में आता था। 1955 में इसे टाउन ऐरिया माना गया। सन् 62 में इसे नोटिफाइड ऐरिया व 1968 में नगरपालिका के रूप में पहचान मिली। 1997 में इसे जनपद बना दिया गया।

स्वतंत्रता संग्राम में भी बागेश्वर का महत्वपूर्ण स्थान है। कुली बेगार आंदोलन की शुरुआत बागेश्वर से ही हुई थी। बागेश्वर अपने विभिन्न ग्लेशियरों के लिये भी विश्व में अलग स्थान रखता है। इन ग्लेशियरों के नाम है - सुंदरढु्रगा, कफनी और पिण्डारी ग्लेशियर