उत्तराखंड अपने मेले-त्यौहारों के लिये काफी मशहूर रहा है। उत्तराखंड में पूरे वर्ष लगभग 100 से ज्यादा मेले लगते हैं। इन्हीं मेलों में एक है नन्दाष्टमी का मेला। इसे कुमाउं में मुख्य तौर पर मनाया जाता है। नैनीताल में यह मेला लगभग 5-6 दिन का लगता है।
नन्दाष्टमी भादो के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को मनायी जाती है। नन्दा को कुमाऊँ में रणचंडी के नाम से भी जाना जाता है तथा यह चन्द वंश के राजाओं की कुलदेवी भी मानी जाती है। नन्दा देवी से संबंधित कई किवदंतियां यहां पर प्रचलित हैं जिनमें से कुछ इस प्रकार है। एक बार नारद ने कंस से कहा कि उनकी बहन देवकी की आठवीं संतान कंस की मौत का कारण बनेगी। कंस ने तभी से देवकी की आठवीं संतान को मारने का निर्णय कर लिया जिसके चलते उसने देवकी और वासुदेव को बंदी बना लिया। जब देवकी ने आठवीं संतान के रूप में कृष्ण को जन्म दिया तो उसने कंस के डर से उसे गोकुल में यशोदा के घर भेज दिया और उनकी पुत्री को अपने पास ले आये। कंस को जब आठवीं संतान के जन्म का पता चला तो वो उसे मारने पहुंचा और जैसे ही बच्ची को मारने के लिये हाथ में पकड़ा बच्ची कंस के हाथ से गायब हो गई और हिमालय की नन्दाकोट पहाड़ी में जाकर बस गई। जिसे आज नन्दा देवी के नाम से जाना जाता है। देवी नन्दा ने राजा दीपचन्द को स्वप्न में आकर कहा कि अल्मोड़ा में उनका मंदिर बनाया जाये। जिसके बाद नन्दा देवी के मंदिर की स्थापना हुई और प्रतिवर्ष पूजा और मेले का आयोजन किया जाने लगा।
दूसरी किवदंती के अनुसार 16वीं सदी के चन्द्रवंशी राजाओं की कुलदेवी थी और राजा कल्याण चन्द की बहिन भी इसी नाम की थी। कहा जाता है कि जब नन्दा मायके आ रही थी उस समय एक भैंसे ने उसका पीछा किया। उससे बचने के लिये वह एक केले के पेड़ के पीछे छुप गई पर केले के पेड़ की पत्तियों को बकरी ने खा दिया और नन्दा को भैंसे ने मार दिया। तब से उसकी याद में ही इस मेले का आयोजन किया जाता है और प्रतिशोध स्वरूप भैंसे और बकरे की बलि दी जाती है। कहा जाता है की केले के पेड़ में उसने आसरा लिया था इसलिये इन मूर्तियों के निर्माण के लिये केले के पेड़ का ही इस्तेमाल किया जाता है।
अल्मोड़ा गजेटियर में एच.डी. बाल्टन लिखते हैं कि - बाजबहादुर चंद ने विजयोपरांत जूनियागढ़ से नन्दा की मूर्ति को अल्मोड़ा के मल्ला महल में स्थापित किया था।
कहा जाता है कि गौरा कुमाउं की ईष्ट देवी है और उनके साथ ही नन्दा का आगमन हुआ। इसलिये नन्दाष्टमी में दो मूर्तियां नन्दा और सुनन्दा की बनाई जाती हैं। इन मूर्तियों के निर्माण का भी अपना ही एक विधान होता है। पूजा में भाग लेने वाले ब्राह्म्ण स्थानीय लागों, परम्परागत नृत्य टोलियों छोलिया आदि के साथ केले के वृक्ष लेने के लिये जाते हैं जिन्हें पूरे शहर में घुमाते हुए मंदिर ले जाया जाता है और फिर मूर्ति विधा में पारंगत कलाकारों द्वारा मूर्तियों का निर्माण किया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि नन्दा/सुनन्दा का चेहरा नन्दा देवी पर्वत के समान ही बनाया जाता है। और अष्टमी के दिन सभी विधि-विधान के बाद इन मूर्तियों को दर्शनों के लिये रख दिया जाता है।
इस दिन से ही मेले की शुरूआत भी हो जाती है। जिसमें बाहर से आये व्यापारी अपनी दुकानें लगाते हैं। आज भी ग्रामीण इलाकों में रहने वालों के लिये इस मेले का खासा महत्व होता है। जो यहां आकर अपने हस्तेमाल की कई चीजें खरीद कर ले जाते हैं। पहले से यह मेला दो-तीन दिन ही चलता था पर समय के साथ-साथ इसका भी व्यापारिकरण हो गया है और इसे 6-7 दिन तक भी लगाया जा रहा है। इसमें आधुनिकता की पूरी झलक दिख जाती है जिस कारण यह मेला अब एक महोत्सव का रूप ले चुका है। जिसमें प्राचीन परम्परायें काफी हद तक गायब होती सी दिखायी पड़ती हैं।
मेले के आखरी दिन देवी के डोले को विदाई के लिये ले जाया जाता है। विदाई से पहले इसे पूरे शहर में घुमाया जाता है जिसमें पारम्परिक वाद्य एवं नृत्य से लेकर आधुनिक बैंड बाजे भी होते हैं। पूरे शहर में डोले को घुमाने के बाद सायं काल में देवी की पूजा के बाद इसे झील में विसर्जित कर दिया जाता है।
मंदिर मे देवी की मूर्ति लोगों के दर्शन के लिये
मेले में लगी दुकानों की कुछ झलकियां
मस्ती टाइम
कुछ खाना हो जाये
बच्चों के लिये मस्ती टाइम
विदाई
mast pics. and nice information ! thnx !
ReplyDeleteविनीता बहुत अच्छा लग रहा है एक बेटी अपने शहर का नाम रोशन कर रही है मेले का विवरण और मेले की तस्वीरें देख कर अब मेला देखने की इच्छा वलवती हो गयी है तो फिर अगले वर्ष मेला देखने आना ही पडेगा। मगर ठहरूँ गी अपनी बेटी के पास ही शुभकामनायें आशीर्वाद्
ReplyDeleteभारत की लोक संस्कृति के क्या कहने!! वाकई बहुत अद्भुत है यह मेला..तस्वीरों के संयोजन से आपने इसे जीवंत कर दिया.. हैपी ब्लॉगिंग.
ReplyDeleteभारत की लोक संस्कृति के क्या कहने!! वाकई बहुत अद्भुत है यह मेला..तस्वीरों के संयोजन से आपने इसे जीवंत कर दिया.. हैपी ब्लॉगिंग.
ReplyDeletekya khub nazara kraya apne mele ka wo bhi itni achhi jakari ke sath
ReplyDeleteलग रहा है हम भी आपके साथ मेले की सैर पर निकले हैं।
ReplyDelete( Treasurer-S. T. )
वाह ..कितने खूबसूरत चित्र दिये हैं आपने? और नंदादेवी के बारे विस्तृत जानकारी मिली. बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
जानकारी परोसती पोस्ट के लिए बधाई!
ReplyDeleteचित्र भी बहुत सुन्दर हैं।
bahut achhi jankari aur pictures hai
ReplyDeleteबहुत सुन्दर चित्र हैं , ऐसा लग रहा है आप मेरे घर के नीचे से गुजरी होंगी , कितने नजदीक से , दुनिया सचमुच गोल ही है , बहुत बहुत शुक्रिया ,माँ के लुभावने चित्रों के लिए |
ReplyDeleteगज़ब.....गज़ब....गज़ब.....गज़ब....गज़ब......गज़ब......और मैं कहूँ भी तो क्या....आपने ही सब लिख दिया.....दिल बांग-बांग.....अरे सॉरी.....बाग़-बाग़ हो गया....उफ़ कब मैं आपके साथ इन जगहों का अवलोकन कर पाउँगा.....!!
ReplyDelete....अरे भई.....चित्रों को क्यूँ लाक कर दिया...हम भी अपने एल्बम को बम-बम कर लेते ना.....यशस्वी जी ये आपने कतई ठीक नहीं किया....बू..हु...हु...हु...हु...हु...!!
ReplyDeletebahut sundar tasveeren.
ReplyDeletevivran bhi padha ..jaankari nayi hai..dhnywaad.
इस लेख को देख मुझे अपनी एक पुरानी कविता याद आई ..
ReplyDeleteमेले की भीड़
सचमुच की भीड़ होती है
ढूँढती है अपनी खुशियाँ
अपनी अपनी दुकानों में
अपनी उमंगें
अपना उल्लास ढूँढती है
मेले की भीड़
पूरी ताकत के साथ सिद्ध करती है दुनिया में खुशी की अहमियत
- शरद कोकास
Bahut sunder aur sahi kavita likhi hai apne Sharad ji...
ReplyDeleteNirmala ji apka humesha Swagat hai...kabhi bhi aa jaiye...
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