Monday, September 28, 2009

ऐतिहासिक है नैनीताल की नगरपालिका


नगरपालिका नैनीताल
नैनीताल की म्यूनिसिपल बोर्ड का गठन सन् 1845 में हुआ। नैनीताल की नगरपालिका देश की दूसरी नगरपालिका है। उस समय यदि कोई अपने क्षेत्र में म्यूनिसिपल बोर्ड बनवाना चाहता था तो उन्हें गर्वनर के पास प्रस्ताव भेजना होता था कि उनके क्षेत्र में भी 1842 के एक्ट x को शुरू किया जाये। इस प्रस्ताव के लिये दो तिहाई मकान मालिकों की रजामन्दी अनिवार्य थी। नैनीताल में 8 मई 1845 को दो तिहाई मकान मालिकों द्वारा यह प्रस्ताव गर्वनर के पास भेजा गया जिसे गर्वनर ने स्वीकार कर लिया और 7 जून 1845 को नगरपालिका नैनीताल का गठन हुआ।

गठन के बाद इस पालिका कमेटी में मेजर ज. डब्ल्यू रिचर्ड, जी.सी. ल्यूसिंगटन, मेजर एमोड, कैप्टन वॉग और पी बैरन थे। कमेटी में मत देने के अधिकार भी इस प्रकार थे जो एक मकान का कर देता हो वो 1, जो 4 मकानों के कर देता हो उसे 2, और 8 मकानों के कर देने वाले को 3 और ज्यादा से ज्यादा 4 मत देने का अधिकार था।

इस नगरपालिका के कार्य थे सड़कें बनावाना, सफाई व्यवस्था करना, कुली की व्यवस्था करना, भवन निर्माण आदि कार्यों को सुनियोजित करना, कर निर्धारित करना, आय-व्यय का हिसाब रखना आदि। कुल मिलकार वह सारे काम जो एक शहर की मजबूत नींव रख सकें।

शहर की पहली पुलिस व्यवस्था भी नगरपालिका द्वारा 1847 में की गई थी जिसमें 6 पुलिसकर्मी थे। सन् 1890 में स्वास्थ्य सेवाओं को अच्छा करने के लिये रैमजे अस्पताल बनवाया गया और उसके बाद मल्लीताल में क्रोस्थवेट अस्पताल जिसे अब बी.डी. पाण्डे चिकित्सालय कहा जाता है का निर्माण करवाया। स्वास्थ्य संबंधी सेवाओं में मुख्य रूप से ध्यान दिया गया और इसके चलते दूध बेचने वालों के लिये लाइसेंस जारी किये गये। मिलावटी या गंदा दूध मिलने पर उसे ज़ब्त किया जाने लगा साथ ही खाद्य पदार्थों में किसी भी तरह की गंदगी या मिलावट पाये जाने पर उसे नष्ट करने के साथ-साथ दुकानदार पर कढ़ी कार्यवाही भी की जाने लगी।

इस पालिका के अंतिम अंग्रेज अध्यक्ष आर.सी. ब्रुशर रहे। स्वतंत्रता के बाद पालिका के प्रथम भारतीय अध्यक्ष राय बहादुर जशौद सिंह बिष्ट रहे। इन्होंने 13 अक्टूबर 1949 से 30 नवम्बर 1953 तक कार्य किया। इनके बाद भी कई अध्यक्ष और रहे जिन्होंने शहर के विकास के लिये काम किया।

सन् 1977 में प्रदेश की सभी पालिकायें भंग कर दी गई थी इस अवधि में जिलाधिकारी ही पालिका के कार्य को देखते थे। 11 वषो बाद फिर पालिकाओं का गठन किया गया पर अब पालिका को वो स्वरूप नहीं बचा है जो पहले था।

Tuesday, September 22, 2009

नैनीताल के आस-पास पाये जाने वाले परिंदों की तस्वीरें

अपने आस-पास ही अगर देखें तो बहुत से ऐसे पक्षी हैं जिन्हें हम रोजाना देखते हैं। चाहे वह घरेलू चिड़िया गौरेया, कौवा, कबूतर या फिर सिटोला (जंगली मैना) और बुलबुल ही क्यों न हो। यह पक्षी अपने अंदर एक अद्भुद दुनियाँ लिये होते हैं।

पक्षी अपने लिये अलग-अलग तरह के कलात्मक घोंसले बनाते हैं। जैसे वीवर बर्ड बहुत ही सुन्दरता के साथ घास को बुन कर घोंसला बनाती है तो वॉटर रैड स्टार्ट काई और मॉस से कीप के आकार का घोंसला तैयार करती है। मैगपाई लकड़ी के टुकड़ों से अपना घोंसला पेड़ों के ऊपर बनाती है तो ग्रे हुडेड बुश वैब्लर घास को मोड़ कर बहुत ही आकर्षक घोंसला बनाती हैं और बार्न स्वैलो अपने बीट और गीली मिट्टी को मिला कर बहुत कलात्मक घोंसला तैयार करती है।

अभी तक संसार में 8,600 पक्षियों की जातियों का पता चला है। यदि इन जातियों को उपजातियों में विभाजित किया जाय तो संख्या लगभग 30 हजार तक पहुँच जायेगी। जिसमें अकेले हिन्दुस्तान में ही लगभग 1500 जातियां मिलती हैं। हिन्दुस्तान में प्रत्येक स्थान पर अगल-अलग तरह का मौसम और भौगोलिक परिस्थितियाँ होने के कारण इतने पक्षी मिल जाते हैं। अगर बात की जाये हिमालय की तो इसे पक्षियों की जन्नत कहना ही ठीक होगा क्योंकि भारत में सबसे ज्यादा पक्षी हिमालय में मिलते हैं। इसीलिये किसी भी बर्ड वॉचर का सपना होता है हिमालयन इलाकों में आकर पक्षियों को देखना।

(मेरा यह आलेख पहले एक पत्रिका में प्रकाशित हो चुका है। यहां पर मैं इस आलेख के कुछ अंश ही लगा रही हूं।)

नैनीताल के आस-पास में ही काफी परिंदे दिख जाते हैं। उनमें से ही कुछ परिंदों की तस्वीरें यहां दे रही हूं। मोनाल सिर्फ उच्च हिमालयी स्थानों में ही पाया जाता है पर यह उत्तराखंड का राज्य पक्षी है और बेहद खुबसूरत परिंदा है इसलिये इसकी तस्वीर यहां दे रही हूं।


मोनाल 
यह उत्तराखंड का राज्य पक्षी भी है





व्हाइट कैप्ड वॉटर रैड स्टार्ट 
  यह पानी के नजदीक ही मिलती है




ग्रेट बारबेट 
यह जंगलों में पायी जाती है।




व्हाइट ब्रेस्टेड किंगफिशर
यह भी पानी के नजदीक के स्थानों में पाया जाता है




लिटल हीरॉन
यह भी पानी के नजदीक मिलता है



जंगल फाउल
यह जंगलों में मिलती है




ब्लू व्हसलिंग थ्रश
इसकी आवाज सीटी की जैसी होती है इसलिये इसे िव्हसलिंग थ्रस कहा जाता



ब्लैक हैडेड जे
यह घने जंगलों में मिलती है




एशियन बार्ड ऑउल
यह भी जंगलों में आसानी से देखा जा सकता है




लांग टेल्ड मिनिविट
यह छोटे आकार की बेहद कलरफुल चिड़िया है




र्पपल सनबर्ड
यह चमकदार रंगों वाली चिड़िया होती है जो फूलों से पराग को चूसती है। इसकी भी अन्य प्राजतियां होती हैं




रैड बिल्ड मैगपाई
इसकी लाल बीक के कारण इसे रैड बिल्ड मैगपाई बोला जाता है। इसकी एक प्रजाति और होती है जिसमें बीक का रंग पीला होता है।




ब्लैक बुलबुल
 काले रंग के कारण इसे ब्लैक बुलबुल कहा जाता है।




हिमालयन बुलबुल
यह पहाड़ी स्थानों में पायी जाने वाली बुलबुल है।



Friday, September 18, 2009

नैनीताल के इतिहास का काला दिन है 18 सितम्बर

नैनीताल : भूस्खलन से पहले 

18 सितम्बर 1880 को नैनीताल के इतिहास में कभी भुलाया नहीं जा सकता क्योंकि इस दिन नैनीताल का अभी तक का सबसे बड़ा भूस्खलन हुआ था जिसमें करीब 151 लोगों की जान चली गयी थी।

एटकिंशन गजेटियर के अनुसार 14 सितम्बर से ही काफी तेज बारिश होने लगी थी और 18 सितम्बर तक लगभग 33 इंच बारिश हो चुकी थी। बारिश के साथ तेज हवायें भी चल रही थी जिस कारण सड़के टूटने लगी और पानी रिस-रिस कर चट्टानों के अंदर जाने लगा था। जो धीरे-धीरे उग्र रूप लेता चला गया और इसने चट्टनों को खिसकाना शुरू कर दिया। पानी के रास्ते में जो भी कुछ आया वो इसकी भेंट चढ़ता गया।

उस समय इस स्थान पर बना विक्टोरिया होटल, एस्मबली रूम और नैना देवी मंदिर पूरी तरह इस भूस्खलन में ध्वस्त हो गये। यह मलबा जब नैनी झील में गया तो इतनी तेज लहर उठी की तल्लीताल पोस्ट ऑफिस के पास खड़े 2-3 लोग भी इन लहरों में बह गये। देखते-देखते पूरा का पूरा पहाड़ मलबे के ढेर में बदल गया। इस भूस्खलन में सिर्फ एक ही काम अच्छा हुआ और वो है मल्लीताल में फ्लैट्स का बनना। यह फ्लैट इस भूस्खलन से ही बना है।

इस भूस्खलन में 151 लोगों की जानें चली गयी। जिसमें 34 यूरोपियन और यूरेसियन के साथ-साथ कई भारतीय नागरिक भी मारे गये। इनमें से किसे के भी शव नहीं मिल पाये। इन मृतकों की याद में आज के बोट हाउस क्लब के सामने एक फब्बारा बनाया गया था जिनमें इन मृतकों के नाम थे पर आज लापरवाहियों के चलते वो नाम पट्टी गायब हो गयी है। मल्लीताल के सेंट जोन्स इन विल्डनैस चर्च में भी इन मृतकों के नाम की पटि्या देखी जा सकती है।

इस भूस्खलन में मुख्य कारण था इस स्थान पर हुआ निर्माण कार्य जिसके लिये बहुत से पेड़ काटे गये थे और मकान बनाते समय पानी के प्रवाह के लिये कोई भी पुख्ता इंतजाम नहीं किये गये जिस कारण पानी यहां-वहां रिसने लगा और चट्टानों को कमजोर करता चला गया। भूस्खलन के बाद इसके कारणों का पता किया गया और सुरक्षा के उपायों पर ध्यान दिया गया जिसके चलते पहाड़ियों पर नालों का निर्माण किया गया। इससे बरसात का पानी बहता हुआ इन नालों के रास्ते होता हुआ झील में आ जाता था। इन नालों में बीच-बीच में गड्ढे भी बनाये गये ताकि जितना भी मलबा हो वह इन गडढों में रुक जाये और झील में सिर्फ पानी ही जा पाये। इसके साथ-साथ इन पहाड़ियों में पेड़ तथा घास आदि को काटने पर भी पाबंदी लगा दी गयी।

पर आज की तारीख में इन नियमों की अनदेखी की जाने लगी है और नालों की सुरक्षा और साफ-सफाई की तरफ भी ध्यान नहीं दिया जा रहा है। जिसके चलते यहां बेतरतीब निर्माण कार्य जारी है और पेड़ों का कटान भी किया जा रहा है। अगर यह सब यूंही चलता रहा तो हो सकता है कि एक और 18 सितम्बर 1880 जल्दी ही सामने आ जाये।

नैनीताल : भूस्खलन के बाद (1883)



Friday, September 11, 2009

ऐसा है नैनीताल के राजभवन का इतिहास

नैनीताल की प्रसिद्ध इमारतों में नैनीताल के राजभवन का नाम सबसे ऊपर आता है। राजभवन अपने अद्भुद शिल्प के लिये न केवल हिन्दुस्तान में बल्कि विदेशों में भी खासा प्रसिद्ध रहा है। राजभवन की स्थापना को 100 वर्षों से भी ज्यादा हो चुके है। इमारत का निर्माण कार्य 27 अप्रेल 1897 को शुरू किया गया था और यह 1900 में बन कर तैयार हुआ। इस भवन का निर्माण लंदन के बकिंघम पैलेस के आधार पर ही हुआ है इसलिये इस भवन को छोटा बकिंघम पैलेस भी कहा जा सकता है।

इस भवन को गौथिक वास्तुकला के आधार पर बनाया गया है जिसे देखने पर अंग्रेजी वाले ई आकार का दिखाई देता है। इसका डिजाइन तैयार करने का श्रेय स्टेवंस और इंजीनियर एफ. ओ. ऑरटेर को जाता है। इस भवन को एच.डी. वाइल्डबल्ड की देखरेख में बनाया गया जो उस समय इसके मुख्य इंजीनियर थे।

राजभवन का क्षेत्र लगभग 220 एकड़ में फैला हुआ है। इसमें 8 एकड़ जमीन पर दो मंजिला मुख्य भवन निर्मित है जिसमें कुल 113 कमरे हैं तथा 50 एकड़ जमीन में गोल्फ फील्ड है। इस गोल्फ ग्राउंड में 18 होल हैं। सन् 1926 में उस समय के गर्वनर मैलकम ने इसमें गोल्फ की शुरूआत की थी। इस फील्ड का डिजाइन ब्रिटिश आर्मी के इंजीनियरों द्वारा तैयार किया गया। यह ग्राउंड इतनी उंचाई में स्थित सबसे सुन्दर और अद्भुद गोल्फ फील्ड में से एक है। उस समय इस भवन को बनाने में लगभग ७.५० लाख रुपयों का खर्च आया था और भवन के लिये बिजली, पानी की व्यव्स्था करने में ५० हजार रुपये खर्च हुए थे

इस इमारत को जनता के लिये सन् 1994 में खोला गया। तब से इसमें कई राष्ट्रीय स्तर की चैम्पयनशिप आयोजित की जा चुकी हैं। इसके अलावा बांकी की लगभग 160 एकड़ भूमि पर घना जंगल है जिसमें कई तरह के पेड़-पौंधे और पक्षी देखने को मिल जाते हैं। इस भवन के म्यूजियम में 10वीं व 20वीं सदी के हथियार, हाथी दांत, एन्टीक फर्नीचर, ट्रॉफियां व मेडल्स का भी अच्छा संग्रह है।

इस भवन के निर्माण में 3 वर्ष का समय लग गया था। इमारत के निर्माण में एक खास बात और है कि इसके निर्माण में प्रयुक्त सभी सामान स्थानीय है। चाहे वो लकड़ी हो, पत्थर हो या अन्य सामग्री सभी स्थानीय है सिर्फ शीशे और टाइल्स इंगलेंड से मंगवाये गये थे। इस भवन में रहने वाले सबसे पहले ब्रिटिश गर्वनर एन्टोनी मैक्डोनल तथा सबसे पहली भारतीय गर्वनर सरोजनी नायडू थी।

कहा जाता है कि सन् 1854 में उस समय के गर्वनर के लिये शेर का डांडा में अस्थायी रूप से गर्वनर हाउस किराये पर लिया गया जिसमें गर्वनर ग्रीष्मकाल के दौरान रहा करते थे। उसके बाद सन् 1865 में गर्वनर ई ड्रमेड ने यहां पर माल्डन इस्टेट नाम के भवन का निर्माण किया और बाद में इसे बेच भी दिया। कुछ समय पश्चात जॉर्ज कूपर ने नया गर्वनर हाउस सेंट लू के नजदीक बनवाया पर सन् 1880 में आये भूस्खलन में इस भवन के टूट जाने के बाद उन्होंने फिर से शेर का डांडा में ही गर्वनर हाउस का निर्माण किया। इस गर्वनर हाउस में उस समय के दो गर्वनर एल्फोर्ड तथा चाल्र्स क्रासवेट रहे थे। कुछ समय पश्चात इस गर्वनर हाउस में भी दरारें आने लगी थी और कभी भी इसके क्षतिग्रस्त हो जाने के संदेह के चलते गर्वनर एन्टोनी मक्डोनल ने इस इमारत को तुड़वा दिया और नये गर्वनर हाउस के लिये जमीन की तलाश की जाने लगी। इस बार इमारत बनवाने से पहले सभी भौगोलिक स्थितियों की अच्छे से जांच की गई जिसके चलते वर्तमान गर्वनर हाउस अस्तित्व में आया जो आज भी अपनी पूरी शानो-शौकत के साथ नैनीताल का गौरव बढ़ा रहा है।



Monday, September 7, 2009

ऐसे भी लोग होते हैं - ४

गौरा देवी - उत्तराखंड में चिपको आंदोलन की अगुवा

उत्तराखंड में चिपको आंदोलन को शुरू करने का श्रेय गौरा देवी को ही जाता है। यदि उस समय गौरा देवी ने अपनी कुछ महिला साथियों के साथ इस आंदोलन की शुरूआत न कि होती तो शायद आज चिपको आंदोलन भी नहीं होता। गौरा देवी की इस पहल के बाद चिपको आंदोलन को उत्तराखंड के बाहर भी कई राज्यों में जंगलों को बचाने के लिये चलाया गया और साथ ही विश्व स्तर पर भी जंगलों को बचाने की मुहीम में तेजी आयी।

जनवरी 1974 में रैंणी गांव में सरकार द्वारा जंगलों की निलामी का आदेश दिया गया था। जिसमें इस गांव के लगभग 2451 पेड़ों की नीलामी होनी थी। परंतु गांव के लोगों द्वारा घोर इसका भारी विरोध किया गया जिसके चलते इस नीलामी को रोकना पड़ा। 15, 23 मार्च 1974 को इस नीलामी के विरोध में किये गये प्रदर्शनों के बावजूद भी इलाहाबाद के ठेकेदारों के मजदूर जंगल काटने के लिये वन विभाग के कर्मचारियों के साथ मिलकर रैंणी गांव पहुंच गये।

यह सूचना गौरा देवी को मिली तो उन्होंने अपने जंगलों को बचाने का निर्णय लिया और गांव की अन्य महिलाओं और बच्चों को लेकर जंगल की ओर चली गयी। गौरा देवी ने मजूदरों से कहा कि - यह जंगल हम सबका है। इससे हमें घास-पत्ती, हवा-पानी मिलते हैं। अगर इन्हें काट दिया तो बाढ़ भी आयेगी जिसमें हमारे खेत बह जायेंगे और हम सब बर्बाद हो जायेंगे।

उनके ऐसा कहने पर ठेकेदार के मजदूरों ने उन्हें वापस धमकाना शुरू कर दिया और कहा - यदि वो हमें पेड़ नहीं काटने देंगी तो उनको सरकारी काम रोकने के जुर्म में बंद करवा दिया जायेगा। पर गौरा देवी इससे डरी नहीं उन्होंने अपनी अन्य महिला साथियों के साथ पुरजोर विरोध जारी रखा। इससे परेशान होकर ठेकेदार के आदमी ने बंदूक दिखाकर गौरा देवी समेत अन्य महिलाओं से कहा - यदि तुम लोग यहां से नहीं हटे तो तुमको गोली मार दी जायेगी। यह सुन कर गौरा देवी ने बेखौफ़ होकर ठेकेदार को जवाब दिया - मार लो हमें गोली। इसके बाद मजूदर वहां से वापस लौट गये। ठेकेदार के आदमियों ने गौरा देवी को डराने-धमकाने की बहुत कोशिश की पर वो अपनी में जिद डटी रही जिस कारण रैंणी गांव बर्बाद होने से बच गया।

इस घटना का शासन पर इतना गहरा असर पड़ा कि तत्काल एक जांच समिति बनायी गयी जिसमें अलकनंदा समेत अन्य नदियों के जल को बचाने एवं जंगलों की सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया गया और इसके लिये कई सकारात्मक निर्णय लिये गये जिसके चलते जंगलों में दिये जाने वाले ठेकों को समाप्त कर दिया गया और वन निगम की स्थापना की गई। गौरा देवी द्वारा शुरू किये गये इस एक आंदोलन ने रैंणी गांव को विश्व स्तर पर ख्याती दिला दी और गौरा देवी इस आंदोलन की अगुवा थी। इसके बाद जल-जंगल-जमीन को बचाने के लिये विश्व स्तर पर प्रयास शुरू किये गये। जंगलों के प्रति उन्होंने जो एक नई चेतना का संचार लोगों में किया और जंगलों को बबार्द होने से बचाया था इसके चलते उन्हें वृक्ष मित्र पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। गौरा देवी स्वयं अनपढ़ थी पर उन्होंने चमोली के ग्रामीण क्षेत्रों में प्राइमरी और हाईस्कूल खुलवाने में बहुत अहम भूमिका निभाई।

गौरा देवी का जन्म 1925 के लगभग चमोली के लाता गांव की भोटिया जनजाति में हुआ था। इनके पिता का नाम नारायण सिंह था। गौरा देवी जब गौरा देवी मात्र 11 वर्ष की ही थी तब ही इनका विवाह रैंणी गांव के मेहरबान सिंह के साथ हो गया। इनका परिवार जीविकोपार्जन के लिये भेड़-बकरियां पालता था, ऊन का व्यापार करता था और थोड़ी बहुत खेती किया करता था। विवाह के कुछ साल पश्चात ही गौरा देवी के पति का देहांत हो गया और परिवार की पूरी जिम्मेदारी गौरा देवी के ऊपर आ गयी। उस समय गौरा देवी का पुत्र मात्र ढाई साल का था। 4 जुलाई 1991 को गौरा देवी ने दुनिया से विदा ली।



Thursday, September 3, 2009

नैनीताल का नन्दाष्टमी मेला - 2009

उत्तराखंड अपने मेले-त्यौहारों के लिये काफी मशहूर रहा है। उत्तराखंड में पूरे वर्ष लगभग 100 से ज्यादा मेले लगते हैं। इन्हीं मेलों में एक है नन्दाष्टमी का मेला। इसे कुमाउं में मुख्य तौर पर मनाया जाता है। नैनीताल में यह मेला लगभग 5-6 दिन का लगता है।

नन्दाष्टमी भादो के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को मनायी जाती है। नन्दा को कुमाऊँ में रणचंडी के नाम से भी जाना जाता है तथा यह चन्द वंश के राजाओं की कुलदेवी भी मानी जाती है। नन्दा देवी से संबंधित कई किवदंतियां यहां पर प्रचलित हैं जिनमें से कुछ इस प्रकार है। एक बार नारद ने कंस से कहा कि उनकी बहन देवकी की आठवीं संतान कंस की मौत का कारण बनेगी। कंस ने तभी से देवकी की आठवीं संतान को मारने का निर्णय कर लिया जिसके चलते उसने देवकी और वासुदेव को बंदी बना लिया। जब देवकी ने आठवीं संतान के रूप में कृष्ण को जन्म दिया तो उसने कंस के डर से उसे गोकुल में यशोदा के घर भेज दिया और उनकी पुत्री को अपने पास ले आये। कंस को जब आठवीं संतान के जन्म का पता चला तो वो उसे मारने पहुंचा और जैसे ही बच्ची को मारने के लिये हाथ में पकड़ा बच्ची कंस के हाथ से गायब हो गई और हिमालय की नन्दाकोट पहाड़ी में जाकर बस गई। जिसे आज नन्दा देवी के नाम से जाना जाता है। देवी नन्दा ने राजा दीपचन्द को स्वप्न में आकर कहा कि अल्मोड़ा में उनका मंदिर बनाया जाये। जिसके बाद नन्दा देवी के मंदिर की स्थापना हुई और प्रतिवर्ष पूजा और मेले का आयोजन किया जाने लगा।

दूसरी किवदंती के अनुसार 16वीं सदी के चन्द्रवंशी राजाओं की कुलदेवी थी और राजा कल्याण चन्द की बहिन भी इसी नाम की थी। कहा जाता है कि जब नन्दा मायके आ रही थी उस समय एक भैंसे ने उसका पीछा किया। उससे बचने के लिये वह एक केले के पेड़ के पीछे छुप गई पर केले के पेड़ की पत्तियों को बकरी ने खा दिया और नन्दा को भैंसे ने मार दिया। तब से उसकी याद में ही इस मेले का आयोजन किया जाता है और प्रतिशोध स्वरूप भैंसे और बकरे की बलि दी जाती है। कहा जाता है की केले के पेड़ में उसने आसरा लिया था इसलिये इन मूर्तियों के निर्माण के लिये केले के पेड़ का ही इस्तेमाल किया जाता है।

अल्मोड़ा गजेटियर में एच.डी. बाल्टन लिखते हैं कि - बाजबहादुर चंद ने विजयोपरांत जूनियागढ़ से नन्दा की मूर्ति को अल्मोड़ा के मल्ला महल में स्थापित किया था।

कहा जाता है कि गौरा कुमाउं की ईष्ट देवी है और उनके साथ ही नन्दा का आगमन हुआ। इसलिये नन्दाष्टमी में दो मूर्तियां नन्दा और सुनन्दा की बनाई जाती हैं। इन मूर्तियों के निर्माण का भी अपना ही एक विधान होता है। पूजा में भाग लेने वाले ब्राह्म्ण स्थानीय लागों, परम्परागत नृत्य टोलियों छोलिया आदि के साथ केले के वृक्ष लेने के लिये जाते हैं जिन्हें पूरे शहर में घुमाते हुए मंदिर ले जाया जाता है और फिर मूर्ति विधा में पारंगत कलाकारों द्वारा मूर्तियों का निर्माण किया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि नन्दा/सुनन्दा का चेहरा नन्दा देवी पर्वत के समान ही बनाया जाता है। और अष्टमी के दिन सभी विधि-विधान के बाद इन मूर्तियों को दर्शनों के लिये रख दिया जाता है।

इस दिन से ही मेले की शुरूआत भी हो जाती है। जिसमें बाहर से आये व्यापारी अपनी दुकानें लगाते हैं। आज भी ग्रामीण इलाकों में रहने वालों के लिये इस मेले का खासा महत्व होता है। जो यहां आकर अपने हस्तेमाल की कई चीजें खरीद कर ले जाते हैं। पहले से यह मेला दो-तीन दिन ही चलता था पर समय के साथ-साथ इसका भी व्यापारिकरण हो गया है और इसे 6-7 दिन तक भी लगाया जा रहा है। इसमें आधुनिकता की पूरी झलक दिख जाती है जिस कारण यह मेला अब एक महोत्सव का रूप ले चुका है। जिसमें प्राचीन परम्परायें काफी हद तक गायब होती सी दिखायी पड़ती हैं।

मेले के आखरी दिन देवी के डोले को विदाई के लिये ले जाया जाता है। विदाई से पहले इसे पूरे शहर में घुमाया जाता है जिसमें पारम्परिक वाद्य एवं नृत्य से लेकर आधुनिक बैंड बाजे भी होते हैं। पूरे शहर में डोले को घुमाने के बाद सायं काल में देवी की पूजा के बाद इसे झील में विसर्जित कर दिया जाता है।
मंदिर मे देवी की मूर्ति लोगों के दर्शन के लिये

मेले में लगी दुकानों की कुछ झलकियां




मस्ती टाइम




कुछ खाना हो जाये


बच्चों के लिये मस्ती टाइम


विदाई