Wednesday, June 10, 2009

एक छोटी सी ट्रेकिंग ऐसी भी - 1

मेरी यह ट्रेकिंग आज से करीब 7-8 साल पहले की है। उस समय मुझे और मेरे कुछ दोस्तों को ट्रेकिंग का नया-नया चस्का लगा ही था जो आज भी बदस्तूर जारी है। आजकल थोड़ा समय की कमी और कुछ नया न लिख पाने की मजबूरी के चलते इस पुरानी ट्रेकिंग को ही लगा रही हूं। जो मेरे लिये कई मायनों में खास भी है।

अचानक ही सुबह-सुबह फोन की घंटी बजी और मेरी दोस्त ने हड़बड़ाहट में कहा - विन्नी हम लोगों ने ट्रेकिंग में जाने का जो प्लान बनाया था वो फाइनल हो गया है। तू मुझे जल्दी से जल्दी स्टेशन पर मिलना हम लोग वहां से स्नोव्यू चलेंगे और बांकि लोग हमें वहां ही मिल जायेंगे। मैंने पूछा कितने बजे तक ? उसका जवाब था 7:15 तक। 7:15 बापरे... इस समय घड़ी 6:30 बजा रही थी... मतलब कि बिना आलस दिखाये हुए उठ कर सीधा तैयार होकर भागना पड़ेगा। खैर मैं जल्दी-जल्दी उठी तैयार हुई और बिना कॉफी पिये ही निकल गयी और 7:15 तक स्टेशन पहुंच गयी जहां मेरी दोस्त भी पहुंच गयी थी।

हम दोनों वहां से स्नोव्यू की तरफ निकल गये। सुबह के समय ये रास्ता खासा सूनसान सा लग रहा था और इस रास्ते की चढ़ाई भी अच्छी खासी है। कुछ मॉर्निंग वॉक करने वालों के अलावा यहां कोई हलचल नहीं थी। हम दोनों करीब 7:45 तक स्नोव्यू पहुंच गये जहां हमारे बांकी साथी हमारा इंतजार कर रहे थे। इस जगह को को स्नोव्यू इसलिये कहते हैं क्योंकि यहां से हिमालय की अच्छी खासी रेंज दिख जाती है पर अकसर ही हिमालय में बादल लगे होने के कारण हिमालय के दर्शन नहीं हो पाते लेकिन हमारी किस्मत अच्छी रही कि हमें थोड़ा सा हिमालय देखने को मिल गया। स्नोव्यू से हिमालय

यहां से हम लोग चीनापीक की तरफ निकल गये। रास्ते में हमें एक खंडहर दिखा जो कि किसी जमाने में स्कूल हुआ करता था पर आग लग जाने के कारण ये स्कूल पूरी तरह बर्बाद हो गया। पहले तो इन जगहों में सिर्फ पैदल या घोड़ों की मदद से ही आया जा सकता था पर अब सड़कें बन रही हैं। लेकिन इन सड़कों को देख कर काफी देर तक हम लोग यही सोचते रहे कि बिल्कुल 90 डिग्री की चढ़ाई में बनने वाली इन सड़कों में गाड़िया आयेंगी कैसे ? और यदि आ भी गयी तो क्या सही सलामत रहेंगी भी या नहीं ? हम लोग अपनी बातों में मशगूल थे और आगे बड़ रहे थे। अभी हम जिस जगह में खड़े थे यहां से नैनीताल का बहुत ही शानदार नजारा दिखता है और पूरी झील के ही बार में दिख जाती है। चीनापीक के रास्ते से नैनीताल

थोड़ा लम्बा मोटर मार्ग तय करने के बाद हम लोग एक कच्ची सड़क पे निकल गये। इस कच्ची सड़क के दोनों और काफी घना जंगल है जिसमें कई कई तरह की चिड़ियाऐं और जड़ी-बूटियां दिख जाती हैं। हमारे ग्रुप में कुछ लोग चिड़िया देखने के शौकिन थे तो कुछ जड़ी-बूटियों के इसलिये काफी कुछ जानकारियां हम लोग आपस में शेयर करते रहे। इन जंगलों में चिड़ियां तो बहुत हैं पर उन्हें देख पाना थोड़ा मुश्किल होता है। ये हमारी खुशकिस्मती ही थी कि हमारे नजरों के सामने से सिबिया निकल गयी जिसे देखकर हमने इसका नाम साहिबा रख दिया क्योंकि बहुत मुश्किल से हमें दिख पायी थी।

बारिश का मौसम होने के कारण रास्तों में जहां-तहां बड़ी स्लैग पड़ी हुई थी। जिन्हें देखकर हम आपस में एक दूसरे की डराने की नाकाम कोशिश कर रहे थे कि - ये स्लैग नहीं जोंक हैं जो खून पी पी कर इतनी बड़ी हो गयी हैं। मौसम धूप-छांव का खेल खेल रहा था और हम लोग भी एक दूसरे की टांग खींचते हुए और अपनी बातें करते हुए आगे बढ़ ही रहे थे कि उपर की तरफ से 4-5 लोगों का एक झुंड आया और हमारी तरफ देखते हुए बोला - चीनापीक की तरफ बहुत जोंकें हैं, संभल कर जाना। वो लोग भी शायद ट्रेकिंग पर ही आये थे। हमें चीनापीक पहुंचने के लिये थोड़ा चलना अभी बांकि था। करीब आधे घंटे बाद हम लोग अपने पहले प्वाइंट चीनापीक पर पहुंच ही गये। चीनापीक में एक बड़ा सा खम्बा लगा हुआ है जो नैनीताल शहर से ही आसानी से दिख जाता है। हम लोग सब इस खम्बे के पास खड़े होकर नैनीताल को देख रहे थे। यहां पर अंग्रेजों के जमाने का एक नक्शा भी लगा है जिसमें हिमालय की सारी चोटियों के नाम उनके क्रम के अनुसार ही दिये हैं। अंग्रेजों ने तो शायद इसे एक अच्छे उद्देश्य से ही बनाया होगा पर आज की तारीख में इसकी हालत बहुत दयनीय है।

चीनापीक में पहुंचते ही भूखी-प्यासी जोकों ने हमारा स्वागत बड़े प्यार से किया। अपने पूरे परिवार के साथ हमारी सेवा में हाजिर थी। हम अपने पैरों से जोक भी निकाल रहे थे और चीनापीक के नाम पर भी अपनी-अपनी राय दे रहे थे कि आखिर इस जगह का नाम चीनापीक क्यों पड़ा होगा ? सबसे मजेदार बात तो हमारे साथ वाले ने बतायी कि बहुत से लोग कहते हैं यहां से चीन की चोटियां दिखती होंगी जिस कारण इसका नाम चीनापीक पड़ा होगा। खैर हमें इसके नाम का सही-सही कारण तो पता नहीं चल पाया।

यहां कुछ देर बैठ कर हमने अपने पैरों से जोंकों को निकाला और कुछ बिस्कुल नमकीन खाये फिर आगे की तरफ बढ़ गये। रास्ते में हमें एक सांप दिखा पर वो बेचारा हमें देखते ही फटाफट भाग गया। यहां से हम लोगों ने किलबरी, पंगूट जाने वाला रास्ता पकड़ा जो कि बर्ड वॉचर के लिये जन्नत माना जाता है....

जारी....



18 comments:

मुनीश ( munish ) said...

Thats y i call ur blog a storehouse of positive-energy! i really enjoyed this post because i have seen only a bit of Kumaon. ur second post in the series is highly awaited.

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत बेहतरीन विवरण दिया. हमें भी वहां की यात्रा याद आगई. बहुत सुंदर.

रामराम.

अभिषेक मिश्र said...

जानकारियां बांटते हुए ट्रेकिंग की बात ही कुछ और है.

बसंत आर्य said...

अब हमारा अगला प्लन यही जाने का हो रहा है. अच्छा लिखा. बधाई

IMAGE PHOTOGRAPHY said...

aap ke vivaran ne mujhe bhi traking ke shaukh ko jaga diya hai . mujhe bhi ghumane ka shaukh hai

नमिता पाण्‍डेय said...

AAGE K VRITANT KI PRATIKSHA RAHEGI

BAHUT ACHHA LAGA

AAPNE PHOTOGRAPH BAHUT KHUBSURAT LAGAYI HAI

ISKE LIYE BHI BAHUT BAHUT DHANYAVAAD

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

बहुत समय बाद पता चला कि जिसे हम बचपन में रोज़मर्रा की बात समझते थे, उसे शहरों में लोग trekking बताते थे. अलबत्ता आपने बहुत अच्छा विवरण दिया है. आभार.

Unknown said...

treking ka to apne hi maza hai us pe aise treking ho to kya baat hai

Ashish Khandelwal said...

आपका यह ट्रेकिंग का किस्सा पढ़कर लग रहा है मानों मैं भी वहां पहुंच गया हूं। इस जीवंत यात्रा वर्णन की अगली कड़ी का इंतजार है.. आभार

Abhishek Ojha said...

आपका किस्सा पढ़कर अपने ट्रेकिंग का अनुभव लिखने का भी मन हो रहा है अब तो.

Unknown said...

Aap ka likhne mai to command hai. api trekking ke baare mai par ke mujh bhi man karne laga hai

Vinay said...

जीवन्त वर्णन

"अर्श" said...

वनीता जी बहोत ही खूबसूरती से आपने अपना ये सस्मरण लिखा है ... ऐसा प्रतीत हो रहा था के हम भी आपके साथ घूम रहे है और लुत्फ़ ले रहे है ... आपके लेखन की सबसे कमाल की बात ये लगती है के सीधे सरल भाषा में लिखती है जो आम बोल चाल की भाषा है ... बहोत ही सहजता से आपने आपनी बात को रखा है जो मानस पटल पे तैर रहा है ... बहोत बहोत आपको बधाई...



आपका
अर्श

P.N. Subramanian said...

बहुत ही rochak पोस्ट. काजल कुमार जी ने सही कहा. यह तो roj marra कि बात है.

Dr. Ashok Kumar Mishra said...

आपने सीधे, सरल शब्दों में प्रभावशाली तरीके से अभिव्यक्ति दी है । सूक्ष्म संवेदना को आपने बडी बारीकी से रेखांकित किया है । बधाई ।

मैने अपने ब्लाग पर एक लेख लिखा है-फेल हो जाने पर खत्म नहीं हो जाती जिंदगी-समय हो तो पढें और अपनी राय भी दें-

http://www.ashokvichar.blogspot.com

रंजू भाटिया said...

रोचक रहा यह संस्मरण भी ...सजीव वर्णन है यह ..शुक्रिया

डॉ .अनुराग said...

दिलचस्प!फोटो भी जीवंत है....

डॉ. मनोज मिश्र said...

यह तो बहुत चुनौतीपूर्ण है .