अल्मोड़ा से जागेश्वर की दूरी लगभग 34 किमी. की है। यहां से हमने स्पीड थोड़ी बढ़ा ली थी क्योंकि समय पे मंदिर पहुंचना जरूरी था। जागेश्वर जाते समय चितई जो भगवान गोलू का मंदिर है, पड़ता है। कुमाउं में भगवान गोलू को न्याय का भगवान माना जाता है। गोलू देवता यहां रहने वाले कई लोगों के ईष्ट देव भी हैं। गोलू भगवान से संबंधित कई किवदंतियां भी यहां प्रचलित हैं। पर इस समय हम गोलू जी के मंदिर को भी रास्ते से प्रणाम करते हुए आगे बढ़ गये। मौसम का मिजाज हर पल बदल रहा था। अचानक धूप अचानक बारिश और अचानक कोहरा। मौसम भी लुकाछिपी का खेल खेल रहा था। खिड़की से बाहर झांकने पे दिल को मोह लेने वाले लेंडस्केप दिख रहे थे। वैसे भी मानसून में धरती पूरे श्रृंगार में रहती ही है।
रास्ते में कई तरह के दृश्य देखते हुए और अपनी हंसी-मजाक जारी रखते हुए हम लोग जागेश्वर से पहले पड़ने वाले मंदिर दंडेश्वर पहुंच गये पर जब हम नैनीताल से चले थे तो बताया गया था कि इस मंदिर में जागेश्वर की पूजा पूरी करने के बाद ही जाते हैं सो हम यहां से भी आगे बढ़ गये। पर इन मंदिरों का शिल्प देखकर मैं जागेश्वर पहुंचने के लिये बेचैन होने लगी और लगभग 15 मिनट बाद हम लोग जागेश्वर में थे। हमने गाड़ी को पहचान के एक होटल में पार्क किया और जूते भी गाड़ी में ही उतारे क्योंकि हममें से कोई भी जूतों के खोने का रिस्क लेने को तैयार नहीं था।
जागेश्वर के मंदिरों को इतना नजदीक से देख के वो सारे नजारे मेरे सामने आ गये जो मैं आज तक सिर्फ तस्वीरों में देखती रही थी। जागेश्वर चारों तरफ से देवदार के वृक्षों से घिरा हुआ है जो इसकी प्राकृतिक सुन्दरता को और भी ज्यादा बढ़ा देता है। जागेश्वर में 124 शिव मंदिरों का समूह है जिसमें सबसे बड़ा महामृत्युंजय का मंदिर माना जाता है। सावन का महीना होने के कारण यहां पार्थी पूजा (शिव के लिये करायी जाने वाली विशेष पूजा) करवाने वालों की बहुत भीड़ थी जिसमें ज्यादा संख्या तो आसपास के गांव के लोगों की थी और कुछ लोग ऐसे भी थे जो अब शहरों में बस गये हैं और बस कभी-कभार पूजा करवाने के लिये ही गांव जाते हैं। जागेश्वर भारत के 12 ज्योर्तिलिंगों में से एक है और आदि शंकराचार्य ने भी इसी स्थान में ध्यान लगाया था।
मेरे साथ वाले पूजा करवाने के लिये पुजारी की तलाश कर ही रहे थे कि एक पहचान के पुजारी हमें मिल गये। उन्होंने कहा - अभी ही यहां पे बैठ जाइये वरना थोड़ी देर में यह जगह भी भर जायेगी। पहचान का पुजारी होने के कारण हम परेशानी झेलने से बच गये। हम लोगों ने साथ में लाया सामान और दीमक की बांबी वाली मिटटी पुजारी जी के सामने रखी और उनसे कहा कि - जो भी करना है आप कर दो और सब की पूजा एक साथ कर दो। मेरा तो पूजा का कोई मतलब नहीं था सो मैं मंदिर परिसर में घूमने के लिये निकल गई।
मंदिर में कोई भी जगह ऐसी नहीं थी जहां भीड़ न हो। सारी जगहें भरी हुई थी। कुछ लोग मिट्टी को गूंथ कर पूजा के लिये शिवलिंग बना रहे थे। इस मौसम में यहां के लोगों की इसी बहाने थोड़ी आय भी हो जाती है। मैं अपनी फोटोग्राफी करने में और यहां-वहां देखने में मस्त थी कि एक मंदिर के पुजारी ने मेरी तरफ देखते हुए कहा - इस मंदिर का भी फोटो खींच लो। जब मैंने फोटो खींचा तो वो मेरी तरफ देख के बोला - अब कुछ दक्षिणा दो। मैं दक्षिणा देने के बजाय सिर्फ उसकी शक्ल ही देखती रही और वापस आ गयी। सच तो यह है कि मेरी जेब में उस समय पैसे नहीं थे लेकिन फिर दूसरे किसी मंदिर की तस्वीर लेने से पहले मैंने मंदिर के अंदर जरूर झांक लिया क्योंकि इस तरह की पोजीशन में मैं दोबारा नहीं पड़ना चाहती थी।
एक तरफ से घूम के मैं मंदिर परिसर के दूसरी तरफ से अपने साथ वालों के पास आ गई। उस समय वहां पे पूजा चल रही थी। सारा सामान बिखरा हुआ था और बीच-बीच में जहां पंडित के द्वारा दिये जा रहे निर्देश समझ नहीं आ रहे थे तो एक-दूसरे की शक्ल देख रहे थे। मजा तो तब आया जब पुजारी ने बोला - अपनी जनेउ में हाथ लगाओ तो चारों जन पंडित की तरफ देख के बोले - जनेउ तो है ही नहीं अब क्या करें ? तब पंडित जी ने जुगाड़ नीति अपनाते हुए जनेउ का सिब्सट्यूड उन लोगों को बताया और पूजा को आगे बढ़ाया।
पूजा समाप्त होने के बाद मैंने पुजारी जी से कुछ बातें की तो उन्होंने मुझे बताया - पार्थी पूजा के लिये अलग-अलग चीजों से शिवलिंगों को बनाया जाता है वो पूजा करने वालों की मनौतियों के उपर होता है। उन्होने मुझे कुछ मनौतियों और उनमें इस्तेमाल होने वाले सामान के बारे में बताया भी पर अब मैं उन्हें भूल गई हूं। उन्होंने यह भी बताया कि सावन के महीने में कुछ पुजारियों को बाहर से बुलाया जाता है जो यहां पर पूजा करवाते हैं और फिर वापस चले जाते हैं। अभी तक तो बारिश हमारा साथ दे रही थी पर अब फिर हल्की-हल्की बारिश शुरू हो गई था। मुझे मंदिर परिसर का एक चक्कर लगाने का मौका अपने साथ वालों के साथ भी मिल गया पर इतनी भीड़ में हो ये रहा था कि एक साथ होता तो अगला खो जाता। अगले को ढूंढते तो पहला कहीं दूसरी जगह चला जाता। किसी तरह हम लोग सब साथ में मंदिर से बाहर निकले।
अब बारी थी वहां पर लगे हुए छोटे से बाजार को देखने की जो कि आसपास के गांव वालों से भरी हुई थी। इन लोगों को पूरे साल में ऐसे एक-दो अवसर ही मिलते होंगे जिसमें घर के कामों से थोड़ा समय बचा के अपने लिये कुछ करते हों वरना गांवों का जीवन तो किसी से छुपा नहीं है। पर इसी समय झमाझम तेज बारिश शुरू हो गई। इतनी ही देर में हमारे सामने से एक रेला गुजरा जिसमें कुछ लोग सफेद वस्त्र पहने हुए और हाथ में ध्वज लिये हुए तेजी से बढ़ रहे थे। कुछ लोग उनमें नाच भी रहे थे। हम लोग कुछ समझ पाते उससे पहले ही वो रेला मंदिर परिसर में चला गया।
अपने साथ घर से लाया हुआ खाना खाने के बाद हम जागेश्वर में बने म्यूजियम में गये। यहां पुरानी शताब्दी की मूर्तियों को बहुत करीने से सहेज के रखा गया है। इसे देखना एक अच्छा अनुभव रहा। इसके बाद दंडेश्वर मंदिर गये। वहां जागेश्वर की अपेक्षा कम भीड़ थी पर यहां भी मंदिरों का शिल्प जागेश्वर से मिलता जुलता ही है। वहां हमें ज्यादा समय नहीं लगा और हम अल्मोड़ा की तरफ वापस आ गये। वापस आते समय इतनी मूसलाधार बारिश का सामना करना पड़ा कि ऐसा लग रहा था अब रास्ते बंद हो जायेंगे और हमें ऐसे ही गाड़ी के अंदर रहना पड़ेगा। जहां-तहां पहाड़ों से पानी के मोटे नाले आ रहे थे। कभी तो ऐसा महसूस हो रहा था कि कहीं हम बह ही न जायें पर ऐसा कुछ नहीं हुआ और हम चितई गोलू के मंदिर पहुंच गये। बारिश अभी भी अपनू पूरे शबाब में थी। चितई के मंदिर में पूजा के बाद हम लोगों ने नैनीताल की राह पकड़ी। अल्मोड़ा से आते समय एक दुकान है जो मालपुओं के लिये मशहूर है। हमने वहां मालपुए खाये। वापस आते समय कैंची मंदिर गये और फिर बिना रुके नैनीताल वापस। करीब 7 बजे शाम हम लोग नैनीताल में थे।
जब मैंने अपने नागपुर रहने वाले मित्र (जो मेरे छोटे भाई जैसा है) को इस यात्रा के बारे में बताया तो उसने कहा कि उसके पिताजी का नाम भी जागेश्वर है और वो शिव के भक्त थे। उसके पिताजी अब इस दुनिया में नहीं है। मैं ये पूरी यात्रा उनको ही समर्पित करती हूं।
समाप्त
आ हा हा हा जी विनीता जी,
ReplyDeleteमजा आ गया. जागेश्वर घूमने तो नहीं गए, पर अब जाना पड़ेगा. पक्का वादा.
आपकी सधी हुई भाषा मे यह जागेश्वर का रोचक यात्रा वृतान्त पढ कर आनन्द आ गया ! बहुत खूबसुरत चित्रो के साथ यह यात्रा करना सुखद रहा और मालपुये याद दिला दिये अब यहां कहां से मालपूये आयेंगे ? :)
ReplyDeleteरामराम !
खूबसुरत चित्रो के साथ यात्रा वृतान्त पढ कर आनन्द आ गया.
ReplyDeleteVineeta tumne to adat bigar di hai.
ReplyDeleteab ye batao agli yatra kaha ki karwa rahi ho.
मेरा कुमाँऊनी का ज्ञान बहुत सीमित है परन्तु लगता है जिन्हें मैं गोल देवता या कहिए गोल द्याप्त के नाम से जानती थी उन्हें आप गोलू देवता कह रही हैं।
ReplyDeleteबहुत सी नई जानकारी देने व मंदिर के चित्र दिखाने के लिए धन्यवाद।
आप ऐसे ही यात्रा वृतांत सुनाती रहेंगी तो लगता है कि मैं भी एक दिन कुमाँऊ पहुँच ही जाऊँगी।
घुघूती बासूती
Ek baar fir ek achhi yatra.
ReplyDeleteअति सुंदर. लेख को चित्रों से बढ़िया सज़ा दिया या ये कहें की चित्रों को लेख से सज़ा दिया. आभार.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लिखा आपने ...यात्रा और चित्र दोनों मनमोहक लगे .कभी मौका लगा तो जरुर जायेंगे
ReplyDeleteबहुत अच्छा संस्मरण।
ReplyDeleteइतना सधा हुआ यात्रा वृत्तांत पढ़कर जागेश्वर की तस्वीर मन में जीवंत हो उठी। विनीता जी धन्यवाद। अवसर मिला तो जरूर भ्रमण करेंगे।
ReplyDeleteचितई के गोल्ल देवता का मन्दिर वहाँ लगी असंख्य घंटियों और न्याय के लिए गुहार करने वाली पातियों के लिए जाना जाता है. सुंदर यात्रा वृत्तांत. जय जागनाथ.
ReplyDeletejageswar ki yatra bahut shandar rahe hai
ReplyDeleteनया साल आपको मंगलमय हो
ReplyDeleteजागेश्वर का अदभूत वर्णन सच में मजा आ गया ...
ReplyDeleteजागेश्वर महादेव की सचित्र और ज्ञानवर्धक यात्रा का शुक्रिया. सही कहा आपने अब तो लगता है फोटो खींचने की भी दक्षिणा देनी होगी.
ReplyDeleteFirst of all Wish u Very Happy New Year...
ReplyDeleteSair kar gafir ki duniya
Gindgani phir kaha
Gindgani phir rahi
To naujavani phir kaha....
Aap ki yatra me ligiye mai bhi samil ho gaya...
appne kabhi bataya nahi subah bataya ki you dedicated it to my dad...any ways thanks...and ha i felt as if i am roaming with all of you there,you wrote so well...
ReplyDelete