नेशनल रेल म्यूजियम देखने के बाद हम अमृता शेरगिल रोड, जो कि हमारे साथ वाले ने बताया कि दिल्ली की सबसे महंगी सड़क है क्योंकि इस सड़क में बिकने वाली प्रॉपर्टी के दाम सबसे अधिक होते हैं, पर आ गये। इस सड़क का नाम मशहूर चित्रकारा अमृता शेरगिल के नाम पर रखा है। यहाँ से हमने इंडिया हैबिटैट सेंटर जाने का इरादा बनाया और लोधी रोड की तरफ आये।
पहले हमने लोधी गार्डन जाने की भी सोची थी पर बाद में इरादा छोड़ दिया क्योंकि मित्र ने बताया कि इसके अंदर मकबरे तो बेहद अच्छे हैं पर वो आजकल प्रेमी-प्रमिकाओं के मिलन स्थल बन चुके हैं और यहाँ की मुख्यमंत्री महोदया की सख्त हिदायत है कि उन्हें परेशान न किया जाये। सो उनके हुक्म को तो मानना ही था आखिर उनके राज में थे इस वक्त। बहरहाल इस महान गार्डन, जिसमें हिन्दुस्तान की महान हस्तियां जॉगिंग करती हुई दिख जाती है, को बाहर से ही निहारते हुए हम अपनी मंज़िल को बढ़ गये।
हम जैसे ही इंडिया हैबिटैट सेंटर पहुंचे। हमारे सामने एक विशाल इमारत थी पर बहुत ही लाजवाब ढंग से बनी हुई। जैसा कि नाम ही हैबिटैट सेंटर था अपने नाम के तरह यह इमारत भी ऐसी ही थी। प्रकृति के साथ जो संतुलन यहाँ देखने को मिला उसे देख कर तबियत खुश हो गई। गाड़ी पार्क करने के लिये हम इसमें बनी अंडर ग्राउंड पािर्कंग में गये। यहाँ भी सबकुछ बहुत सलीके से था। सभी गाड़िया क्रम से लगी थी। इस पािर्कंग में लगभग एक हज़ार गाड़िया एक समय में आराम से पार्क की जा सकती है।
इंडिया हैबिटैट सेंटर में बहुत सी चीजें है और सबके शौक के अनुसार उसे कुछ न कुछ मिल ही जायेगा। जिसे खाने का शौक हो उसके लिये हर तरह के रैस्टोरेंट हैं। एक्जीबिशन देखने वालों के लिये तरह-तरह की एक्जीबिशन यहाँ लगती रहती है। उस दिन भी कई तरह की पेंटिंग और फोटोग्राफी एक्जीबिशन लगी थी। मेरा पसंदीदा विषय फोटोग्राफी है सो मैंने उसे ही सबसे उत्साह से देखा। इसके अलावा एक एक्जीबिशन किसी महिला की लगी थी। उनका सामने विडियों चल रहा था जिसमें दिखा रहे थे कि उन्होंने एक धागे को किसी तरह से बहुत सी गांठें बनाते हुए बनाया है और सामने पर उनका बनाया धागा रखा हुआ था, काफी देर उसे देखने के बाद हमारी समझ में कुछ नहीं आया कि ये क्या है। मैंने अपने साथ वालों से कहा कि - घर के कई सारे काम करते हुए हमें भी ऐसा करना पड़ता है। आज पता लगा ये भी आर्ट है। खैर वहां से हम लोग दूसरी कई जगहें गये जिनमें बहुत अलग-अलग तरह की एक्जीबिशन लगी थी। एक एक्जीबिशन और थी जिसने हमें बहुत प्रभावित किया वो थी इंसान का आज के समय के साथ जो तालमेल हो रहा है उससे आने वाले समय में क्या फरक पड़ेंगे। इसमें एक गिलहरी बनाई थी और उसके सामने लोहे का बना पेड़ और पत्तियां थी जिन्हें वो खा रही थी। एक में दिखाया था कि आने वाले समय में इंसान अपने इलाज स्वयं ही कर लेगा सारे औज़ारों की हाथ में लेकर चलेगा। यह एक्जीबिशन वाकय प्रभावित करने वाली थी।
यहाँ कई सारे ऑडिटोरियम भी हैं जिनमें कुछ न कुछ चलता ही रहता है। इस जगह को फंक्शंस के लिये भी दिया जाता है शायद क्योंकि वहाँ बाहर कोई आयोजन भोज चल रहा था। हम आपस में बात कर रहे थे कि भूख तो लग ही रही है क्यों न भोजन का स्वाद चखा जाये पर फिर हमने सोचा कि हम अच्छे बच्चे हैं इसलिये किसी रेस्टोरेंट को देखते हैं और उसमें ही जाते हैं और हम रेस्टोरेंट की खोज में बढ़ गये। यहाँ हमने उत्तर भारती रेस्टोरेंट चुना। रैस्टोरेंट में काफी भीड़ थी। ऐसा लग रहा था इतवार होने के कारण दिल्ली के लोग खाना खाने यहीं आये हैं शायद। बहरहाल हम लोगों ने अपना खाना निपटाया और फिर घूमने आ गये।
इस इमारत को एक दूसरे से इतनी सावधानी से जोड़ा गया है कि अंदर होने पर पता नहीं लगता कि कब किस इमारत में आ गये। इसकी छतें भी बहुत अलग तरह से बनी हैं। यहाँ प्रकृति के साथ वाकय में तालमेल देखने को मिलता है। प्रदूषण से दूर यह जगह बेहद अच्छी लगी। इंडिया हैबिटैट सेंटर में `रंग दे बसंती´ फिल्म की भी शूटिंग हुई थी।
इस जगह पर घूमने और भूख मिटाने के बाद हम फिर सड़कों पर भटकने आ गये और नेहरू प्लेनेटोरियम जाने की सोची। इस दिल्ली यात्रा कि अंतिम जगह। हम लोग फिर सड़कों में घूमने लगे। दोस्त ने बताया कि यह पूरा इलाका ल्यूटियन के बनाये नक्शे पर आधारित है इसलिये इसमें थोड़ी भी छेड़छाड़ नहीं होती है इसलिये यह आज भी वैसा ही है जैसा पहले था। हमें लगा कि यह नियम तो हर जगह के लिये होना चाहिये। सिर्फ दिल्ली के इसी खास इलाके के लिये ही क्यों ?
खैर सड़कों पर भटकते हुए हम आगे बड़े। अचानक जो गाड़ी चला रहे थे उनकी नज़र सामने वाले टैम्पो पर पड़ी, जिसमें लिखा था - दिल्ली सरकार हिटलर है, कृपया ट्रेफिक नियमों का पालन करें। इन्ही सड़कों पर चलते हुए एक बाज़ार सामने पर दिखा, साथ वाले ने बताया कि यह दिल्ली की बहुत पुरानी बाज़ार है और इसका इस्तेमाल द्वितीय विश्वयुद्ध के समय पर हुआ था। आज यह मार्केट थोड़ी और अच्छी हो गयी है। इसी बाजार में एक स्पोर्टस की दुकान भी है जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान रखती है। खैर इस बाज़ार से हमने अपने पीने के लिये कुछ जूस की बोतलें खरीदी और आगे बढ़ गये।
इंडिया हैबिटैट सेंटर में बहुत सी चीजें है और सबके शौक के अनुसार उसे कुछ न कुछ मिल ही जायेगा। जिसे खाने का शौक हो उसके लिये हर तरह के रैस्टोरेंट हैं। एक्जीबिशन देखने वालों के लिये तरह-तरह की एक्जीबिशन यहाँ लगती रहती है। उस दिन भी कई तरह की पेंटिंग और फोटोग्राफी एक्जीबिशन लगी थी। मेरा पसंदीदा विषय फोटोग्राफी है सो मैंने उसे ही सबसे उत्साह से देखा। इसके अलावा एक एक्जीबिशन किसी महिला की लगी थी। उनका सामने विडियों चल रहा था जिसमें दिखा रहे थे कि उन्होंने एक धागे को किसी तरह से बहुत सी गांठें बनाते हुए बनाया है और सामने पर उनका बनाया धागा रखा हुआ था, काफी देर उसे देखने के बाद हमारी समझ में कुछ नहीं आया कि ये क्या है। मैंने अपने साथ वालों से कहा कि - घर के कई सारे काम करते हुए हमें भी ऐसा करना पड़ता है। आज पता लगा ये भी आर्ट है। खैर वहां से हम लोग दूसरी कई जगहें गये जिनमें बहुत अलग-अलग तरह की एक्जीबिशन लगी थी। एक एक्जीबिशन और थी जिसने हमें बहुत प्रभावित किया वो थी इंसान का आज के समय के साथ जो तालमेल हो रहा है उससे आने वाले समय में क्या फरक पड़ेंगे। इसमें एक गिलहरी बनाई थी और उसके सामने लोहे का बना पेड़ और पत्तियां थी जिन्हें वो खा रही थी। एक में दिखाया था कि आने वाले समय में इंसान अपने इलाज स्वयं ही कर लेगा सारे औज़ारों की हाथ में लेकर चलेगा। यह एक्जीबिशन वाकय प्रभावित करने वाली थी।
यहाँ कई सारे ऑडिटोरियम भी हैं जिनमें कुछ न कुछ चलता ही रहता है। इस जगह को फंक्शंस के लिये भी दिया जाता है शायद क्योंकि वहाँ बाहर कोई आयोजन भोज चल रहा था। हम आपस में बात कर रहे थे कि भूख तो लग ही रही है क्यों न भोजन का स्वाद चखा जाये पर फिर हमने सोचा कि हम अच्छे बच्चे हैं इसलिये किसी रेस्टोरेंट को देखते हैं और उसमें ही जाते हैं और हम रेस्टोरेंट की खोज में बढ़ गये। यहाँ हमने उत्तर भारती रेस्टोरेंट चुना। रैस्टोरेंट में काफी भीड़ थी। ऐसा लग रहा था इतवार होने के कारण दिल्ली के लोग खाना खाने यहीं आये हैं शायद। बहरहाल हम लोगों ने अपना खाना निपटाया और फिर घूमने आ गये।
इस इमारत को एक दूसरे से इतनी सावधानी से जोड़ा गया है कि अंदर होने पर पता नहीं लगता कि कब किस इमारत में आ गये। इसकी छतें भी बहुत अलग तरह से बनी हैं। यहाँ प्रकृति के साथ वाकय में तालमेल देखने को मिलता है। प्रदूषण से दूर यह जगह बेहद अच्छी लगी। इंडिया हैबिटैट सेंटर में `रंग दे बसंती´ फिल्म की भी शूटिंग हुई थी।
इस जगह पर घूमने और भूख मिटाने के बाद हम फिर सड़कों पर भटकने आ गये और नेहरू प्लेनेटोरियम जाने की सोची। इस दिल्ली यात्रा कि अंतिम जगह। हम लोग फिर सड़कों में घूमने लगे। दोस्त ने बताया कि यह पूरा इलाका ल्यूटियन के बनाये नक्शे पर आधारित है इसलिये इसमें थोड़ी भी छेड़छाड़ नहीं होती है इसलिये यह आज भी वैसा ही है जैसा पहले था। हमें लगा कि यह नियम तो हर जगह के लिये होना चाहिये। सिर्फ दिल्ली के इसी खास इलाके के लिये ही क्यों ?
खैर सड़कों पर भटकते हुए हम आगे बड़े। अचानक जो गाड़ी चला रहे थे उनकी नज़र सामने वाले टैम्पो पर पड़ी, जिसमें लिखा था - दिल्ली सरकार हिटलर है, कृपया ट्रेफिक नियमों का पालन करें। इन्ही सड़कों पर चलते हुए एक बाज़ार सामने पर दिखा, साथ वाले ने बताया कि यह दिल्ली की बहुत पुरानी बाज़ार है और इसका इस्तेमाल द्वितीय विश्वयुद्ध के समय पर हुआ था। आज यह मार्केट थोड़ी और अच्छी हो गयी है। इसी बाजार में एक स्पोर्टस की दुकान भी है जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान रखती है। खैर इस बाज़ार से हमने अपने पीने के लिये कुछ जूस की बोतलें खरीदी और आगे बढ़ गये।
नेहरू प्लेनेटोरियम पहुंचने पर पता चला कि वहाँ जो शो दिखाया जाता है वह तो शुरू हो चुका है इसलिये हम प्लेनेटोरियम में देखने चले गये। यहाँ अंतरिक्ष संबंधी चीजें रखी गयी हैं। इस प्लेनेटोरियम की सबसे बड़ी विशेषता है कि यहाँ उस यान का असली मॉडल रखा गया है जिसमें बैठ कर राकेश शर्मा जी स्पेस पर गये थे। उस समय उन्होंने जो पोशाक और जिन चीजों का इस्तेमाल किया था वो भी सब यहाँ पर है। इस जगह में भी एक वेट मशीन है जिसमें आप अपना चांद पर भार पता कर सकते हैं पर मैंने अपना चांद पर भार पता नहीं किया...। बहरहाल यहाँ से हम नेहरू म्यूजियम के आंगन में चल रही एक्जीबिशन देखने आ गये। कल तो हम इसे देख नहीं पाये सो आज देखा। मेरे साथ वालों ने यहाँ से कुछ खाने का सामान लिया, मैंने एक किताब ली। इस जगह जिसे देख कर मैं सबसे ज्यादा खुश हुई वो था बाइस्कोप। यह मेरा पहला अवसर था जबकि मैंने बाइस्कोप देखा हो। इसके अंदर झांकने पर इसमें नेहरू जी, इंदिरा जी और गांधी जी से संबंधित फिल्म चल रही थी। इससे पहले मैंने बाइस्कोप नाम रेडियो में आने वाले एक प्रोग्राम `बाइस्कोप की बातें' में ही सुना था। पर इसे देख कर सबसे ज्यादा अच्छा लगा। यहाँ पर कुछ लोग मिट्टी के बर्तन भी बना रहे थे। यहां पर कुछ खाने की दुकानें भी लगी थी। इसमें मेरे साथ वालों ने गोल गप्पे और मैंने टिककी खाई। इस जगह की बंदरों से पहरेदारी करने के लिये `राजू भाई´ लंगूर पेड़ में बैठे हुए थे।
दिल्ली का यह सफर तो यहीं पर खत्म हुआ पर अभी दिल्ली और घूमनी है सो अगली यात्रा की तैयारी जल्दी ही कि जायेगी इस उम्मीद के साथ हम घर वापस लौट गये। आज नैनीताल भी जाना था सो घर पहुंचते ही सीधे मेट्रो सेवा का इस्तेमाल करते हुए बस स्टेंड पहुंचे। सुबह 6.10 पर जब नैनीताल स्टेशन पहुंचे पूरा नैनीताल धुप्प अंधेरे में डूबा हुआ था। स्टेशन पर कुछ मजदूरों और दूध की गाड़ी की हलचल के सिवा कुछ नहीं था। पर अपना शहर हमेशा हर रूप में सिर्फ और सिर्फ अच्छा ही लगता है। कुछ देर झील के पास खड़े होने के बाद हम अपने घर चल दिये...
समाप्त
समाप्त
काफी नई चीजें पता चल रही हैं, आभार।
ReplyDelete--------
पुरूषों के श्रेष्ठता के जींस-शंकाएं और जवाब।
साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन के पुरस्कार घोषित।
nav varsh mangal may ho aapke ,...
ReplyDeleteaapka
arsh
विस्तृत वृतांत!!
ReplyDeleteवर्ष २०१० मे हर माह एक नया हिंदी चिट्ठा किसी नए व्यक्ति से भी शुरू करवाने का संकल्प लें और हिंदी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें।
- यही हिंदी चिट्ठाजगत और हिन्दी की सच्ची सेवा है।-
नववर्ष की बहुत बधाई एवं अनेक शुभकामनाएँ!
समीर लाल
उड़न तश्तरी
बहुत विस्तार से लिखा आपने .. आपके और आपके परिवार के लिए नववर्ष मंगलमय हो !!
ReplyDeleteBahut Khoob
ReplyDeleteHappy New Year
Happy Blogging
bahut achhi rahi yaha yatra
ReplyDeleteबहुत अच्छा! मेरे बच्चे दिल्ली की सैर कर रहे हैं.
ReplyDeleteधन्यवाद. न्ये साल की शुभ-कामनायें.
बहुत बढिया लग रहा है यह यात्रा वृतांत. नये साल की रामराम.
ReplyDeleteut achha safar raha tumhara vineeta
ReplyDeletevery nice pics . thanx for showing delhi.
ReplyDeleteItne vistaar se in jaghon ka bhraman karane ka shukriya. Delhi ka bhraman karte waqt aam taur par ye jagahein chhoot jati hain.
ReplyDeleteबढिया यात्रा वृतांत.
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