Thursday, December 31, 2009

मेरी दिल्ली यात्रा - 5

नेशनल रेल म्यूजियम देखने के बाद हम अमृता शेरगिल रोड, जो कि हमारे साथ वाले ने बताया कि दिल्ली की सबसे महंगी सड़क है क्योंकि इस सड़क में बिकने वाली प्रॉपर्टी के दाम सबसे अधिक होते हैं, पर आ गये। इस सड़क का नाम मशहूर चित्रकारा अमृता शेरगिल के नाम पर रखा है। यहाँ से हमने इंडिया हैबिटैट सेंटर जाने का इरादा बनाया और लोधी रोड की तरफ आये।

पहले हमने लोधी गार्डन जाने की भी सोची थी पर बाद में इरादा छोड़ दिया क्योंकि मित्र ने बताया कि इसके अंदर मकबरे तो बेहद अच्छे हैं पर वो आजकल प्रेमी-प्रमिकाओं के मिलन स्थल बन चुके हैं और यहाँ की मुख्यमंत्री महोदया की सख्त हिदायत है कि उन्हें परेशान न किया जाये। सो उनके हुक्म को तो मानना ही था आखिर उनके राज में थे इस वक्त। बहरहाल इस महान गार्डन, जिसमें हिन्दुस्तान की महान हस्तियां जॉगिंग करती हुई दिख जाती है, को बाहर से ही निहारते हुए हम अपनी मंज़िल को बढ़ गये।



 

 
हम जैसे ही इंडिया हैबिटैट सेंटर पहुंचे। हमारे सामने एक विशाल इमारत थी पर बहुत ही लाजवाब ढंग से बनी हुई। जैसा कि नाम ही हैबिटैट सेंटर था अपने नाम के तरह यह इमारत भी ऐसी ही थी। प्रकृति के साथ जो संतुलन यहाँ देखने को मिला उसे  देख कर तबियत खुश हो गई। गाड़ी पार्क करने के लिये हम इसमें बनी अंडर ग्राउंड पािर्कंग में गये। यहाँ भी सबकुछ बहुत सलीके से था। सभी गाड़िया क्रम से लगी थी। इस पािर्कंग में लगभग एक हज़ार गाड़िया एक समय में आराम से पार्क की जा सकती है।

इंडिया हैबिटैट सेंटर में बहुत सी चीजें है और सबके शौक के अनुसार उसे कुछ न कुछ मिल ही जायेगा। जिसे खाने का शौक हो उसके लिये हर तरह के रैस्टोरेंट हैं। एक्जीबिशन देखने वालों के लिये तरह-तरह की एक्जीबिशन यहाँ लगती रहती है। उस दिन भी कई तरह की पेंटिंग और फोटोग्राफी एक्जीबिशन लगी थी। मेरा पसंदीदा विषय फोटोग्राफी है सो मैंने उसे ही सबसे उत्साह से देखा। इसके अलावा एक एक्जीबिशन किसी महिला की लगी थी। उनका सामने विडियों चल रहा था जिसमें दिखा रहे थे कि उन्होंने एक धागे को किसी तरह से बहुत सी गांठें बनाते हुए बनाया है और सामने पर उनका बनाया धागा रखा हुआ था, काफी देर उसे देखने के बाद हमारी समझ में कुछ नहीं आया कि ये क्या है। मैंने अपने साथ वालों से कहा कि - घर के कई सारे काम करते हुए हमें भी ऐसा करना पड़ता है। आज पता लगा ये भी आर्ट है। खैर वहां से हम लोग दूसरी कई जगहें गये जिनमें बहुत अलग-अलग तरह की एक्जीबिशन लगी थी। एक एक्जीबिशन और थी जिसने हमें  बहुत प्रभावित किया वो थी इंसान का आज के समय के साथ जो तालमेल हो रहा है उससे आने वाले समय में  क्या फरक पड़ेंगे। इसमें एक गिलहरी बनाई थी और उसके सामने लोहे का बना पेड़ और पत्तियां थी जिन्हें वो खा रही थी। एक में दिखाया था कि आने वाले समय में इंसान अपने इलाज स्वयं ही कर लेगा सारे औज़ारों  की हाथ में लेकर चलेगा। यह एक्जीबिशन वाकय प्रभावित करने वाली थी।

यहाँ कई सारे ऑडिटोरियम भी हैं जिनमें कुछ न कुछ चलता ही रहता है। इस जगह को फंक्शंस के लिये भी दिया जाता है शायद क्योंकि वहाँ बाहर कोई आयोजन भोज चल रहा था। हम आपस में बात कर रहे थे कि  भूख तो लग ही रही है क्यों न भोजन का स्वाद चखा जाये पर फिर हमने सोचा कि हम अच्छे बच्चे हैं इसलिये किसी रेस्टोरेंट को देखते हैं और उसमें ही जाते हैं और हम रेस्टोरेंट की खोज में बढ़ गये। यहाँ हमने उत्तर भारती रेस्टोरेंट चुना। रैस्टोरेंट में काफी भीड़ थी। ऐसा लग रहा था इतवार होने के कारण दिल्ली के लोग खाना खाने यहीं आये हैं शायद। बहरहाल हम लोगों ने अपना खाना निपटाया और फिर घूमने आ गये।

इस इमारत को एक दूसरे से इतनी सावधानी से जोड़ा गया है कि अंदर होने पर पता नहीं लगता कि कब किस  इमारत में आ गये। इसकी छतें भी बहुत अलग तरह से बनी हैं। यहाँ प्रकृति के साथ वाकय में तालमेल देखने को मिलता है। प्रदूषण से दूर यह जगह बेहद अच्छी लगी। इंडिया हैबिटैट सेंटर में `रंग दे बसंती´ फिल्म की भी शूटिंग हुई थी।

इस जगह पर घूमने और भूख मिटाने के बाद हम फिर सड़कों पर भटकने आ गये और नेहरू प्लेनेटोरियम जाने की सोची। इस दिल्ली यात्रा कि अंतिम जगह। हम लोग फिर सड़कों में घूमने लगे। दोस्त ने बताया कि यह पूरा इलाका ल्यूटियन के बनाये नक्शे पर आधारित है इसलिये इसमें थोड़ी भी छेड़छाड़ नहीं होती है इसलिये यह आज भी वैसा ही है जैसा पहले था। हमें लगा कि यह नियम तो हर जगह के लिये होना चाहिये। सिर्फ दिल्ली के इसी खास इलाके के लिये ही क्यों ?

खैर सड़कों पर भटकते हुए हम आगे बड़े। अचानक जो गाड़ी चला रहे थे उनकी नज़र सामने वाले टैम्पो पर पड़ी, जिसमें लिखा था - दिल्ली सरकार हिटलर है, कृपया ट्रेफिक नियमों का पालन करें।  इन्ही सड़कों पर चलते हुए एक बाज़ार सामने पर दिखा, साथ वाले ने बताया कि  यह दिल्ली की बहुत पुरानी बाज़ार है और इसका इस्तेमाल द्वितीय विश्वयुद्ध के समय पर हुआ था। आज यह मार्केट थोड़ी और अच्छी हो गयी है। इसी बाजार में एक स्पोर्टस की दुकान भी है जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान रखती है। खैर इस बाज़ार से हमने अपने पीने के लिये कुछ जूस की बोतलें खरीदी और आगे बढ़ गये।



 

 

नेहरू प्लेनेटोरियम पहुंचने पर पता चला कि वहाँ जो शो दिखाया जाता है वह तो शुरू हो चुका है इसलिये हम प्लेनेटोरियम में देखने चले गये। यहाँ अंतरिक्ष संबंधी चीजें रखी गयी हैं। इस प्लेनेटोरियम की सबसे बड़ी विशेषता है कि यहाँ उस यान का असली मॉडल रखा गया है जिसमें बैठ कर राकेश शर्मा जी स्पेस पर गये थे। उस समय उन्होंने जो पोशाक और जिन चीजों का इस्तेमाल किया था वो भी सब यहाँ पर है। इस जगह में भी एक वेट मशीन है जिसमें आप अपना चांद पर भार पता कर सकते हैं पर मैंने अपना चांद पर भार पता नहीं किया...। बहरहाल यहाँ से हम नेहरू म्यूजियम के आंगन में चल रही एक्जीबिशन देखने आ गये। कल तो हम इसे देख नहीं पाये सो आज देखा। मेरे साथ वालों ने यहाँ से कुछ खाने का सामान लिया, मैंने एक किताब ली। इस जगह जिसे देख कर मैं सबसे ज्यादा खुश हुई वो था बाइस्कोप। यह मेरा पहला अवसर था जबकि मैंने बाइस्कोप देखा हो। इसके अंदर झांकने पर इसमें नेहरू जी, इंदिरा जी और गांधी जी से संबंधित फिल्म चल रही थी। इससे पहले  मैंने बाइस्कोप नाम रेडियो में आने वाले एक प्रोग्राम `बाइस्कोप की बातें' में ही सुना  था। पर इसे देख कर सबसे ज्यादा अच्छा लगा। यहाँ पर कुछ लोग मिट्टी के बर्तन भी बना रहे थे।  यहां पर कुछ खाने की दुकानें भी लगी थी। इसमें मेरे साथ वालों ने गोल गप्पे और मैंने टिककी खाई। इस जगह की बंदरों से पहरेदारी करने के लिये `राजू भाई´ लंगूर पेड़ में बैठे हुए थे।



 
दिल्ली का यह सफर तो यहीं पर खत्म हुआ पर अभी दिल्ली और घूमनी है सो अगली यात्रा की तैयारी जल्दी ही कि जायेगी इस उम्मीद के साथ हम घर वापस लौट गये। आज नैनीताल भी जाना था सो घर पहुंचते ही सीधे मेट्रो सेवा का इस्तेमाल करते हुए बस स्टेंड पहुंचे। सुबह 6.10 पर जब नैनीताल स्टेशन पहुंचे पूरा नैनीताल धुप्प अंधेरे में डूबा हुआ था। स्टेशन पर कुछ मजदूरों और दूध की गाड़ी की हलचल के सिवा कुछ नहीं था। पर अपना शहर हमेशा हर रूप में सिर्फ और सिर्फ अच्छा ही लगता है। कुछ देर झील के पास खड़े होने के बाद हम अपने घर चल दिये...

समाप्त


Tuesday, December 29, 2009

मेरी दिल्ली यात्रा - 4

कल का दिन बहुत अच्छा बीता था। जैसा कि ट्रेवल एजेंट ने वायदा किया था हमें पूरी दिल्ली दिखाने का। वायदे के अनुसार उसने लगभग पूरी दिल्ली के दर्शन करवा दिये थे। आज हमारा दिल्ली में दूसरा दिन था। सुबह हल्की-हल्की सी धुंध की चादर फैली हुई थी और थोड़ी ठंडी भी ज्यादा थी पर खुशगवार मौसम था। पहले हमने सोचा था कि आज दिल्ली के बाहरी इलाकों को देखा जायेगा पर शाम को अचानक ही नैनीताल वापसी का प्रोग्राम बन जाने के कारण चाणक्यपुरी की नजदीकी जगहों को ही देखने की सोची।

आज की शुरूआत नेशनल रेल म्यूजियम को देखने से करने की सोची। 11 बजे हम लोग वहाँ के लिये निकल गये। हल्की सी धुंध की चादर में लिपटी हुई दिल्ली इस समय बेहद खुबसूरत लग रही थी। दिल्ली का ये रूप मेरे लिये चौंका देने वाला था। एम्बेसी कार्यालयों की शानदार इमारतों को देखते हुए, जिसमें मुझे भूटान एम्बेसी सबसे ज्यादा आकर्षक लगी, हम नेशनल रेल म्यूजियम पहुंचे। इस समय म्यूजियम में बिल्कुल भीड़ नहीं थी। बस कुछ विदेशी सैलानी ही नज़र आये।


हमने अपनी गाड़ी पार्क की, टिकट लिया और म्यूजियम के अंदर चले गये। अंदर जाते ही नज़रें बड़ी-बड़ी रेलों में पड़ी। मेरी लिये रेल कभी भी उत्सुकता का विषय नहीं रही हैं। पर जब यहाँ रेलों का इतिहास जानना और देखना शुरू किया तो रेलों के प्रति मेरी उत्सुकता और मेरा आकर्षण बढ़ गया।

इस म्यूजियम की स्थापना 1 फरवरी 1977 को की गई थी। यह 10 एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है जिसने रेलों के 140 साल पुराने इतिहास को अपने में समेटा है। म्यूजियम में रेल के इंजनों और उनके मॉडलों को रखा गया है। यहाँ फेयरी क्वीन रेल आज भी चालू हालत हालत में है। इसका इंजन 1855 में बना था। इसे गिनीज़ बुक ऑफ बल्र्ड रिकॉर्डस में भी स्थान हासिल है।


 

म्यूजियम में सबसे पहले हम भवन के अंदर बने रेलों के मॉडलों और अन्य चीजों को देखने के लिये गये। यहाँ पुराने समय में रेलों में इस्तेमाल होने वाले फर्नीचर, क्रॉकरी, घड़ियों, लैम्प, सिग्नल, लालटेन, उस समय में मिलने वाले टिकट, पास, पोशाकों से लेकर कई अन्य तरह की चीजों को भी संभाल कर रखा गया है। इस म्यूजियम में भारत के राजा महाराजाओं और अंग्रेजों के समय में इस्तेमाल होने वाली चीजों का भी संग्रह किया गया है। इसे देखना वाकय में अचिम्भत कर देने वाला था। इतना कुछ था देखने और जानने को की कई सारे दिन भी शायद कम पड़ जायें। इसे देखने के बाद हम बाहर रखी रेलों को देखने आ गये।

इस पूरे इलाके को देखने के लिये एक छोटी सी रेल चलती है जो लगभग सभी रेलों के पास से होती हुई गुजरती है। हम भी इस रेल में बैठे और पूरे इलाके का देखा। इस रेल के पास एक बहुत पुरानी `वेट मशीन´ भी लगी हुई हैं जिसमें हमने वेट नापने की कोशिश की पर उस समय वो काम नहीं कर रही  थी। उसके बाद पैदल ही रेलों के पास जा-जाकर उन्हें देखने के लिये चल दिये। यहाँ आकर अचानक ही अहसास हुआ कि जैसे समय बिल्कुल रुक सा गया है और हम उस रुक गये समय को एक बार फिर जी रहे हैं।

रेलों को छूने की इजाज़त होने के कारण हम इनके पास जाकर इनके अंदर झांक रहे थे। कई रेलों के अंदर उस रेल से संबंधित लोगों के पुतले बनाकर भी रखे थे। यह बिल्कुल इतिहास को फिर से जी लेने वाला अनुभव था। हम लोग जब अपनी ही मस्ती में थे और रेलों में चढ़ कर उनके अंदर झांक कर देख रहे थे तभी हमारे साथ वाले की नज़र किसी पर पड़ी और उसने मुझसे कहा - विन्नी वो सामने वाली रेल में लटका हुआ बंदा कुछ जाना पहचाना लग रहा है। क्योकि मैं पहचानने के मामले में थोड़ी अनाड़ी हूं इसलिये उसकी बात पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और बांकि लोगों के साथ घूमने में लगी रहीं। कुछ देर बाद वो उन सज्जन के साथ वापस आ गया। जब हमारी उनसे मुलाकात हुई तो पता चला कि वो `मयखाना´ ब्लॉग के मालिक मुनीष हैं और हमारे दोस्त ने उनके ब्लॉग में लगी तस्वीरों के कारण उन्हें पहचान लिया। मुनीष के साथ हम लोगों ने थोड़ा रेल म्यूजियम घूमा। फिर हम म्यूजियम में बने एक छोटे से रेस्टोरेंट में कॉफी पीने आये पर कॉफी मशीन खराब होने के कारण हमें कॉफी नसीब नहीं हुई।


उसके बाद मुनीष वहाँ से चल दिये और हम बांकी की रेलों को देखने आगे बढ़ गये। इस जगह आने के बाद एक बात तो मैंने तय कर ली थी कि अगली मैदानी यात्रा रेल द्वारा ही की जायेगी। इस म्यूजियम में पटियाला स्टेट मोनोरेल, सेलून ऑफ प्रिंस ऑफ वेल्स, महराजा ऑफ मैसूर महाराजा ऑफ इंदौर,  इलंक्टिªक लोकोमोटिव सर लिजली विलयम, क्रेन टेंक, कालका शिमला रेल बस के साथ और भी कई सारी रेलें सुरक्षित हालत में रखी गयी हैं। मेरे लिये एक पहिये से चलने वाली रेल को देखना एक अच्छा अनुभव था।


 



 

म्यूजियम में बच्चों के लिये एक छोटा सा पार्क है जिसमें कुछ झूले लटके हुए थे। उन्हें देख कर हमारा मन भी उनमें चढ़ने का हो आया और हम लोग झूलने भी लगे। झूल लेने के बाद नज़र सामने लिखे बोर्ड पर पड़ी, जिसमें लिखा था - सात साल से कम उम्र के बच्चों के लिये। हमने सोचा कि यदि किसी ने डांट दिया तो डांट खा लेंगे और साथ में बोलेंगे कि - हम भी तो बच्चे ही हैं बस थोड़े बड़े हैं।

इस जगह पर एक शानदार वक्त गुज़ारने के बाद हम यहाँ से दूसरी जगह की ओर बढ़ गये...

जारी...


Tuesday, December 22, 2009

मेरी दिल्ली यात्रा - 3

अक्षरधाम में थोड़ा समय बिताने के बाद हम वापस अपनी बस में आ गये। इसके बाद हमें राजघाट जाना था। जहाँ गांधी जी की समाधी है। आजकल दिल्ली में 2010 में होने वाले कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारी जोरों से चल रही हैं जिसने दिल्ली वालों की नाक में दम कर रखा है क्योंकि जितने लोगों से मेरी बात हुई उनमें से ज्यादातर तो परेशान ही नज़र आये। खैर हमें गाइड ने वो मशाल तो दिखायी ही दी थी जिसे जला कर कॉमनवेल्थ गेम्स की शुरूआत की जायेगी। मेरे पूछने पर कि - ये जो इतने बड़े-बड़े भवन बनाये जा रहे हैं इनका गेम्स के बाद क्या होगा ? गाइड ने बताया - इन्हें गेम्स के बाद निलाम कर दिया जायेगा। चलिये ये भी अच्छा है शायद बाद में वहाँ के लोगों को कुछ फायदे मिल जायें। खैर इसी रास्ते पर आगे बढ़ते हुए यमुना नदी के दर्शन हुए। इसे देखने पर निराशा ही हाथ लगी। दिल्ली को जीवन देने वाली नदी खुद अपने जीवन को बचाने के लिये जूझती हुई नज़र आयी।



यहाँ से हम लोग राजघाट की ओर चले गये। राजघाट देखना मेरी तमन्ना थी। एक बार गांधी जी से रु-ब-रु होने का अवसर शायद यहाँ मिल पाता। गांधी जी के बारे में काफी कुछ सुना और पढ़ा है इसलिये उनसे मुलाकात के इस अवसर का मुझे बेसब्री से इंतज़ार था। पर यहाँ हमें सिर्फ 15 मिनट तक रहने की इज़ाजत ही थी। बच्चा इस जगह के बारे में जानना चाहता था हालांकि उसकी उम्र के अनुसार उसे समझा पाना कठिन था पर फिर भी मैंने कोशिश तो की बांकि वो कितना समझ पाया ये मैं नहीं जानती। अपने जूते बाहर उतार कर हम लोग शानदार सी चटाइयों पर चलते हुए गांधी जी के सामने पहुँचे। यहाँ आने पर एक अंजान सी खुशी मिली। राजघाट में काले संगमरमर का एक छोटा सा मंच बना है जिसके ऊपर एक ज्योति हमेशा जलती रहती है और इसके सामने लिखा है `हे राम´ जो कि गांधी जी के अंतिम शब्द थे। ऐसा महसूस हुआ कि हम एक महान हस्ती के सामने खड़े हैं और वो हमें देख रहा है। इस जगह पर काफी बड़े-बड़े हरे-भरे मैदान हैं और साथ में जवाहर लाल नेहरू, लाल बहादुर शास्त्री, इन्दरा गांधी और राजीव गांधी जैसी हस्तियों के समाधी स्थल भी हैं पर हमें सिर्फ राजघाट ही देखना था क्योंकि गाइड की मर्जी थी।

यहाँ से वापस आते हुए मेरी नज़र एक विदेशी महिला पर पड़ी। वो कुछ विचित्र लग रही थी क्योंकि उसने अजीब ढंग से साड़ी पहनी थी उसके साथ टॉप पहना थी और पैरों में ट्रेकिंग शू पहने हुए थे। मुझे समझ नहीं आया कि यह फैशन था, शौक था या किसी संस्कृति को जानने समझने की चाह थी। जो भी था उसे देखकर हँसी रोक नहीं पाई। मैं तस्वीर लेना चाहती थी पर बच्चे ने मेरा हाथ पकड़ा था इसलिये जल्दी से कैमरा ऑन कर पाना संभव नहीं हुआ।


 

इसके बाद अगली मंज़िल थी इंडिया गेट। इंडिया गेट में द्वितीय विश्व युद्ध और द्वितीय अफगान युद्ध में शहीद हुए शहीदों के नाम लिखे गये हैं और इसे उनकी याद में ही बनाया गया था। इंडिया गेट में सन् 1971 से एक ज्योति हर समय जलती रहती है जिसे `अमर जवान ज्योति´ कहते हैं। इंडिया गेट में हमने ज्यादा समय नहीं बिताया बस इसे देखा कुछ देर अमर जवान ज्योति के सामने खड़े रहे। कुछ तस्वीरें ली और आ गये। आजकल इस स्थान में भी काफी भीड़ थी।

अब लंच का समय हो चुका था। ट्रेवल एजेंट ने पहले ही बता दिया था कि लंच हमें अपने पैसों से खुद करना होगा। वो हमें एक रेस्टोरेंट में ले गया। यहाँ एक बार फिर सुरक्षा जांच की गई। जिसका कोई मतलब कम से कम यहाँ तो मुझे समझ नहीं आया। अंदर जाते ही हमारा सामना बेतहाशा भीड़ से हुई। जहाँ हमें पहले पैसे देकर कूपन लेना था और फिर अपने नंबर का इंतज़ार करना था। जब नंबर आयेगा तब हमें टेबल मिलेगा बैठने के लिये। हम लोगों ने भी कूपन लिया और नंबर का इंतज़ार करने लगे। हमारी बस में सब लोगों के नंबर लगभग साथ ही थे। इसलिये हम सबने साथ ही खाना खाया और सबसे बड़ी बात कि मेरा फैलो ट्रेवलर मेरे साथ ही बैठा और उसने खाना भी मेरे ही साथ खाया। खाना बहुत अच्छा था तो नहीं कहा जा सकता, पर हाँ भरपूर जरूर था जिसे जितना खाना था उसे उतना खाना  परोसा जा रहा था। खाने के बाद मेरी नज़र मीठे पानों पर पड़ी। इसलिये खाने के बाद सबने मीठा पाना खाया जो कि इस भोजनालय की सबसे अच्छी चीज़ मुझे महसूस हुई।

खाना खा लेने के बाद भूख से तो थोड़ी राहत मिली पर अब सबके चेहरों में थोड़ी-थोड़ी थकावट भी नज़र आने लगी थी। इसके बाद हमने तीन जगहें और देखनी थी जिसमें सबसे पहले हम बिरला मंदिर या लक्ष्मी नारायण मंदिर की तरफ गये। यहाँ भी वही कड़ी सुरक्षा थी जिसके चलते हमें कुछ भी सामान ले जाने से मना कर दिया गया था। बड़ा मंदिर और सुंदर सी मूर्तियां। मुझे बस यही महसूस हुआ बांकि आस्था तो कुछ आयी नहीं। पंडित ने प्रसाद की एक पुड़िया दी जिसे मैंने रख लिया। उसमें से थोड़ा प्रसाद तो मेरे फैलो ट्रेवलर ने ही खा लिया था। यहाँ पर उसने एक घंटी बजाने की ज़िद की पर घंटी बहुत ऊँचाई पर थी इसलिये बजा पाना मुश्किल था पर वो इस बात पर मान गया कि इस घंटी को विनीता दीदी भी नहीं बजा सकती है तो वो भी नहीं बजा सकता। मंदिर से बाहर निकलते हुए एक खिलौने की दुकान में बच्चे को एक तोता लेने का मन कर गया। मैंने उसे वो तोता खरीद दिया। उसके बाद वो और उसका तोता....उसने इतने ढेर सवाल पूछे के मुझे समझ ही नहीं आ पाया कि क्या जवाब दूँ।

 यहाँ से अब हम अपने इलाके यानी चाणक्यपुरी की तरफ वापस जाने लगे थे। अब हमें इंदिर गांधी म्यूजियम देखने जाना था। जिसे इंदिरा जी के भवन को म्यूज़ियम में परिवर्तित कर बनाया गया है। रास्ते में कई सारे भवन, ऑफिस फिर से दिखाई देने लगे। शीला दीक्षित का ऑफिस भी दिखायी दिया और भी कई सारे ऑफिस आदि थे। इसी रास्ते में हमें गांधी जी की डांडी यात्रा पर आधारित वह मूर्ति भी दिखी जिसे पहले से दूरदर्शन में अकसर टीवी पर देखा करते थे।



खैर हम इंदिरा गांधी म्यूजियम पहुंचे। यहाँ इंदिरा जी से संबंधित सारी चीजें, सारे डॉक्यूमेंट, अखबार की कटिंग, उनके इस्तेमाल होने वाले सामान, उनकी पोशाकें, उनके बर्तन सब संभाल के रखे गये हैं। जिस दिन उन्हें गोली मारी गई थी उस दिन उन्होंने जो पोशाक पहनी थी वो भी सुरक्षित यहाँ पर रखी गई है। उन्हें जो पुरस्कार और तोहफे मिले थे वो भी सब यहाँ रखे गये हैं। इस जगह को देखना भी अच्छा ही लगा।



 
इसके बाद हमारी अंतिम मंज़िल थी तीन मूर्ति भवन या जवाहर लाल नेहरू म्यूज़ियम। यह चाचा नेहरू का भवन था जिसे म्यूजियम में परिवर्तित कर दिया गया है। यहाँ चाचा नेहरू से संबंधित सभी चीजें रखी हुई हैं। यह एक विशाल भवन है। हम लोग आपस में बात भी कर रहे थे कि - चाचा जी इतने बड़े मकान में खो नहीं जाते होंगे क्या ? यहाँ हम लोग जब आगे बढ़ रहे थे तो मैंने एक बंद दरवाज़ा खोल दिया जिसमें से स्कूल के बच्चों का झुंड इस तरह बाहर निकला जैसे किसी मधुमक्खी का छत्ता तोड़ दिया हो और उसमें से मधुमिक्खयां भिनभिनाती हुई बाहर निकल रही हों। यह दरवाजा एक कमरे को जाता था जिसमें संसद का छोटा सा मॉडल बनाया था। उसमें कुछ नेताओं के पुतले रखे थे। एक किनारे में चाचा नेहरू का पुतला भाषण देती मुद्रा में बना था और पीछे से रिकॉर्डिंग चल रही थी जो हकीकत का सा अभास दे रहा था। पहली नज़र में देखने में तो मुझे लगा कि हम लोग शायद सच में ही किसी मीटिंग चल रहे कमरे में आ गये पर कुछ देर में पता चल गया कि ये सिर्फ डिमॉन्स्ट्रेशन देने के लिये ही है।


 

म्यूज़ियम के मैदान में एक एक्जीबिशन लगी हुई थी जो कि प्रतिवर्ष 27, 28 और 29 नवम्बर को वहाँ लगती ही है। उसमें जगह-जगह से आये लोग अपनी स्टॉल लगाते हैं और क्षेत्रों से संबंधित सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित किये जाते हैं। इसे मैं अपनी खुशकिस्मती ही कहूँगी कि उस दिन `उत्तराखंड इवनिंग´ चल रही थी पर इसे देखने का समय हमारे पास था नही। जब उत्तराखंड का नाम पुकारा गया तो बच्चे के मम्मी पापा ने उससे कुछ कहा। जिसके बाद बच्चे ने मासूमियत से मुझसे कहा - दीदी देखो सब लोग आपके घर का नाम ले रहे हैं। अपने फैलो ट्रेवलर के मुँह से यह सुनना और भी ज्यादा अच्छा लगा।

आज का हमारा सफर यहीं पर ख़त्म हो गया। गाइड ने हमें इशारा किया कि तुम्हारा घर आने वाला है तैयार हो जाओ। हम उतरने की तैयारी करने लगे तो बच्चे ने फिर पूछा - दीदी अब हम कहाँ जायेंगे ? मैंने उसे कहा - हम लोग यहीं उतरेंगे और उसे अपने मम्मी-पापा के साथ बैठना होगा। उसका चेहरा उतर गया पर उसने ज़िद नहीं की और प्यार से बाय बोलते हुए कहा - दीदी कल को भी घुमने जायेंगे ? मैंने हां कहा और उतर गयी। अब उस कल का इंतज़ार हमेशा ही रहेगा...

जारी...



Tuesday, December 15, 2009

मेरी दिल्ली यात्रा - 2

जैसे-तैसे हम लोग करीब 7.30-8 बजे दिल्ली पहुँचे। हमें जो लेने आये थे वो भी मिल गये थे। इस समय दिल्ली में मौसम बहुत खुशगवार लग रहा था। न तो ज्यादा गरम और न ही ज्यादा ठंडी। हम लोग एक ऑटो करके दिलशाद गार्डन की ओर चले गये। वहाँ से आगे मेट्रो से जाना था। मेट्रो में यात्रा करना सुखद अनुभव रहा। किसी ने एक ठीक ही कहा था कि - मेट्रो सेवा देख कर लगता है कि भारत सच में तरक्की कर रहा है। हम लोग काफी थक चुके थे और भूख भी लग रही थी इसलिये हमने मेट्रो स्टेशन में ही कॉफी और समोसे खा लिये और आगे चल दिये। मेट्रो के बाद फिर हम लोग अपनी गाड़ी से घर की ओर बढ़ गये जो चाणक्यपुरी में था। इस समय काफी रात हो चुकी थी पर फिर भी हमने संसद भवन की झलक तो देख ही ली बाहर से। रात को करीब 11.30 बजे हम घर पहुँचे। उस दिन इतना थक गये थे कि सबसे थोड़ी बहुत बात की और सो गये।

दूसरे दिन सुबह के समय 6.30 बजे हम लोग टहलने के लिये सड़क पर निकल आये। इस समय दिल्ली में हल्की सी धुंध की चादर फैली हुई थी और थोड़ी सी सर्दी थी पर नैनीताल के अपेक्षा ज्यादा ठंडी नहीं लगी इसलिये सड़क पर काफी दूर तक टहलने निकल आये। इससे पहले जो दिल्ली देखी थी वो तो हर समय भीड़-भाड़ और शोर शराबे वाली थी पर इस बार वाली दिल्ली बिल्कुल अलग थी। साफ-सुथरी और दूर-दूर तक अच्छी खासी हरियाली फैली हुई। वापस घर आकर हमने सबसे अच्छे से मुलाकत की और नाश्ता किया। जिस फंक्शन के लिये हम आये थे वो शाम को 7 बजे से था इसलिये आज का पूरा दिन हमें मिल गया जिसका इस्तेमाल हमने दिल्ली घूमने के लिये किया।

दिल्ली इतना बड़ा है कि एक दिन इसे देख पाना तो असंभव ही है इसलिये हमने टूअर एंड ट्रेवल्स सेवा का लाभ उठाया। हालांकि मुझे कभी भी इस तरह घूमना पसंद नहीं रहा है पर उस समय वहीं सबसे सही लगा क्योंकि एक दिन में इतनी जगहें देख पाना वैसे तो संभव न होता। हमने जिस ट्रेवल कम्पनी की सेवा ली थी उन्होंने बताया था कि वो हमें दिल्ली का पूरा दर्शन ही करवा देंगे और शाम को करीब 5.30 से 6 बजे के बीच वापस छोड़ देंगे। हमारा घर रास्ते में ही था इसलिये वो हमें वहीं से ले लेंगे और फिर वापसी में उसी स्थान पर छोड़ भी देंगे। आइडिया बुरा नहीं था इसलिये हम लोग तैयार हो गये और करीब 10 बजे घर से निकल गये।

चौड़ी-चौड़ी सड़कें जिनमें सीमित यातायात और चारों तरफ हरियाली। एम्बेसी की बड़े-बड़े ऑफिस, संसद भवन, राष्ट्रपति भवन और भी न जाने क्या-क्या भवन। हम लोग आपस में यही बात कर रहे थे कि यदि पूरी दिल्ली ही ऐसी हो जाये तो फिर कौन दिल्ली के नाम पे तौबा-तौबा करे। पर असल दिल्ली तो दूसरी ही है खैर गाइड ने बताया कि सबसे पहले हम लोग कुतुबमिनार देखने जायेंगे।


 

 

 

कुतुबमिनार एक बार बहुत पहले देखी थी जब मैं छोटी थी। उस समय कुछ समझ नहीं आया कि ये है क्या ? पर इस बार देखी तो बस देखते ही रहे। हमें यहाँ पर घूमने के लिये सिर्फ आधा घंटा ही दिया गया था। मेरे लिये बहुत कम था क्योंकि घूमुं या फोटो खिंचू। हम लोगों ने टिकट लिया और अंदर चले गये। यहाँ कई विदेशी सैलानी नज़र आये। हमने भी घूमना शुरू किया। कुतुबमिनार में कुल 378 सीढ़ियां हैं जिनकी मदद से सबसे ऊपर की मंजिल तक जाया जा सकता है पर अब यह बंद हो चुकी है। गाइड ने बताया कि सन् 1981 में हुए एक हादसे जिसमें करीब 45 बच्चों ने अपनी जान गवांई थी, के बाद इन्हें बंद कर दिया गया। कुतुबमिनार की ऊँचाई 72.5 मीटर (234 फीट) है और यह दुनिया की सबसे बड़ी मीनार है। कुतुबमिनार के सबसे नीचे वाली मंज़िल की चौड़ाई लगभग 14.3 मीटर है और सबसे ऊपर वाली मंजिल की चौड़ाई 2.75 मीटर है। इनकी दीवारों पर आयतें भी खुदी हैं

कुतुबमिनार के साथ कुछ और स्थान भी हैं जैसे ईमाम ज़ामिन का मकबरा, अलाई मिनार, अलाई दरवाज़ा, आइरन पिलर, मिस्जद आदि। पर जब समय की कमी हो तो ऐसी जगहों को अच्छे से नहीं देखा जा सकता था। इसलिये हम लोगों ने मिलकर यह सोच लिया था कि अगली बार जब भी आना होगा तो कुतुबमिनार को एक बार फिर फुर्सत से देखने आयेंगे। अलाई मिनार की ऊँचाई 24.5 मीटर है। यहाँ जो आइरन पिलर है उसकी ऊँचाई लगभग 7.21 मीटर है। ऐसा कहा जाता है कि इस आयरन पिलर को दोनों हाथों से पूरा पकड़ लेने पर सारी इच्छायें पूरी होती हैं पर गाइड ने हमें पहले ही बता दिया था कि - ऐसा सिर्फ अमिताभ बच्चन के लिये ही था उनकी फिल्म `चीनी कम या ज्यादा´ जो भी हो, के लिये। इसलिये आप लोग वहां नहीं जा सकते हैं। सो हम दूर से देख कर ही वापस आ गये। यहाँ पर इतना कुछ था देखने के लिये कि समय की कमी बहुत ज्यादा अखर रही थी। खैर जो भी हो पर यहाँ मुझे मेरा एक `फैलो ट्रेवलर´ मिल गया जो कि 5-6 साल का छोटा सा बच्चा था। मैं गिलहरियों की फोटो खींचने के लिये उन्हें कुछ खिला रही थी तो अचानक मेरे कंधे में एक नन्हा सा हाथ आया और मासूम सी आवाज़ में बोला - दीदी मैं भी िस्क्वरल को खाना खिलाऊँ मैंने पीछे देखा एक प्यारा सा बच्चा हाथ में एक चिप्स लेकर खड़ा था। उसके बाद वो पूरा समय मेरे साथ ही रहा और मुझे भी नये दोस्त का साथ अच्छा लगा क्योंकि उसने परेशान नहीं किया।


खैर कुछ देर बाद गाइड का इशारा आ गया वापस जाने का। यहाँ एक बार फिर आने की इच्छा के साथ हम लोग वापस आ गये। यहाँ से हमें लोटस टैम्पल या बहाई टैम्पल जाना था। बस में बच्चा मेरे साथ आकर ही बैठ गया। अब उसके मम्मी-पापा से भी हमारी पहचान हो गयी थी। बच्चा हमारे साथ ही बैठना चाहता था इसलिये हम लोगों ने उसे अपने साथ रख लिया। बच्चे की बातों के साथ और हमारी आपसी बातों के बीच हम लोग लोटस टैम्पल आ गये। यहाँ काफी भीड़ थी और मंदिर की भव्यता दूर से ही दिख रही थी। 



हमने इस जगह को सिर्फ बाहर से देखा क्योंकि अंदर जा कर प्रार्थना में बैठने का समय नहीं था। इस मंदिर को बहाई धर्म के लोगों ने बनवाया है। यह धर्म दुनिया के स्वतंत्र धर्मो में आधुनिकतम धर्म है। इसके संस्थापक बहाउल्लाह थे। यहाँ वैसे तो काफी शांति थी पर इस समय भीड़ थी इसलिये वो एकांत मंदिर के बाहर नहीं मिल सका पर यहाँ जाना अच्छा लगा। बच्चा अभी भी मेरा हाथ पकड़े था और पानी के छोटे -छोटे तालों के पास जाने के ज़िद कर रहा था। उसे हमने समझाया कि वहाँ नहीं जाते हैं तो वह समझ भी गया। बच्चे की यही बात अच्छी थी कि कुछ समझाने पर वह आराम से समझ रहा था और ज़िद करके परेशान नहीं कर रहा था। कुछ देर बाद हमें फिर गाइड का इशारा मिल गया और हम वापस आ गये।

इसके बाद हमारी अगली मंज़िल थी अक्षरधाम मंदिर। लगभग 100 एकड़ के क्षेत्र में बना यह एक विशाल मंदिर है हालांकि इतनी विशालता का कारण मुझे समझ नहीं आया पर इसका निर्माण था सुंदर। आजकल मुख्य मंदिर बंद था क्योंकि उसमें कुछ कार्य चल रहा था। इस मंदिर में सुरक्षा के खासे इंतज़ाम थे। यहाँ हमें सुरक्षा जांच करवाने में ही लगभग आधा घंटा लग गया। इसने हमें काफी कुछ सोचने पर मजबूर किया पर उस समय वो सब सोचने का कोई फायदा नहीं था। यहाँ तस्वीरें लेना बिल्कुल मना है। किसी भी तरह के इलेक्ट्रॉनिक वस्तुऐं ले जाना भी मना है यहाँ तक कि काला चश्मा पहनना भी मना है। इतने सख्त नियम शायद सही भी हों पर फिर भी ......। यहाँ हम एक द्वार से अंदर गये तो उसके बाद पूरा मंदिर देख कर ही आप दूसरे द्वार से बाहर आ सकते थे। क्योंकि यहाँ तस्वीरें लेना मना था इसलिये मंदिर प्रशासन ने अपनी तरफ से तस्वीरें खिंचवाने का इंतज़ाम किया था जहाँ कुछ विदेशी तस्वीरें खिंचवा भी रहे थे।

जारी...

Tuesday, December 8, 2009

मेरी दिल्ली यात्रा - 1

वैसे तो दिल्ली जाना पहले भी कई बार हो चुका है पर कभी भी दिल्ली को घूमने का मौका नहीं मिला और वैसे भी दिमाग में दिल्ली की जो छवि बन चुकी थी उसके चलते कभी घूमने का मन भी नहीं हुआ पर इस बार एक काम से दिल्ली जाना हुआ तो सोचा कि दिल्ली को जरा घूमा भी जाये।

मैं 27 नवम्बर की सुबह 9 बजे दिल्ली के लिये निकली। वैसे तो रेल से जाना आसान होता पर क्योंकि मुझे बस से यात्रा करना ज्यादा अच्छा लगता है इसलिये मैंने बस से ही जाने का फैसला किया। बस मैं यात्रा करना रोचक तो होता ही है पर अगर बस सरकारी हो तो यह रोमांच कहीं ज्यादा बढ़ जाता है।

मैं जिस बस से दिल्ली के लिये निकली थी उसे सवेरे 9 बजे चलना था और 4.30 से 5 बजे दिल्ली पहुँच जाना था। बस को कालाढूंगी होते हुए जाना था इसलिये माल रोड को पार करती हुई आगे बढ़ी। लेकिन बस में बेतहाशा भीड़ के कारण इसे माल रोड पार करने में ही 20-25 मिनट लग गये। कंडक्टर सभी सवारियों को को बस में भरे जा रहा था। बस की हालत ऐसी हो गयी कि सबको लगने लगा था कि गाड़ी अब गयी या तब गयी। लोगों के कहने का भी कंडक्टर पर कोई असर नहीं हुआ। भीड़ का हाल ऐसा था कि मेरी बगल सीट में जो बैठे थे उनका सामान तो सीट पर था पर उनको सीट में आने का रास्ता ही नहीं मिला और काफी देर तक खड़े ही रहे। जैसे ही बस थोड़ा आगे बढ़ती तो कुछ लोगों को उतरना होता। उनके उतरने के लिये बस में खड़े लोग बाहर निकलते फिर चढ़ते। इस बीच 8-10 नये लोग गाड़ी में चढ़ जाते। कंडक्टर बोले जा रहा था - पीछे हो जाओ भाई, थोड़ा पीछे हो लो।´ पीछे वाले चिढ़ के कहते - अरे सिर के ऊपर खाली जगह है वहाँ पर इन लोगों को बिठा लें क्या ? मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। एक यात्री  ने बाहर से सामान का थैला मेरे हाथ में पकड़ा दिया और खुद बस के दरवाजे पर लटक गये।

बस की इस हालत को देख कर गुस्सा तो बहुत था पर ये सब किसी नौटंकी से कम भी नहीं था। यही कारण है कि मैं बस यात्रा पसंद करती हूं। जो सज्जन अपना थैला मुझे पकड़ा कर दरवाजे में लटके हुए थे। बस के रुकने पर बाहर उतर गये और अचानक बस ने चलना शुरू कर दिया। बेचारे पीछे से चिल्लाते-चिल्लाते आये - अरे मेरा सामान बस में है, जरा रुको। एक आंटी जी जो रास्ते से बस में चढ़ी, उनके पतिदेव ने स्टेशन से ही उनके लिये जगह बना रखी थी। पर गाड़ी इस कदर भरी हुई थी कि वो अपनी सीट तक पहुंच ही नहीं पाई और अपने पति से बोली - अरे ये तो बताओ मैं आऊँ कैसे ? उनके पतिदेव ने जवाब दिया - अरे बस ये न पूछो। आ जाओ किसी भी तरह फंस फंसा के। अब पहाड़ी रास्ता हो और लोगों को उल्टी न हो ये तो संभव ही नहीं। इतनी भीड़ और उस पर किसी को उल्टी आ जाना। खैर इसका भी पूरा इंतजाम था। दरवाजे के पास खड़े लोगों ने गाड़ी का दरवाजा खोल दिया और चिल्ला-चिल्ला के कहने लगे - जिसे उल्टी करनी है दरवाजे के पास आ जाओ। वहां पर कुछ लोग बैठे उल्टयां कर भी रहे थे। हालांकि हमें दिखायी नहीं दे रहा था पर उनका मधुर संगीत कानों में गूंज रहा था।

इस शोर शराबे के बीच जो सबसे अच्छा था वो था रास्ता। सुंदर घाटी से होता हुआ यह रास्ता आगे को बढ़ता है। जिसमें बीच में सड़ियाताल, खुर्पाताल पड़ते हैं और कुछ झरने भी हैं पर आजकल इनमें पानी कम था। गाड़ी के अंदर अभी भी चिल्लमचिल्ली मची हुई थी। ड्राइवर अभी भी सवारियों को बस में ठूंसे जा रहा था। अब तो हालत इतनी बुरी हो गयी कि सवारियों को छत में बिठाना पड़ा। मेरी सीट के पीछे बैठे एक सज्जन ने कंडक्टर से कहा - अरे कंडक्टर साब ! छत में भी कुछ कुर्सियां डलवा लेते। फायदा हो जाता। एक महाशय ने एक तुर्रा उछाल दिया कि - छत वालों का किराया तो आधा ही होता होगा ना।

इन कारणों से गाड़ी अभी ही लगभग 1 घंटा लेट हो गयी थी उस पर गाड़ी की स्पीड भी न के बराबर थी। सभी यात्री परेशान और गुस्से में थे। मेरी सीट के पीछे बैठे सज्जन सुपरिम कोर्ट में किसी ऊँची पोस्ट में कार्यरत थे। उनसे मेरी पहचान इसलिये हो गयी क्योंकि मुझे आज तक वो पहले मिले जिन्होंने बोला कि उनको बस की यात्रा अच्छी लगती है। फिर हमारी थोड़ी बातें होने लगी। हालांकि हम दोनों आगे-पीछे की सीट में थे पर फिर भी बात कर ही ले रहे थे। उन्होंने बताया कि उन्हें घुमक्कड़ी का बेहद शौक है और अपने इसी शौक के चलते वो पिछले काफी समय से पहाड़ों में घूम रहे हैं।

बीच-बीच बस झटके खा रही थी और कभी कभी तो एक ही तरफ झुक जा रही थी। उस समय तो ऐसा लगा कि पता नहीं क्या होना है आज। खैर हौले-हौले मटकते-मटकते गाड़ी कालाढूंगी  पहुंच गयी। यहाँ से मैदानी क्षेत्र शुरू हो जाता है इसलिये अब कम से कम खाई में जा गिरने की संभवना तो नहीं थी।  भीड़ का अभी भी वहीं हाल था। मैंने कंडक्टर को बोला कि उन्हें गाड़ी का दरवाजा बंद करना चाहिये। दरवाजा खुला होगा तो कोई भी गाड़ी में आयेगा ही । मेरे साथ वालों ने भी यही बात दोहराई पर हमारी बातों का कोई असर नहीं हुआ। तभी अचानक पीछे से सुपरिम कोर्ट वाले सज्जन ने अपनी गरजती हुई आवाज में कंडक्टर को डांटते हुए कहा - ऐ कंडक्टर गाड़ी साइड में लगा। ये गाड़ी अब यहाँ से थाने जायेगी। उतनी देर से मजाक बना रखा है। फालतू की सवारियों को बिठाये जा रहा है। पहले तो वैसे ही इतनी देर हो गयी है और अभी कितनी देर और करवानी है। उनकी कड़कती हुई आवाज ने सही में कंडक्टर को डरा दिया। कंडक्टर ने डरते-डरते कहा कि साब त्यौहार का दिन है और प्राइवेट गाड़ियां हड़ताल में है इसलिये इतनी भीड़ है। उस दिन या उसके दूसरे दिन मुसलमान लोगों का त्यौहार था जिस कारण लोग अपने घरों को जा रहे थे। कंडक्टर की बात सुनकर लगा कि वो भी ठीक ही कह रहा है। त्यौहार तो लोग अपनों के साथ ही मनाना चाहते हैं। पर गाड़ी की हालत ऐसी थी कि उसमें ज्यादा सवारी बैठाना खतरनाक ही था।

अब गाड़ी से सिर्फ यात्री उतर ही रहे थे चढ़ा कोई नहीं इसलिये कुछ देर बाद गाड़ी अपने असली आकार में वापस आ गयी। मैंने अपने साथ वालों को बोला - अब लग रहा है कि ये बस है वरना अभी तक तो इलास्टिक वाला गुब्बारा लग रही थी जिसमें की हवा भरते ही चले जाओ......। जगहों के नाम तो ठीक से पता नहीं चल सके पर रास्ते में एक जगह कई सारी भैंसे इकट्ठा थी। मैंने एक यात्री से पूछा तो उन्होंने बताया कि यहाँ भैंसों का बाजार लगता है ये सब बिकने के लिये यहाँ आयी हैं और यह बाजार करोड़ों का होता है। मेरे लिये ये बिल्कुल नया था। हालांकि ये बातें सुनी तो थी पर देखी पहली बार।

अब बस की स्पीड भी अच्छी हो गयी थी और बस सड़क पर सरपट दौड़ने लगी लेकिन तभी जैम का लगना शुरू हो गया। 20 मिनट गाड़ी चले और 10 मिनट रुक जाये। त्यौहार के चलते रास्ते में कई जगह बाजारें लगी हुई थी इस कारण यह स्थिति बनी हुई थी। गढ़ गंगा पहुँचने पर मैंने, जिन्होंने हमें दिल्ली बस स्टेशन में लेने आना था उन्हें फोन करके बता दिया कि हम लोग लगभग डेढ़ घंटे में दिल्ली पहुंच जायेंगे पर वो डेढ़ घंटे मेरी जिन्दगी के दूसरे सबसे लम्बे डेढ़ घंटे साबित हुए क्योंकि उसके बाद हम लोग 3.30 - 4 घंटे में दिल्ली पहुंचे। जो हमें लेने आये थे उनका इंतजार और फोन करते-करते बुरा हाल। कब आओगे, कितनी देर और है, हम तो यहाँ आ भी चुके हैं, चलो कोई बात नहीं हम यहीं हैं.........। उस समय तो यह लगा कि पता नहीं कब दिल्ली पहुंचेंगे पर आखिरकार हम दिल्ली पहुंच ही गये.....।

जारी....


Tuesday, November 24, 2009

कस्तूरी मृग : उत्तराखंड का राजकीय पशु



कस्तूरी मृग जिसे अंग्रेजी में मस्क डियर भी कहते हैं उत्तराखंड का राजकीय पशु है। कस्तूरी मृग में पाये जाने वाली कस्तूरी के कारण इसकी विशेष पहचान है पर इसकी यही विशेषता इसके लिये अभिशाप भी है। कस्तूरी मृग हिमालयी क्षेत्रों में पाया जाता है। उत्तराखंड के अलावा यह नेपाल, चीन, तिब्बत, मंगोलिया, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, भूटान, वर्मा, कोरिया एवं रुस आदि देशों में भी पाया जाता है।

कस्तूरी मृग से मिलने वाले कस्तूरी की अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में कीमत लगभग 30 लाख रुपया प्रतिकिलो है जिसके कारण इसका अवैध शिकार किया जा रहा है। चीन 200 किलो के लगभग कस्तूरी का निर्यात करता  है। आयुर्वेद में कस्तूरी से टी.बी., मिर्गी, हृदय संबंधी बिमारियां, आर्थराइटिस जैसी कई बिमारियों का इलाज किया जा सकता है। आयुर्वेद के अलावा यूनानी और तिब्बती औषधी विज्ञान में भी कस्तूरी का इस्तेमाल बहुत ज्यादा किया जाता है। इसके अलावा इससे बनने वाली परफ्यूम के लिये भी इसकी बहुत मांग है।

कस्तूरी चॉकलेट रंग की होती है जो एक थैली के अंदर द्रव रूप में पायी जाती है। इसे निकाल कर सुखाकर इस्तेमाल किया जाता है। एक मृग से लगभग 30-40 ग्राम तक कस्तूरी मिलती है और कस्तूरी सिर्फ नर में ही पायी जाती है जबकि इसके लिये मादा मृगों का भी शिकार किया जाता है। जिस कारण इनकी संख्या में बहुत ज्यादा कमी आ गयी है।

कस्तूरी निकालने के लिये इन जानवरों का शिकार करना बिल्कुल भी जरूरी नहीं है क्योंकि कुछ आसान तकनीकों का इस्तेमाल करके इनसे कस्तूरी को आसानी से बिना मारे निकाला जा सकता है।

इसके जीवन पर पैदा हो रहे संकट के चलते इसे `इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजरवेशन ऑफ नेचर एंड नेचुरल रिसोर्सेस´ ने `रैड डाटा बुक´ में शामिल किया गया है। भारत सरकार ने भी वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट के तहत इसके शिकार को गैरकानूनी घाषित कर दिया है। इंडियन वाइल्ड लाइफ बोर्ड ने जिन 13 वन्य प्राणियों के जीवन को खतरे की सूची में डाला है उसमें से कस्तूरी मृग भी एक है।

यदि अभी भी इस जानवर को बचाने के प्रयास गंभीरता से नहीं किये गये तो जल्द ही उत्तराखंड का यह राजकीय पशु शायद सिर्फ तस्वीरों में ही नज़र आयेगा।



Tuesday, November 17, 2009

प्रेम के बारे में एक भी शब्द नहीं

विरेन डंगवाल जी के नये कविता संग्रह `स्याही ताल´ का लोकापर्ण नैनीताल फिल्म फैस्टविल में हुआ था। प्रस्तुत है उसी संग्रह से एक कविता



प्रेम के बारे में एक भी शब्द नहीं

शहद के बारे में
मैं एक शब्द भी नहीं बोलूँगा

वह
जो बहुश्रुत संकलन था
सहस्त्र पुष्प कोषों में संचित रहस्य रस का

जो न पारदर्शी न ठोस न गाढ़ा न द्रव
न जाने कब
एक तर्जनी की पोर से
चखी थी उसकी श्यानता
गई नहीं अब भी वह
काकु से तालु से
जीभ के बीचों-बीच से
आँखों की शीतलता में भी वह

प्रेम के बारे में
मैं एक शब्द भी नहीं बोलूँगा।


- विरेन डंगवाल






Saturday, November 14, 2009

क्या यह बच्चे भी जानते होंगे बाल दिवस का मतलब ???

यह तस्वीरें मुझे मेरे दोस्त की फॉरवर्ड मेल से मिले थे...

And we say that we are working hard



 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

Thursday, November 12, 2009

नैनीताल का पहला फिल्म उत्सव

7-8 नवम्बर 2009 को नैनीताल में पहले फिल्म उत्सव का आयोजन किया गया। नैनीताल में यह अपनी तरह का पहला आयोजन था जिसे एन.एस. थापा और नेत्र सिंह रावत को समर्पित किया गया था। इस फिल्म उत्सव का नाम रखा गया था `प्रतिरोध का सिनेमा´। इसका मुख्य उद्देश्य लोगों को उन संघषों से रु-ब-रु करवाना था जो कि कमर्शियल फिल्मों के चलते आम जन तक नहीं पहुंच पाती हैं। युगमंच नैनीताल एवं जन संस्कृति मंच के सहयोग से इस फिल्म उत्सव का आयोजन किया गया।

आयोजन का उद्घाटन युगमंच व जसम के कलाकारों द्वारा कार्यक्रम प्रस्तुत करके की गयी। इसी सत्र में फिल्म समारोह स्मारिका का विमोचन भी किया गया और प्रणय कृष्ण, गिरीश तिवाड़ी `गिर्दा´ एवं इस आयोजन के समन्वयक संजय जोशी ने सभा को संबोधित किया। इसके बाद आयोजन की पहली फिल्म एम.एस. सथ्यू निर्देशित `गरम हवा´ दिखायी गयी। बंटवारे पर आधारित यह फिल्म दर्शकों द्वारा काफी सराही गयी

सायंकालीन सत्र में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कवि वीरेन डंगवाल के काव्य संग्रह `स्याही ताल´ का विमोचन किया गया तथा गिरीश तिवाड़ी `गिर्दा´ और विश्वम्भर नाथ सखा को सम्मानित किया गया। इस दौरान `आधारशिला´ पत्रिका का भी विमोचन किया गया। इसके बाद राजीव कुमार निर्देशित 15 मिनट की डॉक्यूमेंट्री `आखिरी आसमान´ का प्रदर्शन किया गया जो कि बंटवारे के दर्द को बयां करती है। उसके बाद अजय भारद्वाज की जे.एन.यू. छात्रसंघ के अध्यक्ष चन्द्रशेखर पर केन्द्रत फिल्म `1 मिनट का मौन´ तथा चार्ली चैिप्लन की फिल्म `मॉर्डन टाइम्स´ दिखायी गयी। इस फिल्म के साथ पहले दिन के कार्यक्रम समाप्त हो गये।

दूसरे दिन के कार्यक्रमों की शुरूआत सुबह 9.30 बजे बच्चों के सत्र से हुई। इस दौरान `हिप-हिप हुर्रे´, `ओपन अ डोर´ और `चिल्ड्रन ऑफ हैवन´ जैसी बेहतरीन फिल्में दिखायी गयी। बाल सत्र के दौरान बच्चों की काफी संख्या मौजूद रही और बच्चों ने इन फिल्मों का खूब मजा लिया।

दोपहर के सत्र की शुरूआत में नेत्र सिंह रावत निर्देशित फिल्म `माघ मेला´ से हुई और इसके बाद एन.एस. थापा द्वारा निर्देशित डॉक्यूमेंट्री फिल्म `एवरेस्ट´ का प्रदर्शन किया गया। यह फिल्म 1964 में भारतीय दल द्वारा पहली बार एवरेस्ट को फतह करने पर बनायी गयी है। यह पहली बार ही हुआ था कि एक ही दल के सात सदस्यों ने एवरेस्ट को फतह करने में कामयाबी हासिल की थी। निर्देशक एन.एस. थापा स्वयं भी इस दल के सदस्य थे। इस फिल्म को दर्शकों से काफी प्रशंसा मिली। इस के बाद विनोद राजा निर्देशित डॉक्यूमेंट्री `महुवा मेमोआर्ज´ का प्रदर्शन किया गया। यह फिल्म 2002-06 तक उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखंड और आंध्र प्रदेश के आदिवासी इलाकों में किये जा रहे खनन पर आधारित है जिसके कारण वहां के आदिवासियों को अपनी पुरखों की जमीनों को छोड़ने के लिये मजबूर किया जा रहा है। यह फिल्म आदिवासियों के दर्द को दर्शकों तक पहुंचाने में पूरी तरह कामयाब रही।

सायंकालीन सत्र में अशोक भौमिक द्वारा समकालीन भारतीय चित्रकला पर व्याख्यान दिया गया और एक स्लाइड शो भी दिखाया गया तथा कवि विरेन डंगवाल जी का सम्मान किया गया। इस उत्सव की अंतिम फिल्म थी विट्टोरियो डी सिल्वा निर्देशित इतालवी फिल्म `बाइसकिल थीफ´। उत्सव का समापन भी युगमंच और जसम के कलाकारों की प्रस्तुति के साथ ही हुआ।

समारोह के दौरान अवस्थी मास्साब के पोस्टरों और चित्तप्रसाद के रेखाचित्रों की प्रदर्शनी भी लगायी गयी जिसे काफी सराहना मिली।


आयोजन की कुछ झलकियां



अवस्थी मास्साब के पोस्टर






चित्तप्रसाद के रेखाचित्र


विरेन डंगवाल जी के काव्य संग्रह का लोकार्पण


गिर्दा का सम्मान


विश्वम्भर नाथ साह `सखा´ का सम्मान