Friday, December 5, 2008

ऐसा हो चला है आजकल की शिक्षा और शिक्षकों का स्तर

बात उस दिन की है जब मेरे पास एक फोन आया और मुझे पता चला कि मेरे साथ वालों की बिटिया की तबियत अचानक ही स्कूल में खराब हो गई है। उसके परिवार का कोई भी घर में मौजूद न होने के कारण मैं ही बच्ची के स्कूल चली गयी। वहाँ जा के अपनी नजरों के सामने मैंने जो भी देखा उसमें यकीन करना मेरे लिये बिल्कुल मुश्किल था।

बच्ची बेहोशी की हालत में पड़ी थी। उसकी कुछ दोस्तें उसके साथ खड़ी थी और उनकी समझ में जो भी आ रहा था वो कर रही थी। स्कूल की सारी शिक्षिकायें लाइन लगा के दूर खड़ी तमाशा सा देख रही थी। कुछ शिक्षिकायें हंस रही थी और कुछ कह रही थी कि - ये तो सब नाटक कर रही हैं। मेरे वहाँ पहुंचने के बाद दिखावे के लिये सामने तो आयी पर उनका व्यवहार देख कर मैं बेहद आहत हुई।

मुझे बार-बार यही लग रहा था कि स्कूल में बच्चा शिक्षकों की जिम्मेदारी होता है अगर उसे कुछ होता है तो वहाँ के शिक्षकों की यह जिम्मेदारी बनती है कि घर वालों को फोन करें और बच्चे को अस्पताल ले जाने की तैयारी करें पर वहाँ ऐसा कुछ नहीं हुआ। उस बच्ची की दोस्तों ने ही घर फोन किया और अपनी दोस्त की हालत के बारे में बताया।

जब मैं वहाँ पहुंची तो मैंने अपने स्तर पर बच्ची को अस्पताल ले जाने का इंतजाम किया। मुझे इस बात पर और भी ज्यादा आश्चर्य हुआ कि किसी भी शिक्षक ने मुझसे यह नहीं पूछा की मैं कौन हूं और बच्ची को कहाँ ले कर जाउंगी ? शिक्षकों का इस तरह का व्यवहार देख कर शिक्षा और शिक्षकों के गिरते हुए स्तर पर बेहद अफसोस हुआ।

कुछ समय पश्चात जब उसके माता-पिता अस्पताल पहुंचे तो उन्होंने बताया कि उनकी बच्ची को हृदय की थोड़ी बिमारी है जिस कारण ऐसे झटके उसे कभी कभार पड़ जाते हैं। बाद में उसकी दोस्तों ने बताया कि - हम लोग उस समय इसकी ऐसी हालत देखकर काफी घबरा गये थे। जब स्कूल में पढ़ाई के बारे में उनसे पूछा तो वो सभी एक साथ बोली - स्कूल में पढ़ाई होती कहां है ? हम लोग जो भी पड़ते हैं वो टयूशन में ही पढ़ते हैं। बस कुछ ही शिक्षिकायें ऐसे हैं जो कक्षा में आकर थोड़ा पढ़ा देती हैं वरना तो शिक्षिकायें यहां-वहां की बातें बना कर चले जाती हैं।

12 comments:

  1. विनीता ये तो वाकई गंभीर मामला है...हांलांकि मुझे लगता हे कि ये अपवाद स्‍वरूप स्‍कूल रहा होगा। हमारा अनुभव तो ये रहा है कि सरकारी स्‍कूलों तक में मेडिकल केस होते ही शिक्षकों के हाथ पांव फूल जाते हैं. ये भी कोई अच्‍छी बात नहीं पर कम से कम उपेक्षा से तो बेहतर है

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  2. आपसे सहमत हूँ। मौजूदा शिक्षा व्यवस्था सड़ गई है और बनिये की दुकान हो गई है। शिक्षक भिक्षुक हो गये हैं। मात्र अर्थजीवी अपने ही दायरे में कैद इन लोगों से हम हमारे बच्चों को अच्छा नागरिक बनाने की अपेक्षा क्यूंकर कर रहे हैं?

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  3. मेरे कस्बे के सरकारी स्कूल में भी एक ऐसा वाक़या हुआ था, पर उस कक्षा की कक्षाध्यापिका उसकी बेहोशी देख थर थर कांपने लगी थी . बाद में उसका भी इलाज करना पडा .

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  4. विनीता जी, आज के शिक्षक पैसा कमाने की होड़ में मानवीय मूल्यों को कुछ नहीं समझते. स्कूल में तो उन्हें पैसा मिलता नहीं, टूशन पढाकर पैसा कमाते हैं. इन्हें बच्चों की कमजोरियों, दिक्कतों, परेशानियों से कोई मतलब नहीं है.

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  5. आपने जो किया वो मानवीय मूल्यों के अनुरूप किया ! शिक्षा का स्तर भी निम्न से निमन्तर होता जारहा है ! आज कल बिना ट्यूशन पढ़े गति नही है और इसी कारण कोचिंग क्लासेस का टर्न ओवर भी करोडो में पहुँच गया है !

    पर बच्ची के तबियत खराब होने पर शिक्षक शिक्षकाओं का आप द्वारा वर्णित व्यवहार समझ नही आया की उन्होंने कौन से नजरिये से ऐसा किया ! ये तो बिल्कुल ही गैर जिम्मेदारी और अमानवीय कहलायेगा ! हाँ परेंट्स को अगर बच्ची को कोई इस तरह की बीमारी है तो स्कुल मेनेजमेंट को पहले से बताकर रखना चाहिए ! खैर जो भी हो इस तरह की लापरवाही की घटना आज ही सुनी है !

    रामराम !

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  6. आपसे सहमत हूँ। वाकई गंभीर मामला है..!

    मैं भी आपके इस ब्लॉग जगत में अपनी नयी उपस्थिति दर्ज करा रही हूँ, आपकी उपस्थिति प्रार्थनीय है मेरे ब्लॉग पर ...!

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  7. mai bhi tau rampuriya ji ke vicharo se sahmat hu.

    yah vaki mai gambhi mamla hai

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  8. लेख के पेरा तीन पर निवेदन है कि +ये आपको किसने कह दिया कि स्कूल में बच्चा शिक्षकों की जिमीदारी होती है +स्कूल की जिम्मेदारी है फीस लेना ,अपनी स्वम की ड्रेस देना अपनी ही कापिया किताबे देना निजी स्कूल हो तो कम वेतन में शिक्षक रखना और सरकारी हो तो धूप में बैठ कर गप्पें लड़ना या स्वेटर बुनना /मेरे पड़ोसी दुखित थे कि उनकी बच्ची को एडमीशन नहीं मिल पाया बच्ची तो पास हो गई इंटरव्यू में लेकिन माँ बाप इंटरव्यू में फेल हो गए

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  9. This comment has been removed by the author.

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  10. आजकल सब स्कूल ऐसे ही हो गये हैं। अध्यापक, बच्चों को ट्यूशन पढ़ने के लिये प्रेरित करते हैं क्योंकि वे ही उन्हें चलाते हैं। यह उन्हें अतिरिक्त पैसा जुटा देता है।

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