गौरा देवी - उत्तराखंड में चिपको आंदोलन की अगुवा
उत्तराखंड में चिपको आंदोलन को शुरू करने का श्रेय गौरा देवी को ही जाता है। यदि उस समय गौरा देवी ने अपनी कुछ महिला साथियों के साथ इस आंदोलन की शुरूआत न कि होती तो शायद आज चिपको आंदोलन भी नहीं होता। गौरा देवी की इस पहल के बाद चिपको आंदोलन को उत्तराखंड के बाहर भी कई राज्यों में जंगलों को बचाने के लिये चलाया गया और साथ ही विश्व स्तर पर भी जंगलों को बचाने की मुहीम में तेजी आयी।
जनवरी 1974 में रैंणी गांव में सरकार द्वारा जंगलों की निलामी का आदेश दिया गया था। जिसमें इस गांव के लगभग 2451 पेड़ों की नीलामी होनी थी। परंतु गांव के लोगों द्वारा घोर इसका भारी विरोध किया गया जिसके चलते इस नीलामी को रोकना पड़ा। 15, 23 मार्च 1974 को इस नीलामी के विरोध में किये गये प्रदर्शनों के बावजूद भी इलाहाबाद के ठेकेदारों के मजदूर जंगल काटने के लिये वन विभाग के कर्मचारियों के साथ मिलकर रैंणी गांव पहुंच गये।
यह सूचना गौरा देवी को मिली तो उन्होंने अपने जंगलों को बचाने का निर्णय लिया और गांव की अन्य महिलाओं और बच्चों को लेकर जंगल की ओर चली गयी। गौरा देवी ने मजूदरों से कहा कि - यह जंगल हम सबका है। इससे हमें घास-पत्ती, हवा-पानी मिलते हैं। अगर इन्हें काट दिया तो बाढ़ भी आयेगी जिसमें हमारे खेत बह जायेंगे और हम सब बर्बाद हो जायेंगे।
उनके ऐसा कहने पर ठेकेदार के मजदूरों ने उन्हें वापस धमकाना शुरू कर दिया और कहा - यदि वो हमें पेड़ नहीं काटने देंगी तो उनको सरकारी काम रोकने के जुर्म में बंद करवा दिया जायेगा। पर गौरा देवी इससे डरी नहीं उन्होंने अपनी अन्य महिला साथियों के साथ पुरजोर विरोध जारी रखा। इससे परेशान होकर ठेकेदार के आदमी ने बंदूक दिखाकर गौरा देवी समेत अन्य महिलाओं से कहा - यदि तुम लोग यहां से नहीं हटे तो तुमको गोली मार दी जायेगी। यह सुन कर गौरा देवी ने बेखौफ़ होकर ठेकेदार को जवाब दिया - मार लो हमें गोली। इसके बाद मजूदर वहां से वापस लौट गये। ठेकेदार के आदमियों ने गौरा देवी को डराने-धमकाने की बहुत कोशिश की पर वो अपनी में जिद डटी रही जिस कारण रैंणी गांव बर्बाद होने से बच गया।
इस घटना का शासन पर इतना गहरा असर पड़ा कि तत्काल एक जांच समिति बनायी गयी जिसमें अलकनंदा समेत अन्य नदियों के जल को बचाने एवं जंगलों की सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया गया और इसके लिये कई सकारात्मक निर्णय लिये गये जिसके चलते जंगलों में दिये जाने वाले ठेकों को समाप्त कर दिया गया और वन निगम की स्थापना की गई। गौरा देवी द्वारा शुरू किये गये इस एक आंदोलन ने रैंणी गांव को विश्व स्तर पर ख्याती दिला दी और गौरा देवी इस आंदोलन की अगुवा थी। इसके बाद जल-जंगल-जमीन को बचाने के लिये विश्व स्तर पर प्रयास शुरू किये गये। जंगलों के प्रति उन्होंने जो एक नई चेतना का संचार लोगों में किया और जंगलों को बबार्द होने से बचाया था इसके चलते उन्हें वृक्ष मित्र पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। गौरा देवी स्वयं अनपढ़ थी पर उन्होंने चमोली के ग्रामीण क्षेत्रों में प्राइमरी और हाईस्कूल खुलवाने में बहुत अहम भूमिका निभाई।
गौरा देवी का जन्म 1925 के लगभग चमोली के लाता गांव की भोटिया जनजाति में हुआ था। इनके पिता का नाम नारायण सिंह था। गौरा देवी जब गौरा देवी मात्र 11 वर्ष की ही थी तब ही इनका विवाह रैंणी गांव के मेहरबान सिंह के साथ हो गया। इनका परिवार जीविकोपार्जन के लिये भेड़-बकरियां पालता था, ऊन का व्यापार करता था और थोड़ी बहुत खेती किया करता था। विवाह के कुछ साल पश्चात ही गौरा देवी के पति का देहांत हो गया और परिवार की पूरी जिम्मेदारी गौरा देवी के ऊपर आ गयी। उस समय गौरा देवी का पुत्र मात्र ढाई साल का था। 4 जुलाई 1991 को गौरा देवी ने दुनिया से विदा ली।
shukriya is jagruk mahila ke bare mein ye jaankari prastut karne ke liye
ReplyDeletebahut achha laga in se mil ke.
ReplyDeleteI salute the noble soul ! People can hardly imagine the amount of courage it takes to stand before loaded guns of goons. She was a great soul of a great state indeed !
ReplyDeleteअच्छा लगा इनसे मिल कर, जानकर.
ReplyDeleteapne to Chipko Andolan ki yaaden taza kar di.
ReplyDeleteगौरा देवी जैसी निर्भीक वीरांगनाओं को सभी देशवासियों का सलाम.. आपने इस आलेख को बहुत अच्छे से प्रस्तुत किया.. हैपी ब्लॉगिंग
ReplyDeleteआपने बहुत ही सम्माननिया सख्शियत से रुबरु कराया इसके लिये आपको बहुत धन्यवाद.
ReplyDeleteरामराम.
वाकई, पर्वतीय लोगों में गौरा देवी का विशिष्ट स्थान है।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }