Monday, May 16, 2011

मेरी रानीखेत यात्रा - 2


जिस समय तक हम दोस्त की बहन के घर पहुंचे हमें 4.30 बज गये थे और ठंडी भी बहुत बढ़ गयी थी। घर में दीवाली की रौनक थी जिसमें हम भी शामिल हो गये और हमारा पैदल बाजार आने का प्लान केंसिल हो गया। रानीखेत में भी शाम के समय दीवाली की काफी रौनक थी पर मुझे नैनीताल के मुकाबले थोड़ा कम ही लगी क्योंकि बहुत ज्यादा पटाखों का शोर नहीं सुनाई दे रहा था जो कि हर लिहाज से बहुत अच्छा था। हमने बरामदे में खड़े होकर कुछ देर तक दीवाली का नजारा देखा पर ठंडी से बुरा हाल हो जाने के कारण अंदर आ गये और गप्पें मारने लगे। अगली सुबह करीब 9 बजे हमें वापस नैनीताल लौटना था सो हमने खाना खाया और सो गये।





सुबह थोड़ी आलस भरी थी क्योंकि अच्छी खासी ठंडी थी। थोड़ा आलस करने के बाद हम उठे और बाहर बरामदे में आ गये। यहाँ से हिमालय का नजारा दिखायी दे रहा था पर उसके ऊपर बादल छाये थे। खैर हिमालय का नजारा देखते हुए गुनगुनी धूप में काॅफी पीने का अलग ही मजा होता है जिसका हमने पूरा फायदा उठाया। हमें आज 9 बजे रानीखेत से निकलना था क्योंकि फिर मेरी दोस्त के भाई को दिल्ली जाना था। इसलिये हम नाश्ता कर के ठीक 9 बजे वहाँ से निकल गये। सुबह की धूप में रानीखेत अलग ही मूड में लग रहा था। जब हम वापस लौट रहे थे तब अचानक ही हमने झूला देवी के मंदिर जाने का फैसला कर लिया और गाड़ी वहाँ को मोड़ ली।


यह मंदिर रानीखेत से 7 किमी. दूरी पर चैबटिया जाने वाले रास्ते में है। जब हम इस रास्ते पर बढ़े तो चैबटिया का घना जंगल शुरू हो गया। इस जंगल में कई प्रजाति के पेड़-पौंधे हैं। जंगलों के बीच से जाती हुई सड़क बहुत अच्छी लगती है। झूला देवी मंदिर के बारे में कहा जाता है कि पहले यहाँ काफी घना जंगल था और इसमें कई जंगली जानवर थे जो ग्रामीणों पर हमला कर उन्हें मार देते थे। ग्रामीणों ने मां दुर्गा से अपनी रक्षा की प्रार्थना की। मां दुर्गा ने एक ग्रामीण के सपने में आकर इस स्थान पर अपना मंदिर बनाने के लिये कहा। जब यहाँ पर खुदाई की गई तो मां दुर्गा की मूर्ति निकली जिसे इसी जगह पर स्थापित कर दिया गया। बाद में देवी ने फिर सपने में आकर इस मंदिर में झूला लगाने के लिये कहा जिसके बाद से इसे झूला देवी का मंदिर कहा जाने लगा। इस मंदिर के चारों ओर अनगिनत छोटी-बड़ी घन्टियां टंगी हुई हैं जिन्हें श्रृद्धालु आकर मंदिर में चढ़ा जाते हैं।

यहाँ से फिर हम नैनीताल के लिये वापस लौट लिये। जब हम वापस लौट रहे थे तो अचानक गाड़ी में जोर-जोर से झटके लगने लगे। पीछे बैठे होने के कारण मुझे झटके ज्यादा जोर से लग रहे थे। मैंने अपने दोस्त को गाड़ी की स्पीड कम करने को कहा। उसने बोला उसने स्पीड कम ही रखी है। खैर कुछ देर ऐसे ही चलता रहा और फिर झटके और जोर से लगने लगे। मैंने स्पीड कम करने के लिये कहा तो उसने बोला कि स्पीड तो कम ही है। कुछ देर बाद जब बुरी तरह झटके लगने लगे तो मैंने गुस्से के साथ उसे बोला कि वो गाड़ी रोक के मुझे यहीं उतार दे मैं किसी दूसरी टैक्सी से आ जाउंगी तो उसने मुझे गाड़ी की स्पीड देखने को बोला जो 20-25 की स्पीड पे चल रही थी। मुझे यकीन नहीं हुआ कि इतनी कम स्पीड में इतने झटके क्यों लग रहे हैं। हमने गाड़ी रोक कर जब टायर देखे तो पता चला कि पीछे वाला टायर बुरी तरह फट गया था।


हालांकि रोडसाइड बोर्ड यात्रा के सुखद होने और प्रकृति की सुन्दरता को इन्जाॅय करने की कामना कर रहे थे पर फिर भी हमारा अच्छा खासा सफ़र अंग्रेजी वाला सफर बन गया था पर अच्छा यह था कि हमारे पास स्टेपनी रखी हुई थी सो हमने गाड़ी साइड लगा कर टायर बदलना शुरू कर दिया। जब हम टायर बदल रहे थे तो आने-जाने वाले लोग हमें ऐसे देख रहे थे जैसे हम पता नहीं क्या कर रहे हों...कुछ सज्जन ऐसे भी थे जो ये दिखा रहे थे कि अब तो हमें इस महान मुसीबत से बस वो ही बचा सकते हैं और कुछ लोग अपनी फ्री एडवाइस देने से भी बाज़ नहीं आये। खैर हमने टायर बदला और आगे निकल लिये। इसके आगे का रास्ता अच्छे से बीता पर बेचारे टायर की हालत देख कर बहुत अफसोस हुआ और साथ में अपनी अच्छी किस्मत पर खुशी भी हुई की गाड़ी पलटी नहीं। इस बार समय बहुत कम होने के कारण मैं रानीखेत को बहुत अच्छे से नहीं देख पायी इसलिये एक बार फिर रानीखेत जाना तो तय है...

समाप्त

Monday, May 9, 2011

मेरी रानीखेत यात्रा-1


रानीखेत की मेरी यह यात्रा 5-6 नवम्बर 2010 को दीवाली वाले दिन की है। हमेशा की तरह मेरी यह यात्रा भी अचानक ही बनी और ऐसी यात्रायें हमेशा बहुत मजेदार रहती हैं। हुआ कुछ ऐसा कि दीवाली से एक दिन पहले मेरी दोस्त ने बोला कि वो और उसका भाई दीवाली मनाने अपनी बहन के पास रानीखेत जा रहे हैं। उसने मुझे भी साथ चलने के लिये बोला जिसे मैंने तुरंत स्वीकार कर लिया।

अगली सुबह दीवाली वाले दिन हम 11 बजे रानीखेत के लिये निकल गये। रास्ते में हमें कई जगह ट्रेफिक जैम का सामना करना पड़ा जिस कारण देरी भी हो रही थी। हमें भवाली पहुंचने में ही काफी समय लग गया पर भवाली से आगे फिर इतना बुरा हाल नहीं था। हमने तय किया कि गरमपानी में रुक कर रायता-पकौड़ी खायेंगे। गरमपानी अपने स्पेशल तरह के तीखे रायते और पकौड़ी के लिये प्रसिद्ध है। मेरी दोस्त का भाई रायते से ऐसा बेहाल हुआ कि काफी देर तक बेचारा आंख और नाक पोछते हुए ही गाड़ी चलाता रहा। कुछ समय वहाँ रुकने के बाद हम आगे निकल गये और रानीखेत जाने के लिये खैरना पुल को पार किया। रानीखेत वाला रास्ता मेरे लिये नया था। यह रास्ता मुझे अल्मोड़ा वाले रास्ते से ज्यादा अच्छा लगा। यह रास्ता भी नदी के साथ-साथ ही चल रहा था। इसके किनारे के खेत और गांवों को देखना बहुत अच्छा लग रहा था। आजकल खेतों में सरसों और धान लगे थे जो खेतों को बहुत आकर्षक बना रही थी। हमने कुछ देर गाड़ी रोकी और इस घाटी का नजारा लिया। मौसम सुहावना था इसलिये गुनगुनी धूप में बैठना अच्छा भी लग रहा था। कुछ देर धूप का मजा लेने के बाद हम आगे बढ़ गये। रास्ते में हमें कई छोटे-छोटे गाँव दिखायी दिये। सड़कों के किनारे बनी छोटी-बड़ी बजारें भी दिखायी दे रही थी जिनमें जरूरत का सारा सामान मिल जाता है।





जैसे-जैसे हम रानीखेत के नजदीक पहुंचते गये जमीन की टोपोग्राफी आकर्षित करने लगी। जिसे लाल रंग की मिट्टी और ज्यादा आकर्षक बना रही थी। रानीखेत की समुद्रतल से ऊँचाई 1,869 मीटर है। मान्यता है कि यहां के राजा सुखहरदेव की पत्नी रानी पदमिनी को यह जगह बेहद पसंद थी इसलिये इस जगह का नाम भी रानीखेत पड़ गया। सन् 1869 में ब्रिटिशर्स ने यहाँ कुमाऊँ रेजीमेंट का हैडक्वार्टर बनाया। रानीखेत कैन्टोलमेंट क्षेत्र है इसलिये यह जगह आज भी बेहद व्यवस्थित है। जब हम रानीखेत पहुंचे तो हमने फैसला किया कि हम ताड़ीखेत होते हुए बिनसर महादेव के मंदिर जायेंगे और गाड़ी को ताड़ीखेत वाले रास्ते पर मोड़ लिया।



ताड़ीखेत बहुत अच्छी जगह है। यहाँ का रास्ता भी घने जंगलों के बीच से होता हुआ जाता है। यहाँ से हिमालय का भी शानदार नजारा दिखता है। करीब एक-डेढ़ घंटे में हम बिन्सर महादेव के मंदिर पहुंच गये। यह मंदिर काफी भव्य है। मान्यता है कि यहाँ शिव ध्यान करने के लिये आये थे। शिव के अलावा यहाँ माँ सरस्वती और ब्रह्या की मूर्तियां भी हैं। अपने वास्तु के लिये प्रसिद्ध इस मंदिर का निर्माण 9वीं सदी में राजा कल्याण सिंह ने मात्र एक दिन में ही किया था। मान्यता है कि बैकुण्ठ चतुर्दशी के दिन महिलायें हाथ में दिया जला कर बच्चे की कामना करती है। यह मंदिर चारों ओर से घने जंगल से घिरा हुआ है और इसकी समुद्रतल से ऊँचाई 8,136 फीट है। यहां ठंडी भी बहुत ज्यादा थी। यह मंदिर काफी साफ-सुथरा था और यहाँ एक संस्कृत विद्यालय भी चलता है। जब हम मंदिर से बाहर निकले तो आंगन में लकडि़यों की आग जल रही थी। ठंडी होने के कारण हम आग के पास चले गये। कुछ देर रुकने के बाद हम यहाँ से वापस लौट गये।


जब हम वापस रानीखेत पहुंचे तो शहर में प्रवेश करने से पहले चुंगी देनी पड़ी जिसके बाद ही हमें अंदर प्रवेश करने दिया गया। रानीखेत में आज भी पुराने समय के कोठियां, बंग्ले और मैदान दिख जाते हैं। आर्मी एरिया होने के कारण जगह काफी साफ है और किसी भी तरह का अवैधानिक निर्माण यहाँ नहीं हुआ है। यही कारण है कि इसकी खूबसूरती आज भी बनी हुई है। जब हम रानीखेत बाजार पहुंचे तो बाजार में दीवाली के कारण बहुत चहल-पहल थी और लगभग हर तरह का सामान बिक रहा था बस जेब में पैसा होना चाहिये...

जारी है...

Monday, May 2, 2011

मेरी आगरा यात्रा

मेरी आगरा यात्रा के दौरान आगरा फोर्ट की कुछ और यादें






आगरा फोर्ट से ताजमहल का नजारा