Thursday, May 28, 2009

मेरी हरिद्वार यात्रा - 3

आज सुबह हमने लक्ष्मण झूला जाने का प्रोग्राम बनाया था इसलिये सुबह-सुबह ही टैक्सी स्टेंड के लिये निकल गये। टैक्सी स्टैंड में एक बुजुर्ग सा दिखने वाला आदमी हमारे पास आया। उसके साथ हमारा दाम सही-सही तय हो गया और हम लोग लक्ष्मण झूला की ओर निकल गये। हरिद्वार से शायद करीब 2-3 घंटे की दूरी हमने तय की। रास्ता काफी अच्छा था और उससे भी ज्यादा अच्छा यह रहा कि ड्राइवर बहुत अच्छा था पर बेचारा नेताओं से बड़ा दु:खी था। कई बार उसने कहा कि - साब ! अगर नेता अच्छे हो जायें तो सब कुछ अच्छा हो जायेगा। इतना जो आप अव्यवस्था देख रहे हैं न इसी कारण तो है। हमारी तो कोई सुनता नहीं है और जिसकी सुनते हैं वो कुछ कहता नहीं है। उसकी बात अपने आप में बिल्कुल ठीक थी इसलिये हमने भी सर हिला दिये। उसकी बातों में रास्ता कैसे कटा पता ही नहीं चला। उसने हमें लक्ष्मण झूला के पास छोड़ दिया और बोला आगे में नहीं आ सकता हूं पर आप यहां से घुमते हुए राम झुला से आ जाना मैं आपको वहीं मिल जाउंगा। इतना कह के वो हमें छोड़ के चला गया। थोड़ा सा पैदल चलने के बाद मेरी नजरों के सामने लक्ष्मण झूला था। वही लक्ष्मण झूला जिसमें बचपन में बहुत मजे किये थे। पर अब इस पुल में उतनी रौनक नहीं थी। मुझे बस कुछेक विदेशी ही घुमते दिखायी दिये। इसका एक कारण था कि इससे कुछ दूरी पर ही एक दूसरा पुल बन गया है जिसे राम झुला कहते हैं। लक्ष्मण झूला से गंगा का भव्य दृश्य दिखाई दे रहा था। और वहीं गंगा के सामने दशेश्वर मंदिर की विशाल इमारत थी। हम लोग काफी समय तक पुल में ही खड़े रहे। और गंगा से आने वाली ठंडी हवाओं का मजा लेने लगे। अब तो ये पुल हिलता ही नहीं है पर पहले काफी हिलता था और बंदर तो बेहिसाब थे पर अब पहले जैसा कुछ भी नहीं था। कुछ देर बाद हम पुल पार करके आगे बढ़ गये और गीताश्रम जाने का इरादा बनाया।

गीताश्रम जाते हुए एक छोटा सा ढाबे नुमा रैस्टोरेंट हमें दिख गया सो फैसला हुआ कि पहले पेट पुजा की जायेगी बांकी के दर्शन बाद में। उस ढाबे में कुछ और वहीं के लोग भी बैठे थे जिन्होंने हमसे पूछा - हम कहां से आये हैं। जब हमने बताया कि उत्तराखंड के ही हैं तो उनमें से एक पता नहीं किस तनाव में सीध हमसे बोला - अरे साब किसका उत्तराखंड, कहां का उत्तराखंड। हम तो यूपी में ही अच्छे थे। यहां तो न हमें कोई ढंग का रोजगार ही मिलता है न हमारी कोई सुनने वाला है। हां बस नेताओं की लाल बत्तियां जरूर बढ़ गयी हैं। वहां बैठे ज्यादातर युवा इस बात से भी परेशान थे कि शराब का चलन भी अब पहले से ज्यादा बढ़ गया है। उस ढाबे में चाय समोसे खा कर और उन युवाओं से बात करके हम लोग आगे की ओर बढ़ गये। इस जगह से गीताश्रम करीब 2 किमी. दूरी पर था जो हम लोगों ने पैदल ही तय करने का सोचा। यहां विदेशी सैलानी बहुत ज्यादा तादाद में दिखाई दिये। आपस में बातें करते कराते हम लोग स्वर्गाश्रम में पहुंच गये। इसके बाहर से ही बहुत सारे सैलानी बैठे हुए थे जिनमें ज्यादा बंगाली थे।
स्वर्गाश्रम से ही थोड़ी दूरी पर गीताश्रम था। यहां पर कई सारे सन्यासी बैठे हुए थे। इनमें से कुछ तो विदेशी भी थे और इसके सामने पर ही राम झूला था जिसमें खूब रौनक थी।
यहां से एक पतला सा रास्ता पकड़ के हम आगे निकल गये जिसमें कई छोटे बड़े मंदिर और भी थे। पर गंदगी तो उफ। गंदगी को देखकर बड़ा दु:ख हुआ। इन छोटे बड़े मंदिरों के बीच-बीच में कई तरह की दुकानें और रेस्टोरेंट भी थे जिनमें चोटीवाला का रेस्टोरेंट भी था। जो कि हरिद्वार का एक मशहूर भोजनालय है। पहले इस भोजनालय में पत्तलों में खाना मिलता था पर अब न तो पत्तल रहे और न खाने का वो स्वाद।
मुझे ऐसा महसूस हुआ कि समय के साथ-साथ यह भी बदल ही गया है पर इस रैस्टोरेंट के बाहर से चोटीवाला की जो मूर्ति लगी थी उसने तो दिल जीत ही लिया। कम से कम कुछ तो तस्ल्ली मिली। गंगा के किनारे बने सफेद रंग की शिव की बड़ी सी मूर्ति भी खासा आकर्षित कर रही थी।
यहां गंगा का एक दूसरा ही चेहरा सामने आता है। गंगा बिल्कुल शांत और बहुत ज्यादा फैली हुई दिखती है जिसे निहारना एक अलग ही एहसास देता है। इसमें कुछ बोट भी चलती हैं और वॉटर गेम भी होते हैं। कुछ समय यहां भी अपने ही अंदाज में चहलकदमी करते हुए राम पुल से वापस टैक्सी की ओर आ गये। अब तो गर्मी बढ़ने लग गयी थी इसलिये हरिद्वार वापस आने की ही सोची सो वापसी का रास्ता ले लिया। कुल मिला के ऋषिकेश में घुमना अच्छा लगा वापस आते हुए मैं एक जैन मंदिर में रुक गयी। वैसे तो ये मंदिर नया ही था पर इसका शिल्प किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर ले। एक भव्य सी इमारत जो कि पूरी ही अनूठे शिल्प से बनी हुई। जब हम इस मंदिर के अंदर गये तो एक महिला जो की जैन पोशाक में थी उसने हमें प्रेम से बोला कि - मंदिर के अंदर फोटो मत खींचना लेकिन बाहर की फोटो खींच सकते हो। हम कुछ देर तक इस मंदिर में घुमते रहे और बहुत अच्छा लगा। उसके बाद बाहर की कुछ फोटो ले कर हम लोग वापस आ गये।
फिर तो हम कुछ देर बाद टैक्सी स्टेंड पर थे। हमने ड्राइवर से किसी ऐसे रैस्टोरेंट के बारे में पूछा जहां घर की तरह का खाना मिल जाये। वरना तो होटलों का खाना खा खा कर परेशान हो गये थे। उसने हमें एक होटल बता दिया। ये होटल दिखने में तो मामूली ही था। लकड़ी की लम्बी-लम्बी पतली मेजों का सामने रखी हुए लकड़ी की पतली से बेंचें। पर था बिल्कुल साफ-सुथरा। हमने उससे खाने के लिये कहा तो उसने हमारे सामने खाना परोस दिया। जिसे देख कर सच में मजा आ गया। इतने दिनों बाद आज हमें वैसा खाना मिला जिसकी हम तलाश कर रहे थे। बिल्कुल घर के खाने की तरह सादा। उसी समय ये भी तय हो गया कि शाम को भी खाने के लिये यहीं आयेंगे हालांकि ये हमारे होटल से काफी दूरी पर था। खाना निपटाने के बाद हम बाजार के रास्ते अपने होटल की तरफ बढ़ गये। ये बाजार दूसरी ही थी। यहां बड़ी-बड़ी दुकानें थी और खूब सारे हलवाइयों की दुकानें भी थी। एक दुकान ने हमारा अचानक ही ध्यान अपनी ओर खींच लिया क्योंकि उसने दुकान के आगे बड़ी सी घंटी लगाई थी और जोर से घंटी को झटका देते हुए आवाज लगा रहा था - आइये प्रभु ! सेवा का अवसर दीजिये। हमने सोचा की चलो भक्त को अवसर दे ही देते हैं सो हम अंदर आ गये और सबने एक-एक प्लेट गुलाब जामुन का ऑर्डर भक्त को दे दिया। कुछ देर बाद वो दोनों में रख के गुलाब जामुन ले आया। उसके गुलाब जामुन भी बहुत स्वादिष्ट थे और पत्तल के दोनों में परोस के देना भी बहुत अच्छा लगा। कम से कम कहीं तो कुछ बचा हुआ है और इसी खुशी के चक्कर में एक-एक प्लेट गुलाब जामुन और साफ किया गया।
इसके बाद तो होटल वापस आने के अलावा कोई और रास्ता ही नहीं था क्योंकि गर्मी बहुत ही ज्यादा बढ़ चुकी थी। सो हम लम्बी सी बाजार को देखते हुए वापस कमरे में आ गये।

जारी...






26 comments:

रंजू भाटिया said...

हम भी अभी कुछ दिल पहले यही सब घूम कर आये हैं ..आपके लेख से सब वही आँखों के सामने घूम गया ..गंदगी तो है पर मुझे वाकई यह जगह बहुत पसंद है खासकर ऋषिकेश ..

admin said...

हरिद्वार का सम्पूर्ण सौन्दर्य आपकी पोस्ट में निचुड आया है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

"अर्श" said...

BAHOT HI KHUBSURATI SE AAPNE YE SASMARAN LIKHAA HAI ... MUJHE TO KHAS KAR GULAAB JAMUN BAHOT BHAYE... AAPKI ANUMATI HO TO KHA LUN?????



ARSH

डॉ. मनोज मिश्र said...

बहुत सुंदर और रोचक .

Unknown said...

waise to aap ka likha hua parne mai hi aisa lagta hai jaise hum hi yatra kar rahe ho us per se picturs to aur bhi jaandaar bana deti hai yatra ko

मुनीश ( munish ) said...

Rishikesh is more interesting than Haridwar for sure. Had it not been in U.P. for so many years ,it would have been a better place.
U.P. always exploited its hills like a demon.Uttaranchal is coming up slowly. It needs time to get rid of its miserable past.

Abhishek Ojha said...

उत्तराँचल ने हमेशा आकर्षित किया है. अभी तक जाना नहीं हो पाया. अपने घर का अकेला इंसान हूँ जो अब तक नहीं जा पाया :( खैर आपकी नजरों से सैर हो रही है !

विजय गौड़ said...

इतने नजदीक रहते हुए भी ऎसे जाना नहीं हुआ। गए तो बस दौडे दौडे आए तो बस भागे भागे। ठहरकर तो आपके मार्फ़त ही जान रहा हूं।

P.N. Subramanian said...

बहुत ही सुन्दर यात्रा वृत्तांत. जैन मंदिर वास्तव में आकर्षक लगी. गुलाब जामुन देख मन मचल गया. आभार.

दिगम्बर नासवा said...

खूबसूरत यात्रा प्रसंग है.............उतराखंड का इलाका लाजवाब है,खासकर ऋषिकेश

नीरज मुसाफ़िर said...

विनीता जी,
जब ऋषिकेश घूमते घामते हरिद्वार पहुंचे तो सोचा कि अब तो आराम करेंगे, लेकिन यहाँ तो गुलाब जामुन ने मुहं में रस भर दिया. वाकई रसीली गुलाब जामुन (या रसगुल्ला?) खाने को मन कर रहा है. खाना पड़ेगा अभी बाहर जाकर.

ताऊ रामपुरिया said...

बहुत खूबसूरत शब्दों मे आपने यह यात्रा वृतांत लिखा, जैसे कि पाठक स्वयम ही सैर कर रहा हो.

चो्टीवाला के सामने पहले एक शायद गोलमटोल जीता जागता आदमी बैठा करता था अब पता नही मुर्ती लगा दी् है. बहुत शानदार यात्रा वृतांत.

रामराम.

निठल्ला said...

Vinita, aap bhi khoob ghumti rehti ho.

chotiwale ke yahn khoob khana khaya hai, kaafi bhir bhi rehti hai wahan.

Tarun

Unknown said...

Yatra vritant to achha hai hi par pics bhi ahut achhi hai...

निशांत मिश्र - Nishant Mishra said...

यही सब आप अगर मई के पहले हफ्ते में बता दिए होते तो हमें यात्रा में आसानी होती. अभी ही बिटिया का मुंडन हरिद्वार में करा के आये हैं. हमें तो ऋषिकेश बेहतर लगा. हरिद्वार की अव्यवस्था और लूटपाट असह्य है.

हिंदी में प्रेरक कथाओं, प्रसंगों, और रोचक संस्मरणों का एकमात्र ब्लौग http://hindizen.com

अजित वडनेरकर said...

बहुत अच्छा वृत्तांत।
हरिद्वार हमें प्यारा है क्यों कि वह हमारा ननिहाल है।

Vineeta Yashsavi said...

Are Waah Ajit ji apkna nanihaal Haridwar hai aur mera nanihal Mussoorie hai...hum dono to parosi hue...

मसिजीवी said...

हरिद्वार से लक्ष्‍मणझूला 2-3 घंटे.... नहीं जी आपका ड्राइवर ठीक नहीं, इतनी देर में तो देवप्रयाग पार कर श्रीनगर के आस पास होना चाहिए था :))

वृत्‍तांत भला लग रहा है।

अभिषेक मिश्र said...

अच्छा लग रहा है हरिद्वार भ्रमण आपके साथ. नए राज्यों से जो भी अपेक्षा थीं, उनसे वाकई युवाओं को काफी निराशा हुई है.

xman said...

yaar

xman said...

yaar part-1 aur part-3 to mil gaye part-2 ka link bhejne ki kripa kare, you really rockks...!!!!

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" said...

बहुत ही सुन्दर यात्रा वृ्तान्त......चोटीवाला के नाम से इतने अधिक रेस्टोरैन्ट खुल चुके हैं कि नए यात्री को तो पता ही नहीं चल सकता कि इनमें से असली वाला कौन सा है..

Udan Tashtari said...

बहुत बेहतरीन घुमवाया. कई सालों से जा नहीं पाया हूँ..बहुत मन करता है. आपके बहाने कुछ तसल्ली लगी. आभार.

L.Goswami said...

वाह!! विवरण पढ़ कर मन खिल उठा ..गुलाब जामुन मुझे बहुत पसंद है :-)

विवेक रस्तोगी said...

बहुत इच्छा है हरि्द्वार जाने की बचपन में घूमने गया था पर उसके बाद कभी मौका ही नहीं लगा। पढ़ने के बाद अब हरिद्वार जाने की उत्कंठा और बड़ गयी है।

Anonymous said...

आपकी पोस्ट पढ़कर कुछ पुरानी यादें ताज़ा हो आयीं. बचपन में जब गाँव जाया करते थे, तो ऋषिकेश से होकर ही जाते थे. ज्यादा कुछ तो नहीं पता था ऋषिकेश के बारे में, क्योंकि यहाँ आकर सिर्फ़ खाना खाते थे....और फ़िर बस में बैठकर गाँव को रवाना...लेकिन चलते-फिरते गीता भवन, स्वर्गाश्रम, राम झूला, लक्ष्मण झूला देख ही लेते थे. मुनि की रेती आज भी याद है....यहाँ से मेरा गाँव करीब ५-६ घंटे की दूरी पर है....बहुत अच्छा लगा....धन्यवाद.....

साभार
हमसफ़र यादों का.......