आज सुबह हमने लक्ष्मण झूला जाने का प्रोग्राम बनाया था इसलिये सुबह-सुबह ही टैक्सी स्टेंड के लिये निकल गये। टैक्सी स्टैंड में एक बुजुर्ग सा दिखने वाला आदमी हमारे पास आया। उसके साथ हमारा दाम सही-सही तय हो गया और हम लोग लक्ष्मण झूला की ओर निकल गये। हरिद्वार से शायद करीब 2-3 घंटे की दूरी हमने तय की। रास्ता काफी अच्छा था और उससे भी ज्यादा अच्छा यह रहा कि ड्राइवर बहुत अच्छा था पर बेचारा नेताओं से बड़ा दु:खी था। कई बार उसने कहा कि - साब ! अगर नेता अच्छे हो जायें तो सब कुछ अच्छा हो जायेगा। इतना जो आप अव्यवस्था देख रहे हैं न इसी कारण तो है। हमारी तो कोई सुनता नहीं है और जिसकी सुनते हैं वो कुछ कहता नहीं है। उसकी बात अपने आप में बिल्कुल ठीक थी इसलिये हमने भी सर हिला दिये। उसकी बातों में रास्ता कैसे कटा पता ही नहीं चला। उसने हमें लक्ष्मण झूला के पास छोड़ दिया और बोला आगे में नहीं आ सकता हूं पर आप यहां से घुमते हुए राम झुला से आ जाना मैं आपको वहीं मिल जाउंगा। इतना कह के वो हमें छोड़ के चला गया। थोड़ा सा पैदल चलने के बाद मेरी नजरों के सामने लक्ष्मण झूला था। वही लक्ष्मण झूला जिसमें बचपन में बहुत मजे किये थे। पर अब इस पुल में उतनी रौनक नहीं थी। मुझे बस कुछेक विदेशी ही घुमते दिखायी दिये। इसका एक कारण था कि इससे कुछ दूरी पर ही एक दूसरा पुल बन गया है जिसे राम झुला कहते हैं। लक्ष्मण झूला से गंगा का भव्य दृश्य दिखाई दे रहा था। और वहीं गंगा के सामने दशेश्वर मंदिर की विशाल इमारत थी। हम लोग काफी समय तक पुल में ही खड़े रहे। और गंगा से आने वाली ठंडी हवाओं का मजा लेने लगे। अब तो ये पुल हिलता ही नहीं है पर पहले काफी हिलता था और बंदर तो बेहिसाब थे पर अब पहले जैसा कुछ भी नहीं था। कुछ देर बाद हम पुल पार करके आगे बढ़ गये और गीताश्रम जाने का इरादा बनाया।
गीताश्रम जाते हुए एक छोटा सा ढाबे नुमा रैस्टोरेंट हमें दिख गया सो फैसला हुआ कि पहले पेट पुजा की जायेगी बांकी के दर्शन बाद में। उस ढाबे में कुछ और वहीं के लोग भी बैठे थे जिन्होंने हमसे पूछा - हम कहां से आये हैं। जब हमने बताया कि उत्तराखंड के ही हैं तो उनमें से एक पता नहीं किस तनाव में सीध हमसे बोला - अरे साब किसका उत्तराखंड, कहां का उत्तराखंड। हम तो यूपी में ही अच्छे थे। यहां तो न हमें कोई ढंग का रोजगार ही मिलता है न हमारी कोई सुनने वाला है। हां बस नेताओं की लाल बत्तियां जरूर बढ़ गयी हैं। वहां बैठे ज्यादातर युवा इस बात से भी परेशान थे कि शराब का चलन भी अब पहले से ज्यादा बढ़ गया है। उस ढाबे में चाय समोसे खा कर और उन युवाओं से बात करके हम लोग आगे की ओर बढ़ गये। इस जगह से गीताश्रम करीब 2 किमी. दूरी पर था जो हम लोगों ने पैदल ही तय करने का सोचा। यहां विदेशी सैलानी बहुत ज्यादा तादाद में दिखाई दिये। आपस में बातें करते कराते हम लोग स्वर्गाश्रम में पहुंच गये। इसके बाहर से ही बहुत सारे सैलानी बैठे हुए थे जिनमें ज्यादा बंगाली थे।
स्वर्गाश्रम से ही थोड़ी दूरी पर गीताश्रम था। यहां पर कई सारे सन्यासी बैठे हुए थे। इनमें से कुछ तो विदेशी भी थे और इसके सामने पर ही राम झूला था जिसमें खूब रौनक थी।
यहां से एक पतला सा रास्ता पकड़ के हम आगे निकल गये जिसमें कई छोटे बड़े मंदिर और भी थे। पर गंदगी तो उफ। गंदगी को देखकर बड़ा दु:ख हुआ। इन छोटे बड़े मंदिरों के बीच-बीच में कई तरह की दुकानें और रेस्टोरेंट भी थे जिनमें चोटीवाला का रेस्टोरेंट भी था। जो कि हरिद्वार का एक मशहूर भोजनालय है। पहले इस भोजनालय में पत्तलों में खाना मिलता था पर अब न तो पत्तल रहे और न खाने का वो स्वाद।
मुझे ऐसा महसूस हुआ कि समय के साथ-साथ यह भी बदल ही गया है पर इस रैस्टोरेंट के बाहर से चोटीवाला की जो मूर्ति लगी थी उसने तो दिल जीत ही लिया। कम से कम कुछ तो तस्ल्ली मिली। गंगा के किनारे बने सफेद रंग की शिव की बड़ी सी मूर्ति भी खासा आकर्षित कर रही थी।
यहां गंगा का एक दूसरा ही चेहरा सामने आता है। गंगा बिल्कुल शांत और बहुत ज्यादा फैली हुई दिखती है जिसे निहारना एक अलग ही एहसास देता है। इसमें कुछ बोट भी चलती हैं और वॉटर गेम भी होते हैं। कुछ समय यहां भी अपने ही अंदाज में चहलकदमी करते हुए राम पुल से वापस टैक्सी की ओर आ गये। अब तो गर्मी बढ़ने लग गयी थी इसलिये हरिद्वार वापस आने की ही सोची सो वापसी का रास्ता ले लिया। कुल मिला के ऋषिकेश में घुमना अच्छा लगा वापस आते हुए मैं एक जैन मंदिर में रुक गयी। वैसे तो ये मंदिर नया ही था पर इसका शिल्प किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर ले। एक भव्य सी इमारत जो कि पूरी ही अनूठे शिल्प से बनी हुई। जब हम इस मंदिर के अंदर गये तो एक महिला जो की जैन पोशाक में थी उसने हमें प्रेम से बोला कि - मंदिर के अंदर फोटो मत खींचना लेकिन बाहर की फोटो खींच सकते हो। हम कुछ देर तक इस मंदिर में घुमते रहे और बहुत अच्छा लगा। उसके बाद बाहर की कुछ फोटो ले कर हम लोग वापस आ गये।
फिर तो हम कुछ देर बाद टैक्सी स्टेंड पर थे। हमने ड्राइवर से किसी ऐसे रैस्टोरेंट के बारे में पूछा जहां घर की तरह का खाना मिल जाये। वरना तो होटलों का खाना खा खा कर परेशान हो गये थे। उसने हमें एक होटल बता दिया। ये होटल दिखने में तो मामूली ही था। लकड़ी की लम्बी-लम्बी पतली मेजों का सामने रखी हुए लकड़ी की पतली से बेंचें। पर था बिल्कुल साफ-सुथरा। हमने उससे खाने के लिये कहा तो उसने हमारे सामने खाना परोस दिया। जिसे देख कर सच में मजा आ गया। इतने दिनों बाद आज हमें वैसा खाना मिला जिसकी हम तलाश कर रहे थे। बिल्कुल घर के खाने की तरह सादा। उसी समय ये भी तय हो गया कि शाम को भी खाने के लिये यहीं आयेंगे हालांकि ये हमारे होटल से काफी दूरी पर था। खाना निपटाने के बाद हम बाजार के रास्ते अपने होटल की तरफ बढ़ गये। ये बाजार दूसरी ही थी। यहां बड़ी-बड़ी दुकानें थी और खूब सारे हलवाइयों की दुकानें भी थी। एक दुकान ने हमारा अचानक ही ध्यान अपनी ओर खींच लिया क्योंकि उसने दुकान के आगे बड़ी सी घंटी लगाई थी और जोर से घंटी को झटका देते हुए आवाज लगा रहा था - आइये प्रभु ! सेवा का अवसर दीजिये। हमने सोचा की चलो भक्त को अवसर दे ही देते हैं सो हम अंदर आ गये और सबने एक-एक प्लेट गुलाब जामुन का ऑर्डर भक्त को दे दिया। कुछ देर बाद वो दोनों में रख के गुलाब जामुन ले आया। उसके गुलाब जामुन भी बहुत स्वादिष्ट थे और पत्तल के दोनों में परोस के देना भी बहुत अच्छा लगा। कम से कम कहीं तो कुछ बचा हुआ है और इसी खुशी के चक्कर में एक-एक प्लेट गुलाब जामुन और साफ किया गया।
इसके बाद तो होटल वापस आने के अलावा कोई और रास्ता ही नहीं था क्योंकि गर्मी बहुत ही ज्यादा बढ़ चुकी थी। सो हम लम्बी सी बाजार को देखते हुए वापस कमरे में आ गये।
जारी...
Thursday, May 28, 2009
Saturday, May 23, 2009
मेरी हरिद्वार यात्रा - 2
कुछ देर रेस्ट करने के बाद हम लोग गंगा घाट की तरफ घूमने निकले। गंगा घाट मेरे लिये नये नहीं थे पर फिर भी करीब 12 साल बाद इसे देखना एक अलग अहसास दे रहा था। बहुत कुछ बदल गया था। हमें होटल मैनेजर ने बता दिया था कि आरती के समय बहुत भीड़ रहती है इसलिये दूसरी तरफ जा के यदि आप देखोगे तो ज्यादा अच्छा रहेगा। उसका कहना मानते हुए हमने दूसरी ओर जा कर अपने लिये एक जगह ढूंढी और वहां खड़े हो गये। हर एक मिनट के बाद कोई न कोई कुछ न कुछ लिये सामने पर खड़ा हो जाता। कभी चंदे के लिये, कभी फूलों के लिये, कभी प्यास्टिक चादरों के लिये तो कभी किसी दूसरी चीज के लिये। ये सब देख के थोड़ा चिढ़ भी हो रही थी पर साथ ही यह एहसास भी हो रहा था कि गंगा मां कितनों को पालती है। उसकी इसी महानता के कारण उसके सामने सर श्रद्धा से झुक जाता है। कुछ ही देर बाद आरती शुरू हो गयी। जैसे ही आरती शुरू हुई सब लोग खड़े हो गये और हम कुछ नहीं देख पाये बस सुन रहे थे गंगा मां की आरती।
आरती खत्म होने के बाद कुछ देर चहल कदमी करके हम गंगा के पानी में पैर डाल के बैठ गये और गंगा में बहने वाले दीपों को देखने लगे। यूंही पैर डाले करीब 1 घंटा हम सब लोग सुकून से बैठे रहे और बातें करने लगे। घाट में काफी हलचल थी सब अपने-अपने काम में मशगूल थे। कुछ समय बाद हम वहां से उठे और घाट के किनारे वाले बाजार में चले गये। वहीं एक होटल ढूंढ के खाना खाया और वापस होटल आ गये। आज थोड़ा थकावट भी थी इसलिये सभी लोग आराम से सो गये।
दूसरे दिन सुबह हम पूजा के लिये कुश घाट की ओर निकल गये। मैं जिन पंडित जी को जानती थी उनका तो देहांत हो चुका था इसलिये हमने सोचा की कुश घाट में ही किसी पंडित को ढूंढ लेंगे। हालांकि ये बहुत कठिन काम है पर फिर भी हमारी किस्मत अच्छी रही कि हमें एक 24-25 साल का युवा पंडित मिल गया। उससे हमने अपनी सारी बातें बतायी। उन्होंने हमें सामान कि लिस्ट बतायी और बोला की वो हमारी पूजा अच्छे तरीके से सम्पन्न करवा देगा। और हुआ भी यही उस पंडित ने हमारे सारे काम बहुत अच्छे तरीके से करवा दिये। पर पूजा करते-करते करीब दोपहर के 2 बज चुके थे। गर्मी अपने पूरे शबाब पे थी और अच्छी खासी लू चल रही थी। इसलिये हमने खाना खा कर होटल वापस चले जाना ही बेहतर समझा।
शाम के समय हम फिर बाजार की ओर निकल गये। बाजार देश-विदेशी सभी तरह के यात्रियों से खचाखच भरी हुई थी। आने वाले साल में कुम्भ मेला होने के कारण काफी काम भी चल रहा था इसलिये थोड़ा परेशानी और हो रही थी। सड़कों मे आदमियों की भीड़ इतनी ज्यादा थी कि वाहनों को अपने लिये जगह बना के चलना पड़ रहा था जिसे देख के हमें बहुत अच्छा लगा क्योंकि अकसर तो पैदल चलने वालों को ही वाहनों से बचना पड़ता है। ख्ौर आज हम फिर गंगा घाट की तरफ निकल गये। पूजा कार्य सम्पन्न हो चुकने के कारण हमने सोच रखा था कि आज शाम को हर की पैड़ी में जायेंगे और वहीं से दीप दान करेंगे।
हर की पैड़ी की तरफ जैसे ही जाने को हुए कि कई सारे पंडितों ने हमें घेरना शुरू कर दिया। किसी ने बोला पहले यहां आना पड़ता है नहीं तो काम सफल नहीं होते। किसी ने कहा पहले दीये की पूजा करानी होती है। कोई कुछ तो कोई कुछ ये सब देख के फिर अफसोस हुआ। धर्म के नाम पर भी ठगी। ख्ौर उन सबसे निपटते हुए हम घाट के किनारे चले गये। उसी समय पीछे से एक पंडित ने कहा - माचिस ले लो। मैंने हंसते हुए उससे कहा कि - मैं माचिस नैनीताल से साथ लेकर आयी हूं और दीया जलाने लगी। इतनी देर हुई थी कि फिर एक पंडित ने पीछे से कहा - दीये का मुंह तो उल्टा हो गया। ऐसा नहीं करते। सो हमें जवाब देना ही पड़ा - मन चंगा तो कठौती में गंगा। अंत में जाना तो सब गंगा में ही है। वैसे भी भगवान श्रद्धा देखते हैं न कि दीये का मुंह। और हमने अपने दीये गंगा मां को समर्पित कर दिये। जो कि काफी दूर तक बहते रहे थे। वहां से जब हम पलट रहे थे तो उसी पंडित ने बड़े ही अफसोस के साथ कहा कि - यदि सब आपके जैसा ही सोचने और करने लगे तो हमारा धंधा ही चौपट हो जायेगा। हम क्या करेंगे ? उसकी ये साफगोई हमें अच्छी लगी और उसे दक्षिणा देते हुए हम मंदिरों की तरफ बढ़ गये। फटाफट दर्शन करके घाट के दूसरी ओर आ गये। शाम के समय घाट में काफी हलचल होने लगती है।
आज भी जैसे ही आरती शुरू हुई सामने के लोग उठ गये पर आज मैंन अपने लिये उंचाई वाली एक जगह ढूंढ ली थी जहां से मैं आरती आराम से देख सकती थी। अचानक ही मेरी नजर एक विदेशी जोड़े पर पड़ी जो काफी कोशिश कर रहे थे आरती देखने की पर नहीं देख पाये। मुझे लगा कि ये पता नहीं कहां से आये हैं और इतनी कोशिश कर रहे हैं आरती देखने की। मैं तो फिर भी इसी देश की हूं अत: अतिथि देवो भव की परंपरा को निभाते हुए मैंने अपनी जगह उन्हें दे दी। आरती खत्म होने के बाद आज हम लोग काफी देर तक घाट में घूमने का मजा लेते रहे। एक चीज ने इस बार भी हमें बेहद आहत किया वो थी घाट के किनारे फैली गंदगी। गंगा मां हमारे लिये इतना सब करती है और बदले में हम लोग ही उसे गंदा करते हैं इस बात से बेहद शर्मिंदगी महसूस हुई।
कुछ देर बाद हम लोग बाजार की तरफ निकले। हरिद्वार के बाजार काफी रंग-बिरंगे सामानों से सजे हुए और विविधता भरे दिखायी दिये। कुछ देर बाजार में टहलने के बाद एक रेस्टोरेंट में खाना खाया। होटल वापस आये और सो गये। आज का दिन तो पूरा ऐसे ही निकल गया.....
जारी.....
आरती खत्म होने के बाद कुछ देर चहल कदमी करके हम गंगा के पानी में पैर डाल के बैठ गये और गंगा में बहने वाले दीपों को देखने लगे। यूंही पैर डाले करीब 1 घंटा हम सब लोग सुकून से बैठे रहे और बातें करने लगे। घाट में काफी हलचल थी सब अपने-अपने काम में मशगूल थे। कुछ समय बाद हम वहां से उठे और घाट के किनारे वाले बाजार में चले गये। वहीं एक होटल ढूंढ के खाना खाया और वापस होटल आ गये। आज थोड़ा थकावट भी थी इसलिये सभी लोग आराम से सो गये।
दूसरे दिन सुबह हम पूजा के लिये कुश घाट की ओर निकल गये। मैं जिन पंडित जी को जानती थी उनका तो देहांत हो चुका था इसलिये हमने सोचा की कुश घाट में ही किसी पंडित को ढूंढ लेंगे। हालांकि ये बहुत कठिन काम है पर फिर भी हमारी किस्मत अच्छी रही कि हमें एक 24-25 साल का युवा पंडित मिल गया। उससे हमने अपनी सारी बातें बतायी। उन्होंने हमें सामान कि लिस्ट बतायी और बोला की वो हमारी पूजा अच्छे तरीके से सम्पन्न करवा देगा। और हुआ भी यही उस पंडित ने हमारे सारे काम बहुत अच्छे तरीके से करवा दिये। पर पूजा करते-करते करीब दोपहर के 2 बज चुके थे। गर्मी अपने पूरे शबाब पे थी और अच्छी खासी लू चल रही थी। इसलिये हमने खाना खा कर होटल वापस चले जाना ही बेहतर समझा।
शाम के समय हम फिर बाजार की ओर निकल गये। बाजार देश-विदेशी सभी तरह के यात्रियों से खचाखच भरी हुई थी। आने वाले साल में कुम्भ मेला होने के कारण काफी काम भी चल रहा था इसलिये थोड़ा परेशानी और हो रही थी। सड़कों मे आदमियों की भीड़ इतनी ज्यादा थी कि वाहनों को अपने लिये जगह बना के चलना पड़ रहा था जिसे देख के हमें बहुत अच्छा लगा क्योंकि अकसर तो पैदल चलने वालों को ही वाहनों से बचना पड़ता है। ख्ौर आज हम फिर गंगा घाट की तरफ निकल गये। पूजा कार्य सम्पन्न हो चुकने के कारण हमने सोच रखा था कि आज शाम को हर की पैड़ी में जायेंगे और वहीं से दीप दान करेंगे।
हर की पैड़ी की तरफ जैसे ही जाने को हुए कि कई सारे पंडितों ने हमें घेरना शुरू कर दिया। किसी ने बोला पहले यहां आना पड़ता है नहीं तो काम सफल नहीं होते। किसी ने कहा पहले दीये की पूजा करानी होती है। कोई कुछ तो कोई कुछ ये सब देख के फिर अफसोस हुआ। धर्म के नाम पर भी ठगी। ख्ौर उन सबसे निपटते हुए हम घाट के किनारे चले गये। उसी समय पीछे से एक पंडित ने कहा - माचिस ले लो। मैंने हंसते हुए उससे कहा कि - मैं माचिस नैनीताल से साथ लेकर आयी हूं और दीया जलाने लगी। इतनी देर हुई थी कि फिर एक पंडित ने पीछे से कहा - दीये का मुंह तो उल्टा हो गया। ऐसा नहीं करते। सो हमें जवाब देना ही पड़ा - मन चंगा तो कठौती में गंगा। अंत में जाना तो सब गंगा में ही है। वैसे भी भगवान श्रद्धा देखते हैं न कि दीये का मुंह। और हमने अपने दीये गंगा मां को समर्पित कर दिये। जो कि काफी दूर तक बहते रहे थे। वहां से जब हम पलट रहे थे तो उसी पंडित ने बड़े ही अफसोस के साथ कहा कि - यदि सब आपके जैसा ही सोचने और करने लगे तो हमारा धंधा ही चौपट हो जायेगा। हम क्या करेंगे ? उसकी ये साफगोई हमें अच्छी लगी और उसे दक्षिणा देते हुए हम मंदिरों की तरफ बढ़ गये। फटाफट दर्शन करके घाट के दूसरी ओर आ गये। शाम के समय घाट में काफी हलचल होने लगती है।
आज भी जैसे ही आरती शुरू हुई सामने के लोग उठ गये पर आज मैंन अपने लिये उंचाई वाली एक जगह ढूंढ ली थी जहां से मैं आरती आराम से देख सकती थी। अचानक ही मेरी नजर एक विदेशी जोड़े पर पड़ी जो काफी कोशिश कर रहे थे आरती देखने की पर नहीं देख पाये। मुझे लगा कि ये पता नहीं कहां से आये हैं और इतनी कोशिश कर रहे हैं आरती देखने की। मैं तो फिर भी इसी देश की हूं अत: अतिथि देवो भव की परंपरा को निभाते हुए मैंने अपनी जगह उन्हें दे दी। आरती खत्म होने के बाद आज हम लोग काफी देर तक घाट में घूमने का मजा लेते रहे। एक चीज ने इस बार भी हमें बेहद आहत किया वो थी घाट के किनारे फैली गंदगी। गंगा मां हमारे लिये इतना सब करती है और बदले में हम लोग ही उसे गंदा करते हैं इस बात से बेहद शर्मिंदगी महसूस हुई।
कुछ देर बाद हम लोग बाजार की तरफ निकले। हरिद्वार के बाजार काफी रंग-बिरंगे सामानों से सजे हुए और विविधता भरे दिखायी दिये। कुछ देर बाजार में टहलने के बाद एक रेस्टोरेंट में खाना खाया। होटल वापस आये और सो गये। आज का दिन तो पूरा ऐसे ही निकल गया.....
जारी.....
Monday, May 18, 2009
मेरी हरिद्वार यात्रा - 1
इस बार मुझे फिर काफी लम्बे समय के बाद हरिद्वार आने का मौका मिला। असल में आने का कारण तो एक घरेलू पूजा ही थी पर मेरे दिल में कुछ और भी चल रहा था क्योंकि हरिद्वार, मसूरी से मेरी बचपन की कई सारी यादें जुड़ी हुई हैं। जिन्हें में एक बार फिर से ताजा करना चाहती थी। पूजा 23 अप्रेल को होनी थी इसलिये मैंने 22 तारीख को सुबह नैनीताल से निकलने का निर्णय लिया। हालांकि इतनी भीषण गर्मी को देखते हुए इस निर्णय को बिल्कुल गलत ही कहा जायेगा पर मैं रास्ते में आने वाली हर चीज को एक बार फिर देखना चाहती थी।
सुबह करीब 6.30 बजे बस नैनीताल से हरिद्वार के लिये चली। बस में नैनीताल से हरिद्वार जाने वाले बस हम लोग ही थे। बांकी कुछ लोग हल्द्वानी जाने वाले थे। उनमें से एक को इतनी जोर से उल्टी आनी शुरू हुई की मेरे साथ वाले ने कहा कि - वीनू देख शेर दहाड़ रहा है क्योंकि उस एक ने पूरी बस में ऐसा तूफान खड़ा कर रखा था कि सभी अपने कानों में अंगूलियां डाले बैठे थे। जैसे-तैसे हल्द्वानी पहुंचे और उन सज्जन के आतंक से मुक्ति मिली। यहां से कई नये यात्री बस में सवार हो गये। ज्यादातर बीच के स्टेशनों में उतरने वाले ही थे। अभी तक तो गर्मी की मार से थोड़ा बचे थे क्योंकि सुबह का ही समय था पर जैसे-जैसे दिन चढ़ता जा रहा था गर्मी भी अपने असली तेवर दिखाने लगी थी।
हम रास्ते में आगे बढ़ते जाते और मेरे दिमाग में कई बातें बचपन की भी तैरने लगती। जब में बचपन में आती थी तो सबकुछ कितना अजुबा सा लगता था। मां अकसर रास्ते में आने वाली हर चीज के बारे में बताती रहती थी। कोई खेत दिखे तो उन खेतों के बारे में बताती। जंगलों में मोर दिख जाते तो उनके बारे में बताती। खेतों में बैठे बगुलों के बारे में बताती। कोई सामान बेचने बस में चढ़ जाता तो उसके बारे में भी बताती थी। तब मैं छोटी थी इसलिये बहुत कुछ समझ में नहीं आता था पर फिर भी काफी कुछ पता चल जाता था और अच्छा भी लगता। जब मां कुछ नहीं बोल रही होती तो मैं ही मां से कुछ न कुछ पूछती रहती थी। अकसर जब रेल आने वाली होती तो फाटक के पास गाड़ी बहुत देर तक रुकी रहती थी तब मां ये भी बताती थी कि - अभी रेल आने वाली है इसलिये गाड़ी रुकी है। और साथ में ये भी बताती कि जब रेल आने वाली होती है तो उससे पहले उसकी सीटी की आवाज आने लगती है और मेरे कान सीटी की तरफ ही लगे रहते। कई और भी बातें मेरे दिमाग में चलती जा रही थी। और मेरा मन कह रहा था कि काश मैं आज भी बच्ची ही होती और कोई मुझे यूं ही हर चीज के बारे में बताता। पर अब तो मैं बड़ी हो चुकी थी मुझे हर चीज के बारे में पता था। बगुलों के बारे में मुझे काफी बातें पता थी। मोर के बारे में भी मैं सब कुछ जान चुकी थी। रेल आती है तो क्या होता है कि भी मुझे पूरी जानकारी थी पर फिर भी मन कर रहा था कि काश अभी भी मैं बच्ची ही होती.....
मेरे दिमाग में यही चल रहा था और गाड़ी आगे बढ़ती जाती और नये-नये स्टेशनों में रुकती। यात्रियों के साथ-साथ कोई न कोई सामान बेचने वाला भी उसमें चढ़ जा रहा था। इस बार एक मलहम बेचने वाला चढ़ा और जिस तरीके से उसने अपने मलहम के गुण बताये ऐसा लग रहा था जैसे मलहम न हो कर अमर बूटी है जो कि सिर्फ 10रु. में मिल सकती है पर अब यात्री भी समझदार हो गये हैं इसलिये किसी ने भी उस अमर बूटी को खरीदने की नहीं सोची। बाहर देखने पर कभी बड़े-बड़े फैले हुए खेत दिख रहे थे तो कभी जंगल नजर आ रहे थे। लेकिन जंगल अब उतने घने नहीं रहे थे। एक चीज और जो बहुत ही ज्यादा दिखी वो थी कूढ़ा। कूढ़ा कूढ़ा कूढ़ा......इतना कूढा कि जैसे कूढ़े की खेती की जा रही हो और उसमें हिन्दुस्तान का कोई सानी नहीं। यहां कूढ़ा वहां कूढ़ा....उफ।
अब गर्मी से हमारा बुरा हाल होने लगा था। पानी की बोतल में रखा पानी भी उबल रहा था और रास्ते से पानी लेने का रिस्क लेने को हम तैयार नहीं थे। कुछ देर बाद गाड़ी एक ढाबे के पास आधे घंटे के लिये रूकी जहां सबने भोजन किया। हम तो अपने साथ रखे चिप्स और नमकीन खा के ही गुजारा कर लिया क्योंकि रास्ते का खाना...ना बाबा ना। हमने पहले ही सोच लिया था कि रास्ते में तो कुछ खाना ही नहीं है। खाना निपटने के बाद गाड़ी जैसे ही कुछ दूर चली थी कि रास्ता जाम हो गया क्योंकि सामने पर दो गाड़ियां आपस में भिड़ी हुई थी जिस कारण ट्रेफिक अटक गया था और इसे खुलने में करीब आधा घंटा लग गया।
बाहर देखने में अब भी खेत नजर आ रहे थे खेतों में काम करते लोग दिख रहे थे। और साथ ही उन्हें देख के ये भी लग रहा था कि क्या इन्हें गर्मी नहीं लगती होगी ? इतनी भीषण गर्मी में खुले आसमान के नीचे काम करने वाले ये किसान कितना कठिन जीवन जीते हैं और ऐवज में उन्हें क्या मिलता होगा ? बीच में पड़ने वाले बाजारों को देख के जगह के बदलने का अहसास हो रहा था। जैसे-जैसे जगह बदलती दिवारों में लगे विज्ञापन भी बदलने लगते जिन्हें देखना और पढ़ना सबसे ज्यादा मजेदार होता है।
करीब 2.30 में हम हरिद्वार में पहुंच चुके थे। हालांकि मुझे थोड़ा बहुत अंदाजा था हरिद्वार का फिर भी मेरे साथ वालों ने जो प्लेनिंग की थी हमने उसके अनुसार चलने का ही फैसला लिया। उन्होंने बोला कि हम लोग शांतिकुंज जाते हैं और वहीं रहेंगे। और हम लोग शांतिकुज चले गये। मुझे ये बात कुछ समझ नहीं आयी और मैंने बोला कि हरिद्वार के बाजार में काफी होटल रहने को मिल जायेंगे। शांतिकुंज तो बहुत दूर है वहां हम शहर से बिलकुल बाहर हो जायेंगे जो मैं नहीं चाहती थी क्योंकि किसी भी जगह के बारे में वहां के बाजारों से ही तो पता चलता है। खैर मेरा कहना मान लिया गया और हम लोग वहां से वापस लौटे और एक टैक्सी वाले को बोला कि हमें किसी ढंग के होटल में ले चले।
वो टैक्सी वाला भी अच्छा निकला उसने हमें एक अच्छे होटल के बारे में बता दिया और वहां ले गया। रास्ते में हमने उससे पूछा कि - यहां जो धर्मशालायें हैं उनमें रहना कैसा रहेगा। उसने बोला कि - साब मैं तो कहूंगा होटल ही ज्यादा अच्छे हैं क्योंकि धर्मशालायें तो अब बस नाम की ही रह गयी। करीब आधे घंटे बाद उसने हमें होटल पुरोहित में ला दिया। वहां कमरा और चार्ज हमें ठीक लगे इसलिये हमने वहीं रुकने का फैसला किया। ये होटल गंगा घाट से बस 5 मिनट की दूरी पर ही था। हमने कमरे में जा के कुछ खाना खाकर थोड़ा रेस्ट करने का फैसला किया और उसके बाद गंगा घाट जा कर आरती देखने की सोची थी जो कि करीब 7 बजे शुरू होती है।
जारी.....
सुबह करीब 6.30 बजे बस नैनीताल से हरिद्वार के लिये चली। बस में नैनीताल से हरिद्वार जाने वाले बस हम लोग ही थे। बांकी कुछ लोग हल्द्वानी जाने वाले थे। उनमें से एक को इतनी जोर से उल्टी आनी शुरू हुई की मेरे साथ वाले ने कहा कि - वीनू देख शेर दहाड़ रहा है क्योंकि उस एक ने पूरी बस में ऐसा तूफान खड़ा कर रखा था कि सभी अपने कानों में अंगूलियां डाले बैठे थे। जैसे-तैसे हल्द्वानी पहुंचे और उन सज्जन के आतंक से मुक्ति मिली। यहां से कई नये यात्री बस में सवार हो गये। ज्यादातर बीच के स्टेशनों में उतरने वाले ही थे। अभी तक तो गर्मी की मार से थोड़ा बचे थे क्योंकि सुबह का ही समय था पर जैसे-जैसे दिन चढ़ता जा रहा था गर्मी भी अपने असली तेवर दिखाने लगी थी।
हम रास्ते में आगे बढ़ते जाते और मेरे दिमाग में कई बातें बचपन की भी तैरने लगती। जब में बचपन में आती थी तो सबकुछ कितना अजुबा सा लगता था। मां अकसर रास्ते में आने वाली हर चीज के बारे में बताती रहती थी। कोई खेत दिखे तो उन खेतों के बारे में बताती। जंगलों में मोर दिख जाते तो उनके बारे में बताती। खेतों में बैठे बगुलों के बारे में बताती। कोई सामान बेचने बस में चढ़ जाता तो उसके बारे में भी बताती थी। तब मैं छोटी थी इसलिये बहुत कुछ समझ में नहीं आता था पर फिर भी काफी कुछ पता चल जाता था और अच्छा भी लगता। जब मां कुछ नहीं बोल रही होती तो मैं ही मां से कुछ न कुछ पूछती रहती थी। अकसर जब रेल आने वाली होती तो फाटक के पास गाड़ी बहुत देर तक रुकी रहती थी तब मां ये भी बताती थी कि - अभी रेल आने वाली है इसलिये गाड़ी रुकी है। और साथ में ये भी बताती कि जब रेल आने वाली होती है तो उससे पहले उसकी सीटी की आवाज आने लगती है और मेरे कान सीटी की तरफ ही लगे रहते। कई और भी बातें मेरे दिमाग में चलती जा रही थी। और मेरा मन कह रहा था कि काश मैं आज भी बच्ची ही होती और कोई मुझे यूं ही हर चीज के बारे में बताता। पर अब तो मैं बड़ी हो चुकी थी मुझे हर चीज के बारे में पता था। बगुलों के बारे में मुझे काफी बातें पता थी। मोर के बारे में भी मैं सब कुछ जान चुकी थी। रेल आती है तो क्या होता है कि भी मुझे पूरी जानकारी थी पर फिर भी मन कर रहा था कि काश अभी भी मैं बच्ची ही होती.....
मेरे दिमाग में यही चल रहा था और गाड़ी आगे बढ़ती जाती और नये-नये स्टेशनों में रुकती। यात्रियों के साथ-साथ कोई न कोई सामान बेचने वाला भी उसमें चढ़ जा रहा था। इस बार एक मलहम बेचने वाला चढ़ा और जिस तरीके से उसने अपने मलहम के गुण बताये ऐसा लग रहा था जैसे मलहम न हो कर अमर बूटी है जो कि सिर्फ 10रु. में मिल सकती है पर अब यात्री भी समझदार हो गये हैं इसलिये किसी ने भी उस अमर बूटी को खरीदने की नहीं सोची। बाहर देखने पर कभी बड़े-बड़े फैले हुए खेत दिख रहे थे तो कभी जंगल नजर आ रहे थे। लेकिन जंगल अब उतने घने नहीं रहे थे। एक चीज और जो बहुत ही ज्यादा दिखी वो थी कूढ़ा। कूढ़ा कूढ़ा कूढ़ा......इतना कूढा कि जैसे कूढ़े की खेती की जा रही हो और उसमें हिन्दुस्तान का कोई सानी नहीं। यहां कूढ़ा वहां कूढ़ा....उफ।
अब गर्मी से हमारा बुरा हाल होने लगा था। पानी की बोतल में रखा पानी भी उबल रहा था और रास्ते से पानी लेने का रिस्क लेने को हम तैयार नहीं थे। कुछ देर बाद गाड़ी एक ढाबे के पास आधे घंटे के लिये रूकी जहां सबने भोजन किया। हम तो अपने साथ रखे चिप्स और नमकीन खा के ही गुजारा कर लिया क्योंकि रास्ते का खाना...ना बाबा ना। हमने पहले ही सोच लिया था कि रास्ते में तो कुछ खाना ही नहीं है। खाना निपटने के बाद गाड़ी जैसे ही कुछ दूर चली थी कि रास्ता जाम हो गया क्योंकि सामने पर दो गाड़ियां आपस में भिड़ी हुई थी जिस कारण ट्रेफिक अटक गया था और इसे खुलने में करीब आधा घंटा लग गया।
बाहर देखने में अब भी खेत नजर आ रहे थे खेतों में काम करते लोग दिख रहे थे। और साथ ही उन्हें देख के ये भी लग रहा था कि क्या इन्हें गर्मी नहीं लगती होगी ? इतनी भीषण गर्मी में खुले आसमान के नीचे काम करने वाले ये किसान कितना कठिन जीवन जीते हैं और ऐवज में उन्हें क्या मिलता होगा ? बीच में पड़ने वाले बाजारों को देख के जगह के बदलने का अहसास हो रहा था। जैसे-जैसे जगह बदलती दिवारों में लगे विज्ञापन भी बदलने लगते जिन्हें देखना और पढ़ना सबसे ज्यादा मजेदार होता है।
करीब 2.30 में हम हरिद्वार में पहुंच चुके थे। हालांकि मुझे थोड़ा बहुत अंदाजा था हरिद्वार का फिर भी मेरे साथ वालों ने जो प्लेनिंग की थी हमने उसके अनुसार चलने का ही फैसला लिया। उन्होंने बोला कि हम लोग शांतिकुंज जाते हैं और वहीं रहेंगे। और हम लोग शांतिकुज चले गये। मुझे ये बात कुछ समझ नहीं आयी और मैंने बोला कि हरिद्वार के बाजार में काफी होटल रहने को मिल जायेंगे। शांतिकुंज तो बहुत दूर है वहां हम शहर से बिलकुल बाहर हो जायेंगे जो मैं नहीं चाहती थी क्योंकि किसी भी जगह के बारे में वहां के बाजारों से ही तो पता चलता है। खैर मेरा कहना मान लिया गया और हम लोग वहां से वापस लौटे और एक टैक्सी वाले को बोला कि हमें किसी ढंग के होटल में ले चले।
वो टैक्सी वाला भी अच्छा निकला उसने हमें एक अच्छे होटल के बारे में बता दिया और वहां ले गया। रास्ते में हमने उससे पूछा कि - यहां जो धर्मशालायें हैं उनमें रहना कैसा रहेगा। उसने बोला कि - साब मैं तो कहूंगा होटल ही ज्यादा अच्छे हैं क्योंकि धर्मशालायें तो अब बस नाम की ही रह गयी। करीब आधे घंटे बाद उसने हमें होटल पुरोहित में ला दिया। वहां कमरा और चार्ज हमें ठीक लगे इसलिये हमने वहीं रुकने का फैसला किया। ये होटल गंगा घाट से बस 5 मिनट की दूरी पर ही था। हमने कमरे में जा के कुछ खाना खाकर थोड़ा रेस्ट करने का फैसला किया और उसके बाद गंगा घाट जा कर आरती देखने की सोची थी जो कि करीब 7 बजे शुरू होती है।
जारी.....
Saturday, May 9, 2009
ऐसे भी लोग होते हैं - 2
पिछली पोस्ट में मैंने अवस्थी मास्साब के बारे में लिखा था। इस पोस्ट में प्रस्तुत हैं उनके द्वारा बनाये कुछ पोस्टर और उनके द्वारा लिखी एक कविता
पुरानी धुनों में नई ध्वनि लगाकर
कैसेट का धंधा अजब चल रहा है।
गांधी व लोहिया के नामों को लेकर
असल में नकल का दखल चल रहा है।
कश्मीर की बर्फ शोले बनी है,
उत्तराखंड धू-धू कर जल रहा है।
बजाते हैं लॉबी में वे अपनी बंसी,
राग उनका अपना अलग चल रहा है।
नशे में उन्हें कुछ नज़र आयेगा क्या ?
जमीं चल रही, आसमाँ चल रहा है।
इलाही ज़रा उनकी आँखें तो खोल,
कि उनका सितारा किधर ढल रहा है।
- अवस्थी मास्साब
पोस्टर
साभार : श्री ज़हूर आलम
अध्यक्ष युगमंच नैनीताल
पुरानी धुनों में नई ध्वनि लगाकर
कैसेट का धंधा अजब चल रहा है।
गांधी व लोहिया के नामों को लेकर
असल में नकल का दखल चल रहा है।
कश्मीर की बर्फ शोले बनी है,
उत्तराखंड धू-धू कर जल रहा है।
बजाते हैं लॉबी में वे अपनी बंसी,
राग उनका अपना अलग चल रहा है।
नशे में उन्हें कुछ नज़र आयेगा क्या ?
जमीं चल रही, आसमाँ चल रहा है।
इलाही ज़रा उनकी आँखें तो खोल,
कि उनका सितारा किधर ढल रहा है।
- अवस्थी मास्साब
पोस्टर
साभार : श्री ज़हूर आलम
अध्यक्ष युगमंच नैनीताल
Wednesday, May 6, 2009
ऐसे भी लोग होते हैं - 2
अवस्थी मास्साब
अवस्थी मास्साब को यूं तो शायद ही कोई जानता हो क्योंकि उन्हें कभी किसी बड़े पुरस्कार से नहीं नवाजा गया और न ही अवस्थी मास्साब ने इसकी कभी कोई हसरत ही रखी। इसीलिये वो अपना काम चुपचाप करते रहे और लोगों को सही रास्ता दिखाते रहे।
2 अगस्त 1925 को नेपाल के एक छोटे से गावं सिलगढ़ी के गरीब परिवार में जन्मे शरत चन्द्र अवस्थी ने एम.ए. अंग्रेजी से किया था और नैनीताल के सी.आर.एस.टी. स्कूल में अंग्रेजी के शिक्षक थे। नैनीताल में हर कोई उन्हें अवस्थी मास्साब के नाम से ही जानता था। अवस्थी मास्साब वैसे तो अंग्रेजी के शिक्षक थे पर अंग्रेजी के अलावा भी हर विषय में उनका बहुत अच्छा एकाधिकार था। उनके छात्र रह चुके बलवीर सिंह जी का कहना है कि - हमारे क्लास में जब भी किसी और विषय के शिक्षक नहीं आते थे तो अवस्थी मास्साब उनकी जगह हमें पढ़ाने आते थे और इस अंदाज में वो पढ़ाते थे कि लगता ही नहीं था कि वो अंग्रेजी के ही शिक्षक हैं। अवस्थी मास्साब का हिन्दी, अंग्रेजी और उर्दू के अलावा अन्य भाषाओं की भी बहुत अच्छी जानकारी थी।
अवस्थी मास्साब को जो बात सबसे अलग करती है वो थी उनका स्वयं को अभिव्यक्त करने का माध्यम। जिसमें न तो उन्हें पैसों की जरूरत पड़ती थी, न ही बड़े-बड़े अखबार के संपादकों की खुशामद करने की और न ही ज्यादा समय की। उनका यह माध्यम था पोस्टर। वो उस समय की परिस्थितियों के अनुसार स्वयं ही पोस्टर बनाते थे और उसे अपने उपर लटका के सड़क में निकल जाते। जिसे भी पोस्टर पड़ना होता वो उनके सामने चले जाता। अवस्थी मास्साब वहां पर तब तक खड़े रहते थे जब तक की सामने वाला पूरा पोस्टर न पढ़ ले। कभी-कभी वो आगे-पीछे दोनों तरफ पोस्टर लटका के चलते थे। जब कोई सामने की तरफ वाला पोस्टर पढ़ लेता तो उसे घूम कर पीछे का पोस्टर भी पढ़ने देते। अवस्थी मास्साब के पोस्टरों की एक और खासियत यह थी कि उन्होंने कोई भी पोस्टर नये कागज में नहीं बनाया। इसके लिये उन्होंने हमेशा इस्तेमाल किये जा चुके कागज को ही फिर से इस्तेमाल किया। वो अपने दिल की हर बात, अपनी नाराजगी, गुस्सा और प्यार सब कुछ अपने पोस्टर के द्वारा आम जनता तक पहुंचा देते थे। जिसका जनता के उपर गहरा प्रभाव भी पड़ता था।
अवस्थी मास्साब नैनीताल की सबसे बड़ी नाट्य संस्था `युगमंच´ के संस्थापक सदस्य भी थे। ज़हूर आलम जी, अध्यक्ष, युगमंच की मल्लीताल स्थित छोटी सी कपड़े की दुकान `इंतखाब´ उनके बैठने का निश्चित स्थान था जहां से वो अपनी सभी रचनात्मक कार्यों को दिशा दिया करते थे। ज़हूर आलम जी का कहना है कि - अवस्थी मास्साब तो ज्ञान का भंडार थे। हर विषय में उनका ज्ञान इतना गहरा था कि कभी-कभी लोग उसे समझ भी नहीं पाते थे। असल में अवस्थी मास्साब अपने समय से बहुत आगे के थे इसलिये शायद लोग उन्हें उस तरीके से समझ नहीं पाये जिस तरह से उन्हें समझा जाना चाहिये था।
अवस्थी मास्साब आंदोलनकारी भी थे और उन्होंने `नशा नही रोजगार दो´, प्राधीकरण हटाओ नैनीताल बनाओ, मण्डल कमण्डल के विरुद्ध छात्र आंदोलन, 1994 का मुजफ्फरनगर कांड तथा उत्तराखंड आंदोलन में सक्रिय भूमिका अदा की।
इन सबके अलावा अवस्थी मास्साब खेलों के भी बेहद शौकिन थे और हर तरह के खेलों जैसे - क्रिकेट हॉकी, फुटबाल, बॉिक्संग आदि की प्रत्येक बारिकियों से भी भली भंति परिचित थे। अरूण रौतेला जी का कहना है कि - अवस्थी मास्साब विद्वान, ईमानदार तो थे ही लेकिन उन्होंने अपने को अभिव्यक्त करने का जो माध्यम चुना वो उन्हें सबसे अलग बनाता है। उनके बगैर नैनीताल आज भी अधूरा ही लगता है। उनसे हमें काफी कुछ सीखने को मिला। ऐसे विद्वान दुनिया में कम ही होते हैं जिनमें से एक हमारे अवस्थी मास्साब भी थे। 12 फरवरी 2002 को नैनीताल में उनका देहान्त ब्रेन हैमरेज से हुआ। कुछ समय से वह अस्पातल में भर्ती थे और जब उन्हें उनके बिस्तर से हटाया गया तो उनके द्वारा बनाया गया आखरी पोस्टर मिला, जिसमें लिखा था - हैप्पी बर्फ डे। क्योंकि एक दिन पहले ही नैनीताल में बर्फ पड़ी थी जिसकी खुशी भी उन्होंने अपने ही माध्यम से सबके सामने रखी और सबको अलविदा कह गये।
अवस्थी मास्साब के कुछ और पोस्टर अगली पोस्ट में...
अवस्थी मास्साब की तस्वीर और पोस्टर श्री ज़हूर आलम, अध्यक्ष `युगमंच´ से साभार
अवस्थी मास्साब को यूं तो शायद ही कोई जानता हो क्योंकि उन्हें कभी किसी बड़े पुरस्कार से नहीं नवाजा गया और न ही अवस्थी मास्साब ने इसकी कभी कोई हसरत ही रखी। इसीलिये वो अपना काम चुपचाप करते रहे और लोगों को सही रास्ता दिखाते रहे।
2 अगस्त 1925 को नेपाल के एक छोटे से गावं सिलगढ़ी के गरीब परिवार में जन्मे शरत चन्द्र अवस्थी ने एम.ए. अंग्रेजी से किया था और नैनीताल के सी.आर.एस.टी. स्कूल में अंग्रेजी के शिक्षक थे। नैनीताल में हर कोई उन्हें अवस्थी मास्साब के नाम से ही जानता था। अवस्थी मास्साब वैसे तो अंग्रेजी के शिक्षक थे पर अंग्रेजी के अलावा भी हर विषय में उनका बहुत अच्छा एकाधिकार था। उनके छात्र रह चुके बलवीर सिंह जी का कहना है कि - हमारे क्लास में जब भी किसी और विषय के शिक्षक नहीं आते थे तो अवस्थी मास्साब उनकी जगह हमें पढ़ाने आते थे और इस अंदाज में वो पढ़ाते थे कि लगता ही नहीं था कि वो अंग्रेजी के ही शिक्षक हैं। अवस्थी मास्साब का हिन्दी, अंग्रेजी और उर्दू के अलावा अन्य भाषाओं की भी बहुत अच्छी जानकारी थी।
अवस्थी मास्साब को जो बात सबसे अलग करती है वो थी उनका स्वयं को अभिव्यक्त करने का माध्यम। जिसमें न तो उन्हें पैसों की जरूरत पड़ती थी, न ही बड़े-बड़े अखबार के संपादकों की खुशामद करने की और न ही ज्यादा समय की। उनका यह माध्यम था पोस्टर। वो उस समय की परिस्थितियों के अनुसार स्वयं ही पोस्टर बनाते थे और उसे अपने उपर लटका के सड़क में निकल जाते। जिसे भी पोस्टर पड़ना होता वो उनके सामने चले जाता। अवस्थी मास्साब वहां पर तब तक खड़े रहते थे जब तक की सामने वाला पूरा पोस्टर न पढ़ ले। कभी-कभी वो आगे-पीछे दोनों तरफ पोस्टर लटका के चलते थे। जब कोई सामने की तरफ वाला पोस्टर पढ़ लेता तो उसे घूम कर पीछे का पोस्टर भी पढ़ने देते। अवस्थी मास्साब के पोस्टरों की एक और खासियत यह थी कि उन्होंने कोई भी पोस्टर नये कागज में नहीं बनाया। इसके लिये उन्होंने हमेशा इस्तेमाल किये जा चुके कागज को ही फिर से इस्तेमाल किया। वो अपने दिल की हर बात, अपनी नाराजगी, गुस्सा और प्यार सब कुछ अपने पोस्टर के द्वारा आम जनता तक पहुंचा देते थे। जिसका जनता के उपर गहरा प्रभाव भी पड़ता था।
अवस्थी मास्साब नैनीताल की सबसे बड़ी नाट्य संस्था `युगमंच´ के संस्थापक सदस्य भी थे। ज़हूर आलम जी, अध्यक्ष, युगमंच की मल्लीताल स्थित छोटी सी कपड़े की दुकान `इंतखाब´ उनके बैठने का निश्चित स्थान था जहां से वो अपनी सभी रचनात्मक कार्यों को दिशा दिया करते थे। ज़हूर आलम जी का कहना है कि - अवस्थी मास्साब तो ज्ञान का भंडार थे। हर विषय में उनका ज्ञान इतना गहरा था कि कभी-कभी लोग उसे समझ भी नहीं पाते थे। असल में अवस्थी मास्साब अपने समय से बहुत आगे के थे इसलिये शायद लोग उन्हें उस तरीके से समझ नहीं पाये जिस तरह से उन्हें समझा जाना चाहिये था।
अवस्थी मास्साब आंदोलनकारी भी थे और उन्होंने `नशा नही रोजगार दो´, प्राधीकरण हटाओ नैनीताल बनाओ, मण्डल कमण्डल के विरुद्ध छात्र आंदोलन, 1994 का मुजफ्फरनगर कांड तथा उत्तराखंड आंदोलन में सक्रिय भूमिका अदा की।
इन सबके अलावा अवस्थी मास्साब खेलों के भी बेहद शौकिन थे और हर तरह के खेलों जैसे - क्रिकेट हॉकी, फुटबाल, बॉिक्संग आदि की प्रत्येक बारिकियों से भी भली भंति परिचित थे। अरूण रौतेला जी का कहना है कि - अवस्थी मास्साब विद्वान, ईमानदार तो थे ही लेकिन उन्होंने अपने को अभिव्यक्त करने का जो माध्यम चुना वो उन्हें सबसे अलग बनाता है। उनके बगैर नैनीताल आज भी अधूरा ही लगता है। उनसे हमें काफी कुछ सीखने को मिला। ऐसे विद्वान दुनिया में कम ही होते हैं जिनमें से एक हमारे अवस्थी मास्साब भी थे। 12 फरवरी 2002 को नैनीताल में उनका देहान्त ब्रेन हैमरेज से हुआ। कुछ समय से वह अस्पातल में भर्ती थे और जब उन्हें उनके बिस्तर से हटाया गया तो उनके द्वारा बनाया गया आखरी पोस्टर मिला, जिसमें लिखा था - हैप्पी बर्फ डे। क्योंकि एक दिन पहले ही नैनीताल में बर्फ पड़ी थी जिसकी खुशी भी उन्होंने अपने ही माध्यम से सबके सामने रखी और सबको अलविदा कह गये।
अवस्थी मास्साब के कुछ और पोस्टर अगली पोस्ट में...
अवस्थी मास्साब की तस्वीर और पोस्टर श्री ज़हूर आलम, अध्यक्ष `युगमंच´ से साभार
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