Tuesday, July 29, 2008
जिम कॉर्बेट: एक महान पर्यावरणविद
२५ जुलाई १८७५ को नैनीताल में जन्मे जिम कॉर्बेट को मात्र एक शिकारी मानना उनके साथ अन्याय होगा। उनके व्यक्तित्व के कई ऐसे पहलू हैं जो उन्हें शिकारी की जगह प्रकृतिप्रेमी, उत्कृष्ठ लेखक, बेहतरीन खिलाड़ी तथा वन्य जीवन को फोटोग्राफी द्वारा कैद करने वाला बनाते हैं। उन्होंने छ: अविस्मरणीय किताबें लिखी - 'माई इंडिया', 'जंगल लोर' , 'मैन ईटर ऑफ कुमाऊँ', 'मैन इटिंग लेपर्डस ऑफ रूद्रप्रयाग', 'टैम्पल टाइगर' और 'ट्री-टॉप'। 'मैन ईटर ऑफ कुमाऊँ' की अमेरिका से ५,३६,००० प्रतिया प्रकाशित हुई थी। उनकी सभी किताबों का कई अन्य भाषाओं में भी अनुवाद किया गया है।
जिम स्वयं को खुशकिस्मत मानते थे कि वह कुमाऊँ में पैदा हुए। यहाँ की बोली और रीति रिवाज की उन्हें अच्छी जानकारी थी। जिम यहाँ के अंधविश्वासों में भी विश्वास रखते थे और शकुन-अपशकुन मानते थे। अपनी किताब `माई इंडिया´ में उन्होंने इस परिवेश को सजीव ढंग से प्रस्तुत किया है। वह ग्रामीणों से पहाड़ी भाषा में बात करते थे और यहाँ के स्थानीय भोजन को पसंद करते थे। लोगों के साथ उनका व्यवहार आत्मीयतापूर्ण था। उनके दु:ख सुख में जिम हमेशा साथ देते थे और जरूरत पड़ने पर मित्र की तरह सलाह भी देते थे। लोग उन्हें `कारपेट साहिब´ कहकर सम्बोधित करते थे।
जिम बचपन से ही प्रकृति के नजदीक रहे और हमेशा जंगलों और वन्य प्राणियों के बारे में कुछ न कुछ सीखते रहते थे। अकसर वह जंगलों में घूमने निकल जाते थे। अपनी अच्छी याददाश्त, तीव्र सुनने और विलक्षण अवलोकन क्षमता के कारण जंगल की छोटी बड़ी बात से भली भांति परिचित थे। अपनी पुस्तक `जंगल लॉर´ में उन्होंने अपने यही अनुभव लिखे हैं। वह जानवरों की आवाजों को बड़े ध्यान से सुनते और बाद में उनको जस का तस दोहराते थे। उन्होंने सिर्फ नैनीताल में ही २५६ चिड़ियों की पहचान की थी जिन्हें वो उनकी बोली सुनकर ही पहचान लेते थे। जिम नैनीताल को पक्षी-विहार के रूप में विकसित करना चाहते थे पर उनके इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया गया। नैनीझील में उन्होंने ही सबसे पहले महासीर मछली को डाला था। उन्होंने मछलियों के शिकार के लिये कुछ जगहें सुनिश्चित की तथा रात को मछलियों को मारने पर प्रतिबंध भी लगाया। जिम लम्बे समय तक नगरपालिका के वरिष्ठ उपाध्यक्ष पद पर भी रहे और अपने शहर को आदर्श शहर बनाने के लिये हमेशा प्रयासरत रहे। नैनीताल का शमशान घाट, भवाली की सड़क जिम की ही देने है। एक जमाने में नैनीताल की शान माने जाने वाले बैण्ड स्टेंड का निर्माण जिम ने स्वयं के ४००० रुपये से करवाया था। नैनीझील में पीने के पानी की जाच करने वाली प्रयोगशाला का निर्माण भी जिम ने करवाया।
जिम खेलों के बहुत शौकीन थे। हॉकी और फुटबॉल उनके पसंदीदा खेल थे। नैनीताल में जब भी कोई मैच होता तो जिम उन्हें देखने जरूर जाते थे। नैनीताल के फ्लैटस को स्टेडियम का आकार देने के लिये उन्होंने ही उसके चारों और सीढ़ियों का निर्माण करवाया। उन्होंने नैनीताल की प्राकृतिक सुन्दरता को बनाये रखने के लिये काफी नियम बनाये जैसे बकरियों द्वारा जंगलों को रहा नुकसान रोकने के लिये बकरियों और ट्रैफिक को नियंत्रित करने के लिये हाथ रिक्शा के लिये लाइसेंस बनवाना अनिवार्य किया।
शुरुआती दौर में कॉर्बेट ने 23 वर्षों तक बिहार में नॉर्थ-वेस्ट रेलवे में फ्यूल इंस्पेक्टर के पद पर नौकरी की। नौकरी के दिनों को याद करते हुए वह कहते हैं कि - `नौकरी के दिन बहुत कठिन थे पर मैंने उनका पूरा आनन्द लिया´। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान वह वापस कुमाऊ आ गये। वह नौकरी के समय से ही नरभक्षी जानवरों का शिकार करने लगे थे। 1907 में उनके द्वारा मारा गया पहला नरभक्षी चम्पावत का था जिसने अकेले ही 436 जानें ली थी। इसके बाद से जिम शिकारी के रूप में चर्चित हो गये। 32 साल के शिकारी जीवन में उन्होंने लगभग एक दर्जन नरभक्षी का शिकार किया था।सन् 1930 से जिम ने शिकार को पूर्ण रूप से त्याग दिया और शिकार करने का नया तरीका इजाद किया। वो था कैमरे द्वारा जानवरों को कैद करना। उन्होंने साढ़े चार महीनों तक रात-दिन एक करके सात शेरों को अपने कैमरे में कैद किया और `सैवन टाइगर´ नाम से पहली मोशन पिक्चर का निर्माण किया।
जिम प्रकृतिविद भी थे और सिर्फ पेड़ लगाने को पर्यावरण नहीं मानते थे। उनका मानना था कि प्रकृति से जुड़ी हर चीज पर्यावरण का अनिवार्य अंग है वो चाहे जानवर हों या फिर मामूली सी घास-फूस। उन्होंने स्कूली बच्चों को प्रकृति के बारे में बताना शुरू किया ताकि प्रकृति के बारे में उनका ज्ञान बढ़े और वो इसके रक्षक बनें। वह बच्चों को शेर के दहाड़ने और पक्षियों की आवाजों की नकल करके भी दिखाते थे। उन्होंने वन्य प्राणियों की रक्षा के लिये कई संस्थान भी बनाये। भारत का पहला नेशनल पार्क जो रामनगर कुमाऊँ में स्थित है उसकी स्थापना जिम ने ही १९३४ में की थी। जिसे उनके देहान्त के बाद उनकी याद में जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क का नाम दिया गया।हिन्दुस्तान आजाद होने के पश्चात न चाहते हुए भी जिम 30 नवम्बर 1947 को केन्या चले गये। पर वह निरन्तर पत्र व्यवहार किया करते थे जिनमें वो अपने मित्रों और यहाँ के लोगों के साथ बिताये खुशनुमा दिनों को याद करते थे और अपने वापस आने की इच्छा जाहिर करते थे लेकिन उनकी यह इच्छा कभी पूरी न हो सकी क्योंकि उससे पहले ही 16 अप्रेल 1955 को हार्ट-अटैक से उनका देहान्त हो गया। उनका अंतिम संस्कार केन्या में ही किया गया।
जिम के अंतिम शब्द अपनी बहिन मैगी, जो हमेशा जिम के साथ ही रही, के लिये थे : "मेक द वर्ल्ड अ हैप्पी प्लेस फॉर अदर पीपल टू लिव"
Saturday, July 19, 2008
प्रकृति हमारे लिये कितनी उपयोगी हो सकती है?
प्रकृति हमारे लिये कितनी उपयोगी हो सकती है?
इस सवाल का जवाब मुझे अचानक ही उस दिन मिला जब मैं अपने कुछ मित्रों के साथ ऐसे ही घूमने के लिये हनुमानगढ़ के लिये निकल गयी थी। रास्ते में एक घास की ओर इशारा करते हुए मेरे मित्र ने बताया कि यह `डैन्डीलियन´ कहलाती है और बहुत ही उपयोगी जड़ी-बूटी है। इसकी दो पत्तियां रोज़ खाने पर ही पेट की कई बीमारियां ठीक हो सकती हैं। यह एक बहुत ही अच्छा रक्तशोधक भी है। इसका स्वाद ज़रूर बहुत कड़वा होता है, पर इसके फायदों के सामने यह कड़वा स्वाद कुछ भी नहीं है। मूलत: यह एक फ्रेंच घास है। फ्रांस में यह बहुत अधिक उपयोग में लायी जाती है। विशेष तौर पर सलाद में इसका उपयोग किया जाता है। परन्तु भारत में हम लोग इसकी तरफ देखते भी नहीं हैं। इसकी पत्तियों में शेर के दांत का सा कट होता है, इसीलिये शायद इसे डेन्डीलियन (फ़्रांसीसी में अर्थ- शेर के दांत) कहते हैं।
उस जगह से थोड़ा आगे बढ़े तो एक और वनस्पति मुझे दिखायी वह थी `रूबिया काडीपफोलिया´, जिसका स्थानीय नाम `मंजीठा´ है। यह बालों के उड़ने की बीमारी में बहुत काम आती है। इससे एक कत्थई रंग भी निकलता है, जिसे पहले तिब्बती भिक्षु अपने कपड़े रंगने के लिये प्रयोग करते थे।
तब मुझे पहली बार पता चला कि असल में प्रकृति किस चीज़ का नाम है। हमारे चारों तरफ ही प्रकृति ने इतनी सारी चीजें बिखराई हुई हैं, परन्तु हम उस ओर देखते ही नहीं। उस दिन से अचानक ही मुझे महसूस हुआ कि प्रकृति के इस रूप में मेरा शौक बढ़ रहा है।
उसके बाद एक दिन हम लोगों को एक साथ एक ट्रेकिंग पर जाने का मौका मिला। उस दिन फर पता चला कि मेरी नजरों ने जिन्हें हमेशा एक सामान्य हरी घास की तरह देखा था, वे सिर्फ घास-फूस ही नहीं हैं, बल्कि बहुत कुछ और भी हैं। उनमें से एक घास ऐसी थी जो तेज ज्वर में बहुत प्रभावकारी है। इसका स्थानीय नाम `रतपतिया´ है। इसी तरह से `थैलिक्ट्रम फोलियोलोस´, जिसे स्थानीय भाषा में `ममीरा´ के नाम से जाना जाता है, आंखों की बीमारियों को ठीक करने में बहुत उपयोगी है। यह भी झाड़ की तरह ही होती है। पत्तिया छोटी, गोल व समूह में होती हैं। एक सुन्दर, कटीली झाड़ी भी नजर आयी, जिसका वानस्पतिक नाम `एस्पोरेगस रेसीमोसस´ और स्थानीय नाम `कैरुवा´ है। इसकी जड़ों का रस सिर के जूं साफ करने में प्रयुक्त होता है। इसके नये कल्लों की सब्जी बहुत स्वादिष्ट होती है और अब पाच सितारा होटलों में एक महंगा व्यंजन बन चुकी है।
इसी तरह एक चट्टान पर उग आया कुछ पत्तों का झुंड था। पता चला कि वह `सम्यो´ है, जिसका वानस्पतिक नाम `वेलेरिना वोलिची´ है। इसकी जड़ों में खुशबूदार तेल होता है, जिसे ग्रामीण लोग धूप बनाने के लिये प्रयोग करते हैं। अब इसका व्यापारिक स्तर पर भी सुगंधित तेल बनाने में उपयोग किया जा रहा है। `गुलबनफ्रसा´ का नाम तो मैंने पहले भी कई बार सुना था। यह भी जानती थी कि सदी- जुकाम की दवाओं, विशेषकर `हमदर्द´ की दवाओं, में इसका इस्तेमाल होता है। परन्तु यह जानकर मैं आश्चर्यचकित रह गई कि `गुलबनफ्रसा´, जिसे `वायोला´ के नाम से भी जाना जाता है, नैनीताल में भरा पड़ा है।
इस सवाल का जवाब मुझे अचानक ही उस दिन मिला जब मैं अपने कुछ मित्रों के साथ ऐसे ही घूमने के लिये हनुमानगढ़ के लिये निकल गयी थी। रास्ते में एक घास की ओर इशारा करते हुए मेरे मित्र ने बताया कि यह `डैन्डीलियन´ कहलाती है और बहुत ही उपयोगी जड़ी-बूटी है। इसकी दो पत्तियां रोज़ खाने पर ही पेट की कई बीमारियां ठीक हो सकती हैं। यह एक बहुत ही अच्छा रक्तशोधक भी है। इसका स्वाद ज़रूर बहुत कड़वा होता है, पर इसके फायदों के सामने यह कड़वा स्वाद कुछ भी नहीं है। मूलत: यह एक फ्रेंच घास है। फ्रांस में यह बहुत अधिक उपयोग में लायी जाती है। विशेष तौर पर सलाद में इसका उपयोग किया जाता है। परन्तु भारत में हम लोग इसकी तरफ देखते भी नहीं हैं। इसकी पत्तियों में शेर के दांत का सा कट होता है, इसीलिये शायद इसे डेन्डीलियन (फ़्रांसीसी में अर्थ- शेर के दांत) कहते हैं।
उस जगह से थोड़ा आगे बढ़े तो एक और वनस्पति मुझे दिखायी वह थी `रूबिया काडीपफोलिया´, जिसका स्थानीय नाम `मंजीठा´ है। यह बालों के उड़ने की बीमारी में बहुत काम आती है। इससे एक कत्थई रंग भी निकलता है, जिसे पहले तिब्बती भिक्षु अपने कपड़े रंगने के लिये प्रयोग करते थे।
तब मुझे पहली बार पता चला कि असल में प्रकृति किस चीज़ का नाम है। हमारे चारों तरफ ही प्रकृति ने इतनी सारी चीजें बिखराई हुई हैं, परन्तु हम उस ओर देखते ही नहीं। उस दिन से अचानक ही मुझे महसूस हुआ कि प्रकृति के इस रूप में मेरा शौक बढ़ रहा है।
उसके बाद एक दिन हम लोगों को एक साथ एक ट्रेकिंग पर जाने का मौका मिला। उस दिन फर पता चला कि मेरी नजरों ने जिन्हें हमेशा एक सामान्य हरी घास की तरह देखा था, वे सिर्फ घास-फूस ही नहीं हैं, बल्कि बहुत कुछ और भी हैं। उनमें से एक घास ऐसी थी जो तेज ज्वर में बहुत प्रभावकारी है। इसका स्थानीय नाम `रतपतिया´ है। इसी तरह से `थैलिक्ट्रम फोलियोलोस´, जिसे स्थानीय भाषा में `ममीरा´ के नाम से जाना जाता है, आंखों की बीमारियों को ठीक करने में बहुत उपयोगी है। यह भी झाड़ की तरह ही होती है। पत्तिया छोटी, गोल व समूह में होती हैं। एक सुन्दर, कटीली झाड़ी भी नजर आयी, जिसका वानस्पतिक नाम `एस्पोरेगस रेसीमोसस´ और स्थानीय नाम `कैरुवा´ है। इसकी जड़ों का रस सिर के जूं साफ करने में प्रयुक्त होता है। इसके नये कल्लों की सब्जी बहुत स्वादिष्ट होती है और अब पाच सितारा होटलों में एक महंगा व्यंजन बन चुकी है।
इसी तरह एक चट्टान पर उग आया कुछ पत्तों का झुंड था। पता चला कि वह `सम्यो´ है, जिसका वानस्पतिक नाम `वेलेरिना वोलिची´ है। इसकी जड़ों में खुशबूदार तेल होता है, जिसे ग्रामीण लोग धूप बनाने के लिये प्रयोग करते हैं। अब इसका व्यापारिक स्तर पर भी सुगंधित तेल बनाने में उपयोग किया जा रहा है। `गुलबनफ्रसा´ का नाम तो मैंने पहले भी कई बार सुना था। यह भी जानती थी कि सदी- जुकाम की दवाओं, विशेषकर `हमदर्द´ की दवाओं, में इसका इस्तेमाल होता है। परन्तु यह जानकर मैं आश्चर्यचकित रह गई कि `गुलबनफ्रसा´, जिसे `वायोला´ के नाम से भी जाना जाता है, नैनीताल में भरा पड़ा है।
उसी रोज मालूम पड़ा कि दूब घास, जिसे मैं मां की पूजा के लिये बचपन से तोड़ती चला आ रही थी, के भी कई सारे औषधीय उपयोग हैं। इसका वानस्पतिक नाम `सिनोडोन डैक्टीलोन´ है। `पाती´ भी एक ऐसी ही घास है, जिसे मां के कहने पर `हरेला´ गोड़ने के लिये हम लोग अकसर तोड़ कर लाते थे। `पाती´ का भी औषधीय उपयोग है। इसका वानस्पतिक नाम `आर्टिमेसिया वलगेरिस´ है।
इसी तरह `सिलफोड़´ भी पत्तों का एक समूह है, जो अकसर चट्टानों को तोड़ता हुआ उग आता है। इसे `पाषाणभेद´ के नाम से भी जाना जाता है। यह पथरी की अचूक दवा है। इसका वानस्पतिक नाम `बर्जिनिया लिगुलेटा´ है।
इसी तरह `सिलफोड़´ भी पत्तों का एक समूह है, जो अकसर चट्टानों को तोड़ता हुआ उग आता है। इसे `पाषाणभेद´ के नाम से भी जाना जाता है। यह पथरी की अचूक दवा है। इसका वानस्पतिक नाम `बर्जिनिया लिगुलेटा´ है।
एक दिन हम कुछ लोग साथ- साथ मल्लीताल जा रहे थे तो मैंने सुझाव दिया कि क्यों न ठण्डी सड़क से जायें ? वहा पर भी बहुत सारी वनस्पतियां दिखायी देती हैं। सचमुच उस रोज भी बहुत सारी वनस्पतिया मिल गईं, जिनके बारे में वनस्पति शास्त्र की किताबों में तो भारी- भरकम नामों के साथ हमने पढ़ा तो था, परन्तु अपने शहर में ही इस तरह से वे मिल जायेंगी यह कभी सपने में भी नहीं सोचा था। खैर, उस दिन फिर से हमें डेण्डिलियन घास नजर आ गई, जिसे तोड़ कर हमने खाना शुरू कर दिया। राह चलते कुछ लोग अचरज करने लगे तो उनको भी उसके बारे में बताया। वहा `वन हल्दी´ भी मिली, जिसके फूल हमेशा से मेरे लिये आकर्षण का विषय रहे हैं। मालूम पड़ा कि इसके भी कई औषधीय उपयोग हैं। इसको वानस्पतिक जगत में `हेडिसियम स्पीकेटम´ के नाम से जाना जाता है। इसका उपयोग रक्त व त्वचा संबंधी विकारों में किया जाता है। कुछ स्थानीय लोगों का कहना है कि इसे सांप के काटने में भी दवा के रूप में उपयोग किया जाता है।
जब अपने आसपास छोटे-छोटे रास्तों पर यों ही टहलते हुए ही प्रकृति में हमें इतना कुछ मिल गया तो अगर हम गंभीरतापूर्वक प्रकृति से लें तो पता नहीं कितना कुछ और मिल सकता है। मुझ से तो जिस हद तक प्रकृति के इस खजाने के बारे में जाना जा सकेगा, मैं अपनी ओर से पूरी कोशिश करूगी।
अब अकसर मुझे जिम कॉर्बेट का लिखा यह वाक्य याद आ जाता है - ``हमारे चारों ओर फैली प्रकृति की इस किताब में न जाने क्या-क्या लिखा है। जरूरत है तो बस उन आंखों की, जो इसे पढ़ सकें।´´
Friday, July 18, 2008
यह ब्लॉग क्यों
हमारे आस पास ही प्रकृति ने ज्ञान और सौन्दर्य का अद्भुत ख़ज़ाना फैलाया हुआ है. इस ब्लॉग में इसी ख़ज़ाने से कुछ न कुछ जब-तब आपके साथ बांटने का प्रयास किया जाएगा.
पर्यावरण से जुड़ी आवश्यक सूचनाएं और जानकारियां जुटाना और बांटना भी मेरे मुख्य उद्देश्यों में है.
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