Wednesday, August 20, 2008

स्वतन्त्रता दिवस की कुछ छवियां

पन्द्रह अगस्त को मैं अपने गांव गई थी. ज़िला नैनीताल के इस छोटे से गांव के प्राइमरी स्कूल में बच्चों ने कुछ इस तरह मनाया स्वतन्त्रता दिवस.









Thursday, August 14, 2008

सारे जहां से अच्छा

सभी लोगों को स्वतन्त्रता-दिवस की कोटिशः बधाइयां.

इकबाल का पूरा नाम डॉ. अल्लामा मुहम्मद इकबाल था। इकबाल का जन्म 9-11-1877 को सियालकोट में हुआ था। उपके पूर्वज कश्मीरी ब्राह्मण थे और करीब ढाई तीन सौ साल पहले मुसलमान हो गये थे। इकबाल ने सियालकोट से एफ.ए. करने के बाद लाहौर से बी.ए. किया और फिलोसॉफी की शिक्षा भी प्राप्त की। 23 वर्ष की आयु से उन्होंने मुशायरों में नज्में पढ़ना शुरू कर दिया था। 1905 में इकबाल योरोप चले गये और वहां कैम्बरिज यूनिर्वसिटि से फिलोसॉफी की परीक्षा पास की। ईरान की फलसफे पर एक पुस्तक लिखी जिस पर जर्मन की म्यूनिख यूनिर्वसिटी ने इन्हें पीएचडी प्रदान की। इसके बाद लंदन जाकर बैरिस्टरी का इम्तहान पास किया और 1908 में भारत लौट आये। लाहौर के सरकारी कॉलेज में ढाई साल तक पढ़ाया फिर यहां से त्यागपत्र देकर अपने जीवनयापन के लिये बैरिस्टरी शुरू की। इकबाल 1926 में लाहौर से काउन्सिल की मेम्बरी के लिये खड़े हुए और चुनाव जीत भी गये। इकबाल ने अपनी रिहाईश हमेशा लाहौर में ही रखी और अपने लिये एक खास कोठी बनावाई जिसका नाम अपने बेटे के नाम पर `जावेद मंजिल´ रखा। इकबाल ने फारसी में भी बहुत कुछ लिखा है। इकबाल का 65 वर्ष की आयु में दिनांक 21-04-1938 को देहांत हो गया।

इकबाल के बारे में इतने कम शब्दों में कह पाना मुश्किल हैं क्योंकि उनके जीवन के कई और भी पहलू हैं। जिनके बारे में फिर कभी बात करेंगे फिलहाल प्रस्तुत है उनकी एक नज्म जो उन्होंने अपने प्यारे हिन्दुस्तान के लिये लिखी है।

तराना-ए-हिन्द

सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा
हम बुलबलें हैं उसकी ये गुलसिता हमारा

गुरबत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में
समझो वहीं हमें भी दिल है जहा हमारा

पर्वत वो सबसे ऊंचा हम्साया आसमां का
वो संतरी हमारा वो पासबां हमारा

गोदी में खेलती हैं जिसकी हजारों नदियां
गुलशन है जिसके दम से रशके जिनां हमारा

ऐ आबे रौदे गंगा ! वो दिन है याद तुझको
उतरा तेरे किनारे जब कारवां हमारा

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखनस
हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दुस्तां हमारा

यूनान ओ मिस्र ओ रोमा सब मिट गये जहां से
अब तक मगर है बाक़ी नाम ओ निशां हमारा

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमां हमारा

इकबाल ! कोई मरहम अपना नहीं जहां में
मालूम क्या किसीको दर्दे जहां हमारा

Sunday, August 10, 2008

इतिहास में दफन एक झील

इतिहास बताता है कि कभी नैनीताल और इसके आस पास ६० से अधिक झीलें थीं जो घने वनावरण से ढकी और स्वप्निल नीले पानी से लबालब रहती थीं। लेकिन प्रकृति और मनुष्य ने मिल कर ५० से अधिक झीलों को लील लिया। अब जो एक दर्जन के करीब झीलें बची हुई हैं, गहरे संकट में हैं और अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही हैं।

गौरतलब बात यह है कि भारत सरकार द्वारा बची हुई झीलों के लिए एक अरब रुपये की एक भारी-भरकम योजना संचालित की जा रही है। नैनीताल, भीमताल, सातताल, नौकुचियाताल, खुर्पाताल और नल-दमयन्ती ताल जैसी झीलों का प्राकृतिक जीवन लौटने की उम्मीद इस योजना से जरूर की जानी चाहिए, लेकिन काल का ग्रास बन चुकी मलबा ताल जैसी झीलों के पुनर्जीवन को इस योजना का हिस्सा ही नहीं बनाया गया है। इसलिए कभी १२१.७६ एकड़ में फैले ख़ूबसूरत मलबा ताल में दोबारा जीवन हिलोरे लेगा, ऐसी कोई आशा करना व्यर्थ होगा।

मलबा ताल नाम की यह सुन्दर झील भीमताल से करीब नौ मील उत्तर-पूर्व में 3,२०० फीट की ऊंचाई पर स्थित थी। विशेषज्ञ बताते हैं कि मलबा ताल हजारों साल पहले प्राकृतिक हलचलों के कारण अन्य झीलों की तरह अस्तित्व में आयी थी। इस क्षेत्र में यात्रा कर चुके अनेक देशी और विदेशी यात्रियों ने मलबा ताल का दिल खोल कर जिक्र किया है। एटकिंशन ने अपने गजेटियर `एटकिंशन गजेटियर´ में मलबा ताल के सौन्दर्य से अभिभूत हो इसका विस्तृत विवरण दर्ज किया है। उनका कहना है कि `भीमताल से एक सड़क द्वारा उत्तर में पहाड़ी धार को चढ़ते हुए इस झील तक पहुंचा जा सकता है। यह झील मछली पकड़ने के लिये विशेष रूप से जानी जाती थी और आवश्यता पड़ने पर यहाँ बने आवास में निवास करने की सुविधा भी थी। इस झील का आकार कहीं पर चौड़ा तो कहीं पर संकरा है जो दोनों पहाडियों की आकृति के अनुसार है, जिनके बीच यह झील स्थित है। झील के दक्षिणी छोर से इसका पानी बाहर निकलकर गौला नदी की सहायिका के स्रोत का रूप लेता है। इस कारण वहाँ पर एक जल कपाट सा बनाया गया है, ताकि झील में पानी का स्तर उठाकर पहाड़ों की तलहटी वाले क्षेत्र भाबर में सिंचाई के लिये इसके पानी का इस्तेमाल किया जा सके।´

एटकिंसन ने लिखा है कि झील के पश्चिमी छोर पर कालसागड़ का पानी आकर मिलता है, जो गागर चोटी (7,855 फीट) से लेकर रामगढ़ चाय बाग के ऊपर से गागर में फैली घाटी के पानी को समेटता है। यह नदी अपने साथ बड़ी मात्रा में पत्थर व मलबा लेकर झील में डालती रही और दोनों तरफ की पहाडियों के भूस्खलन का कारण बनी। यह झील बीच में 4,480 फीट लम्बी और सबसे चौड़े हिस्से में 1,883 फीट है और इसका विस्तार करीब १२१.७६ एकड़ में है। इसकी गइराई 128 फीट है। इस झील का पानी साफ और नीले रंग का है।

सिर्फ बरसात में मलबा बहकर आने का कारण इसका रंग गन्दा और मटमैला हो जाता है। इस झील के पानी को पीने योग्य नहीं समझा गया, जिसका कारण पानी है या ऊपर की घाटी का जलवायुगत असर कि मलबा ताल के पानी को यूरोपीय और स्थानीय लोग स्वास्थ्य के लिये खराब मानते हैं। मलबा ताल के बारे में स्थानीय लोगों में एक किंवदन्ती भी मशहूर थी, जिसे आज भी क्षेत्र के कुछ बूढे़ सुनाते हैं।

कहा जाता है कि पुराने समय में च्यूरीगाड़ में एक रैकवाल किसान था जिसका नाम मलबा था। वह बहुत ही ताकतवर और पहलवान था तथा स्थानीय लोगों को बहुत परेशान किया करता था। एक बार वह किसी व्यक्ति की पत्नी को एक गुफा में ले गया, जिससे देवता उस पर बहुत नाराज हुए और उन्होंने भूस्खलन कर गौला पर बाँध बना दिया जिससे गुफा उसमें डूब गई और इस मलबा झील का निर्माण हुआ। झील के निकास स्थान से काफी ऊपर भूस्खलन के निशान थे, जिसे लोग देवताओं द्वारा किया गया भूस्खलन बताते हैं। उस समय उस जगह का नाम मलवा का पैरा था। यह किंवदन्ती मलबाताल के अस्तित्व में आने की प्राकृतिक हलचलों की पीढ़ियों से चली आ रही स्मृतियों का हिस्सा हो सकती है, लेकिन मलबा ताल के नक्शे से गायब हो जाने के बारे में स्थानीय लोग कुछ ठोस नहीं बता पाते।

भूगर्भ विज्ञानी बताते हैं कि नैनीताल की मौजूदा झीलें जिन संकटों का सामना कर रही हैं, मलबा ताल उनसे दो चार नहीं हो पाया, इसलिए अपना अस्तित्व गँवा बैठा। झील के जलग्रहण क्षेत्र में व्यापक पैमाने पर वन विनाश हुआ, जिससे झील में पानी के साथ मलबा आने की गति बढ़ती चली गई। इस तरह अपने नाम को चरितार्थ करते हुए मलबा ताल मलबे में विलीन हो गया। क्या मलबा ताल को पुनर्जीवित किया जा सकता है, इसका जवाब भूगर्भविज्ञानी `हाँ ´ में जरूर देते हैं, लेकिन झील के अस्तित्व खो बैठने के कारणों की पड़ताल के बगैर ऐसी किसी कवायद को निरर्थक बताते हैं।