अल्मोड़ा से जागेश्वर की दूरी लगभग 34 किमी. की है। यहां से हमने स्पीड थोड़ी बढ़ा ली थी क्योंकि समय पे मंदिर पहुंचना जरूरी था। जागेश्वर जाते समय चितई जो भगवान गोलू का मंदिर है, पड़ता है। कुमाउं में भगवान गोलू को न्याय का भगवान माना जाता है। गोलू देवता यहां रहने वाले कई लोगों के ईष्ट देव भी हैं। गोलू भगवान से संबंधित कई किवदंतियां भी यहां प्रचलित हैं। पर इस समय हम गोलू जी के मंदिर को भी रास्ते से प्रणाम करते हुए आगे बढ़ गये। मौसम का मिजाज हर पल बदल रहा था। अचानक धूप अचानक बारिश और अचानक कोहरा। मौसम भी लुकाछिपी का खेल खेल रहा था। खिड़की से बाहर झांकने पे दिल को मोह लेने वाले लेंडस्केप दिख रहे थे। वैसे भी मानसून में धरती पूरे श्रृंगार में रहती ही है।
रास्ते में कई तरह के दृश्य देखते हुए और अपनी हंसी-मजाक जारी रखते हुए हम लोग जागेश्वर से पहले पड़ने वाले मंदिर दंडेश्वर पहुंच गये पर जब हम नैनीताल से चले थे तो बताया गया था कि इस मंदिर में जागेश्वर की पूजा पूरी करने के बाद ही जाते हैं सो हम यहां से भी आगे बढ़ गये। पर इन मंदिरों का शिल्प देखकर मैं जागेश्वर पहुंचने के लिये बेचैन होने लगी और लगभग 15 मिनट बाद हम लोग जागेश्वर में थे। हमने गाड़ी को पहचान के एक होटल में पार्क किया और जूते भी गाड़ी में ही उतारे क्योंकि हममें से कोई भी जूतों के खोने का रिस्क लेने को तैयार नहीं था।
जागेश्वर के मंदिरों को इतना नजदीक से देख के वो सारे नजारे मेरे सामने आ गये जो मैं आज तक सिर्फ तस्वीरों में देखती रही थी। जागेश्वर चारों तरफ से देवदार के वृक्षों से घिरा हुआ है जो इसकी प्राकृतिक सुन्दरता को और भी ज्यादा बढ़ा देता है। जागेश्वर में 124 शिव मंदिरों का समूह है जिसमें सबसे बड़ा महामृत्युंजय का मंदिर माना जाता है। सावन का महीना होने के कारण यहां पार्थी पूजा (शिव के लिये करायी जाने वाली विशेष पूजा) करवाने वालों की बहुत भीड़ थी जिसमें ज्यादा संख्या तो आसपास के गांव के लोगों की थी और कुछ लोग ऐसे भी थे जो अब शहरों में बस गये हैं और बस कभी-कभार पूजा करवाने के लिये ही गांव जाते हैं। जागेश्वर भारत के 12 ज्योर्तिलिंगों में से एक है और आदि शंकराचार्य ने भी इसी स्थान में ध्यान लगाया था।
मेरे साथ वाले पूजा करवाने के लिये पुजारी की तलाश कर ही रहे थे कि एक पहचान के पुजारी हमें मिल गये। उन्होंने कहा - अभी ही यहां पे बैठ जाइये वरना थोड़ी देर में यह जगह भी भर जायेगी। पहचान का पुजारी होने के कारण हम परेशानी झेलने से बच गये। हम लोगों ने साथ में लाया सामान और दीमक की बांबी वाली मिटटी पुजारी जी के सामने रखी और उनसे कहा कि - जो भी करना है आप कर दो और सब की पूजा एक साथ कर दो। मेरा तो पूजा का कोई मतलब नहीं था सो मैं मंदिर परिसर में घूमने के लिये निकल गई।
मंदिर में कोई भी जगह ऐसी नहीं थी जहां भीड़ न हो। सारी जगहें भरी हुई थी। कुछ लोग मिट्टी को गूंथ कर पूजा के लिये शिवलिंग बना रहे थे। इस मौसम में यहां के लोगों की इसी बहाने थोड़ी आय भी हो जाती है। मैं अपनी फोटोग्राफी करने में और यहां-वहां देखने में मस्त थी कि एक मंदिर के पुजारी ने मेरी तरफ देखते हुए कहा - इस मंदिर का भी फोटो खींच लो। जब मैंने फोटो खींचा तो वो मेरी तरफ देख के बोला - अब कुछ दक्षिणा दो। मैं दक्षिणा देने के बजाय सिर्फ उसकी शक्ल ही देखती रही और वापस आ गयी। सच तो यह है कि मेरी जेब में उस समय पैसे नहीं थे लेकिन फिर दूसरे किसी मंदिर की तस्वीर लेने से पहले मैंने मंदिर के अंदर जरूर झांक लिया क्योंकि इस तरह की पोजीशन में मैं दोबारा नहीं पड़ना चाहती थी।
एक तरफ से घूम के मैं मंदिर परिसर के दूसरी तरफ से अपने साथ वालों के पास आ गई। उस समय वहां पे पूजा चल रही थी। सारा सामान बिखरा हुआ था और बीच-बीच में जहां पंडित के द्वारा दिये जा रहे निर्देश समझ नहीं आ रहे थे तो एक-दूसरे की शक्ल देख रहे थे। मजा तो तब आया जब पुजारी ने बोला - अपनी जनेउ में हाथ लगाओ तो चारों जन पंडित की तरफ देख के बोले - जनेउ तो है ही नहीं अब क्या करें ? तब पंडित जी ने जुगाड़ नीति अपनाते हुए जनेउ का सिब्सट्यूड उन लोगों को बताया और पूजा को आगे बढ़ाया।
पूजा समाप्त होने के बाद मैंने पुजारी जी से कुछ बातें की तो उन्होंने मुझे बताया - पार्थी पूजा के लिये अलग-अलग चीजों से शिवलिंगों को बनाया जाता है वो पूजा करने वालों की मनौतियों के उपर होता है। उन्होने मुझे कुछ मनौतियों और उनमें इस्तेमाल होने वाले सामान के बारे में बताया भी पर अब मैं उन्हें भूल गई हूं। उन्होंने यह भी बताया कि सावन के महीने में कुछ पुजारियों को बाहर से बुलाया जाता है जो यहां पर पूजा करवाते हैं और फिर वापस चले जाते हैं। अभी तक तो बारिश हमारा साथ दे रही थी पर अब फिर हल्की-हल्की बारिश शुरू हो गई था। मुझे मंदिर परिसर का एक चक्कर लगाने का मौका अपने साथ वालों के साथ भी मिल गया पर इतनी भीड़ में हो ये रहा था कि एक साथ होता तो अगला खो जाता। अगले को ढूंढते तो पहला कहीं दूसरी जगह चला जाता। किसी तरह हम लोग सब साथ में मंदिर से बाहर निकले।
अब बारी थी वहां पर लगे हुए छोटे से बाजार को देखने की जो कि आसपास के गांव वालों से भरी हुई थी। इन लोगों को पूरे साल में ऐसे एक-दो अवसर ही मिलते होंगे जिसमें घर के कामों से थोड़ा समय बचा के अपने लिये कुछ करते हों वरना गांवों का जीवन तो किसी से छुपा नहीं है। पर इसी समय झमाझम तेज बारिश शुरू हो गई। इतनी ही देर में हमारे सामने से एक रेला गुजरा जिसमें कुछ लोग सफेद वस्त्र पहने हुए और हाथ में ध्वज लिये हुए तेजी से बढ़ रहे थे। कुछ लोग उनमें नाच भी रहे थे। हम लोग कुछ समझ पाते उससे पहले ही वो रेला मंदिर परिसर में चला गया।
अपने साथ घर से लाया हुआ खाना खाने के बाद हम जागेश्वर में बने म्यूजियम में गये। यहां पुरानी शताब्दी की मूर्तियों को बहुत करीने से सहेज के रखा गया है। इसे देखना एक अच्छा अनुभव रहा। इसके बाद दंडेश्वर मंदिर गये। वहां जागेश्वर की अपेक्षा कम भीड़ थी पर यहां भी मंदिरों का शिल्प जागेश्वर से मिलता जुलता ही है। वहां हमें ज्यादा समय नहीं लगा और हम अल्मोड़ा की तरफ वापस आ गये। वापस आते समय इतनी मूसलाधार बारिश का सामना करना पड़ा कि ऐसा लग रहा था अब रास्ते बंद हो जायेंगे और हमें ऐसे ही गाड़ी के अंदर रहना पड़ेगा। जहां-तहां पहाड़ों से पानी के मोटे नाले आ रहे थे। कभी तो ऐसा महसूस हो रहा था कि कहीं हम बह ही न जायें पर ऐसा कुछ नहीं हुआ और हम चितई गोलू के मंदिर पहुंच गये। बारिश अभी भी अपनू पूरे शबाब में थी। चितई के मंदिर में पूजा के बाद हम लोगों ने नैनीताल की राह पकड़ी। अल्मोड़ा से आते समय एक दुकान है जो मालपुओं के लिये मशहूर है। हमने वहां मालपुए खाये। वापस आते समय कैंची मंदिर गये और फिर बिना रुके नैनीताल वापस। करीब 7 बजे शाम हम लोग नैनीताल में थे।
जब मैंने अपने नागपुर रहने वाले मित्र (जो मेरे छोटे भाई जैसा है) को इस यात्रा के बारे में बताया तो उसने कहा कि उसके पिताजी का नाम भी जागेश्वर है और वो शिव के भक्त थे। उसके पिताजी अब इस दुनिया में नहीं है। मैं ये पूरी यात्रा उनको ही समर्पित करती हूं।
समाप्त
Saturday, December 27, 2008
Thursday, December 25, 2008
जागेश्वर यात्रा - भाग 1
जागेश्वर उत्तराखंड का मशहूर तीर्थस्थान माना जाता है। यहां पे 8 वीं सदी के बने 124 शिव मंदिरों का समूह है जो अपने शिल्प के लिये खासे मशहूर हैं। इस स्थान में सावन के महीने में शिव की पूजा करना अच्छा माना जाता है। मुझे भी इस बार जागेश्वर जाने का अवसर मिला। हुआ कुछ यों कि मेरे साथ वाले जागेश्वर पूजा करने जा रहे थे जब उन्होंने मुझसे चलने को कहा तो मैंने बिना देरी किये हां बोल दिया। मेरा उद्देश्य पूजा करने के लिये जाना तो नहीं था पर इस जगह को देखना जरूर था।
हम पांच लोग 11 अगस्त 08 की सुबह 7 बजे नैनीताल से जागेश्वर के लिये निकल गये। मैं हमेशा ऐसे लोगों के साथ ही जाना पसंद करती हूं जिनके साथ मेरी अच्छी छनती हो क्योंकि उससे यात्रा का मजा दोगुना हो जाता है। खैर हम लोग भवाली की तरफ बढ़े और करीब 30 मिनट में भवाली पहुंच गये। भवाली से हमने मंदिर में पूजा के लिये कुछ मिठाई और फल खरीदे। मेरे साथ दो लोग ऐसे थे जो व्रत लिये हुए थे।
पर हमारे साथ जो दो भाईसाहब और थे वो कहां बिना कुछ खाये रह पाने वाले थे। सो जैसे ही सामान खरीद के कार में बैठे और अल्मोड़ा की ओर बढ़े ही थे कि एक भाईसाब बोले - अरे यार वो मिठाई खरीदी थी न जरा निकालो तो। देखें तो सही कैसी बनी है ? दूसरे भाइसाब को तो बहाना चाहिये था कि कोई खाने की बात करे और वो झट से खाने पे टूट पड़े सो बोल पड़े - अरे मिठाई के साथ कुछ फल भी तो लिये हैं उन्हें भी देख लेते हैं। दोनों चीजें निकाली और बांटना शुरू। इतनी देर में हम पेट्रोल पम्प में पहुंच गये जहां गाड़ी में पेट्रोल डलाया और गाड़ी की हवा भी चैक करा ली।
जिस बंदे ने हवा चैक की उसने ताजुब्ब से हमारी तरफ देखा और बोला - एक साइड के पहियों की हवा तो कम है। हमें लगा कि इतनी बड़ी गलती हमने कैसे की खैर उसे बोला कि सारे पहियों की हवा बराबर कर दे। सारे काम निपटने के बाद हम फिर आगे की तरफ बढ़ लिये और साथ में हमारी आपसी मजाक भी चलती रही। इस हंसी मजाक के साथ हम कैंची धाम पहुंच गये। कैंची धाम बाबा नीमकरौली महाराज का मंदिर हैं और देश के कोने-कोने से काफी श्रृद्धालू हर वर्ष इस मंदिर में आते हैं। इस समय हम लोग बाहर से ही हाथ जोड़कर आगे बढ़ गये क्योंकि हमारा एक मात्र उद्देश्य जागेश्वर पहुंचना ही था।
अचानक ही हमें महसूस हुआ जैसे गाड़ी सड़क पे लुढ़क रही है और गाड़ी की स्पीड बहुत कम हो गयी। हम लोग भैया को चिढ़ा रहे थे कि उन्हें ड्राइविंग आती ही नहीं है जबरदस्ती बैठ जाते हैं स्टेयरिंग पे और भी न जाने क्या-क्या ? काफी देर माथापच्ची करने के बाद हमें लगा कि ऐसा पहले नहीं हो रहा था पर भवाली में जहां हवा चैक करवायी वहीं कुछ गड़बड़ हुई है सो हमने गरमपानी के पास एक स्पॉट में रुक कर फिर पहियों की हवा चैक करायी। पता चला कि एक तरफ के पहियों की हवा कम और एक तरफ हवा ज्यादा हो गयी है जिस कारण ऐसा हो रहा था। हमने फिर हवा ठीक करायी। इस बार सब कुछ ठीक ही रहा और हम अच्छी स्पीड के साथ अल्मोड़ा की तरफ बढ़ गये।
भवाली से अल्मोड़ा का रास्ता कोसी नदी के साथ चलता है। इन दिनों बरसात थी इसलिये कोसी छलकी हुई थी और बहुत ही सुन्दर लग रही थी। कोसी किसी जगह में काफी चौड़ी हो जाती है तो कहीं पे कुछ संकरी सी हो जाती है। रास्ते में भी काफी हरियाली थी और कई तरह के फूल-पौंधे खिले हुए थे। कोसी नदी में महाशेर मछली बहुत ही ज्यादा है जो कि ठंडे और साफ पानी की मछली मानी जाती है। इस रास्ते में एक स्थान पड़ता है काकड़ीघाट। जहां सोमवारगिरी बाबा का मंदिर है। सोमवार गिरी बाबा पे यहां के लोगों की विशेष आस्था है और नीम करौली महाराज भी सोमवारगिरी महाराज को अपने गुरू तुल्य मानते थे। अपनी हिमालय यात्रा के दौरान स्वामी विवेकानन्द जी भी इस स्थान में ही रुके थे। इस ही रास्ते में खैरना पुल भी पड़ता है जो कि 100 साल पूरे कर चुका है और उस समय के आर्किटेक्ट का उत्कृष्ठ नमूना है।
अचानक ही हमारे साथ के एक बंदे को उसके पहचान के कुछ लोग सड़क में दिखे उसने चलती गाड़ी से ही उन्हें कमेंट पास किया। हम लोगों ने पीछे पलट के देखा तो वो काफी देर तक गाड़ी की तरफ देख रहे थे। हमने उनसे कहा कि - यदि वो ऐसी हरकतें करते रहे तो हमें जागेश्वर की जगह थाने की यात्रा में जाना पड़ेगा।
मेरे साथ वाले बीच-बीच में ड्राइविंग कर रहे भैया को चिढ़ा रहे थे कि अगर उन्हें गाड़ी की स्पीड बढ़ानी है तो आगे वाली बाइक में बैठी लड़की का पीछा करना शुरू कर दे। इस तकनीक से हम लोग जल्दी अल्मोड़ा पहुंच जायेंगे। मैंने भैया से कहा - तकनीक का इस्तेमाल करने से पहले भाभी को भी याद कर लें अगर कहीं उनको इस तकनीक का पता चल गया तो ऐसा न हो कि हमेशा के लिये उसी लड़की के घर में रहना पड़े। हमारे इसी तरह के हल्के-फुल्के मजाक चल रहे थे और हल्की-हल्की बारिश भी होने लगी थी।
इस बीच हम लोग एक रैस्टोरेंट में चाय पीने के लिये रुके। यहां से कोसी का बहुत ही अच्छा नजारा दिख रहा था। हमने वहां चाय पी और भवाली से खरीदे फल और मिठाई भी साफ कर दिये ये कह के कि जागेश्वर के लिये अल्मोड़ा से खरीद लेंगे। हम लोग अल्मोड़ा के नजदीक पहुंच ही गये थे कि गाड़ी में लगे एफ.एम. में एक गाना बजने लगा जिसे सुन के हमारे साथ के एक जन को नाचने का भूत सवार हो गया और बोले कि - गाना भी ऐसा आ गया कि नाचने का मन कर रहा है। उनकी ये इच्छा पूरी करने के लिये गाड़ी रोकी गयी पर जैसे ही उन्होंने नाचना शुरू किया बारिश तेज हो गयी इसलिये उनकी ये इच्छा इस बार पूरी नहीं हो पायी। कुछ देर में हम अल्मोड़ा पहुंच गये। अल्मोड़ा बहुत ही अच्छी जगह हैं। अल्मोड़ा की जो एक अलग ही संस्कृति है वो मुझे हमेशा से ही आक्रषित करती रही है। (अल्मोड़ा के बारे में विस्तृत लेख किसी दूसरी पोस्ट में) अल्मोड़ा से हमने वहां की प्रसिद्ध सिंगोड़ी और बाल मिठाई खरीदी और बिना समय गवाये जागेश्वर का रास्ता पकड़ लिया।
जारी......
हम पांच लोग 11 अगस्त 08 की सुबह 7 बजे नैनीताल से जागेश्वर के लिये निकल गये। मैं हमेशा ऐसे लोगों के साथ ही जाना पसंद करती हूं जिनके साथ मेरी अच्छी छनती हो क्योंकि उससे यात्रा का मजा दोगुना हो जाता है। खैर हम लोग भवाली की तरफ बढ़े और करीब 30 मिनट में भवाली पहुंच गये। भवाली से हमने मंदिर में पूजा के लिये कुछ मिठाई और फल खरीदे। मेरे साथ दो लोग ऐसे थे जो व्रत लिये हुए थे।
पर हमारे साथ जो दो भाईसाहब और थे वो कहां बिना कुछ खाये रह पाने वाले थे। सो जैसे ही सामान खरीद के कार में बैठे और अल्मोड़ा की ओर बढ़े ही थे कि एक भाईसाब बोले - अरे यार वो मिठाई खरीदी थी न जरा निकालो तो। देखें तो सही कैसी बनी है ? दूसरे भाइसाब को तो बहाना चाहिये था कि कोई खाने की बात करे और वो झट से खाने पे टूट पड़े सो बोल पड़े - अरे मिठाई के साथ कुछ फल भी तो लिये हैं उन्हें भी देख लेते हैं। दोनों चीजें निकाली और बांटना शुरू। इतनी देर में हम पेट्रोल पम्प में पहुंच गये जहां गाड़ी में पेट्रोल डलाया और गाड़ी की हवा भी चैक करा ली।
जिस बंदे ने हवा चैक की उसने ताजुब्ब से हमारी तरफ देखा और बोला - एक साइड के पहियों की हवा तो कम है। हमें लगा कि इतनी बड़ी गलती हमने कैसे की खैर उसे बोला कि सारे पहियों की हवा बराबर कर दे। सारे काम निपटने के बाद हम फिर आगे की तरफ बढ़ लिये और साथ में हमारी आपसी मजाक भी चलती रही। इस हंसी मजाक के साथ हम कैंची धाम पहुंच गये। कैंची धाम बाबा नीमकरौली महाराज का मंदिर हैं और देश के कोने-कोने से काफी श्रृद्धालू हर वर्ष इस मंदिर में आते हैं। इस समय हम लोग बाहर से ही हाथ जोड़कर आगे बढ़ गये क्योंकि हमारा एक मात्र उद्देश्य जागेश्वर पहुंचना ही था।
अचानक ही हमें महसूस हुआ जैसे गाड़ी सड़क पे लुढ़क रही है और गाड़ी की स्पीड बहुत कम हो गयी। हम लोग भैया को चिढ़ा रहे थे कि उन्हें ड्राइविंग आती ही नहीं है जबरदस्ती बैठ जाते हैं स्टेयरिंग पे और भी न जाने क्या-क्या ? काफी देर माथापच्ची करने के बाद हमें लगा कि ऐसा पहले नहीं हो रहा था पर भवाली में जहां हवा चैक करवायी वहीं कुछ गड़बड़ हुई है सो हमने गरमपानी के पास एक स्पॉट में रुक कर फिर पहियों की हवा चैक करायी। पता चला कि एक तरफ के पहियों की हवा कम और एक तरफ हवा ज्यादा हो गयी है जिस कारण ऐसा हो रहा था। हमने फिर हवा ठीक करायी। इस बार सब कुछ ठीक ही रहा और हम अच्छी स्पीड के साथ अल्मोड़ा की तरफ बढ़ गये।
भवाली से अल्मोड़ा का रास्ता कोसी नदी के साथ चलता है। इन दिनों बरसात थी इसलिये कोसी छलकी हुई थी और बहुत ही सुन्दर लग रही थी। कोसी किसी जगह में काफी चौड़ी हो जाती है तो कहीं पे कुछ संकरी सी हो जाती है। रास्ते में भी काफी हरियाली थी और कई तरह के फूल-पौंधे खिले हुए थे। कोसी नदी में महाशेर मछली बहुत ही ज्यादा है जो कि ठंडे और साफ पानी की मछली मानी जाती है। इस रास्ते में एक स्थान पड़ता है काकड़ीघाट। जहां सोमवारगिरी बाबा का मंदिर है। सोमवार गिरी बाबा पे यहां के लोगों की विशेष आस्था है और नीम करौली महाराज भी सोमवारगिरी महाराज को अपने गुरू तुल्य मानते थे। अपनी हिमालय यात्रा के दौरान स्वामी विवेकानन्द जी भी इस स्थान में ही रुके थे। इस ही रास्ते में खैरना पुल भी पड़ता है जो कि 100 साल पूरे कर चुका है और उस समय के आर्किटेक्ट का उत्कृष्ठ नमूना है।
अचानक ही हमारे साथ के एक बंदे को उसके पहचान के कुछ लोग सड़क में दिखे उसने चलती गाड़ी से ही उन्हें कमेंट पास किया। हम लोगों ने पीछे पलट के देखा तो वो काफी देर तक गाड़ी की तरफ देख रहे थे। हमने उनसे कहा कि - यदि वो ऐसी हरकतें करते रहे तो हमें जागेश्वर की जगह थाने की यात्रा में जाना पड़ेगा।
मेरे साथ वाले बीच-बीच में ड्राइविंग कर रहे भैया को चिढ़ा रहे थे कि अगर उन्हें गाड़ी की स्पीड बढ़ानी है तो आगे वाली बाइक में बैठी लड़की का पीछा करना शुरू कर दे। इस तकनीक से हम लोग जल्दी अल्मोड़ा पहुंच जायेंगे। मैंने भैया से कहा - तकनीक का इस्तेमाल करने से पहले भाभी को भी याद कर लें अगर कहीं उनको इस तकनीक का पता चल गया तो ऐसा न हो कि हमेशा के लिये उसी लड़की के घर में रहना पड़े। हमारे इसी तरह के हल्के-फुल्के मजाक चल रहे थे और हल्की-हल्की बारिश भी होने लगी थी।
इस बीच हम लोग एक रैस्टोरेंट में चाय पीने के लिये रुके। यहां से कोसी का बहुत ही अच्छा नजारा दिख रहा था। हमने वहां चाय पी और भवाली से खरीदे फल और मिठाई भी साफ कर दिये ये कह के कि जागेश्वर के लिये अल्मोड़ा से खरीद लेंगे। हम लोग अल्मोड़ा के नजदीक पहुंच ही गये थे कि गाड़ी में लगे एफ.एम. में एक गाना बजने लगा जिसे सुन के हमारे साथ के एक जन को नाचने का भूत सवार हो गया और बोले कि - गाना भी ऐसा आ गया कि नाचने का मन कर रहा है। उनकी ये इच्छा पूरी करने के लिये गाड़ी रोकी गयी पर जैसे ही उन्होंने नाचना शुरू किया बारिश तेज हो गयी इसलिये उनकी ये इच्छा इस बार पूरी नहीं हो पायी। कुछ देर में हम अल्मोड़ा पहुंच गये। अल्मोड़ा बहुत ही अच्छी जगह हैं। अल्मोड़ा की जो एक अलग ही संस्कृति है वो मुझे हमेशा से ही आक्रषित करती रही है। (अल्मोड़ा के बारे में विस्तृत लेख किसी दूसरी पोस्ट में) अल्मोड़ा से हमने वहां की प्रसिद्ध सिंगोड़ी और बाल मिठाई खरीदी और बिना समय गवाये जागेश्वर का रास्ता पकड़ लिया।
जारी......
Monday, December 22, 2008
किस्सा हार्निया ऑपरेशन का
उस दिन मुझे कुछ सामान घर पहुंचाना था जिसके लिये मैं अपने रोज के बहादुर (नेपाली काम करने वाले) को ढूंढ रही थी। वो मुझे एक दुकान में बैठा हुआ मिल गया। उसके चारों तरफ मेरी पहचान के ५-६ लोग बैठे जोर-जोर से हंस रहे थे। मैंने भी उत्सुकतावश जानना चाहा कि आखिर माजरा क्या है जो सब पागलों कि तरह हंसे जा रहे हैं ? जब मैंने किस्सा सुना तो मुझे भी सब के जैसे पहले खूब हंसी आयी पर बाद में थोडा अफसोस भी हुआ।
हुआ कुछ यों कि बहादुर पिछ्ले कुछ समय से हार्निया से परेशान था। हम लोगों ने उसे कहा कि वो यहां के सरकारी अस्पताल में जाकर ऑपरेशन करवा ले। डॉक्टर से उसके लिये बात कर लेंगे। उसने भी हमारी बात सुनी और शायद एक कान से सुन के दूसरे से निकाल दी और हां-हूं वाले अंदाज में बात को टाल दिया। धीरे-धीरे हम लोग अपनी दुनिया में मस्त हो गये और किसी को यह बात याद भी नहीं रही। इधर जब काफी समय से बहादुर दिखायी नहीं दिया तो हमें लगा कि शायद उसने ऑपरेशन करवा लिया हो और आराम कर रहा होगा। हमने उसके साथ के दूसरे बहादुर से पता कराया तो पता चला कि वो अपने देश (नेपाल) गया हुआ है। ये जानकर हम लोग निश्चिंत हो गये।
उस दिन जब वो मिला तो उससे पूछा - बहादुर ऑपरेशन करवाया कि नहीं ? उसने कहा - हां। हमने कहा - तूने डॉक्टर को बता दिया था कि हम लोगों ने तुझे भेजा है ? उसने कहा - शाब ! मैं तो देश जा कर अमेरिकी डॉक्टर से ऑपरेशन करवा के लाया हूं। अमेरिकी डॉक्टर ! सुनकर सबके कान खड़े हो गये। आश्चर्यचकित हो के एक ने उससे पूछा - तुझे अमेरिकी डॉक्टर कहां मिल गया और ऑपरेशन में कितना खर्चा आया ? उसने कहा - शाब ! देश में एक अमेरिकी डॉक्टर रहता है वो अमेरीका से डॉक्टरी सीख के देश वापस आ गया। वैसे तो वो ऑपरेशन के लिये 20,000 रुपया लेता है पर मेरे पास इतने रुपये नहीं थे तो उसने मेरा ऑपरेशन 12,000 रुपये में ही कर दिया। 12,000 रुपये सुन कर सबके होश फाख्ता हो गये। हार्निया का ऑपरेशन जो कि सरकारी अस्पताल में शायद ज्यादा से ज्यादा 2,500-3000 रुपये में हो जाता उसके लिये 12,000 रुपये। एक जन ने उसे डांठते हुए कहा - तेरा दिमाग खराब है क्या ? हमने तुझे जो कहा तूने वो क्यों नहीं किया। इतने ढेर सारे रुपये तेरे पास आये कहां से और तेरा ऑपरेशन हुआ कैसे ?
उसने बताना शुरू किया - मैं देश गया था। वहां मेरे साथ वालों ने कहा कि मैं ऑपरेशन वहां करवाउंगा तो ज्यादा अच्छा रहेगा क्योंकि वहां का डॉक्टर अमेरीका से डॉक्टरी सीख के आया है। शाब ! मैं भी तैयार हो गया। मेरे पास थोड़े पैसे बचे हुए थे और कुछ मैंने उधार लिये। दूसरे दिन डॉक्टर के पास चला गया। वो एक झोपड़े में अस्पताल चलाता था। उसने मेरा पर्चा बनाया मुझसे रुपये लिये और ऑपरेशन कर दिया। अब तो बात बिल्कुल सर के ऊपर से निकल गई कि - अमेरिकी डॉक्टर और झोपड़े में अस्पताल।
उससे पूछा तेरा ऑपरेशन कैसे हुआ ? उसने कहा - शाब ! दो तीन लोगों ने मुझे जोर से पकड़ा फिर डॉक्टर ने चीरा लगाया। मेरा तो दर्द से बुरा हाल हो गया पर डॉक्टर ने कहा कि कोई दूसरा डॉक्टर ऑपरेशन करता तो इससे भी ज्यादा दर्द होता वो तो मैं अमेरिका से डॉक्टरी सीख के आया हूं इसलिये कम दर्द हो रहा है। उसके बाद शाब वो डॉक्टर शाब ने एक सुई में धागा डाला और बोरे की तरह मेरे चीरे को सिल दिया। बाद में मुझे पीने के लिये कुछ दे दिया और कहा कि ऑपरेशन के बाद इसे जरूर पीना पड़ता है नहीं तो दर्द ठीक नहीं होगा। शाब उसके बाद में कुछ देर वहीं सोया रहा। जब नींद खुली तो घर आ गया और 10-15 दिन तक घर में ही रहा और फिर यहां वापस आ गया।
जब हमने उसका पर्चा देखा उस पर्चे में नेपाली में ही कुछ लिखा था बांकी न कोई नाम न कुछ पता ठिकाना। ज़ाहिर सी बात है कि उसे बेवकूफ बनाया गया था पर अफसोस इस बात का है कि वो बेचारा आज भी यहीं समझता है कि उसका ऑपरेशन अमेरिकी डॉक्टर ने किया है और उससे भी ज्यादा उसे इस बात की खुशी है कि उसके 8,000 रुपये बच भी गये।
हुआ कुछ यों कि बहादुर पिछ्ले कुछ समय से हार्निया से परेशान था। हम लोगों ने उसे कहा कि वो यहां के सरकारी अस्पताल में जाकर ऑपरेशन करवा ले। डॉक्टर से उसके लिये बात कर लेंगे। उसने भी हमारी बात सुनी और शायद एक कान से सुन के दूसरे से निकाल दी और हां-हूं वाले अंदाज में बात को टाल दिया। धीरे-धीरे हम लोग अपनी दुनिया में मस्त हो गये और किसी को यह बात याद भी नहीं रही। इधर जब काफी समय से बहादुर दिखायी नहीं दिया तो हमें लगा कि शायद उसने ऑपरेशन करवा लिया हो और आराम कर रहा होगा। हमने उसके साथ के दूसरे बहादुर से पता कराया तो पता चला कि वो अपने देश (नेपाल) गया हुआ है। ये जानकर हम लोग निश्चिंत हो गये।
उस दिन जब वो मिला तो उससे पूछा - बहादुर ऑपरेशन करवाया कि नहीं ? उसने कहा - हां। हमने कहा - तूने डॉक्टर को बता दिया था कि हम लोगों ने तुझे भेजा है ? उसने कहा - शाब ! मैं तो देश जा कर अमेरिकी डॉक्टर से ऑपरेशन करवा के लाया हूं। अमेरिकी डॉक्टर ! सुनकर सबके कान खड़े हो गये। आश्चर्यचकित हो के एक ने उससे पूछा - तुझे अमेरिकी डॉक्टर कहां मिल गया और ऑपरेशन में कितना खर्चा आया ? उसने कहा - शाब ! देश में एक अमेरिकी डॉक्टर रहता है वो अमेरीका से डॉक्टरी सीख के देश वापस आ गया। वैसे तो वो ऑपरेशन के लिये 20,000 रुपया लेता है पर मेरे पास इतने रुपये नहीं थे तो उसने मेरा ऑपरेशन 12,000 रुपये में ही कर दिया। 12,000 रुपये सुन कर सबके होश फाख्ता हो गये। हार्निया का ऑपरेशन जो कि सरकारी अस्पताल में शायद ज्यादा से ज्यादा 2,500-3000 रुपये में हो जाता उसके लिये 12,000 रुपये। एक जन ने उसे डांठते हुए कहा - तेरा दिमाग खराब है क्या ? हमने तुझे जो कहा तूने वो क्यों नहीं किया। इतने ढेर सारे रुपये तेरे पास आये कहां से और तेरा ऑपरेशन हुआ कैसे ?
उसने बताना शुरू किया - मैं देश गया था। वहां मेरे साथ वालों ने कहा कि मैं ऑपरेशन वहां करवाउंगा तो ज्यादा अच्छा रहेगा क्योंकि वहां का डॉक्टर अमेरीका से डॉक्टरी सीख के आया है। शाब ! मैं भी तैयार हो गया। मेरे पास थोड़े पैसे बचे हुए थे और कुछ मैंने उधार लिये। दूसरे दिन डॉक्टर के पास चला गया। वो एक झोपड़े में अस्पताल चलाता था। उसने मेरा पर्चा बनाया मुझसे रुपये लिये और ऑपरेशन कर दिया। अब तो बात बिल्कुल सर के ऊपर से निकल गई कि - अमेरिकी डॉक्टर और झोपड़े में अस्पताल।
उससे पूछा तेरा ऑपरेशन कैसे हुआ ? उसने कहा - शाब ! दो तीन लोगों ने मुझे जोर से पकड़ा फिर डॉक्टर ने चीरा लगाया। मेरा तो दर्द से बुरा हाल हो गया पर डॉक्टर ने कहा कि कोई दूसरा डॉक्टर ऑपरेशन करता तो इससे भी ज्यादा दर्द होता वो तो मैं अमेरिका से डॉक्टरी सीख के आया हूं इसलिये कम दर्द हो रहा है। उसके बाद शाब वो डॉक्टर शाब ने एक सुई में धागा डाला और बोरे की तरह मेरे चीरे को सिल दिया। बाद में मुझे पीने के लिये कुछ दे दिया और कहा कि ऑपरेशन के बाद इसे जरूर पीना पड़ता है नहीं तो दर्द ठीक नहीं होगा। शाब उसके बाद में कुछ देर वहीं सोया रहा। जब नींद खुली तो घर आ गया और 10-15 दिन तक घर में ही रहा और फिर यहां वापस आ गया।
जब हमने उसका पर्चा देखा उस पर्चे में नेपाली में ही कुछ लिखा था बांकी न कोई नाम न कुछ पता ठिकाना। ज़ाहिर सी बात है कि उसे बेवकूफ बनाया गया था पर अफसोस इस बात का है कि वो बेचारा आज भी यहीं समझता है कि उसका ऑपरेशन अमेरिकी डॉक्टर ने किया है और उससे भी ज्यादा उसे इस बात की खुशी है कि उसके 8,000 रुपये बच भी गये।
Thursday, December 18, 2008
चेन्नई यात्रा - भाग 4
जबसे मैं चेन्नई गयी थी तब से ही समंदर देखने के लिये बेचैन थी। एक दिन जब हम सभी बैठे हुए थे मैंने अपने साथ वालों से कहा - मुझे समन्दर देखना है क्योंकि उसको देखे बगैर तो यहाँ आने का कोई फायदा नहीं होगा और दूसरे ही दिन हम लोग महाबलीपुरम बीच के लिये निकल गये। महाबलीपुरम बीच में पत्थरों से बने विशालयकाय मंदिर और मूर्तियां हैं। जिन्हें देख के मैं बिल्कुल विस्मृत सी हो गयी थी और सहज ही मेरे मुंह से निकल पड़ा कि - दक्षिण भारत की कला श्रेष्ठता का कोई सानी नहीं है। बैहरहाल समंदर को देखने का यह मेरा पहला अनुभव था जो मेरे लिये बहुत खास था। मैं इतना विस्तृत समन्दर देखकर बेहद रोमांचित सा महसूस कर रही थी और मेरी तमन्ना थी कि मैं और भी बीच देख पाऊ इसी के चलते हमने मरीना बीच जाने की भी प्लानिंग वहां लहरों के साथ खेलते-खेलते ही बना डाली। शाम को जब हम घर वापस लौटे तो रेत से लदे हुए थे। करीब दो दिन के बाद हम लोग मरीना बीच पे थे जो कि दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बीच है।
मद्रास में रहते हुए एक चीज जो मुझे शिद्दत से महसूस हुई वो थी मद्रास का अपने संस्कृति और संस्कारों के प्रति समर्पण भाव। उन्होंने आज तक भी अपनी संस्कृति और संस्कारों को सहेज के रखा है। वहाँ लोग अपने ट्रेडिशनल कपड़े पहनना ही ज्यादा पसंद करते हैं। महिलाओं को खासतौर से सोने के गहने और बालों में वेणियां लगाने का बहुत ज्यादा शौक है। कहीं भी निकल जाइये वेणी की दुकान और सोने के गहनों से लदी औरतें देखना एक आम बात है।
कई सारे स्वादिष्ट व्यंजनों के अलावा जिसने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया वो थी वहाँ की कॉफी और नारियल की चटनी। कॉफी मेरी कमजोरी होने के कारण कॉफी पाउडर और उसे बनाने के लिये कॉफी मेकर को तो मैं अपने साथ ले के भी आयी और उसे बनाने का स्पेशल तरीका भी सीख लिया। कॉफी को परोसने का तरीका भी कॉफी जितना ही अच्छा था। एक छोटे से गिलास में कॉफी डालकर उसे कटोरीनुमा प्लेट में रखकर परोसा जाता है जिसे पीने में वो और भी ज्यादा स्वादिष्ट लगती है। अपनी वापसी से कुछ दिन पहले मैं सवर्णा (जो वहां की प्रसिद्ध दुकान मानी जाती है) में गई और अपने लिये मद्रास के कुछ यादें लेकर आयी।
दो दिन बाद मेरी वापसी नैनीताल के लिये थी पर अचानक ही बीमार हो जाने के कारण कुछ दिन और रुकना पड़ा। इसी बहाने मुझे वहाँ के अस्पतालों को भी देखने का मौका मिला। जिस डॉक्टर के पास मैं टैस्ट करवाने के लिये गई उन्होंने मुझे कहा कि - मुझे कम से 2-3 दिन और वहीं रुकना चाहिये उसके बाद ही वापसी के बारे में सोचूं तो अच्छा रहेगा। साथ ही साथ उन्होंने भी मुझसे पूछ लिया कि - क्या नैनीताल में बर्फ गिर गई है ? उनके सवाल से मुझे हंसी आ गई और मैंने हंसते-हंसते ही उन्हें जवाब दिया कि - नहीं ! अभी नहीं।
पहले तो मुझे बहुत बुरा लग रहा था कि वापसी के समय में बीमार पड़ना पर बाद में महसूस हुआ कि शायद जो होता है अच्छे के लिये ही होता है क्योंकि मुझे इस दौरान बसंत नगर बीच जाने का मौका मिल गया। मैंने वहाँ पर जी भर के 4-5 घंटे तक लहरों के साथ खूब खेला। अपने नाम रेत में लिखे और रेत के कई सारे महल भी खड़े किये जिन्हें बार-बार लहरें आ कर मिटा जाती थी और भी न जाने क्या-क्या किया क्योंकि इसके बाद तो पता नहीं मुझे फिर समन्दर देखने का मौका जाने कब मिलने वाला था। उसके बाद जिस रेस्टोरेंट में पहुचे, वो एक पंजाबी ढाबा था। जिसे कोई पंजाबी सज्जन ही चलाते थे। मीनू कार्ड देखा तो मैंने बिना देर किये अपने लिये एक प्लेट टिक्की और आलू का पराठा ऑर्डर किया। जिसे खाकर सच में मजा आ गया। इस बार भी अपने ऊपर ढेरों रेत लाद कर हम घर वापस आ गये।
दूसरे दिन नैनीताल के लिये मेरी वापसी थी। मैं मद्रास में कुछ समय और रहना एवं वहाँ के बारे में कुछ और भी जानना चाहती थी पर वापस आने की भी अपनी एक मजबूरी होती है जिसे टाला नहीं जा सकता था। अपने मद्रास प्रवास के दौरान मैं तमिल भाषा को ज्यादा तो नहीं समझ सकी पर हाँ मैंने 1-100 तक की गिनती पूरी सीख ली थी और अपने नोट पैड में लिख भी ली। अगले दिन हम लोग एयरपोर्ट के लिये निकल गये। मैं जब एयरपोर्ट में बैठी थी और अब घर वापस आने की थोड़ी उतावली भी महसूस करने लगी थी उसी समय एक सज्जन मेरे पास आये जो कि मद्रास के ही थे, मुझसे बोले - मुझे पानी की बोतल लेनी है क्या आप मेरा सामान थोड़ी देर के लिये देखेंगी ? मैंने हाँ वाले अंदाज में सिर हिला दिया। कुछ देर बाद वो वापस आये और हम दोनों में बातें होने लगी। जब मैंने उन्हें बताया कि मैं नैनीताल की रहने वाली हू तो उन्होंने झट से मेरे पांव छू लिये। उनके इस तरह के व्यवहार से मुझे थोड़ा अजीब महसूस हुआ और मैंने उनसे बोला कि आप ऐसा क्यों कर रहे हैं ? आप मुझसे उम्र में बड़े हैं। तब उन्होंने मुझसे कहा कि तुम हिमालय के नजदीक रहती हो और वहाँ के लोगों में तो भगवान रहते हैं। उनका पहाड़ों के प्रति इस आदर और सम्मान ने मुझे बेहद भावुक कर दिया और मुझे अपने पहाड़ों पर गर्व महसूस होने लगा। दिल्ली पहुंचने पर उन्होंने मुझे नोट पैड, कलम और गणेश जी कि मूर्ति उपहार में दी जो मेरे लिये इस यात्रा की सबसे ज्यादा यादगार और अनमोल निशानी हैं। उसके बाद वो सज्जन अपने रास्ते चले गये और मैं नैनीताल वापस आ गई।
(समाप्त)
मद्रास में रहते हुए एक चीज जो मुझे शिद्दत से महसूस हुई वो थी मद्रास का अपने संस्कृति और संस्कारों के प्रति समर्पण भाव। उन्होंने आज तक भी अपनी संस्कृति और संस्कारों को सहेज के रखा है। वहाँ लोग अपने ट्रेडिशनल कपड़े पहनना ही ज्यादा पसंद करते हैं। महिलाओं को खासतौर से सोने के गहने और बालों में वेणियां लगाने का बहुत ज्यादा शौक है। कहीं भी निकल जाइये वेणी की दुकान और सोने के गहनों से लदी औरतें देखना एक आम बात है।
कई सारे स्वादिष्ट व्यंजनों के अलावा जिसने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया वो थी वहाँ की कॉफी और नारियल की चटनी। कॉफी मेरी कमजोरी होने के कारण कॉफी पाउडर और उसे बनाने के लिये कॉफी मेकर को तो मैं अपने साथ ले के भी आयी और उसे बनाने का स्पेशल तरीका भी सीख लिया। कॉफी को परोसने का तरीका भी कॉफी जितना ही अच्छा था। एक छोटे से गिलास में कॉफी डालकर उसे कटोरीनुमा प्लेट में रखकर परोसा जाता है जिसे पीने में वो और भी ज्यादा स्वादिष्ट लगती है। अपनी वापसी से कुछ दिन पहले मैं सवर्णा (जो वहां की प्रसिद्ध दुकान मानी जाती है) में गई और अपने लिये मद्रास के कुछ यादें लेकर आयी।
दो दिन बाद मेरी वापसी नैनीताल के लिये थी पर अचानक ही बीमार हो जाने के कारण कुछ दिन और रुकना पड़ा। इसी बहाने मुझे वहाँ के अस्पतालों को भी देखने का मौका मिला। जिस डॉक्टर के पास मैं टैस्ट करवाने के लिये गई उन्होंने मुझे कहा कि - मुझे कम से 2-3 दिन और वहीं रुकना चाहिये उसके बाद ही वापसी के बारे में सोचूं तो अच्छा रहेगा। साथ ही साथ उन्होंने भी मुझसे पूछ लिया कि - क्या नैनीताल में बर्फ गिर गई है ? उनके सवाल से मुझे हंसी आ गई और मैंने हंसते-हंसते ही उन्हें जवाब दिया कि - नहीं ! अभी नहीं।
पहले तो मुझे बहुत बुरा लग रहा था कि वापसी के समय में बीमार पड़ना पर बाद में महसूस हुआ कि शायद जो होता है अच्छे के लिये ही होता है क्योंकि मुझे इस दौरान बसंत नगर बीच जाने का मौका मिल गया। मैंने वहाँ पर जी भर के 4-5 घंटे तक लहरों के साथ खूब खेला। अपने नाम रेत में लिखे और रेत के कई सारे महल भी खड़े किये जिन्हें बार-बार लहरें आ कर मिटा जाती थी और भी न जाने क्या-क्या किया क्योंकि इसके बाद तो पता नहीं मुझे फिर समन्दर देखने का मौका जाने कब मिलने वाला था। उसके बाद जिस रेस्टोरेंट में पहुचे, वो एक पंजाबी ढाबा था। जिसे कोई पंजाबी सज्जन ही चलाते थे। मीनू कार्ड देखा तो मैंने बिना देर किये अपने लिये एक प्लेट टिक्की और आलू का पराठा ऑर्डर किया। जिसे खाकर सच में मजा आ गया। इस बार भी अपने ऊपर ढेरों रेत लाद कर हम घर वापस आ गये।
दूसरे दिन नैनीताल के लिये मेरी वापसी थी। मैं मद्रास में कुछ समय और रहना एवं वहाँ के बारे में कुछ और भी जानना चाहती थी पर वापस आने की भी अपनी एक मजबूरी होती है जिसे टाला नहीं जा सकता था। अपने मद्रास प्रवास के दौरान मैं तमिल भाषा को ज्यादा तो नहीं समझ सकी पर हाँ मैंने 1-100 तक की गिनती पूरी सीख ली थी और अपने नोट पैड में लिख भी ली। अगले दिन हम लोग एयरपोर्ट के लिये निकल गये। मैं जब एयरपोर्ट में बैठी थी और अब घर वापस आने की थोड़ी उतावली भी महसूस करने लगी थी उसी समय एक सज्जन मेरे पास आये जो कि मद्रास के ही थे, मुझसे बोले - मुझे पानी की बोतल लेनी है क्या आप मेरा सामान थोड़ी देर के लिये देखेंगी ? मैंने हाँ वाले अंदाज में सिर हिला दिया। कुछ देर बाद वो वापस आये और हम दोनों में बातें होने लगी। जब मैंने उन्हें बताया कि मैं नैनीताल की रहने वाली हू तो उन्होंने झट से मेरे पांव छू लिये। उनके इस तरह के व्यवहार से मुझे थोड़ा अजीब महसूस हुआ और मैंने उनसे बोला कि आप ऐसा क्यों कर रहे हैं ? आप मुझसे उम्र में बड़े हैं। तब उन्होंने मुझसे कहा कि तुम हिमालय के नजदीक रहती हो और वहाँ के लोगों में तो भगवान रहते हैं। उनका पहाड़ों के प्रति इस आदर और सम्मान ने मुझे बेहद भावुक कर दिया और मुझे अपने पहाड़ों पर गर्व महसूस होने लगा। दिल्ली पहुंचने पर उन्होंने मुझे नोट पैड, कलम और गणेश जी कि मूर्ति उपहार में दी जो मेरे लिये इस यात्रा की सबसे ज्यादा यादगार और अनमोल निशानी हैं। उसके बाद वो सज्जन अपने रास्ते चले गये और मैं नैनीताल वापस आ गई।
(समाप्त)
Monday, December 15, 2008
चेन्नई यात्रा - भा़ग ३
इस दौरे में मुझे दुनिया के सबसे अमीर भगवान तिरुपति बालाजी के दर्शन का मौका भी मिला। वहाँ दर्शन करने के लिये जब हम लोगों ने चेन्नई में आरक्षण करवाया तो हमारे नाम-पतों के साथ-साथ कम्प्यूटर फोटो और अंगूठे का निशान भी लिया गया। पता चला कि यह सुरक्षा की दृष्टि से किया जाता है। चेन्नई से तीन घण्टे की यात्रा के बाद रात्रि 10 बजे हम तिरुपति पहुँचे। तिरुपति बालाजी का मंदिर आंध्र प्रदेश में है। अगले दिन सुबह हम 7 बजे बालाजी के दर्शन के लिये निकले। रास्ता सिर्फ आधे घंटे का था, लेकिन कुछ माह पूर्व इस रास्ते पर आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री चन्द्रबाबू नायडू के ऊपर बम फेंकने के बाद सुरक्षा जाँच सख्ती से हो रही थी। यात्रियों के सामान को खोल कर तलाशी ली जा रही थी। पर जब हमारी गाड़ी का नम्बर आया सिर्फ औरतें और बच्चे होने के कारण हमें तुरन्त छोड़ दिया गया।
यह पूरा रास्ता पहाड़ी है। मानो नैनीताल के ही पेड़ और पहाड़ हों। लाल मिट्टी चमक वाली। पहाड़ भी मद्रास के मुकाबले थोड़ा ज्यादा ऊँचे थे। पौने आठ बजे हम वहाँ पर पहुँचे थे और कुछ धार्मिक अनुष्ठान निपटाने के बाद 10 बजे दर्शन के लिये लाईन में खड़े हुए। काफी समय तक हम लोग यूँ ही लाइनों में चलते रहे। इस बीच सामान की तलाशी ले रहे सुरक्षाकर्मियों ने मेरे पर्स में मोबाइल के साथ रखे चार्जर को निकाल कर जमा कर लिया। मेरे साथ वालों ने तब मुझे बताया कि यहाँ पर यह वर्जित है। मुझे गुस्सा आ गया, किसी ने मुझे पहले क्यों नहीं बताया ? ताज्जुब की बात वे मोबाइल नहीं ले गये।
देर तक लाइनों में ही चक्कर लगाने के बाद हम एक बड़े से कमरे में पहुँचे, जिसके अंदर हमें भरकर बाहर से ताला लगा दिया गया। फिर कमरा तभी खोला गया, जब अगले कमरे में मौजूद लोग आगे बढ़ गये। खैर इन तमाम झंझटों को झेलते हुए हम लोग आगे बढ़े और करीब ३-४ घंटे बाद हम बालाजी के आसपास कहीं थे। यहाँ पर भी एक सुरक्षाकर्मी था जो सामान की स्कैंनिंग मशीन से जाँच कर रहा था। उसने मेरे पर्स को चैक किया जिसमें उसे मोबाइल मिल गया। उसने तमिल में कुछ कहा, जो मुझे समझ नहीं आया इसलिये मैंने स्वयं ही अंग्रेजी में उसे बताया कि मुझे मालूम नहीं था, क्योंकि मैं यहाँ नैनीताल से आई हूँ। गौर से मुझे देखकर उसने मोबाइल को अपने पास रख लिया और मुझे प्राप्ति की चिट दे दी। उसका विनम्र व्यवहार अच्छा लगा।
आधा घंटा और इंतजार के बाद हम बालाजी के मंदिर के सामने थे। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते सिक्योरिटी और ज्यादा सख्त होती जाती थी। इतनी धक्कामुक्की में दर्शन क्या होते ! जैसे-तैसे हम बालाजी के सामने पहुँचे और एक सेकेण्ड भी नहीं हुआ कि एक सुरक्षाकर्मी ने हमें धक्का देकर हटा दिया। तीन-चार सुरक्षाकर्मी लगातार यही काम कर रहे थे। सवेरे से भूखे-प्यासे इस लाईन में खड़े थे और यहाँ तो प्रणाम करने तक का मौका नहीं मिला।
बालाजी का मंदिर पूरा सोने का बना हुआ है। बेतहाशा चढ़ावा हर रोज आता है। मंदिर परिसर में ही एक स्थान पर सिक्कों को बड़े-बड़े बोरों में भरा जा रहा था। एक और कमरे में 15-20 आदमी नोट गिनने में व्यस्त थे। उनके चारों जितना रुपया बिखरा हुआ था, मैंने आज तक अपने जीवन में नहीं देखा। वहाँ से प्रसाद लेकर हम लोग बाहर आये। सुरक्षाकर्मी ने मोबाइल मुझे वापस करते हुए पूछ लिया, आप नैनीताल से आयी हैं, वहाँ तो बर्फ गिर गयी होगी न ?
यहाँ पे एक नई बात और देखने को मिली वो था लोगों का बाल कटाना। बालाजी में महिलायें भी अपने पूरे बाल कटवा रही थीं। मुझे ऐसा लगा कि कुछ लोग मनोती पूरा होने पर और कुछ लोग मनोती पूरी होने के लिये बाल कटा के बालाजी को चढ़ा रहे थे।
बालाजी का प्रसाद लड्डुओं का होता है। दो रुपये की एक थैली लाजिये और फिर जितने लड्डू चाहिये थैलियों में खरीद कर लाइये।
एक रैस्टोरेंट में खाना खाने गये। जोरों की भूख थी, मगर उस होटल की गंदगी और खाना इतना तीखा था कि मैं तो खा ही नहीं पायी। पर हाँ, होटल के बाहर जो पान वाला था, उसके पान बनाने का तरीका इतना अलग था कि एक पान खाये बिना नहीं रहा गया।
मद्रास में मुझे कई और मंदिर भी देखने को मिले। जिनके नाम अब में भूल गयी हूं। उनमें एक मंदिर था कमल के फूल चढ़ाने वाला मंदिर। यहाँ हम लोगों ने भी कमल के फूल चढ़ाये। यहाँ के मंदिरों की संरचना कुछ अलग तरह की थी। पत्थरों से बने छोटी-छोटी रंगीन नक्काशीदार संरचनाओं से मिलकर बने भव्य मंदिर। एक मंदिर हनुमानजी का था। इस मंदिर में हनुमान जी की भव्य प्रतिमा है। इतनी बड़ी प्रतिमा मैंने अभी तक तो फिलहाल कहीं नहीं देखी है। एक मंदिर था जिसमें सुबह और शाम को समय में स्वयं ही कुछ (शायद इलेक्ट्रॉनिक) वाद्य यंत्र बजने लगते हैं। इनके अलावा भी कुछ और मंदिर देखने को मिले।
यहाँ पूजा के पश्चात पूजारी सर में कुछ टोपी जैसी चीज रख कर आशीष दे रहे थे। पूजा समाप्त करने के बाद सभी लोग मंदिर के बरामदे में कुछ समय अवश्य बैठते हैं। यहाँ भगवान कारतिकेय की विशेषतः पूजा की जाती है। उन्हें कई नामों से जाना जाता है। उनमें एक नाम जो मुझे याद है वो है 'भगवान मुरगन'।
(जारी........)
यह पूरा रास्ता पहाड़ी है। मानो नैनीताल के ही पेड़ और पहाड़ हों। लाल मिट्टी चमक वाली। पहाड़ भी मद्रास के मुकाबले थोड़ा ज्यादा ऊँचे थे। पौने आठ बजे हम वहाँ पर पहुँचे थे और कुछ धार्मिक अनुष्ठान निपटाने के बाद 10 बजे दर्शन के लिये लाईन में खड़े हुए। काफी समय तक हम लोग यूँ ही लाइनों में चलते रहे। इस बीच सामान की तलाशी ले रहे सुरक्षाकर्मियों ने मेरे पर्स में मोबाइल के साथ रखे चार्जर को निकाल कर जमा कर लिया। मेरे साथ वालों ने तब मुझे बताया कि यहाँ पर यह वर्जित है। मुझे गुस्सा आ गया, किसी ने मुझे पहले क्यों नहीं बताया ? ताज्जुब की बात वे मोबाइल नहीं ले गये।
देर तक लाइनों में ही चक्कर लगाने के बाद हम एक बड़े से कमरे में पहुँचे, जिसके अंदर हमें भरकर बाहर से ताला लगा दिया गया। फिर कमरा तभी खोला गया, जब अगले कमरे में मौजूद लोग आगे बढ़ गये। खैर इन तमाम झंझटों को झेलते हुए हम लोग आगे बढ़े और करीब ३-४ घंटे बाद हम बालाजी के आसपास कहीं थे। यहाँ पर भी एक सुरक्षाकर्मी था जो सामान की स्कैंनिंग मशीन से जाँच कर रहा था। उसने मेरे पर्स को चैक किया जिसमें उसे मोबाइल मिल गया। उसने तमिल में कुछ कहा, जो मुझे समझ नहीं आया इसलिये मैंने स्वयं ही अंग्रेजी में उसे बताया कि मुझे मालूम नहीं था, क्योंकि मैं यहाँ नैनीताल से आई हूँ। गौर से मुझे देखकर उसने मोबाइल को अपने पास रख लिया और मुझे प्राप्ति की चिट दे दी। उसका विनम्र व्यवहार अच्छा लगा।
आधा घंटा और इंतजार के बाद हम बालाजी के मंदिर के सामने थे। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते सिक्योरिटी और ज्यादा सख्त होती जाती थी। इतनी धक्कामुक्की में दर्शन क्या होते ! जैसे-तैसे हम बालाजी के सामने पहुँचे और एक सेकेण्ड भी नहीं हुआ कि एक सुरक्षाकर्मी ने हमें धक्का देकर हटा दिया। तीन-चार सुरक्षाकर्मी लगातार यही काम कर रहे थे। सवेरे से भूखे-प्यासे इस लाईन में खड़े थे और यहाँ तो प्रणाम करने तक का मौका नहीं मिला।
बालाजी का मंदिर पूरा सोने का बना हुआ है। बेतहाशा चढ़ावा हर रोज आता है। मंदिर परिसर में ही एक स्थान पर सिक्कों को बड़े-बड़े बोरों में भरा जा रहा था। एक और कमरे में 15-20 आदमी नोट गिनने में व्यस्त थे। उनके चारों जितना रुपया बिखरा हुआ था, मैंने आज तक अपने जीवन में नहीं देखा। वहाँ से प्रसाद लेकर हम लोग बाहर आये। सुरक्षाकर्मी ने मोबाइल मुझे वापस करते हुए पूछ लिया, आप नैनीताल से आयी हैं, वहाँ तो बर्फ गिर गयी होगी न ?
यहाँ पे एक नई बात और देखने को मिली वो था लोगों का बाल कटाना। बालाजी में महिलायें भी अपने पूरे बाल कटवा रही थीं। मुझे ऐसा लगा कि कुछ लोग मनोती पूरा होने पर और कुछ लोग मनोती पूरी होने के लिये बाल कटा के बालाजी को चढ़ा रहे थे।
बालाजी का प्रसाद लड्डुओं का होता है। दो रुपये की एक थैली लाजिये और फिर जितने लड्डू चाहिये थैलियों में खरीद कर लाइये।
एक रैस्टोरेंट में खाना खाने गये। जोरों की भूख थी, मगर उस होटल की गंदगी और खाना इतना तीखा था कि मैं तो खा ही नहीं पायी। पर हाँ, होटल के बाहर जो पान वाला था, उसके पान बनाने का तरीका इतना अलग था कि एक पान खाये बिना नहीं रहा गया।
मद्रास में मुझे कई और मंदिर भी देखने को मिले। जिनके नाम अब में भूल गयी हूं। उनमें एक मंदिर था कमल के फूल चढ़ाने वाला मंदिर। यहाँ हम लोगों ने भी कमल के फूल चढ़ाये। यहाँ के मंदिरों की संरचना कुछ अलग तरह की थी। पत्थरों से बने छोटी-छोटी रंगीन नक्काशीदार संरचनाओं से मिलकर बने भव्य मंदिर। एक मंदिर हनुमानजी का था। इस मंदिर में हनुमान जी की भव्य प्रतिमा है। इतनी बड़ी प्रतिमा मैंने अभी तक तो फिलहाल कहीं नहीं देखी है। एक मंदिर था जिसमें सुबह और शाम को समय में स्वयं ही कुछ (शायद इलेक्ट्रॉनिक) वाद्य यंत्र बजने लगते हैं। इनके अलावा भी कुछ और मंदिर देखने को मिले।
यहाँ पूजा के पश्चात पूजारी सर में कुछ टोपी जैसी चीज रख कर आशीष दे रहे थे। पूजा समाप्त करने के बाद सभी लोग मंदिर के बरामदे में कुछ समय अवश्य बैठते हैं। यहाँ भगवान कारतिकेय की विशेषतः पूजा की जाती है। उन्हें कई नामों से जाना जाता है। उनमें एक नाम जो मुझे याद है वो है 'भगवान मुरगन'।
(जारी........)
Thursday, December 11, 2008
चेन्नई यात्रा - भाग २
तमिलनाडु में सबसे बड़ी परेशानी भाषा की है। लोग तमिल के अलावा यदि कुछ बोलते हैं तो अंग्रेजी। हिन्दी तो विदेशी भाषा जैसी लगती है। सब कुछ घुमावदार पहाड़ी सड़कों जैसी गोल-गोल तमिल में या फिर अंग्रेजी में ही लिखा देख कर कुछ ही दिनों में अजीब सा तनाव होने लगा। कई बार ऐसा लगता जैसे मैं अपने देश में न हो के परदेश पहुँच गयी हूँ। एक जगह जरूर उटपटाँग हिन्दी एक दीवार पर देखने को मिली, 'कप्या यहा धुमपान न करे'। हिन्दी बोलने, सुनने और देखने के लिये मैं बुरी तरह तरस गई थी। इसी दौरान एक रोचक घटना घटी। दाँत दर्द के कारण मुझे वहाँ दंत चिकित्सक के पास जाना पड़ा। मैं अपनी परेशानी अंग्रेजी में महिला चिकित्सक को समझा रही थी कि तभी अचानक पीछे से किसी ने टूटी-फूटी हिन्दी में कुछ पूछा और मैंने भी तपाक से हिन्दी में ही जवाब दे डाला। तब उस महिला चिकित्सक ने मुझे डाँटते हुए से कहा, '' तुम्हें हिन्दी आती है ? तो फिर इतनी देर से मुझसे क्यों अंग्रेजी उगलवा रही थीं ? तुम्हें पता है, मैं यहाँ हिन्दी बोलने के लिये तरस जाती हूँ।'' तब मुझे पता लगा कि वे काश्मीर से वहाँ आयी हैं।
दीवाली के एक-दो दिन बाद की बात है। मैं टी.वी. पर हिन्दी या अंग्रेजी चैनल की तलाश कर रही थी। रिमोट दबाते-दबाते मुझे अंग्रेजी न्यूज चैनल एनडीटीवी मिल गया। उसमें उस समय उत्तराखंड की कोई खबर चल रही थी। जानी पहचानी जगहों का नाम सुन कर मैं खुशी से उछल पड़ी। पर पूरी खबर सुनकर खुशी एक झटके से गायब हो गई, क्योंकि खबर थी सेराघाट की टैक्सी दुर्घटना की, जिसमें कई सारे मासूम लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। इस खबर के अलावा कभी भी उत्तराखंड का नाम सुनने को नहीं मिला।
दक्षिण भारत के लगभग सभी व्यंजनों का आनंद मैंने उठाया और जमकर नारियल का पानी भी पिया। पर फिर भी अपनी रोटी-सब्जी, दाल-भात के लिये जीभ ललचा ही जा रही थी। जिनके साथ मैं वहाँ रह रही थी, वे लोग मेरे लिये बड़ी मेहनत से चपाती तैयार करते थे, पर उसमें वह बात नहीं थी जो अपने यहाँ की रोटियों में होती है। वे मुझसे रोटी और परांठे बनाना सीखना चाहते थे। मैंने उनको फूलती हुई रोटियाँ बना कर दिखाई तो वे ऐसे चौंके पड़े जैसे भारत को ओलम्पिक में स्वर्ण पदक मिल गया हो। बोले ये तो बिल्कुल विज्ञापन वाली रोटी है, हम तो रोटीमेकर से भी ऐसी रोटी नहीं बना पाते। रसोई में उनसे बातें करते-करते मैंने कहा कि मुझे अपना शहर, अपने लोग, अपनी बोली-भाषा बहुत याद आ रही है। तब उन्होंने बताया कि कुछ महीनों पहले उनके पड़ोस में लखनऊ से एक परिवार आया था, पर चार महीनों में ही उनका ऐसा हाल हो गया कि वो लोग वापस चले गये।
जब हम एम.जी.एम. एम्यूज्मेंट पार्क जा रहे थे तो अचानक ही सामने पहाड़ दिखने लगे। मैं खुशी से चौंकते हुए बोली, अरे यहाँ तो पहाड़ भी हैं। हमारे पहाड़ों के मुकाबले ये बहुत ही छोटे थे, मैंने इनका नामकरण 'बेबी पहाड' किया। घर की याद में मुझे माउंट एवरेस्ट जैसे गगनचुम्बी नजर आ रहे थे।
अन्ना जियोलॉजिकल जू में 'इमू' नामक शुतुर्मुग जैसा एक पक्षी देखा। इतने बड़े चिड़ियाघर के लिये मात्र 2 इलैक्ट्रॉनिक गाड़ियों का इंतजाम है, जिनका टिकट लेने के लिये तमाम पापड़ बेलने पड़ते हैं। मेरे साथ, जिनके वहां में रह रही थी उनके दो छोटे बच्चे, एक तीन साल और एक पाँच साल थे, जिनके लिये हमने पूरा टिकट लिया था, ताकि वे आराम से बैठ सकें। पर गार्ड ने जबरन बच्चों को गोद में बिठलाने के लिये हमें विवश कर दिया। हमारी आपत्ति पर उसने कोई ध्यान नहीं दिया। हमारे टिकट के रुपये भी वापस नहीं किये। पर हमारा गुस्सा तब शांत हो गया, जब हम साँपों के पिंजरे में पहुँचे और उसी समय एक कोबरा अपने घड़े से बाहर निकल कर पूरे पिंजरे में चक्कर लगाने लगा और चक्कर लगाते-लगाते उसने अपनी केंचुल उतारनी शुरू कर दी। तब तक चक्कर लगाता रहा जब तक उसने केंचुल पूरा नहीं उतार दिया। केंचुल उतार लेने के बाद वह वापस अपने घड़े में चला गया।
(जारी..........)
दीवाली के एक-दो दिन बाद की बात है। मैं टी.वी. पर हिन्दी या अंग्रेजी चैनल की तलाश कर रही थी। रिमोट दबाते-दबाते मुझे अंग्रेजी न्यूज चैनल एनडीटीवी मिल गया। उसमें उस समय उत्तराखंड की कोई खबर चल रही थी। जानी पहचानी जगहों का नाम सुन कर मैं खुशी से उछल पड़ी। पर पूरी खबर सुनकर खुशी एक झटके से गायब हो गई, क्योंकि खबर थी सेराघाट की टैक्सी दुर्घटना की, जिसमें कई सारे मासूम लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। इस खबर के अलावा कभी भी उत्तराखंड का नाम सुनने को नहीं मिला।
दक्षिण भारत के लगभग सभी व्यंजनों का आनंद मैंने उठाया और जमकर नारियल का पानी भी पिया। पर फिर भी अपनी रोटी-सब्जी, दाल-भात के लिये जीभ ललचा ही जा रही थी। जिनके साथ मैं वहाँ रह रही थी, वे लोग मेरे लिये बड़ी मेहनत से चपाती तैयार करते थे, पर उसमें वह बात नहीं थी जो अपने यहाँ की रोटियों में होती है। वे मुझसे रोटी और परांठे बनाना सीखना चाहते थे। मैंने उनको फूलती हुई रोटियाँ बना कर दिखाई तो वे ऐसे चौंके पड़े जैसे भारत को ओलम्पिक में स्वर्ण पदक मिल गया हो। बोले ये तो बिल्कुल विज्ञापन वाली रोटी है, हम तो रोटीमेकर से भी ऐसी रोटी नहीं बना पाते। रसोई में उनसे बातें करते-करते मैंने कहा कि मुझे अपना शहर, अपने लोग, अपनी बोली-भाषा बहुत याद आ रही है। तब उन्होंने बताया कि कुछ महीनों पहले उनके पड़ोस में लखनऊ से एक परिवार आया था, पर चार महीनों में ही उनका ऐसा हाल हो गया कि वो लोग वापस चले गये।
जब हम एम.जी.एम. एम्यूज्मेंट पार्क जा रहे थे तो अचानक ही सामने पहाड़ दिखने लगे। मैं खुशी से चौंकते हुए बोली, अरे यहाँ तो पहाड़ भी हैं। हमारे पहाड़ों के मुकाबले ये बहुत ही छोटे थे, मैंने इनका नामकरण 'बेबी पहाड' किया। घर की याद में मुझे माउंट एवरेस्ट जैसे गगनचुम्बी नजर आ रहे थे।
अन्ना जियोलॉजिकल जू में 'इमू' नामक शुतुर्मुग जैसा एक पक्षी देखा। इतने बड़े चिड़ियाघर के लिये मात्र 2 इलैक्ट्रॉनिक गाड़ियों का इंतजाम है, जिनका टिकट लेने के लिये तमाम पापड़ बेलने पड़ते हैं। मेरे साथ, जिनके वहां में रह रही थी उनके दो छोटे बच्चे, एक तीन साल और एक पाँच साल थे, जिनके लिये हमने पूरा टिकट लिया था, ताकि वे आराम से बैठ सकें। पर गार्ड ने जबरन बच्चों को गोद में बिठलाने के लिये हमें विवश कर दिया। हमारी आपत्ति पर उसने कोई ध्यान नहीं दिया। हमारे टिकट के रुपये भी वापस नहीं किये। पर हमारा गुस्सा तब शांत हो गया, जब हम साँपों के पिंजरे में पहुँचे और उसी समय एक कोबरा अपने घड़े से बाहर निकल कर पूरे पिंजरे में चक्कर लगाने लगा और चक्कर लगाते-लगाते उसने अपनी केंचुल उतारनी शुरू कर दी। तब तक चक्कर लगाता रहा जब तक उसने केंचुल पूरा नहीं उतार दिया। केंचुल उतार लेने के बाद वह वापस अपने घड़े में चला गया।
(जारी..........)
Tuesday, December 9, 2008
चेन्नई यात्रा - भाग १
मेरी यह यात्रा सुनामी हादसे से सिर्फ कुछ महीने पहले की है। इस यात्रा की तस्वीरें खराब हो जाने के कारण मैं उन्हें नहीं लगा पाउंगी जिसका मुझे अफसोस है।
सुनामी हादसे के बारे में सुना तो एक पल के लिये यकीन ही नहीं हुआ कि कुछ समय पहले जिन लहरों के बीच मैं एक छोटी सी बच्ची रेहा का हाथ थामे हुए इतना मजा ले रही थी, वही शांत लहरें एक दिन विकट रूप लेकर हजारों लोगों को अपने साथ बहा ले जायेंगी। इन लहरों में अपना जीवन तलाशने वाले कितने ही मासूम पूरी जिन्दगी इन लहरों से घृणा करने लगेंगे.......
9 नवम्बर को अपराह्न 1 बजे जब हम चेन्नई पहुँचे, आकाश काले-काले बादलों से घिरा हुआ था और झमाझम बारिश हो रही थी। मेरे जैसे पहाड़ी के लिये यह मौसम अच्छा ही था। नैनीताल में तो हम अक्टूबर की शुरूआत में ही मानसून को अलविदा कह चुके थे। कामराज डोमेस्टिक चिन्नई हवाई अड्डे से वीरूगमबाक्कम जाते हुए टैक्सी से बाहर झाँकने पर तमिल सिनेमा के चर्चित कलाकार रजनीकांत और राजनीति की चर्चित खिलाड़ी जयललिता के पोस्टर सबसे ज्यादा नजर आये। हर गली के नुक्कड़ पर जयललिता की मुस्कुराती तस्वीर मानो आम जनता को मुँह चिढ़ा रही हो कि देखो सिर्फ मैं ही हँस सकती हूँ। क्योंकि जनता तो उन दिनों उनसे मासूम हाथियों की बलि देने के कारण नाराज दिखाई दे रही थी। यह मुद्दा वहाँ के न्यूज चैनलों पर छाया हुआ था।
दूसरे दिन टी नगर (त्यागराज नगर) जाने का मौका मिला। जहाँ-तहाँ पर घंटों का जाम लगा हुआ था। हर तरफ इतनी भीड़ इतना शोरशराबा कि दिमाग खराब हो जाये। जिस चीज ने मेरा सबसे ज्यादा धयान खींचा वह यह कि ज्यादातर दुकानों में औरतें ही काम करती नजर आई। गिनती की ही दुकानों पर पुरुष थे। 3-4 दिन बाद दीवाली आने वाली थी और बाजार में काफी भीड़ थी। मैं जिन दुकानों में भी गई, लोग मुझे अपनी परम्परागत पोशाकें और इसी तरह की चीजें खरीदते दिखे। यहाँ दीवाली में उत्तरी भारत की तरह अमावस्या के दिन लक्ष्मी की पूजा नहीं की जाती, बल्कि नरहर चतुर्दशी को दीवाली मनाते हैं। मान्यता है कि इस दिन नरकासुर के आतंक से मुक्ति मिली थी।
दीवाली के दिन सुबह घर का मुखिया परिवार के सभी सदस्यों के सिर पर तेल लगाता है और फिर सब लोग स्नान कर नये कपड़े पहनते हैं, जिन्हें पहले मंदिर में रखा जाता है। सवेरे से ही खाने का जोर रहता है। ब्राह्मण ज्यादातर शाकाहारी खाना ही खाते हैं, जबकि ब्राह्मणेतर लोग मांस खाकर खुशी मनाते हैं। गलागला नामक एक विशेष प्रकार की मिठाई तैयार की जाती है, जो हमारे घुघुतों की तरह ही होती है। फर्क इतना है कि गुड़ की जगह चीनी का प्रयोग किया जाता है और उनका आकार भी घुघुतों जैसा नहीं होता। भोजन केले के पत्तों में परोसा जाता है। दीवाली के दिन घर में बिजली की मालायें लगाने का रिवाज नहीं दिखायी दिया, पर घर के बाहर ढेर सारे सूखे रंगों से रंगोली बनाने का रिवाज था, जो हमारे ऐपणों से पूरी तरह भिन्न थी। शाम को पटाखों धूम धड़ाके और धुएँ से चेन्नई शहर भरा हुआ था। मैं जबसे वहाँ गयी थी, मुझे कभी भी अपने पहाड़ों के जैसा तारों से भरा नीला आसमान नजर ही नहीं आया था। इस बात पर मैं अपने एक दोस्त को चिढ़ा भी रही थी की मैं तेरे मद्रास के बिना तारों वाले बदरंग आसमान में थोड़ा नीला रंग और दो-चार तारे ढूँढने की कोशिश कर रही हूँ। पर दीवाली वाले दिन तो आसमान की कल्पना करना ही मुश्किल था।
अगले दिन हमने अपनी कुमाउंनी दीवाली मनाई। व्रत रखा और पूरा बाजार छानकर एक खील का पैकेट खरीद कर लाये जिसमें मुश्किल से दो मुठ्ठी खील होगी, पर कीमत थी 30 रु.! बहरहाल खाँड के खिलौने और बताशे तो हमें नहीं ही मिले। सरसों के तेल के दियों की जगह भी दिये के आकार वाली मोमबत्तियाँ जला कर काम चलाया।
(जारी......)
सुनामी हादसे के बारे में सुना तो एक पल के लिये यकीन ही नहीं हुआ कि कुछ समय पहले जिन लहरों के बीच मैं एक छोटी सी बच्ची रेहा का हाथ थामे हुए इतना मजा ले रही थी, वही शांत लहरें एक दिन विकट रूप लेकर हजारों लोगों को अपने साथ बहा ले जायेंगी। इन लहरों में अपना जीवन तलाशने वाले कितने ही मासूम पूरी जिन्दगी इन लहरों से घृणा करने लगेंगे.......
9 नवम्बर को अपराह्न 1 बजे जब हम चेन्नई पहुँचे, आकाश काले-काले बादलों से घिरा हुआ था और झमाझम बारिश हो रही थी। मेरे जैसे पहाड़ी के लिये यह मौसम अच्छा ही था। नैनीताल में तो हम अक्टूबर की शुरूआत में ही मानसून को अलविदा कह चुके थे। कामराज डोमेस्टिक चिन्नई हवाई अड्डे से वीरूगमबाक्कम जाते हुए टैक्सी से बाहर झाँकने पर तमिल सिनेमा के चर्चित कलाकार रजनीकांत और राजनीति की चर्चित खिलाड़ी जयललिता के पोस्टर सबसे ज्यादा नजर आये। हर गली के नुक्कड़ पर जयललिता की मुस्कुराती तस्वीर मानो आम जनता को मुँह चिढ़ा रही हो कि देखो सिर्फ मैं ही हँस सकती हूँ। क्योंकि जनता तो उन दिनों उनसे मासूम हाथियों की बलि देने के कारण नाराज दिखाई दे रही थी। यह मुद्दा वहाँ के न्यूज चैनलों पर छाया हुआ था।
दूसरे दिन टी नगर (त्यागराज नगर) जाने का मौका मिला। जहाँ-तहाँ पर घंटों का जाम लगा हुआ था। हर तरफ इतनी भीड़ इतना शोरशराबा कि दिमाग खराब हो जाये। जिस चीज ने मेरा सबसे ज्यादा धयान खींचा वह यह कि ज्यादातर दुकानों में औरतें ही काम करती नजर आई। गिनती की ही दुकानों पर पुरुष थे। 3-4 दिन बाद दीवाली आने वाली थी और बाजार में काफी भीड़ थी। मैं जिन दुकानों में भी गई, लोग मुझे अपनी परम्परागत पोशाकें और इसी तरह की चीजें खरीदते दिखे। यहाँ दीवाली में उत्तरी भारत की तरह अमावस्या के दिन लक्ष्मी की पूजा नहीं की जाती, बल्कि नरहर चतुर्दशी को दीवाली मनाते हैं। मान्यता है कि इस दिन नरकासुर के आतंक से मुक्ति मिली थी।
दीवाली के दिन सुबह घर का मुखिया परिवार के सभी सदस्यों के सिर पर तेल लगाता है और फिर सब लोग स्नान कर नये कपड़े पहनते हैं, जिन्हें पहले मंदिर में रखा जाता है। सवेरे से ही खाने का जोर रहता है। ब्राह्मण ज्यादातर शाकाहारी खाना ही खाते हैं, जबकि ब्राह्मणेतर लोग मांस खाकर खुशी मनाते हैं। गलागला नामक एक विशेष प्रकार की मिठाई तैयार की जाती है, जो हमारे घुघुतों की तरह ही होती है। फर्क इतना है कि गुड़ की जगह चीनी का प्रयोग किया जाता है और उनका आकार भी घुघुतों जैसा नहीं होता। भोजन केले के पत्तों में परोसा जाता है। दीवाली के दिन घर में बिजली की मालायें लगाने का रिवाज नहीं दिखायी दिया, पर घर के बाहर ढेर सारे सूखे रंगों से रंगोली बनाने का रिवाज था, जो हमारे ऐपणों से पूरी तरह भिन्न थी। शाम को पटाखों धूम धड़ाके और धुएँ से चेन्नई शहर भरा हुआ था। मैं जबसे वहाँ गयी थी, मुझे कभी भी अपने पहाड़ों के जैसा तारों से भरा नीला आसमान नजर ही नहीं आया था। इस बात पर मैं अपने एक दोस्त को चिढ़ा भी रही थी की मैं तेरे मद्रास के बिना तारों वाले बदरंग आसमान में थोड़ा नीला रंग और दो-चार तारे ढूँढने की कोशिश कर रही हूँ। पर दीवाली वाले दिन तो आसमान की कल्पना करना ही मुश्किल था।
अगले दिन हमने अपनी कुमाउंनी दीवाली मनाई। व्रत रखा और पूरा बाजार छानकर एक खील का पैकेट खरीद कर लाये जिसमें मुश्किल से दो मुठ्ठी खील होगी, पर कीमत थी 30 रु.! बहरहाल खाँड के खिलौने और बताशे तो हमें नहीं ही मिले। सरसों के तेल के दियों की जगह भी दिये के आकार वाली मोमबत्तियाँ जला कर काम चलाया।
(जारी......)
Saturday, December 6, 2008
आतंक के बाद ऐसे फूटा हिन्दुस्तान का गुस्सा
Friday, December 5, 2008
ऐसा हो चला है आजकल की शिक्षा और शिक्षकों का स्तर
बात उस दिन की है जब मेरे पास एक फोन आया और मुझे पता चला कि मेरे साथ वालों की बिटिया की तबियत अचानक ही स्कूल में खराब हो गई है। उसके परिवार का कोई भी घर में मौजूद न होने के कारण मैं ही बच्ची के स्कूल चली गयी। वहाँ जा के अपनी नजरों के सामने मैंने जो भी देखा उसमें यकीन करना मेरे लिये बिल्कुल मुश्किल था।
बच्ची बेहोशी की हालत में पड़ी थी। उसकी कुछ दोस्तें उसके साथ खड़ी थी और उनकी समझ में जो भी आ रहा था वो कर रही थी। स्कूल की सारी शिक्षिकायें लाइन लगा के दूर खड़ी तमाशा सा देख रही थी। कुछ शिक्षिकायें हंस रही थी और कुछ कह रही थी कि - ये तो सब नाटक कर रही हैं। मेरे वहाँ पहुंचने के बाद दिखावे के लिये सामने तो आयी पर उनका व्यवहार देख कर मैं बेहद आहत हुई।
मुझे बार-बार यही लग रहा था कि स्कूल में बच्चा शिक्षकों की जिम्मेदारी होता है अगर उसे कुछ होता है तो वहाँ के शिक्षकों की यह जिम्मेदारी बनती है कि घर वालों को फोन करें और बच्चे को अस्पताल ले जाने की तैयारी करें पर वहाँ ऐसा कुछ नहीं हुआ। उस बच्ची की दोस्तों ने ही घर फोन किया और अपनी दोस्त की हालत के बारे में बताया।
जब मैं वहाँ पहुंची तो मैंने अपने स्तर पर बच्ची को अस्पताल ले जाने का इंतजाम किया। मुझे इस बात पर और भी ज्यादा आश्चर्य हुआ कि किसी भी शिक्षक ने मुझसे यह नहीं पूछा की मैं कौन हूं और बच्ची को कहाँ ले कर जाउंगी ? शिक्षकों का इस तरह का व्यवहार देख कर शिक्षा और शिक्षकों के गिरते हुए स्तर पर बेहद अफसोस हुआ।
कुछ समय पश्चात जब उसके माता-पिता अस्पताल पहुंचे तो उन्होंने बताया कि उनकी बच्ची को हृदय की थोड़ी बिमारी है जिस कारण ऐसे झटके उसे कभी कभार पड़ जाते हैं। बाद में उसकी दोस्तों ने बताया कि - हम लोग उस समय इसकी ऐसी हालत देखकर काफी घबरा गये थे। जब स्कूल में पढ़ाई के बारे में उनसे पूछा तो वो सभी एक साथ बोली - स्कूल में पढ़ाई होती कहां है ? हम लोग जो भी पड़ते हैं वो टयूशन में ही पढ़ते हैं। बस कुछ ही शिक्षिकायें ऐसे हैं जो कक्षा में आकर थोड़ा पढ़ा देती हैं वरना तो शिक्षिकायें यहां-वहां की बातें बना कर चले जाती हैं।
बच्ची बेहोशी की हालत में पड़ी थी। उसकी कुछ दोस्तें उसके साथ खड़ी थी और उनकी समझ में जो भी आ रहा था वो कर रही थी। स्कूल की सारी शिक्षिकायें लाइन लगा के दूर खड़ी तमाशा सा देख रही थी। कुछ शिक्षिकायें हंस रही थी और कुछ कह रही थी कि - ये तो सब नाटक कर रही हैं। मेरे वहाँ पहुंचने के बाद दिखावे के लिये सामने तो आयी पर उनका व्यवहार देख कर मैं बेहद आहत हुई।
मुझे बार-बार यही लग रहा था कि स्कूल में बच्चा शिक्षकों की जिम्मेदारी होता है अगर उसे कुछ होता है तो वहाँ के शिक्षकों की यह जिम्मेदारी बनती है कि घर वालों को फोन करें और बच्चे को अस्पताल ले जाने की तैयारी करें पर वहाँ ऐसा कुछ नहीं हुआ। उस बच्ची की दोस्तों ने ही घर फोन किया और अपनी दोस्त की हालत के बारे में बताया।
जब मैं वहाँ पहुंची तो मैंने अपने स्तर पर बच्ची को अस्पताल ले जाने का इंतजाम किया। मुझे इस बात पर और भी ज्यादा आश्चर्य हुआ कि किसी भी शिक्षक ने मुझसे यह नहीं पूछा की मैं कौन हूं और बच्ची को कहाँ ले कर जाउंगी ? शिक्षकों का इस तरह का व्यवहार देख कर शिक्षा और शिक्षकों के गिरते हुए स्तर पर बेहद अफसोस हुआ।
कुछ समय पश्चात जब उसके माता-पिता अस्पताल पहुंचे तो उन्होंने बताया कि उनकी बच्ची को हृदय की थोड़ी बिमारी है जिस कारण ऐसे झटके उसे कभी कभार पड़ जाते हैं। बाद में उसकी दोस्तों ने बताया कि - हम लोग उस समय इसकी ऐसी हालत देखकर काफी घबरा गये थे। जब स्कूल में पढ़ाई के बारे में उनसे पूछा तो वो सभी एक साथ बोली - स्कूल में पढ़ाई होती कहां है ? हम लोग जो भी पड़ते हैं वो टयूशन में ही पढ़ते हैं। बस कुछ ही शिक्षिकायें ऐसे हैं जो कक्षा में आकर थोड़ा पढ़ा देती हैं वरना तो शिक्षिकायें यहां-वहां की बातें बना कर चले जाती हैं।
Wednesday, December 3, 2008
समस्त शहीदों को श्रद्धांजलि !
Monday, December 1, 2008
Monday, November 24, 2008
देवीधुरा यात्रा
मुझे अपनी भावनाओं को कैमरे से व्यक्त करना ज्यादा आसान लगता है पर इस बार मैंने शब्दों से अपनी भावनाओं को व्यक्त करने की कोशिश की है। पता नहीं मैं अपनी इस कोशिश में सफल हो भी पाई हूं या नहीं
26 मार्च 2007
काफी समय से देवीधुरा जाने का मेरा मन था क्योकि मुझे माँ की खरीदी हुई घंटी वहाँ चढ़ानी थी जो पिछले 9-10 सालों से घर में लटकी हुई थी। इस बार अचानक ही देवीधुरा जाने की प्लान बन गया वह भी नवरात्रि में तो मुझे बहुत अच्छा लगा कि माँ की घंटी अच्छे समय में चढ़ जायेगी।
हम लोग सुबह 6.50 पर नैनीताल से देवीधुरा के लिये निकल गये। भवाली पहुँचने पर हमने रास्ते के लिये कुछ सामान खरीदा और आगे निकल गये। कुछ देर में हमने पदमपोरी पार कर लिया था। यहाँ से जो बुरांश (रोहोडोडेन्ड्रॉन) दिखना शुरू हुआ तो देवीधुरा जाने तक दिखता ही रहा। इतना ज्यादा बुरांश मैंने पहले कभी नहीं देखा था। जहाँ नजरें पड़ रही थी सब जगह बुरांश ही बुरांश इसलिये मुझे कहना ही पड़ा कि - यह तो बिल्कुल बुरांश की घाटी सी नजर आ रही है। कई चिड़िया भी दिख रही थी पर जैसे ही हम लोग कार से उतर कर बाहर निकल रहे थे सारी चिड़िया गायब हो जा रही थी। पर हाँ एक चीज को देखकर काफी बुरा लगा कि चीड़ के जंगल इतने ज्यादा बढ़ने लगे हैं कि वह मिले जुले जंगलों को खत्म कर रहे हैं। यह पूरा रास्ता घाटी की तरह है। कहीं पर अचानक ही ऊँचाई तो कहीं बिल्कुल नीचे। इन जगहों को अभी विकास की हवा नहीं लगी है इसलिये घाटियाँ बिल्कुल साफ-सुथरी हैं। नैनीताल में रहने वाली मैं तक भी इन जगहों में जाकर ऐसा महसूस करने लगी कि कितनी साफ जगह आ गई हूँ क्योंकि अब नैनीताल भी काफी ज्यादा प्रदूषित हो गया है। हमेशा कोहरे की परत सी चढ़ी रहती है जिस कारण पारदर्शिता कम होती जा रही है पर इन जगहों में तो ऐसा लग रहा था जैसे पानी का पाइप लगा कर सब साफ कर दिया हो और कहीं भी धूल का नामोनिशान तक नहीं है। रास्ते भर मैं सिर्फ यही कहती रही कि कितना साफ लग रहा है यहाँ सब कुछ।
देवीधूरा जाते समय हम दो जगह रास्ते में रुके और जंगल की तरफ निकल गये। यह जंगल मिक्स फॉरेस्ट था जिसमें काफी बुरांश खिला था साथ में और भी कई तरह के घास और पेड़ थे जिन्हें गाँव की कुछ औरतें और बच्चियाँ जानवरों के लिये ले जा रही थी। इस जंगल में काफी आगे निकल कर हमने अपने बैठने के लिये एक अच्छी जगह बनाई और वहाँ से पूरी घाटी का नजारा देखने के साथ-साथ कई चिड़ियाओं की आवाजें भी सुनाई दे रही थी पर नजर कोई नहीं आयी। कुछ समय वहाँ बिताने के बाद हम वापस अपनी कार में आ गये और आगे का रास्ता लिया। कुछ दूरी पर बेरचूला गाँव पड़ा जो कि निहायत ही सूखा हुआ इलाका है। मुझे ऐसा महसूस हुआ कि इस जगह मैं पानी की भी कमी है और यहाँ की मिट्टी भी बिल्कुल चमकीली पीली है जिसमें कुछ होना बहुत कठिन है। यहाँ हम लोगों ने एक बात और देखी कि यहाँ चीड़ के जंगल ज्यादा थे और मौसम में अजीब सी उदासी भरी गर्मी महसूस हो रही थी। इस जगह भी हम कुछ समय के लिये रुके और जंगल की तरफ बढ़ गये। यह पूरा चीड़ का जंगल था जिसमें न ढंग की कोई बैठने की जगह मिली और न ही चिड़ियाँ दिखी। पेरूल के पत्तो चेहरे और आंखों में बुरी तरह से चुभ रहे थे और जो नये चीड़ के पेड़ उग रहे थे वो बिल्कुल बौने चीड़ का सा अहसास दे रहे थे। इस जगह हम सिर्फ 20-25 मिनट ही रुके।
एक घंटे बाद हम देवीधुरा में थे। देवीधुरा में प्रवेश करते ही मुझे देवी का मंदिर सामने पर नजर आ गया और न चाहते हुए भी मुँह से निकल गया कि - देवी का मंदिर ऐसा है। यह जगह तो बिल्कुल उजड़ी हुई सी लग रही है। उसका कारण यह था कि यहाँ पर बिल्कुल जंगल नहीं था और चारों तरफ मकान और दुकान ही थे। और तो और इतनी पवित्र जगह में तक भी हमें दिन-दहाड़े आधे से ज्यादा लोग शराब पिये हुए ही मिले। खैर हम फॉरेस्ट रैस्ट हाउस की तरफ बढ़ गये। वहाँ के रेंजर से मिले तो पता चला कि उनके रैस्ट हाउस में तो रिनोवेशन का काम चल रहा है। उन्होंने हमें कहा कि - मैं तुम्हारे लिये पी.डब्ल्यू.डी के रैस्ट हाउस में रहने का इंतजाम कर दूंगा पर अगर वहाँ पहले से ही बुकिंग होगी तो आप हमारे धूनाघाट वाले रैस्ट हाउस में चले जाइयेगा। कुछ देर रेंजर से बात करने के बाद हम लोग पी.डब्ल्यू.डी. के रैस्ट हाउस की तरफ बढ़ गये। वहाँ जा कर पता चला कि वहाँ पहले से ही बुकिंग है क्योंकि नवरात्रि जो चल रही थी। वहाँ रुके रहने का कोई फायदा नहीं था सो हम लोग धूनाघाट कर तरफ, जो वहाँ से 25 किमी. की दूर पर था, बढ़ गये। अब हमारे चेहरों में थोड़ी-थोड़ी परेशानी और थकावट भी नजर आने लगी थी। शायद इसी थकावट और परेशानी के कारण धूनाघाट हमारे दिमाग से निकल गया और हम धूनाकोट कहने लगे। एक चौराहे पर पहुँच कर हमने कुछ लोगों से धूनाकोट का रास्ता पूछा तो उन्होंने हमें मूनाकोट का रास्ता बता दिया और हम इस रास्ते पर करीब 20-25 किमी. आगे निकल गये।
यह इलाका निहायत ही बंजर दिखाई दिया। लोगों में भी एक मतलबी चेहरा नजर आया। जब काफी आगे पहुंचने पर भी हमें अपना रैस्ट हाउस नजर नहीं आया तो हमने एक आदमी से पूछा कि - धूनाकोट का रैस्ट हाउस कहाँ है ? उसने कहा - ये जगह तो मूनाकोट है यहाँ पर कोई भी रैस्ट हाउस नहीं है और धूनाकोट भी कोई जगह नहीं है धूनाघाट है। हमने उससे पूछा - धूनाघाट कहाँ है तो बोला - मुझे भी रीगल बैंड तक लिफ्ट दो मुझे वहाँ जाना है। आगे का रास्ता में उसके बाद बताऊँगा। उसके इस तरह बात करने से हमें बड़ा अजीब भी लगा और हंसी भी आयी। खैर हमने उसे बोला कि हम गाड़ी बैक करके वापस आते हैं तुम इंतजार करो। हमेशा शांत रहने वाले हमारे ड्राइवर ने नाराजगी से बोला - वह अपने जुगाड़ में लगा है। इसको तो अभी ठीक करता हूँ और उसके सामने से गाड़ी ले जाते हुए उसको बोलता गया कि - हम आगे-आगे चलते हैं तुम आओ पीछे से। ड्राइवर के इस जवाब से हमें बहुत हंसी आयी और अच्छा भी लगा क्योंकि जैसे उसने हमें बेवकूफ समझा दूसरों को नहीं समझेगा। उसके बाद तो हम उस बंदे को भूल ही नहीं पाये। कुछ देर बाद आखिरकार हम लोग धूनाघाट पहुँच ही गये और रैस्ट हाउस के अंदर भी चले गये। मैं काफी खुश थी कि अब नहा धोकर थोड़ी देर आराम करने को मिल जायेगा। ड्राइवर भी खुश था क्योंकि वो भी काफी थक गया था।
लेकिन हमारी परेशानी अभी भी बनी रही जब हमें पता चला कि रैस्ट हाउस का चपरासी वहाँ नहीं है और पूरा रैस्ट हासउ बंद पड़ा है। हम लोग गुस्से से आग बबूला भी हो रहे थे जिसका कोई फायदा नहीं था क्योंकि गुस्से से हमें रहने को जगह नहीं मिलने वाली थी। अब रात भी हो रही थी और जगह अंजानी थी सो मैंने फैसला किया कि हम लोग समय से कुमाउं मंडल के रैस्ट हाउस में चले जाते हैं जो वहां से 5 किमी. दूर था। यह हम सबके लिये काफी बुरा अनुभव था पर इसके अलावा कोई और चारा नहीं था। जब हम आगे बड़े तो हमें दो-चार दुकानें नजर आयी। हमने सोचा यहाँ पर पूछ लेते हैं क्या पता चपरासी यहाँ बैठा हो या किसी को कुछ पता हो तो वहाँ लोगों ने बताया कि - उसका नाम बोराजी है। वो ऊपर अपना मकान बना रहा है। हम उसके मकान की तरफ गये और 'बोरा जी........बोराजी' कहकर उन्हें आवाज लगायी। एक दुबला-पतला, नाक से बोलने वाला और शक्ल से ही गरीब नजर आने वाला एक आदमी हमारे सामने हाथ जोड़े खड़ा हो गया। हम लोग काफी गुस्से में थे और उससे बोले - 'क्या बोरा जी खुद तो मकान बना रहे हो और हमें चौराहे पर खड़ा कर दिया आपने। एक घंटे से वहाँ खड़े हैं। वो तो दुकान से आपके बारे में पता चल गया। नहीं तो हम लोग तो कुमाउं मंडल के रैस्ट हाउस को जा रहे थे।' बोराजी ने हाथ जोड़े हुए कहा कि 'साब आज तो कोई बुकिंग नहीं थी।' हमने कहा 'रेंजर साब ने फोन तो किया था कि हम लोग फॉरेस्ट के बंगले में आ रहे हैं'। बोरा जी ने कहा कि 'मैं तो डाक बंग्ले का चपरासी हूँ।' हमें कुछ समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या कहें क्योंकि कहने को कुछ था ही नहीं। खैर अपनी गलती थी तो हमने माफी मांग कर अपनी समस्या उनको बता दी। बोराजी ने कहा कि - अगर आप चाहो तो डांक बंग्ले में रुक सकते हैं। मैं वहाँ आपके लिये इंतजाम कर सकता हूँ। उनकी बात सुनकर बहुत अच्छा लगा और इतने धक्के खा लेने के बाद हममें से कोई भी और धक्के खाने को तैयार नहीं था।
हमने बोरा जी से पूछा कि - वहाँ सोने के लिये बिस्तरा है ? वह बोले - हाँ साब! बैड के उपर चादर बिछी है। बात समझ के बाहर थी बैड के उपर चादर........... पर बाद में हमें समझ आया कि उनका कहने का मतलब है डनलप। उनको गाड़ी में बिठाकर हम वापस डांक बग्ले की तरफ मुढ़ गये और सोचा कि एक बार देख लेते हैं.......कमरा अच्छा तो नहीं कहा जा सकता था पर उस समय हमारी जो हालत हो चुकी थी हम झोपड़े में रात काटने को भी तैयार थे सो हमने वहीं रुकने का निश्चय कर लिया। पहले हमने ड्राइवर के लिये कमरा ठीक करवाया। अपने कमरे की रजाई उसे बिछाने के लिये दी और दो कंबल जिसमें से एक उसका अपना था और एक हमने दे दिया था। उसके बाद हम अपने कमरे में आये और उस की हालत ठीक की। हम सब के ही थक के बुरे हाल हो रहे थे और मन कर रहा था कि गुनगुने पानी से मुंह, हाथ-पैर धोकर थोड़ा हल्का हुऐं। मैंने बोरा जी से पानी गरम करने को कहा तो उन्होंने कहा आग जलाकर कर देंगे। खैर बेचारे बोराजी शरीफ आदमी थे। उन्होंने पानी गरम किया और एक कमरा जिसमें गंदी और टूटी हुई टॉयलेट भी थी, रख दिया। जैसे ही मैंने पहला डब्बा पानी का पैर में डाला मेरी ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की नीचे रह गई क्योंकि पानी इतना गरम था और ठंडा पानी भी नहीं था इसलिये मैंने जैसे तैसे हाथ-पैर धोये और बाहर आयी। तब तक साथ वालों ने बोरा जी को कुछ रुपये और सामन का पर्चा देकर बाजार से कुछ सामान लाने को कह दिया था। जब मैं बाहर आयी तो सबने कहा कि 'अब तो तू अच्छा फील कर रही होगी।' मेरा जवाब था 'हां ! कुछ ज्यादा ही क्योंकि बोराजी ने तो गरम पानी देकर मार डाला।' उसके बाद काफी देर तक हम हँसते रहे। थोड़ी देर बिस्तर में लेट कर थकावट मिटाने की सोची पर बैड में बिछा डनलप इतना सख्त था कि हम लोग उसमें लेटे हुए अकड़ से गये। थोड़ी देर में बोराजी चाय लेकर आये और बोले खाना बनाने के लिये मेरी पत्नी आयेगी। हम लोग वहाँ पर बने समर हाउस में बैठने के लिये चले गये। बहुत ठंडी हवायें चल रही थी सो मैं तो वापस कमरे में आकर चिड़ियों की किताब देखने लगी। थोड़ी देर में बाँकि लोग भी आ गये और हम लोग बिस्तरे में घुस कर गप्पें मारने लगे।
तभी मैंने कहा कि काफी देर से बोराजी कहीं नजर नहीं आये देखते हैं हमारे खाने का क्या हो रहा है ? इसलिये हम बाहर निकल आये। पहले बोरा जी की रसोई में गये वहाँ देखा उनकी पत्नी खाना बना रही थी और वो उसकी मदद कर रहे थे। हमारा ड्राइवर भी उनके साथ बैठा बातें कर रहा है। हम भी जाकर बोरा जी के साथ बैठ गये और उनसे बातें करने लगे। उन्होंने बताया कि वो इस डांक बंग्ले में 30 साल से काम कर रहे हैं। इससे पहले उनके बाबूजी और उससे पहले उनके बाबूजी इस बंग्ले के चौकीदार थे। उन्होंने कहा कि - मैंने 30 रुपये से नौकरी शुरू की थी और अब मुझे 1500 रुपये मिलते हैं जो खर्चे के लिये काफी कम है। उनका कहना था कि - इस बंग्ले की देखभाल कोई नहीं करता कितनी बार मैंने साब लोगों से कहा पर कोई इसकी तरफ ध्यान नहीं देता। मैंने उनके परिवार के बारे में पूछा तो बोले - दो लड़के हैं दोनों दिल्ली में काम कर रहे हैं। मकान के लिये रुपये भी वो ही दे रहे हैं क्योंकि मेरी अब ऐसी उम्र नहीं रह गयी है कि मैं इतना काम कर सकूँ। यहाँ के साब लोगों से बात की है कह रहे थे कि मेरे रिटायर होने के बाद मेरे बेटे को यहाँ चपरासी की नौकरी दे देंगे। बस इसी आस के साथ मैं यहाँ अभी भी काम कर रहा हूँ। उनकी बातें सुनकर बुरा भी लगा और उनके उपर दया भी आयी पर इसका कोई फायदा नहीं था सो मैं बाहर की तरफ घूमने निकल आयी। काफी गहरी रात थी और चांद भी आधा था पर फिर भी उसकी रोशनी इतनी ज्यादा थी कि स्ट्रीट लाइट की जरूरत ही महसूस नहीं हो रही थी। रास्ता बिल्कुल साफ चमक रहा था। हमें ऐसे घूमना काफी अच्छा लगा और घूमते-घूमते काफी आगे निकल आये। उसके बाद अचानक याद आया कि अब शायद खाना बन चुका होगा इसलिये वापस पलट गये।
बोरा जी की पत्नी ने हमारी इच्छानुसार अरहर की दाल और आलू टमाटर की सब्जी बनाई थी। साथ में हमें मंदिर से आये प्रसाद वाली पूरी भी दी। खाना काफी टेस्टी बना था। काफी लम्बे समय के बाद मुझे अच्छा सिल-बट्टे में पीसे मसाले का खाना खाने को मिला पर रोटिया बहुत मोटी बनी थी सो एक रोटी के बाद दूसरी मेरी हिम्मत के बाहर थी। बोरा जी की पत्नी बहुत ही खतरनाक किस्म की पहाड़ी बोल रही थी जिसे समझ पाना बहुत मुश्किल था पर मैं शब्दों को जोड़तोड़ के समझ रही थी और उनको जवाब दे रही थी। खाना खाने के बाद हमने फिर एक छोटी सी वॉक पर जाने की सोची लेकिन बोराजी ने कह दिया कि - ज्यादा दूर मत जाना। रात का समय है। वैसे तो यहाँ ज्यादा जंगली जानवरों का खतरा नहीं है पर फिर भी सड़क में शराबी भी मिल सकते हैं। उनकी बात से मेरे मन में एक खटका सा बैठ गया। मुझे लगा जंगल है तो जानवर न हों ऐसा नहीं हो सकता है। बोरा जी ने शायद सोचा होगा कि कहीं हम डर न जायें इसलिये सीधे कुछ नहीं कहा पर इशारा किया। उनकी इस बात को मानते हुए हमने वॉक पर जाना ठीक नहीं समझा। कुछ देर वहीं बाहर बरामदे में बैठ कर चांदनी रात का मजा लिया और फिर कमरे में आकर सो गये। ढकने के लिये मात्र एक-एक कम्बल ही हमारे पास था इसलिये रात को ठंड भी लग रही थी। उस पर डनलप इतना सख्त था कि कमर की ऐसी-तैसी हो गयी।
27 मार्च 2007
सवेरे चिड़ियों के चहचहाने से मैं बाहर आयी तो काफी ठंडी हो रही थी इसलिये वापस अंदर चली गयी। थोड़ी देर बाद मैंने बाकियों को भी उठाया जो मुश्किल से उठने को तैयार हुए। हम जैसे ही उठ कर बाहर आये कि बोरा जी और उनकी पत्नी भी उठ गये और हमें चाय बनाकर दी। वो तो उनका प्यार और सेवा भाव ही था कि हम चाय पी गये वरना तो चाय क्या थी ऐसा लग रहा था कि चीनी में पानी मिला रखा है। चाय पीने के बाद हम वॉक पर निकल गये। जैसे ही मैं बाहर को निकली बोरा जी ने मुझे देखा और कहा - अभी ही........मैं उनका मतलब नहीं समझ पायी और आगे बढ़ गयी। बाद मैं मुझे खयाल आया कि शायद बोराजी को लगा कि मैं उनकी फोटो खींच रही हूँ। खैर मैंने डिसाइड किया कि मैं जाने से पहले उनकी फोटो खींच लूंगी। सुबह को भी जाते-जाते मैं बहुत आगे निकल गयी थी। सवेरे के समय मुझे काफी चिड़ियां दिखी पर ज्यादातर मेरी देखी हुई थी। लेकिन नैटथैचर मैंने पहली बार इतने नजदीक से यहाँ पर देखी। वो पानी के पास वाली मिट्टी पेड़ में ले जाकर अपना घोंसला बनाने में व्यस्त थी इसलिये हमने उसे ज्यादा परेशान नहीं किया और आगे का रास्ता नापा। जाते हुए हमें कोई भी गांव नजर नहीं आया पर हां काफी रास्ते दिख रहे थे तो हमने सोचा की गांव की औरतें घास लेने के लिये आती होंगी तो उन्होंने ही शायद इन रास्तों को बना दिया होगा। काफी आगे जाकर एक मैदान में हम बैठ गये और 15-20 मिनट तक बैठे रहे। जब हम वापस आ रहे थे तो हमें एक अजीब सी चिड़ियां दिखी जिसकी पूंछ पीछे से पूरी मुड़ी थी। मैंने ऐसी चिड़िया के बारे में न देखा है न सुना है इसलिये मुझे यह भी लगा कि शायद मुझसे देखने में ही गलती हुई। लेकिन इस कारण से मैं कम से कम उस दिन तो काफी परेशान रही।
आज हमने पूजा करने के लिये मंदिर भी जाना था इसलिये जल्दी से नहा धोकर तैयार हो गये। आज भी पानी काफी गरम था पर मैंने पहले ही ठंडा पानी मिलाकर अपना इंतजाम कर लिया था। उसके बाद जब और लोग अपने नहाने के जुगाड़ में लगे थे। मैंने बोराजी का फोटो खींच लिया पर उनकी पत्नी जा चुकी थी जिसका मुझे काफी मलाल रहा। बोराजी शर्मा रहे थे पर फोटो भी खिचाना चाहते थे। मैंने उनसे पूछा की यहाँ इतना चीड़ है इससे क्या फायदा होता है। वे बोले कि - चीड़ से हमें कोई फायदा नहीं होता पर सरकार को फायदा होता है क्योंकि वो लकड़ी काटते हैं। मैंने उनसे पूछा कि - क्या आपको भी इन जंगलों से लकड़ी मिल जाती है ? वह बोले कि - उसके लिये तो पहले वन विभाग की खुशामद करनी पड़ती है उनको 500 रुपये देने पड़ते हैं तब जाकर कहीं एक छोटा पेड मिलता है उस पर भी उसकी कटाई और ढुलाई मिलाकर वो लगभग 5000 से 6000 रुपये तक पड़ जाता है। मैंने उनसे कहा - आप तो गांव वाले हो जंगल में आपका हक बनता है। इस नाते कोई पेड़ आपको नहीं मिलता ? उनका कहना था कि - गर्मियों में जब जंगल में आग लगती है तो हम आग बुझाने जाते हैं उस समय थोड़ी लकड़ी मिल जाती है। बांकी तो कुछ भी नहीं होता है।
मैंने उनसे डांक बग्ले के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि - अंग्रेजों ने जो किया था उसके अलावा इसमें कोई काम नहीं हुआ। एक बार एक अधिकारी यहाँ आकर रुके तो उन्होंने कुछ रेलिंग लगाई थी पर और तो कुछ काम नहीं हुआ। फसल के बारे में उनका कहना था कि - मिर्च के अलावा कुछ नहीं होता क्योंकि यहाँ लंगूर-बंदर बहुत उजाड़ा करते हैं और इनको मारना तो मुसीबत है इसलिये हमने फसलें उगानी ही छोड़ दी। हमने उनसे कमरे के किराये के बारे में पूछा तो डरते-डरते उन्होंने 200 रुपये मांगे। हमें लगा काफी कम हैं इसलिये हमने उन्हें 500 रुपये दे दिये। अब हमारे जाने की बात आई तो हमने कहा कि हमें थोड़ा समय लगेगा आप जाइये हम चाबी कहीं छुपा जायेंगे। तो वो बोले कि नहीं मैं घर जाकर पत्नी को भेज दूंगा। जब उनकी पत्नी आयी तो वो पहले से ही फोटो खिंचाने के लिये तैयार सी लगी। मैंने जैसे ही उनसे कहा तो उन्होंने जल्दी से अपनी धोती ठीक की और एकदम तैयार हो गई। मुझे गांव वालों की यह मासुमियत बहुत अच्छी लगती है लेकिन हंसी भी बहुत आती है। उसके बाद हम वहां से वापस देवीधुरा आ गये।
वैसे तो हमारा फैसला था कि हम दूसरे दिन वापस आ जायेंगे पर पहला दिन हमारा पूरा यात्रा में ही निकल गया सो हमने फैसला किया कि जाते हुए हम पी.डब्ल्यूडी के रैस्ट हाउस में पता कर लेंगे अगर वहां कोई बुकिंग नहीं होगी तो आज वहीं रुकेंगे और दूसरे दिन सवेरे ही वापस आ जायेंगे। जैसा हम चाहते थे वैसा ही हुआ। हमें आसानी से पी.डब्ल्यू.डी. के रेस्ट हाउस में बुकिंग मिल गई। हम अपना सारा सामान वहीं छोड़ कर मंदिर चले गये। मंदिर में अब देवी की नई मूर्ति है जो शायद जयपुर से आयी है। हमारी पूजा ठीक तरह से हो गई और सबसे बड़ी बात की मेरी घंटी बिल्कुल मंदिर के आगे चढ़ गयी जिसकी मुझे बेहद खुशी है। जो मेरा असली उद्देश्य था वो पूरा हो गया। उसके बाद हमने एक बच्चे को जो वहाँ के किसी पुजारी का बेटा था, गाइड की तरह रखा और उसे बोला कि हमें सारा मंदिर घुमा दे। पहले वो हमें गुफा में ले गया। इसका रास्ता बहुत ही पतला है हम लोग दुबले-पतले हैं इसलिये निकल गये पर मोटे लोग तो शायद ही यहाँ से निकल पायें।
खैर काफी छोटे बड़े मंदिरों से निकलने के बाद हम लोग उस जगह पहुंचे जहाँ भीम ने गदा मारी थी। वहाँ से काफी गांव दिख रहे थे उस बच्चे ने हमें बताये भी पर मैं अब भूल गई हूं। हमने वहाँ पड़ी उस दरार को भी देखा जिस जगह में भीम ने हाथ का पंजा मारा था वो जगह और निशान भी देखे जो थोड़ा कन्फयूजिंग थे क्योंकि वहां पर पांच अंगूलियों और 1 अंगूठे का निशान बना था। खैर वहाँ से जब हम वापस आ रहे थे तो एक गुफा के पास एक पंडित बैठा था जिसकी शक्ल मैं तो नहीं देख पायी पर जिन्होंने देखी उन्होंने मुझे बताया कि उसके सामने के दो दांत राक्षश की तरह हैं और उसके दोनों हाथ जलने की वजह से काटने पड़े। उसके बाद हम लोग वापस आ गये। हमने उस बच्चे को 50 रुपये दिये और उसका नाम पूछा तो उसने बताया - उसका नाम गोपाल दत्त है। वो 10 में पड़ता है और साइंस का छात्र है। उसके साथ उसकी छोटी सी बहिन भी थी जो अपना नाम बताने में शर्मा रही थी उसके भाई ने कहा इसका नाम मीनू है और ये पांच में पड़ती है। यह सुनकर हमें अच्छा लगा और हमने कुछ रुपये मीनू को दिये और वापस अपनी टैक्सी की तरफ आ गये जहाँ ड्राइवर हमारा इंतजार कर रहा था।
फिर हम खाने की जगह ढूंढने लगे। जिससे भी हमने पूछा वो पिये हुए ही मिला। एक छोटे से ढाबे टाइप होटल में आकर हमने खाना खाया और रैस्ट हाउस चले गये। मैंने तो सोच था कि खूब सोउंगी क्योंकि पहले दिन मैं बिल्कुल नहीं सो पाई थी। पर जब सोने गई तो मुश्किल से 1 घंटा ही सो पाई उसके बाद बाहर घुमने निकल आई। मेरे साथ वाले पहले ही उठ चुके थे और सामने की दुकान में चाय पी रहे थे। मेरे लिये भी एक चाय उन्होंने बनवाई। मैं चाय पीते-पीते ही सामने की नर्सरी में घूमने निकल गई। मुझे लगा की शायद हर्ब होंगी पर मेरे आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं रहा जब मैंने देखा की वहाँ सिवा चीड़ के और कुछ नहीं लगा है। जितना चीड़ लगा था उससे 10 जंगल आराम से बन सकते थे। मुझे समझ नहीं आया कि सामने पे पहले ही चीड़ के इतने जंगल हैं जिनसे गाँव वाले खासे परेशान लग रहे थे फिर भी इतना चीड़ और अलग से क्यों उगाया जा रहा है। पूछने पर वहाँ के लोगों का सिर्फ इतना ही कहना था कि 'क्या करें सरकार ने ऐसा करने के लिये कहा है.....' खैर उसके बाद मैं कमरे में आई और घूमने जाने के लिये तैयार हुई।
कैमरा उठाया और जंगल की तरफ निकल गये। ये भी चीड़ के जंगल थे। सामने पर हिमालय की काफी अच्छी रेंज दिख रही थी और हाँ मुझे गुलाबी बुरांश भी जरूर दिखा। इसका क्या कारण था वो मुझे समझ नहीं आया। शाम के समय जब हम वापस रैस्ट हाउस को आ रहे थे तो मुझे अचानक ही ग्रेट बार्बेट जिसे इस गाँव के लोग न्योली कहते हैं, की आवाज नजदीक से सुनाई दी। मैं आवाज की पीछा करते करते रैस्ट हाउस के सामने वाले जंगल में निकल गई। और सामने के पेड़ पर मुझे दो ग्रेट बार्बेट बैठी दिखाई दे गई। उस दिन रात को मेरी तबियत थोड़ी खराब हो गई थी जिस कारण मैं पहले काफी परेशान रही पर बाद में मुझे नींद आ गई थी।
रात के समय अचानक जब नींद खुली तो मैंने कुछ टिन कनस्तरों के बजने की आवाज सुनी। मुझे लगा शायद नवरात्रि का रतजगा होता हो इसलिये बिना किसी गंभीरता से इस बात को लिये मैं वापस सो गई और सुबह को 5 बजे चिड़ियों की आवाज से नींद खुली और अपने वापस आने की तैयारी की क्योंकि आज सुबह ही हमारी वापसी थी। जब मैं बाहर आई तो मैंने रैस्ट हाउस के चपरासी से रात के टिन कनस्तरों की आवाजों के बारे में पूछा तो उसने कहा कि - वो आवाजें मंदिर से नहीं आ रहीं थी बल्कि गाँव वाले खेतों में घुस आये जंगली सुअरों को भगाने के लिये ऐसा कर रहे थे नहीं तो सुअर सारी फसलें चौपट कर देते। थोड़ी देर में हम लोग वापस नैनीताल के लिये निकल गये।
रास्ते में एक जगह मेरे साथ वालों ने चाय पी। मैं तो नहीं पी सकी क्योंकि वहाँ पर काफी धूल थी और मैं धूल से परेशान हो जाती हूँ पर मजा तो तब आया जब उस दुकान वाले ने जो जलेबी बेचने के लिये बाहर रखी थी उस पर बंदर झपटे और सारी जलेबी उठा कर ले गये और दूर बैठ कर मुंह चिढ़ाते हुए खाने लगे। हम देवीधुरा जाते समय जिस मंदिर में जाना भूल गये थे उस मंदिर में इस समय गये। यह भगवान शिव का मंदिर है और इसकी खास बात यह है कि इसके ऊपर छत नहीं है। कहा जाता है कि कई बार इसके ऊपर छत डालने की कोशिश की पर हमेशा वो छत टूट गई इसलिये अब यहां छत नहीं है। एकबार इस मंदिर में जाने के लिये पक्की रोड भी बनाई पर गांव वाले कहते हैं कि भगवान की माया थी कि कुछ ही दिनों में इतनी तेज बारिश हुई की पूरी की परी सड़क ही गायब हो गई और यह वैसी ही हो गई जैसी पहले थी। यहाँ से पूरी घाटी का बहुत ही खूबसुरत नजारा दिखता है। थोड़ी देर इस जगह में रुकने के बाद हम अपने शहर की तरफ बढ़ने लगे। उसके बाद हम बिना किसी जगह रुके वापस आ गये और कुछ ही देर में हम नैनीताल में थे और सब अपने-अपने रास्तों को चल दिये इस उम्मीद के साथ कि शायद फिर कभी किसी यात्रा में ऐसे ही मिलें.........
26 मार्च 2007
काफी समय से देवीधुरा जाने का मेरा मन था क्योकि मुझे माँ की खरीदी हुई घंटी वहाँ चढ़ानी थी जो पिछले 9-10 सालों से घर में लटकी हुई थी। इस बार अचानक ही देवीधुरा जाने की प्लान बन गया वह भी नवरात्रि में तो मुझे बहुत अच्छा लगा कि माँ की घंटी अच्छे समय में चढ़ जायेगी।
हम लोग सुबह 6.50 पर नैनीताल से देवीधुरा के लिये निकल गये। भवाली पहुँचने पर हमने रास्ते के लिये कुछ सामान खरीदा और आगे निकल गये। कुछ देर में हमने पदमपोरी पार कर लिया था। यहाँ से जो बुरांश (रोहोडोडेन्ड्रॉन) दिखना शुरू हुआ तो देवीधुरा जाने तक दिखता ही रहा। इतना ज्यादा बुरांश मैंने पहले कभी नहीं देखा था। जहाँ नजरें पड़ रही थी सब जगह बुरांश ही बुरांश इसलिये मुझे कहना ही पड़ा कि - यह तो बिल्कुल बुरांश की घाटी सी नजर आ रही है। कई चिड़िया भी दिख रही थी पर जैसे ही हम लोग कार से उतर कर बाहर निकल रहे थे सारी चिड़िया गायब हो जा रही थी। पर हाँ एक चीज को देखकर काफी बुरा लगा कि चीड़ के जंगल इतने ज्यादा बढ़ने लगे हैं कि वह मिले जुले जंगलों को खत्म कर रहे हैं। यह पूरा रास्ता घाटी की तरह है। कहीं पर अचानक ही ऊँचाई तो कहीं बिल्कुल नीचे। इन जगहों को अभी विकास की हवा नहीं लगी है इसलिये घाटियाँ बिल्कुल साफ-सुथरी हैं। नैनीताल में रहने वाली मैं तक भी इन जगहों में जाकर ऐसा महसूस करने लगी कि कितनी साफ जगह आ गई हूँ क्योंकि अब नैनीताल भी काफी ज्यादा प्रदूषित हो गया है। हमेशा कोहरे की परत सी चढ़ी रहती है जिस कारण पारदर्शिता कम होती जा रही है पर इन जगहों में तो ऐसा लग रहा था जैसे पानी का पाइप लगा कर सब साफ कर दिया हो और कहीं भी धूल का नामोनिशान तक नहीं है। रास्ते भर मैं सिर्फ यही कहती रही कि कितना साफ लग रहा है यहाँ सब कुछ।
देवीधूरा जाते समय हम दो जगह रास्ते में रुके और जंगल की तरफ निकल गये। यह जंगल मिक्स फॉरेस्ट था जिसमें काफी बुरांश खिला था साथ में और भी कई तरह के घास और पेड़ थे जिन्हें गाँव की कुछ औरतें और बच्चियाँ जानवरों के लिये ले जा रही थी। इस जंगल में काफी आगे निकल कर हमने अपने बैठने के लिये एक अच्छी जगह बनाई और वहाँ से पूरी घाटी का नजारा देखने के साथ-साथ कई चिड़ियाओं की आवाजें भी सुनाई दे रही थी पर नजर कोई नहीं आयी। कुछ समय वहाँ बिताने के बाद हम वापस अपनी कार में आ गये और आगे का रास्ता लिया। कुछ दूरी पर बेरचूला गाँव पड़ा जो कि निहायत ही सूखा हुआ इलाका है। मुझे ऐसा महसूस हुआ कि इस जगह मैं पानी की भी कमी है और यहाँ की मिट्टी भी बिल्कुल चमकीली पीली है जिसमें कुछ होना बहुत कठिन है। यहाँ हम लोगों ने एक बात और देखी कि यहाँ चीड़ के जंगल ज्यादा थे और मौसम में अजीब सी उदासी भरी गर्मी महसूस हो रही थी। इस जगह भी हम कुछ समय के लिये रुके और जंगल की तरफ बढ़ गये। यह पूरा चीड़ का जंगल था जिसमें न ढंग की कोई बैठने की जगह मिली और न ही चिड़ियाँ दिखी। पेरूल के पत्तो चेहरे और आंखों में बुरी तरह से चुभ रहे थे और जो नये चीड़ के पेड़ उग रहे थे वो बिल्कुल बौने चीड़ का सा अहसास दे रहे थे। इस जगह हम सिर्फ 20-25 मिनट ही रुके।
एक घंटे बाद हम देवीधुरा में थे। देवीधुरा में प्रवेश करते ही मुझे देवी का मंदिर सामने पर नजर आ गया और न चाहते हुए भी मुँह से निकल गया कि - देवी का मंदिर ऐसा है। यह जगह तो बिल्कुल उजड़ी हुई सी लग रही है। उसका कारण यह था कि यहाँ पर बिल्कुल जंगल नहीं था और चारों तरफ मकान और दुकान ही थे। और तो और इतनी पवित्र जगह में तक भी हमें दिन-दहाड़े आधे से ज्यादा लोग शराब पिये हुए ही मिले। खैर हम फॉरेस्ट रैस्ट हाउस की तरफ बढ़ गये। वहाँ के रेंजर से मिले तो पता चला कि उनके रैस्ट हाउस में तो रिनोवेशन का काम चल रहा है। उन्होंने हमें कहा कि - मैं तुम्हारे लिये पी.डब्ल्यू.डी के रैस्ट हाउस में रहने का इंतजाम कर दूंगा पर अगर वहाँ पहले से ही बुकिंग होगी तो आप हमारे धूनाघाट वाले रैस्ट हाउस में चले जाइयेगा। कुछ देर रेंजर से बात करने के बाद हम लोग पी.डब्ल्यू.डी. के रैस्ट हाउस की तरफ बढ़ गये। वहाँ जा कर पता चला कि वहाँ पहले से ही बुकिंग है क्योंकि नवरात्रि जो चल रही थी। वहाँ रुके रहने का कोई फायदा नहीं था सो हम लोग धूनाघाट कर तरफ, जो वहाँ से 25 किमी. की दूर पर था, बढ़ गये। अब हमारे चेहरों में थोड़ी-थोड़ी परेशानी और थकावट भी नजर आने लगी थी। शायद इसी थकावट और परेशानी के कारण धूनाघाट हमारे दिमाग से निकल गया और हम धूनाकोट कहने लगे। एक चौराहे पर पहुँच कर हमने कुछ लोगों से धूनाकोट का रास्ता पूछा तो उन्होंने हमें मूनाकोट का रास्ता बता दिया और हम इस रास्ते पर करीब 20-25 किमी. आगे निकल गये।
यह इलाका निहायत ही बंजर दिखाई दिया। लोगों में भी एक मतलबी चेहरा नजर आया। जब काफी आगे पहुंचने पर भी हमें अपना रैस्ट हाउस नजर नहीं आया तो हमने एक आदमी से पूछा कि - धूनाकोट का रैस्ट हाउस कहाँ है ? उसने कहा - ये जगह तो मूनाकोट है यहाँ पर कोई भी रैस्ट हाउस नहीं है और धूनाकोट भी कोई जगह नहीं है धूनाघाट है। हमने उससे पूछा - धूनाघाट कहाँ है तो बोला - मुझे भी रीगल बैंड तक लिफ्ट दो मुझे वहाँ जाना है। आगे का रास्ता में उसके बाद बताऊँगा। उसके इस तरह बात करने से हमें बड़ा अजीब भी लगा और हंसी भी आयी। खैर हमने उसे बोला कि हम गाड़ी बैक करके वापस आते हैं तुम इंतजार करो। हमेशा शांत रहने वाले हमारे ड्राइवर ने नाराजगी से बोला - वह अपने जुगाड़ में लगा है। इसको तो अभी ठीक करता हूँ और उसके सामने से गाड़ी ले जाते हुए उसको बोलता गया कि - हम आगे-आगे चलते हैं तुम आओ पीछे से। ड्राइवर के इस जवाब से हमें बहुत हंसी आयी और अच्छा भी लगा क्योंकि जैसे उसने हमें बेवकूफ समझा दूसरों को नहीं समझेगा। उसके बाद तो हम उस बंदे को भूल ही नहीं पाये। कुछ देर बाद आखिरकार हम लोग धूनाघाट पहुँच ही गये और रैस्ट हाउस के अंदर भी चले गये। मैं काफी खुश थी कि अब नहा धोकर थोड़ी देर आराम करने को मिल जायेगा। ड्राइवर भी खुश था क्योंकि वो भी काफी थक गया था।
लेकिन हमारी परेशानी अभी भी बनी रही जब हमें पता चला कि रैस्ट हाउस का चपरासी वहाँ नहीं है और पूरा रैस्ट हासउ बंद पड़ा है। हम लोग गुस्से से आग बबूला भी हो रहे थे जिसका कोई फायदा नहीं था क्योंकि गुस्से से हमें रहने को जगह नहीं मिलने वाली थी। अब रात भी हो रही थी और जगह अंजानी थी सो मैंने फैसला किया कि हम लोग समय से कुमाउं मंडल के रैस्ट हाउस में चले जाते हैं जो वहां से 5 किमी. दूर था। यह हम सबके लिये काफी बुरा अनुभव था पर इसके अलावा कोई और चारा नहीं था। जब हम आगे बड़े तो हमें दो-चार दुकानें नजर आयी। हमने सोचा यहाँ पर पूछ लेते हैं क्या पता चपरासी यहाँ बैठा हो या किसी को कुछ पता हो तो वहाँ लोगों ने बताया कि - उसका नाम बोराजी है। वो ऊपर अपना मकान बना रहा है। हम उसके मकान की तरफ गये और 'बोरा जी........बोराजी' कहकर उन्हें आवाज लगायी। एक दुबला-पतला, नाक से बोलने वाला और शक्ल से ही गरीब नजर आने वाला एक आदमी हमारे सामने हाथ जोड़े खड़ा हो गया। हम लोग काफी गुस्से में थे और उससे बोले - 'क्या बोरा जी खुद तो मकान बना रहे हो और हमें चौराहे पर खड़ा कर दिया आपने। एक घंटे से वहाँ खड़े हैं। वो तो दुकान से आपके बारे में पता चल गया। नहीं तो हम लोग तो कुमाउं मंडल के रैस्ट हाउस को जा रहे थे।' बोराजी ने हाथ जोड़े हुए कहा कि 'साब आज तो कोई बुकिंग नहीं थी।' हमने कहा 'रेंजर साब ने फोन तो किया था कि हम लोग फॉरेस्ट के बंगले में आ रहे हैं'। बोरा जी ने कहा कि 'मैं तो डाक बंग्ले का चपरासी हूँ।' हमें कुछ समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या कहें क्योंकि कहने को कुछ था ही नहीं। खैर अपनी गलती थी तो हमने माफी मांग कर अपनी समस्या उनको बता दी। बोराजी ने कहा कि - अगर आप चाहो तो डांक बंग्ले में रुक सकते हैं। मैं वहाँ आपके लिये इंतजाम कर सकता हूँ। उनकी बात सुनकर बहुत अच्छा लगा और इतने धक्के खा लेने के बाद हममें से कोई भी और धक्के खाने को तैयार नहीं था।
हमने बोरा जी से पूछा कि - वहाँ सोने के लिये बिस्तरा है ? वह बोले - हाँ साब! बैड के उपर चादर बिछी है। बात समझ के बाहर थी बैड के उपर चादर........... पर बाद में हमें समझ आया कि उनका कहने का मतलब है डनलप। उनको गाड़ी में बिठाकर हम वापस डांक बग्ले की तरफ मुढ़ गये और सोचा कि एक बार देख लेते हैं.......कमरा अच्छा तो नहीं कहा जा सकता था पर उस समय हमारी जो हालत हो चुकी थी हम झोपड़े में रात काटने को भी तैयार थे सो हमने वहीं रुकने का निश्चय कर लिया। पहले हमने ड्राइवर के लिये कमरा ठीक करवाया। अपने कमरे की रजाई उसे बिछाने के लिये दी और दो कंबल जिसमें से एक उसका अपना था और एक हमने दे दिया था। उसके बाद हम अपने कमरे में आये और उस की हालत ठीक की। हम सब के ही थक के बुरे हाल हो रहे थे और मन कर रहा था कि गुनगुने पानी से मुंह, हाथ-पैर धोकर थोड़ा हल्का हुऐं। मैंने बोरा जी से पानी गरम करने को कहा तो उन्होंने कहा आग जलाकर कर देंगे। खैर बेचारे बोराजी शरीफ आदमी थे। उन्होंने पानी गरम किया और एक कमरा जिसमें गंदी और टूटी हुई टॉयलेट भी थी, रख दिया। जैसे ही मैंने पहला डब्बा पानी का पैर में डाला मेरी ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की नीचे रह गई क्योंकि पानी इतना गरम था और ठंडा पानी भी नहीं था इसलिये मैंने जैसे तैसे हाथ-पैर धोये और बाहर आयी। तब तक साथ वालों ने बोरा जी को कुछ रुपये और सामन का पर्चा देकर बाजार से कुछ सामान लाने को कह दिया था। जब मैं बाहर आयी तो सबने कहा कि 'अब तो तू अच्छा फील कर रही होगी।' मेरा जवाब था 'हां ! कुछ ज्यादा ही क्योंकि बोराजी ने तो गरम पानी देकर मार डाला।' उसके बाद काफी देर तक हम हँसते रहे। थोड़ी देर बिस्तर में लेट कर थकावट मिटाने की सोची पर बैड में बिछा डनलप इतना सख्त था कि हम लोग उसमें लेटे हुए अकड़ से गये। थोड़ी देर में बोराजी चाय लेकर आये और बोले खाना बनाने के लिये मेरी पत्नी आयेगी। हम लोग वहाँ पर बने समर हाउस में बैठने के लिये चले गये। बहुत ठंडी हवायें चल रही थी सो मैं तो वापस कमरे में आकर चिड़ियों की किताब देखने लगी। थोड़ी देर में बाँकि लोग भी आ गये और हम लोग बिस्तरे में घुस कर गप्पें मारने लगे।
तभी मैंने कहा कि काफी देर से बोराजी कहीं नजर नहीं आये देखते हैं हमारे खाने का क्या हो रहा है ? इसलिये हम बाहर निकल आये। पहले बोरा जी की रसोई में गये वहाँ देखा उनकी पत्नी खाना बना रही थी और वो उसकी मदद कर रहे थे। हमारा ड्राइवर भी उनके साथ बैठा बातें कर रहा है। हम भी जाकर बोरा जी के साथ बैठ गये और उनसे बातें करने लगे। उन्होंने बताया कि वो इस डांक बंग्ले में 30 साल से काम कर रहे हैं। इससे पहले उनके बाबूजी और उससे पहले उनके बाबूजी इस बंग्ले के चौकीदार थे। उन्होंने कहा कि - मैंने 30 रुपये से नौकरी शुरू की थी और अब मुझे 1500 रुपये मिलते हैं जो खर्चे के लिये काफी कम है। उनका कहना था कि - इस बंग्ले की देखभाल कोई नहीं करता कितनी बार मैंने साब लोगों से कहा पर कोई इसकी तरफ ध्यान नहीं देता। मैंने उनके परिवार के बारे में पूछा तो बोले - दो लड़के हैं दोनों दिल्ली में काम कर रहे हैं। मकान के लिये रुपये भी वो ही दे रहे हैं क्योंकि मेरी अब ऐसी उम्र नहीं रह गयी है कि मैं इतना काम कर सकूँ। यहाँ के साब लोगों से बात की है कह रहे थे कि मेरे रिटायर होने के बाद मेरे बेटे को यहाँ चपरासी की नौकरी दे देंगे। बस इसी आस के साथ मैं यहाँ अभी भी काम कर रहा हूँ। उनकी बातें सुनकर बुरा भी लगा और उनके उपर दया भी आयी पर इसका कोई फायदा नहीं था सो मैं बाहर की तरफ घूमने निकल आयी। काफी गहरी रात थी और चांद भी आधा था पर फिर भी उसकी रोशनी इतनी ज्यादा थी कि स्ट्रीट लाइट की जरूरत ही महसूस नहीं हो रही थी। रास्ता बिल्कुल साफ चमक रहा था। हमें ऐसे घूमना काफी अच्छा लगा और घूमते-घूमते काफी आगे निकल आये। उसके बाद अचानक याद आया कि अब शायद खाना बन चुका होगा इसलिये वापस पलट गये।
बोरा जी की पत्नी ने हमारी इच्छानुसार अरहर की दाल और आलू टमाटर की सब्जी बनाई थी। साथ में हमें मंदिर से आये प्रसाद वाली पूरी भी दी। खाना काफी टेस्टी बना था। काफी लम्बे समय के बाद मुझे अच्छा सिल-बट्टे में पीसे मसाले का खाना खाने को मिला पर रोटिया बहुत मोटी बनी थी सो एक रोटी के बाद दूसरी मेरी हिम्मत के बाहर थी। बोरा जी की पत्नी बहुत ही खतरनाक किस्म की पहाड़ी बोल रही थी जिसे समझ पाना बहुत मुश्किल था पर मैं शब्दों को जोड़तोड़ के समझ रही थी और उनको जवाब दे रही थी। खाना खाने के बाद हमने फिर एक छोटी सी वॉक पर जाने की सोची लेकिन बोराजी ने कह दिया कि - ज्यादा दूर मत जाना। रात का समय है। वैसे तो यहाँ ज्यादा जंगली जानवरों का खतरा नहीं है पर फिर भी सड़क में शराबी भी मिल सकते हैं। उनकी बात से मेरे मन में एक खटका सा बैठ गया। मुझे लगा जंगल है तो जानवर न हों ऐसा नहीं हो सकता है। बोरा जी ने शायद सोचा होगा कि कहीं हम डर न जायें इसलिये सीधे कुछ नहीं कहा पर इशारा किया। उनकी इस बात को मानते हुए हमने वॉक पर जाना ठीक नहीं समझा। कुछ देर वहीं बाहर बरामदे में बैठ कर चांदनी रात का मजा लिया और फिर कमरे में आकर सो गये। ढकने के लिये मात्र एक-एक कम्बल ही हमारे पास था इसलिये रात को ठंड भी लग रही थी। उस पर डनलप इतना सख्त था कि कमर की ऐसी-तैसी हो गयी।
27 मार्च 2007
सवेरे चिड़ियों के चहचहाने से मैं बाहर आयी तो काफी ठंडी हो रही थी इसलिये वापस अंदर चली गयी। थोड़ी देर बाद मैंने बाकियों को भी उठाया जो मुश्किल से उठने को तैयार हुए। हम जैसे ही उठ कर बाहर आये कि बोरा जी और उनकी पत्नी भी उठ गये और हमें चाय बनाकर दी। वो तो उनका प्यार और सेवा भाव ही था कि हम चाय पी गये वरना तो चाय क्या थी ऐसा लग रहा था कि चीनी में पानी मिला रखा है। चाय पीने के बाद हम वॉक पर निकल गये। जैसे ही मैं बाहर को निकली बोरा जी ने मुझे देखा और कहा - अभी ही........मैं उनका मतलब नहीं समझ पायी और आगे बढ़ गयी। बाद मैं मुझे खयाल आया कि शायद बोराजी को लगा कि मैं उनकी फोटो खींच रही हूँ। खैर मैंने डिसाइड किया कि मैं जाने से पहले उनकी फोटो खींच लूंगी। सुबह को भी जाते-जाते मैं बहुत आगे निकल गयी थी। सवेरे के समय मुझे काफी चिड़ियां दिखी पर ज्यादातर मेरी देखी हुई थी। लेकिन नैटथैचर मैंने पहली बार इतने नजदीक से यहाँ पर देखी। वो पानी के पास वाली मिट्टी पेड़ में ले जाकर अपना घोंसला बनाने में व्यस्त थी इसलिये हमने उसे ज्यादा परेशान नहीं किया और आगे का रास्ता नापा। जाते हुए हमें कोई भी गांव नजर नहीं आया पर हां काफी रास्ते दिख रहे थे तो हमने सोचा की गांव की औरतें घास लेने के लिये आती होंगी तो उन्होंने ही शायद इन रास्तों को बना दिया होगा। काफी आगे जाकर एक मैदान में हम बैठ गये और 15-20 मिनट तक बैठे रहे। जब हम वापस आ रहे थे तो हमें एक अजीब सी चिड़ियां दिखी जिसकी पूंछ पीछे से पूरी मुड़ी थी। मैंने ऐसी चिड़िया के बारे में न देखा है न सुना है इसलिये मुझे यह भी लगा कि शायद मुझसे देखने में ही गलती हुई। लेकिन इस कारण से मैं कम से कम उस दिन तो काफी परेशान रही।
आज हमने पूजा करने के लिये मंदिर भी जाना था इसलिये जल्दी से नहा धोकर तैयार हो गये। आज भी पानी काफी गरम था पर मैंने पहले ही ठंडा पानी मिलाकर अपना इंतजाम कर लिया था। उसके बाद जब और लोग अपने नहाने के जुगाड़ में लगे थे। मैंने बोराजी का फोटो खींच लिया पर उनकी पत्नी जा चुकी थी जिसका मुझे काफी मलाल रहा। बोराजी शर्मा रहे थे पर फोटो भी खिचाना चाहते थे। मैंने उनसे पूछा की यहाँ इतना चीड़ है इससे क्या फायदा होता है। वे बोले कि - चीड़ से हमें कोई फायदा नहीं होता पर सरकार को फायदा होता है क्योंकि वो लकड़ी काटते हैं। मैंने उनसे पूछा कि - क्या आपको भी इन जंगलों से लकड़ी मिल जाती है ? वह बोले कि - उसके लिये तो पहले वन विभाग की खुशामद करनी पड़ती है उनको 500 रुपये देने पड़ते हैं तब जाकर कहीं एक छोटा पेड मिलता है उस पर भी उसकी कटाई और ढुलाई मिलाकर वो लगभग 5000 से 6000 रुपये तक पड़ जाता है। मैंने उनसे कहा - आप तो गांव वाले हो जंगल में आपका हक बनता है। इस नाते कोई पेड़ आपको नहीं मिलता ? उनका कहना था कि - गर्मियों में जब जंगल में आग लगती है तो हम आग बुझाने जाते हैं उस समय थोड़ी लकड़ी मिल जाती है। बांकी तो कुछ भी नहीं होता है।
मैंने उनसे डांक बग्ले के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि - अंग्रेजों ने जो किया था उसके अलावा इसमें कोई काम नहीं हुआ। एक बार एक अधिकारी यहाँ आकर रुके तो उन्होंने कुछ रेलिंग लगाई थी पर और तो कुछ काम नहीं हुआ। फसल के बारे में उनका कहना था कि - मिर्च के अलावा कुछ नहीं होता क्योंकि यहाँ लंगूर-बंदर बहुत उजाड़ा करते हैं और इनको मारना तो मुसीबत है इसलिये हमने फसलें उगानी ही छोड़ दी। हमने उनसे कमरे के किराये के बारे में पूछा तो डरते-डरते उन्होंने 200 रुपये मांगे। हमें लगा काफी कम हैं इसलिये हमने उन्हें 500 रुपये दे दिये। अब हमारे जाने की बात आई तो हमने कहा कि हमें थोड़ा समय लगेगा आप जाइये हम चाबी कहीं छुपा जायेंगे। तो वो बोले कि नहीं मैं घर जाकर पत्नी को भेज दूंगा। जब उनकी पत्नी आयी तो वो पहले से ही फोटो खिंचाने के लिये तैयार सी लगी। मैंने जैसे ही उनसे कहा तो उन्होंने जल्दी से अपनी धोती ठीक की और एकदम तैयार हो गई। मुझे गांव वालों की यह मासुमियत बहुत अच्छी लगती है लेकिन हंसी भी बहुत आती है। उसके बाद हम वहां से वापस देवीधुरा आ गये।
वैसे तो हमारा फैसला था कि हम दूसरे दिन वापस आ जायेंगे पर पहला दिन हमारा पूरा यात्रा में ही निकल गया सो हमने फैसला किया कि जाते हुए हम पी.डब्ल्यूडी के रैस्ट हाउस में पता कर लेंगे अगर वहां कोई बुकिंग नहीं होगी तो आज वहीं रुकेंगे और दूसरे दिन सवेरे ही वापस आ जायेंगे। जैसा हम चाहते थे वैसा ही हुआ। हमें आसानी से पी.डब्ल्यू.डी. के रेस्ट हाउस में बुकिंग मिल गई। हम अपना सारा सामान वहीं छोड़ कर मंदिर चले गये। मंदिर में अब देवी की नई मूर्ति है जो शायद जयपुर से आयी है। हमारी पूजा ठीक तरह से हो गई और सबसे बड़ी बात की मेरी घंटी बिल्कुल मंदिर के आगे चढ़ गयी जिसकी मुझे बेहद खुशी है। जो मेरा असली उद्देश्य था वो पूरा हो गया। उसके बाद हमने एक बच्चे को जो वहाँ के किसी पुजारी का बेटा था, गाइड की तरह रखा और उसे बोला कि हमें सारा मंदिर घुमा दे। पहले वो हमें गुफा में ले गया। इसका रास्ता बहुत ही पतला है हम लोग दुबले-पतले हैं इसलिये निकल गये पर मोटे लोग तो शायद ही यहाँ से निकल पायें।
खैर काफी छोटे बड़े मंदिरों से निकलने के बाद हम लोग उस जगह पहुंचे जहाँ भीम ने गदा मारी थी। वहाँ से काफी गांव दिख रहे थे उस बच्चे ने हमें बताये भी पर मैं अब भूल गई हूं। हमने वहाँ पड़ी उस दरार को भी देखा जिस जगह में भीम ने हाथ का पंजा मारा था वो जगह और निशान भी देखे जो थोड़ा कन्फयूजिंग थे क्योंकि वहां पर पांच अंगूलियों और 1 अंगूठे का निशान बना था। खैर वहाँ से जब हम वापस आ रहे थे तो एक गुफा के पास एक पंडित बैठा था जिसकी शक्ल मैं तो नहीं देख पायी पर जिन्होंने देखी उन्होंने मुझे बताया कि उसके सामने के दो दांत राक्षश की तरह हैं और उसके दोनों हाथ जलने की वजह से काटने पड़े। उसके बाद हम लोग वापस आ गये। हमने उस बच्चे को 50 रुपये दिये और उसका नाम पूछा तो उसने बताया - उसका नाम गोपाल दत्त है। वो 10 में पड़ता है और साइंस का छात्र है। उसके साथ उसकी छोटी सी बहिन भी थी जो अपना नाम बताने में शर्मा रही थी उसके भाई ने कहा इसका नाम मीनू है और ये पांच में पड़ती है। यह सुनकर हमें अच्छा लगा और हमने कुछ रुपये मीनू को दिये और वापस अपनी टैक्सी की तरफ आ गये जहाँ ड्राइवर हमारा इंतजार कर रहा था।
फिर हम खाने की जगह ढूंढने लगे। जिससे भी हमने पूछा वो पिये हुए ही मिला। एक छोटे से ढाबे टाइप होटल में आकर हमने खाना खाया और रैस्ट हाउस चले गये। मैंने तो सोच था कि खूब सोउंगी क्योंकि पहले दिन मैं बिल्कुल नहीं सो पाई थी। पर जब सोने गई तो मुश्किल से 1 घंटा ही सो पाई उसके बाद बाहर घुमने निकल आई। मेरे साथ वाले पहले ही उठ चुके थे और सामने की दुकान में चाय पी रहे थे। मेरे लिये भी एक चाय उन्होंने बनवाई। मैं चाय पीते-पीते ही सामने की नर्सरी में घूमने निकल गई। मुझे लगा की शायद हर्ब होंगी पर मेरे आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं रहा जब मैंने देखा की वहाँ सिवा चीड़ के और कुछ नहीं लगा है। जितना चीड़ लगा था उससे 10 जंगल आराम से बन सकते थे। मुझे समझ नहीं आया कि सामने पे पहले ही चीड़ के इतने जंगल हैं जिनसे गाँव वाले खासे परेशान लग रहे थे फिर भी इतना चीड़ और अलग से क्यों उगाया जा रहा है। पूछने पर वहाँ के लोगों का सिर्फ इतना ही कहना था कि 'क्या करें सरकार ने ऐसा करने के लिये कहा है.....' खैर उसके बाद मैं कमरे में आई और घूमने जाने के लिये तैयार हुई।
कैमरा उठाया और जंगल की तरफ निकल गये। ये भी चीड़ के जंगल थे। सामने पर हिमालय की काफी अच्छी रेंज दिख रही थी और हाँ मुझे गुलाबी बुरांश भी जरूर दिखा। इसका क्या कारण था वो मुझे समझ नहीं आया। शाम के समय जब हम वापस रैस्ट हाउस को आ रहे थे तो मुझे अचानक ही ग्रेट बार्बेट जिसे इस गाँव के लोग न्योली कहते हैं, की आवाज नजदीक से सुनाई दी। मैं आवाज की पीछा करते करते रैस्ट हाउस के सामने वाले जंगल में निकल गई। और सामने के पेड़ पर मुझे दो ग्रेट बार्बेट बैठी दिखाई दे गई। उस दिन रात को मेरी तबियत थोड़ी खराब हो गई थी जिस कारण मैं पहले काफी परेशान रही पर बाद में मुझे नींद आ गई थी।
रात के समय अचानक जब नींद खुली तो मैंने कुछ टिन कनस्तरों के बजने की आवाज सुनी। मुझे लगा शायद नवरात्रि का रतजगा होता हो इसलिये बिना किसी गंभीरता से इस बात को लिये मैं वापस सो गई और सुबह को 5 बजे चिड़ियों की आवाज से नींद खुली और अपने वापस आने की तैयारी की क्योंकि आज सुबह ही हमारी वापसी थी। जब मैं बाहर आई तो मैंने रैस्ट हाउस के चपरासी से रात के टिन कनस्तरों की आवाजों के बारे में पूछा तो उसने कहा कि - वो आवाजें मंदिर से नहीं आ रहीं थी बल्कि गाँव वाले खेतों में घुस आये जंगली सुअरों को भगाने के लिये ऐसा कर रहे थे नहीं तो सुअर सारी फसलें चौपट कर देते। थोड़ी देर में हम लोग वापस नैनीताल के लिये निकल गये।
रास्ते में एक जगह मेरे साथ वालों ने चाय पी। मैं तो नहीं पी सकी क्योंकि वहाँ पर काफी धूल थी और मैं धूल से परेशान हो जाती हूँ पर मजा तो तब आया जब उस दुकान वाले ने जो जलेबी बेचने के लिये बाहर रखी थी उस पर बंदर झपटे और सारी जलेबी उठा कर ले गये और दूर बैठ कर मुंह चिढ़ाते हुए खाने लगे। हम देवीधुरा जाते समय जिस मंदिर में जाना भूल गये थे उस मंदिर में इस समय गये। यह भगवान शिव का मंदिर है और इसकी खास बात यह है कि इसके ऊपर छत नहीं है। कहा जाता है कि कई बार इसके ऊपर छत डालने की कोशिश की पर हमेशा वो छत टूट गई इसलिये अब यहां छत नहीं है। एकबार इस मंदिर में जाने के लिये पक्की रोड भी बनाई पर गांव वाले कहते हैं कि भगवान की माया थी कि कुछ ही दिनों में इतनी तेज बारिश हुई की पूरी की परी सड़क ही गायब हो गई और यह वैसी ही हो गई जैसी पहले थी। यहाँ से पूरी घाटी का बहुत ही खूबसुरत नजारा दिखता है। थोड़ी देर इस जगह में रुकने के बाद हम अपने शहर की तरफ बढ़ने लगे। उसके बाद हम बिना किसी जगह रुके वापस आ गये और कुछ ही देर में हम नैनीताल में थे और सब अपने-अपने रास्तों को चल दिये इस उम्मीद के साथ कि शायद फिर कभी किसी यात्रा में ऐसे ही मिलें.........
Friday, November 14, 2008
Wednesday, November 5, 2008
Wednesday, October 15, 2008
अल्मोड़ा में दशहरा
अल्मोड़ा कुमाऊँ का ऐसा शहर है जहाँ कुमाउंनी संस्कृति का अच्छा मुजाहरा होता है। अल्मोड़ा में दशहरा मनाने का एक अलग ही अंदाज है। वहाँ पर दशहरा मनाने के लिये अलग-अलग मुहल्लों में रावण से संबंधित सभी राक्षसों के पुतले बनाये जाते हैं। जिन्हें करीब एक-डेढ़ महीने पहले से बनाना शुरू कर दिया जाता है और दशमी के दिन सुबह सभी मुहल्ले वाले अपने-अपने पुतलों को अपने मुहल्ले के आगे खड़ा कर देते हैं। दिन के समय सभी पुतलों को एक स्थान पर एकत्रित किया जाता है और शाम के समय में सभी पुतलों की परेड़ अल्मोड़ा बाजार से निकाली जाती है। इस परेड में लगभग डेढ़ दर्जन पुतले शामिल होते हैं जिन्हें भव्य परेड के दौरान अल्मोड़ा स्टेडियम में रात के समय जलाया जाता है।
इस आयोजन में हिन्दु-मुस्लिम सभी आपस में मिलजुल के काम करते हैं। कुछ मुहल्ले तो ऐसे भी हैं जहाँ इन कमेटियों को अध्यक्ष भी मुसलमान हैं और वो पूरे हिन्दू अनुष्ठान के तहत इस आयोजन को सफल बनाने के लिये जुटे रहते हैं। पहले इन पुतलों की लम्बाई बहुत ही ज्यादा होती थी पर अब थोड़ी कम हो गई है। इन पुतलों में बच्चे भी अपने पुतले बनाते हैं और उन्हें परेड में शामिल करते हैं। अल्मोड़ा में इस दशहरे को देखने के लिये दूर-दूर से लोग आते हैं और अल्मोड़ा के लोगों को तो इसका इंतजार रहता ही है। देर रात तक भी सब इस परेड को देखने के लिये इंतजार करते रहते हैं।
इस दौरान मां दुर्गा की मूर्तियां भी बनाई जाती हैं। इन मूर्तियों को मुहल्लेवार ही बनाया जाता है। जो भी मुहल्ले वाले अपने मुहल्ले की दुर्गा बनाना चाहते हैं अपने मुहल्ले में इसका आयोजन करते हैं और दशमी के दिन पूरे शहर में मूर्तियों को घुमा के अल्मोड़ा के निकट क्वारब में इनका विसर्जन करते हैं। नैनीताल में बनाये जाने वाली दुर्गा पूरी तरह से बंगाली तरीके की होती है पर अल्मोड़ा में बनायी जाने वाली दुर्गा बंगाली तरह की नहीं होती हैं।
प्रस्तुत हैं अल्मोड़ा के इस अलग ही दशहरे की कुछ झलकियां
अल्मोड़ा की दुर्गा
नैनीताल की दुर्गा
अल्मोड़ा में मुहल्लों के आगे खड़े पुतले
बच्चों द्वारा बनाया गया पुतला
पुतलों के इंतजार करते लोग
परेड के समय पुतले
इस आयोजन में हिन्दु-मुस्लिम सभी आपस में मिलजुल के काम करते हैं। कुछ मुहल्ले तो ऐसे भी हैं जहाँ इन कमेटियों को अध्यक्ष भी मुसलमान हैं और वो पूरे हिन्दू अनुष्ठान के तहत इस आयोजन को सफल बनाने के लिये जुटे रहते हैं। पहले इन पुतलों की लम्बाई बहुत ही ज्यादा होती थी पर अब थोड़ी कम हो गई है। इन पुतलों में बच्चे भी अपने पुतले बनाते हैं और उन्हें परेड में शामिल करते हैं। अल्मोड़ा में इस दशहरे को देखने के लिये दूर-दूर से लोग आते हैं और अल्मोड़ा के लोगों को तो इसका इंतजार रहता ही है। देर रात तक भी सब इस परेड को देखने के लिये इंतजार करते रहते हैं।
इस दौरान मां दुर्गा की मूर्तियां भी बनाई जाती हैं। इन मूर्तियों को मुहल्लेवार ही बनाया जाता है। जो भी मुहल्ले वाले अपने मुहल्ले की दुर्गा बनाना चाहते हैं अपने मुहल्ले में इसका आयोजन करते हैं और दशमी के दिन पूरे शहर में मूर्तियों को घुमा के अल्मोड़ा के निकट क्वारब में इनका विसर्जन करते हैं। नैनीताल में बनाये जाने वाली दुर्गा पूरी तरह से बंगाली तरीके की होती है पर अल्मोड़ा में बनायी जाने वाली दुर्गा बंगाली तरह की नहीं होती हैं।
प्रस्तुत हैं अल्मोड़ा के इस अलग ही दशहरे की कुछ झलकियां
अल्मोड़ा की दुर्गा
नैनीताल की दुर्गा
अल्मोड़ा में मुहल्लों के आगे खड़े पुतले
बच्चों द्वारा बनाया गया पुतला
पुतलों के इंतजार करते लोग
परेड के समय पुतले