Tuesday, October 27, 2009
पहाड़ों में पाये जाने वाली अनमोल जड़ी है यार-छा-गम्बू
यार-छा-गम्बू यार-छा-गम्बू का तिब्बती में अर्थ होता है `गर्मियों में घास, सर्दियों में कीड़ा।´ इसके बारे में कहा जाता है कि यह ऐसी विचित्र जड़ी-बूटी है, जो सर्दियों के छ: महीने कीड़े के रूप में मृत रहती है और गर्मियों के छ: महीनों में जड़ी-बूटी बन जाता है। इस का लैटिन नाम `कार्डीसेप्स साईनेनसिस´ है। कार्डीसेप्स का अर्थ होता है मुद्गराकार शाखायुक्त। यह परजीवी कवक है, जिसमें छोटे-छोटे छेद होते हैं और इसका रंग चितकबरी होता है।
यह कवक घास वाली जमीन व बर्फ के पहाड़ों आस-पास मृत लारवा व कीड़ों में बहुत आसानी से उग जाता है। इसी कारण इसे `कीड़ा-जड़ी´ भी कहते हैं। यह बहुमूल्य कीड़ा जड़ी भारत के हिमालय क्षेत्रों के साथ-साथ तिब्बत, नेपाल, सिक्कम व भूटान आदि के पहाड़ी क्षेत्रों, बुग्यालों तथा ग्लेशियर आदि में बहुलता से उपलब्ध होता है। इन स्थानों के लोग इस कीड़ा-जड़ी का व्यापार करने के लिये इन जगहों में जाकर इसे इकट्ठा करते हैं।
तिब्बती लोगों में ऐसा कहा जाता है कि यदि `यार-छा-गम्बू´ को स्थानीय शराब या किसी अन्य पेय पदार्थ में डालकर पिया जाय यह शक्तिवर्द्धक का काम करता है। यह जड़ी अस्थमा व कैंसर के मरीजों के लिये भी बेहद उपयोगी है।
ग्रर्मी शुरू होते ही इस मृत कीड़े के ऊपर दूब घास की जैसी हरी पत्तियाँ निकल जाती हैं, जिसे जमीन से मय कीड़े के उखाड़ लिया जाता है। कुछ साल पहले तक कोई भी इसके बारे में कुछ नही जानता था पर जब इस जड़ी की अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में जबर्दस्त माँग होने लगी तब लोगों में इसके प्रति आकर्षण बढ़ने लगा और इसे इकट्ठा करने की होड़ मच गयी। इस जड़ी की अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में कीमत तीस हजार से एक लाख रुपया प्रति किलो तक है जिस कारण इसका और भी अधिक मनमाने ढंग से दोहन किया जाने लगा है।
उत्तराखण्ड में चमोली के रूपकुंड, औली, गुरस्यूँ टॉप, अलीसेरा-कुआँरी पास व नन्दा देवी जैव आरक्षित राष्ट्रीय पार्क तथा पिथौरागढ़ जिले के छिपलाकेदार, नंगलिग, दारमा व व्यासघाटी में यह जड़ी बहुतायत से मिल जाती है। स्थानीय चिकित्सा में इसके द्वारा लगभग 200 प्रकार की बिमारियों का इलाज बताया गया है। इसे उत्तराखंड में भी यार-छा-गम्बू नाम से ही जाना जाता है।
यदि पैसों के लालच में इसी रफ्तार से इसी जड़ी का दोहन होता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब ये धरती से गायब हो जायेगी। सरकार को चाहिये की वो इसके वैज्ञानिक दोहन व इसके संरक्षण पर ध्यान दे और युवाओं को इससे संबंधित रोजगार भी उपलब्ध करवाये ताकि इसका सही इस्तेमाल हो और देश का आर्थिक ढांचा भी मजबूत बने।
Tuesday, October 20, 2009
पूर्णागिरी यात्रा - 3
कुछ समय शारदा को देखने के बाद हम लोग उसी रास्ते से वापस आ गये। इस रास्ते में एक झूठा मंदिर भी है। कहा जाता है कि एक बार किसी व्यापारी ने मनौती की थी कि यदि उसके बेटा हुआ तो वो देवी को सोने का मंदिर चढ़ायेगा। मां ने उसकी मनौती पूरी कर दी पर उस व्यापारी ने सोने का मंदिर न चढ़ा के सोने का पानी किया हुआ मंदिर चढ़ा दिया। देवी इससे बुरी तरह नाराज हुई और उन्होंने उस मंदिर का वजन इतना ज्यादा बढ़ा दिया कि व्यापारी मंदिर को आधे रास्ते से ऊपर ला ही नहीं पाया और वो झूठा मंदिर आधे रास्ते में ही रुक गया।
कुछ देर में हम वहां पर आ गये थे जहां से हमने पूजा का सामान खरीदा था। यहां भी कालीमाई का एक मंदिर है। इस मंदिर में बलि चढ़ाई जाती है। मेरे साथ वालों ने तो यहां नारियल चढ़ाये पर मैंने बाहर से ही हाथ जोड़ दिये। इस जगह से भी हमें काफी पैदल वापस आना था। जब हम वापस आ रहे थे तो भाईसाब की बेटी की नजर एक बंदर के बच्चे पर पड़ी। उसने मुझसे कहा - दीदी देखो वो बंदर का सर काला है और थोड़ी-थोड़ी पीठ भी काली है। ऐसा बंदर तो पहले नहीं देखा। उसे देखने के बाद मुझे भी ताज्जुब तो हुआ पर यह समझने में देर नहीं लगी की उसके बाल डाई किये हैं। मैंने उसे समझाया पर वो नहीं मानी और उसकी फोटो खींचने चली गयी। जैसे ही फोटो खींचने वाली थी बंदर के मालिक ने उससे कहा - फोटो खींचने से पहले 50 रुपये तो दे दो। बंदर के डाई का खर्चा निकल आयेगा। बेचारी बिल्कुल झेंप सी गयी। मैंने उसे वापस बुलाया और हम दोनों आगे बढ़ गये। अपने आपसी हंसी मजाक और बातों के साथ-साथ हम जहां गाड़ी खड़ी थी उस जगह आ गये। यहीं हमने खाना खाया और जल्दी-जल्दी वापस हो लिये क्योंकि हमें आज महेन्द्रनगर भी जाना था जो नेपाल बॉर्डर में पड़ता है। ऐसा माना जाता है कि जब तक यहां के नई ब्रह्म देव मंडी मे स्थित सिद्ध बाबा के मंदिर न जाया जाये तब तक यात्रा को अधूरा ही माना जाता है।
ब्रह्मदेव मंडी टनकपुर से लगभग आधे घंटे की दूरी पर है। यहां शारदा बैराज को पार करते हुए जाना होता है जो कि नेपाल और भारत की सीमा में है। इस बैराज से नेपाल का इलाका शुरू हो जाता है। यह बैराज लगभग आधा किमी. लम्बा है जिसे पैदल ही पार करना होता है। इस बैराज के बाद भी लगभग एक-डेढ़ किमी. और पैदल जाना होता है सिद्ध बाबा के मंदिर के लिये। यहां से शारदा नदी का विशाल दृश्य दिखता है। इस समय शारदा में पानी तो था पर उसके किनारों में रेत बिल्कुल मक्खन की सी लग रही थी। यह पूरा रास्ता शारदा के किनारे-किनारे ही जाता है। रास्ता पार कर लेने के बाद हम ब्रह्मदेव मंडी पहुंच गये। यहां एक छोटा सा बाजार है जिसमें कई तरह के इलेक्ट्रॉनिक सामान, जूते, कपड़े तथा अन्य तरह के सामान मिल जाते हैं पर हमारा पहला उद्देश्य मंदिर में जाना था सो हम सीधे मंदिर की ओर चले गये।
पूर्णागिरी मंदिर के एकदम उलट यहां के पुजारी बेहद शांत नजर आये जिनमें दक्षिणा को लेकर कोई लालच नहीं दिखा। उनका यह व्यवहार देख कर बहुत अच्छा लगा। ऐसा कहा जाता है कि सिद्ध बाबा से जो भी कुछ मांगा जाये वो पूरा होता है। इस मंदिर में कुछ देर रुकने के बाद हम लोग बाजार की तरफ वापस आ गये। बाजार में हम लोगों के दो ग्रुप बन गये एक वो जिन्हें सामान खरीदना था दूसरा हमारा जिन्हें सिर्फ घूमना था। यहां महिलायें अपनी परंपरागत वेशभूषा में नजर आई। ज्यादातर तो नेपाली बोल रही थी पर हिन्दी भी बहुत अच्छे से बोल ले रही थी। वैसे भी यह कहा जाता है कि नेपाल और भारत में हमेशा से ही चेली-बेटी वाले संबंध रहे हैं माने की यहां की लड़कियों की शादी नेपाल में हो जाती है और नेपाल की लड़कियां बहू बन कर भारत आती है।
मुझे इस बाजार में एक एन्टीक सा दिखने वाला ताला पसंद आया जिसे मैंने अपने लिये खरीदा। दूसरे ग्रुप वालों को खरीदारी में काफी समय लग रहा था सो हमने उन्हें वापस आने का इशारा किया। इस बाजार में हमने लगभग 3 घंटे लगा दिये। अभी पैदल टनकपुर वापस जाना था और उसके बाद नैनीताल के लिये भी निकलना था सो अब थोड़ी जल्दी-जल्दी होने लगी थी। खरीदारी निपटा के हम लोग शारदा बैराज होते हुए वापस भारत की सीमा में आ गये। जहां हमारी गाड़ी हमारा इंतजार कर रही थी।
टनकपुर से लौटते हुए हम लोग पंत नगर विश्वविद्यालय भी गये। यहां भाईसाब की पहचान के कोई सज्जन थे जिन्होंने हमें विश्वविद्यालय घुमाया। समय कम होने के कारण हम यहां ज्यादा समय नहीं बिता पाये पर इस विश्वविद्यालय को देखना एक अच्छा अनुभव रहा। पंतनगर से हम बिना समय गंवाये हुए हल्द्वानी की तरफ लौट लिये पर हमारे पायलट साब की स्पीड में अभी भी कोई फर्क नहीं पड़ा था सो हमें हल्द्वानी पहुंचने में ही करीब रात के आठ बज गये। अब भूख भी सताने लगी थी और हमें से कोई भी घर जाकर खाने के बवाल में नहीं पड़ना चाहता था इसलिये रास्ते के एक रैस्टोरेंट में रुक कर खाना खाया गया।
हल्द्वानी से नैनीताल पहुंचने में हमें लगभग 11 बज गये। भाईसाब ने घर तक छोड़ने के लिये कहा पर मैंने मना कर दिया। रात का चौकीदार सीटी पे सीटी बजाये जा रहा था पर असली समस्या तो तब खड़ी हुई जब पड़ोस के सारे कुत्ते एक साथ इकट्ठा हो गये और भौंकना शुरू कर दिया। मुझे बिल्कुल समझ नहीं आया की अब क्या करूं इतनी रात को किसी का दरवाजा भी नहीं खटखटा सकती थी इसलिये जहां कुत्ते थे उसके दूसरी तरफ वाली दिवार को लांघ कर पूरी स्पीड में दौड़ लगाते हुए मैं अपने घर की पहुंच गई तब जाकर कुछ जान में जान आई और बाद में बहुत हंसी भी आई क्योंकि ऐसा कभी नहीं सोचा था कि अपने ही घर आने के लिये अपने घर की दिवार लांघनी होगी। दूसरे दिन मुझे साथ वालों ने बताया कि वो ड्राइवर रोजाना बच्चों को स्कूल लाता लेजाता है इसलिये उसकी स्पीड 20 से ऊपर नहीं बढ़ती...
समाप्त
कुछ देर में हम वहां पर आ गये थे जहां से हमने पूजा का सामान खरीदा था। यहां भी कालीमाई का एक मंदिर है। इस मंदिर में बलि चढ़ाई जाती है। मेरे साथ वालों ने तो यहां नारियल चढ़ाये पर मैंने बाहर से ही हाथ जोड़ दिये। इस जगह से भी हमें काफी पैदल वापस आना था। जब हम वापस आ रहे थे तो भाईसाब की बेटी की नजर एक बंदर के बच्चे पर पड़ी। उसने मुझसे कहा - दीदी देखो वो बंदर का सर काला है और थोड़ी-थोड़ी पीठ भी काली है। ऐसा बंदर तो पहले नहीं देखा। उसे देखने के बाद मुझे भी ताज्जुब तो हुआ पर यह समझने में देर नहीं लगी की उसके बाल डाई किये हैं। मैंने उसे समझाया पर वो नहीं मानी और उसकी फोटो खींचने चली गयी। जैसे ही फोटो खींचने वाली थी बंदर के मालिक ने उससे कहा - फोटो खींचने से पहले 50 रुपये तो दे दो। बंदर के डाई का खर्चा निकल आयेगा। बेचारी बिल्कुल झेंप सी गयी। मैंने उसे वापस बुलाया और हम दोनों आगे बढ़ गये। अपने आपसी हंसी मजाक और बातों के साथ-साथ हम जहां गाड़ी खड़ी थी उस जगह आ गये। यहीं हमने खाना खाया और जल्दी-जल्दी वापस हो लिये क्योंकि हमें आज महेन्द्रनगर भी जाना था जो नेपाल बॉर्डर में पड़ता है। ऐसा माना जाता है कि जब तक यहां के नई ब्रह्म देव मंडी मे स्थित सिद्ध बाबा के मंदिर न जाया जाये तब तक यात्रा को अधूरा ही माना जाता है।
ब्रह्मदेव मंडी टनकपुर से लगभग आधे घंटे की दूरी पर है। यहां शारदा बैराज को पार करते हुए जाना होता है जो कि नेपाल और भारत की सीमा में है। इस बैराज से नेपाल का इलाका शुरू हो जाता है। यह बैराज लगभग आधा किमी. लम्बा है जिसे पैदल ही पार करना होता है। इस बैराज के बाद भी लगभग एक-डेढ़ किमी. और पैदल जाना होता है सिद्ध बाबा के मंदिर के लिये। यहां से शारदा नदी का विशाल दृश्य दिखता है। इस समय शारदा में पानी तो था पर उसके किनारों में रेत बिल्कुल मक्खन की सी लग रही थी। यह पूरा रास्ता शारदा के किनारे-किनारे ही जाता है। रास्ता पार कर लेने के बाद हम ब्रह्मदेव मंडी पहुंच गये। यहां एक छोटा सा बाजार है जिसमें कई तरह के इलेक्ट्रॉनिक सामान, जूते, कपड़े तथा अन्य तरह के सामान मिल जाते हैं पर हमारा पहला उद्देश्य मंदिर में जाना था सो हम सीधे मंदिर की ओर चले गये।
पूर्णागिरी मंदिर के एकदम उलट यहां के पुजारी बेहद शांत नजर आये जिनमें दक्षिणा को लेकर कोई लालच नहीं दिखा। उनका यह व्यवहार देख कर बहुत अच्छा लगा। ऐसा कहा जाता है कि सिद्ध बाबा से जो भी कुछ मांगा जाये वो पूरा होता है। इस मंदिर में कुछ देर रुकने के बाद हम लोग बाजार की तरफ वापस आ गये। बाजार में हम लोगों के दो ग्रुप बन गये एक वो जिन्हें सामान खरीदना था दूसरा हमारा जिन्हें सिर्फ घूमना था। यहां महिलायें अपनी परंपरागत वेशभूषा में नजर आई। ज्यादातर तो नेपाली बोल रही थी पर हिन्दी भी बहुत अच्छे से बोल ले रही थी। वैसे भी यह कहा जाता है कि नेपाल और भारत में हमेशा से ही चेली-बेटी वाले संबंध रहे हैं माने की यहां की लड़कियों की शादी नेपाल में हो जाती है और नेपाल की लड़कियां बहू बन कर भारत आती है।
मुझे इस बाजार में एक एन्टीक सा दिखने वाला ताला पसंद आया जिसे मैंने अपने लिये खरीदा। दूसरे ग्रुप वालों को खरीदारी में काफी समय लग रहा था सो हमने उन्हें वापस आने का इशारा किया। इस बाजार में हमने लगभग 3 घंटे लगा दिये। अभी पैदल टनकपुर वापस जाना था और उसके बाद नैनीताल के लिये भी निकलना था सो अब थोड़ी जल्दी-जल्दी होने लगी थी। खरीदारी निपटा के हम लोग शारदा बैराज होते हुए वापस भारत की सीमा में आ गये। जहां हमारी गाड़ी हमारा इंतजार कर रही थी।
टनकपुर से लौटते हुए हम लोग पंत नगर विश्वविद्यालय भी गये। यहां भाईसाब की पहचान के कोई सज्जन थे जिन्होंने हमें विश्वविद्यालय घुमाया। समय कम होने के कारण हम यहां ज्यादा समय नहीं बिता पाये पर इस विश्वविद्यालय को देखना एक अच्छा अनुभव रहा। पंतनगर से हम बिना समय गंवाये हुए हल्द्वानी की तरफ लौट लिये पर हमारे पायलट साब की स्पीड में अभी भी कोई फर्क नहीं पड़ा था सो हमें हल्द्वानी पहुंचने में ही करीब रात के आठ बज गये। अब भूख भी सताने लगी थी और हमें से कोई भी घर जाकर खाने के बवाल में नहीं पड़ना चाहता था इसलिये रास्ते के एक रैस्टोरेंट में रुक कर खाना खाया गया।
हल्द्वानी से नैनीताल पहुंचने में हमें लगभग 11 बज गये। भाईसाब ने घर तक छोड़ने के लिये कहा पर मैंने मना कर दिया। रात का चौकीदार सीटी पे सीटी बजाये जा रहा था पर असली समस्या तो तब खड़ी हुई जब पड़ोस के सारे कुत्ते एक साथ इकट्ठा हो गये और भौंकना शुरू कर दिया। मुझे बिल्कुल समझ नहीं आया की अब क्या करूं इतनी रात को किसी का दरवाजा भी नहीं खटखटा सकती थी इसलिये जहां कुत्ते थे उसके दूसरी तरफ वाली दिवार को लांघ कर पूरी स्पीड में दौड़ लगाते हुए मैं अपने घर की पहुंच गई तब जाकर कुछ जान में जान आई और बाद में बहुत हंसी भी आई क्योंकि ऐसा कभी नहीं सोचा था कि अपने ही घर आने के लिये अपने घर की दिवार लांघनी होगी। दूसरे दिन मुझे साथ वालों ने बताया कि वो ड्राइवर रोजाना बच्चों को स्कूल लाता लेजाता है इसलिये उसकी स्पीड 20 से ऊपर नहीं बढ़ती...
समाप्त
Tuesday, October 13, 2009
मेरी पूर्णगिरी यात्रा - २
पूर्णगिरी जाने के लिये पहले टनकपुर जाना होता है। जहां हम लोगों ने रात को रुकने का प्लान किया था इसलिये कुमाऊँ मंडल विकास निगम के रैस्ट हाउस में बुकिंग करवाई थी। टनकपुर पहुंचते हुए काफी देर हो गयी थी और सर्दियों के दिन थे इसलिये कोहर भी गहराने लगा था। कुछ देर रैस्ट हाउस में बिताने के बाद हम लोग खाने की तलाश में बाजार की तरफ निकल आये। टनकपुर न तो बहुत बड़ा शहर है और न ही बहुत छोटा। यहां से नेपाल भी जाते हैं इसलिये कहा जा सकता है कि यह नेपाल और भारत के बॉर्डर वाला शहर है। यहां काफी तरह के सामान आसानी से मिल जाती हैं जिनमें इलेक्ट्रॉनिक सामान मुख्य हैं।
खाना खाने के लिये हमें एक ढाबा मिल गया। ढाबे वाले ने बोला कि उसे खाना तैयार करने में थोडा समय लगेगा क्योंकि वह खाना पहले से बना के नहीं रखता। खाना बनने तक वो हमारी टेबल में कुछ हरी मिर्च और एक-एक गिलास पानी का रख गया। हमें लगा कि यहां शायद खाने से पहले मिर्च का सलाद ही खाया जाता हो। खैर पानी और मिर्च दोनों ही वैसी की वैसी मेज में पड़ी रही। करीब आधे घंटे में वो हमारे लिये खाना लेकर आया और क्या खूब खाना लाया। हम तो बस उसकी तारीफ ही करते रहे। दिनभर की थकावट के बाद रात को ऐसा खाना नसीब होने पर हम लोग अपने को धन्य समझ रहे थे। खाना निपटाने के बाद हम वहां से लौट लिये और रास्ते से मूंगफली खरीदी। ऐसा कहा जाता है कि टनकपुर की मूंगफली बहुत ही अच्छी किस्म की होती है जो कि मूंगफली खाने पर महसूस भी हुआ।
दूसरे दिन सुबह ही हम लोग पूर्णागिरी के लिये चले गये। टनकपुर से पूर्णागिरी पहले तो पैदल ही जाते थे पर अब सड़क बन चुकी है। पर सड़क क्या है खतरनाक है। टुन्यास तक बनी ये सड़क बिल्कुल कच्ची और उबड़-खाबड़ है जिसमें हमलोग सिर्फ अगल-बगल गिरते पड़ते ही रहे। कई जगह तो ऐसा भी था कि गाड़ी जरा सा भी इधर-उधर हुई तो सीधे नीचे ही लुढ़केगी। इस रास्ते से कहीं कहीं शारदा नदी जिसे काली नदी भी कहते हैं दिख रही थी। करीब 2 ढाई घंटे में हम लोग टुन्यास पहुंच गये थे। यहां से आगे का रास्ता तो पैदल ही तय करना था। इसलिये थोड़ा सुस्ताने के बाद हम आगे बढ़ गये।
इस रास्ते में दोनों तरफ दुकानें, ढाबे और छोटे-छोटे मंदिर हैं जिस कारण इधर-उधर कुछ भी नहीं देखा जा सकता है बस सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ते जाओ। इन रास्तों में रात को रुकने के लिये धर्मशालायें भी बनी हुई है और शौचालय आदि की व्यवस्था भी है पर इसका निकासी का तरीका थोड़ा अटपटा सा लगा और गंदगी तो क्या कहने जितने तरह का कूढ़ा हो सकता था सब यहां मौजूद था। हममें से दो तीन लोगों की चलने की अच्छी प्रेक्टिस थी सो हमें चलने में परेशानी नहीं हुई पर भाईसाब, भाभी और उनकी बेटी को चलने में परेशानी हो रही थी जिस कारण हमें भी धीरे-धीरे चलना पड़ रहा था। धीरे-धीरे चलने से पैरों में दर्द सा होने लगता है पर साथ में थे तो और कुछ कर भी नहीं सकते थे।
करीब 3 घंटे चलने के बाद हम लोग उस स्थान में पहुंच गये जहां से पूर्णागिरी मां का दरबार शुरू होता है। पूर्णागिरी के बारे में मान्यता है कि शिव जब सती के मृत शरीर को ले जा रहे थे उस समय सती की नाभी इस स्थान में गिरी थी। इसके आगे भी काफी पैदल चलना होता है पर यहां जूता चप्पल ले जाना मना है। हमने यहीं एक दुकान से पूजा का सामान खरीदा, वहीं जूते चप्पल रखवा दिये और मंदिर की ओर निकल गये। इस रास्ते को दो भागों में बांटा गया है। एक आने के लिये दूसरा जाने के लिये। हालांकि यह रास्ता सींमेंट से बनाया है पर पता नहीं क्यों इसमें कंकड़ बिछाये हैं जो पैरों में चुभते हैं पर ज्यादा परेशान नहीं करते। यहां से इधर-उधर का इलाका भी देखा जा सकता है पर इस रास्ते से कहीं भी शारदा नदी नजर नहीं आयी।
जब हम मंदिर के नजदीक पहुंचे तो मंदिर के पीछे वाली पहाड़ी में कूढ़े का ढेर देख कर दंग रह गये। समझ नहीं आया कि आखिर लोग सफाई क्यों नहीं करते। मंदिर में थोड़ी भीड़ थी पर नंबर जल्दी आ गया। जैसे ही हम पंडित के सामने गये उसने बाजार की जैसी बोली लगानी शुरू कर दी। 1001 का, 501 का या 101 का पाठ। उससे कम में किसी की पूजा नहीं होगी। मुझे कुछ समझ ही नहीं आया कि ये क्या तमाशा है। भगवान तो श्रृद्धा से खुश हो जाते हैं पर ये पंडित...। जो लोग 101 रुपय से कम दक्षिणा चढ़ा रहे थे उन्हें तो पुजारी देख भी नहीं रहे थे। इतनी आस्था और विश्वास के साथ लोग यहां आते हैं पर इन पुजारियों के व्यवहार के कारण उन्हें कितना अपमानित होना पड़ता है। मैंने तो पूजा करने से ही मना कर दिया पर साथ वालों ने पूजा करवायी थी इसलिये पंडित मुझे कुछ नहीं कह पाया। दर्शन करने के बाद मन और ज्यादा बेचैन हो उठा था। मंदिर से बाहर निकलने पर जिसने मन को शांत किया वो था मंदिर से शारदा नदी का विहंगम दृश्य। बिल्कुल सांप की तरह बहती हुई शारदा बहुत अच्छी लग रही थी पर क्योंकि हल्की सी परत कोहरे की अभी भी छाई हुई थी इसलिये बहुत साफ नजारा नहीं दिखाई दिया पर इस दृश्य ने सारे गुस्से को जैसे अपने में सोख लिया।
जारी....
Friday, October 9, 2009
मेरी पूर्णागिरी यात्रा - 1
जैसा कि हमेशा ही मेरे साथ होता है कि कहीं भी जाने की प्लान अचानक ही बना जाता है मेरी पूर्णागिरी यात्रा का भी कुछ ऐसा ही रहा। शाम को अचानक ही नैनीताल में रहने वाले मेरे एक भाईसाब का फोन आया कि - विन्नी हम लोग कल सुबह पूर्णागिरी जा रहे हैं। तू भी चलती है ? अब घूमने को मिले और मैं ना कह दूं ये तो संभव ही नहीं है इसलिये हां ही कह दिया और छुट्टी का जुगाड़ करके जाने की तैयारी की।
हम लोगों को सुबह 5.30 बजे नैनीताल से निकल जाना था। जनवरी का महीना था अच्छी खासी सर्दी थी और काफी अंधेरा भी। ऐसे में सुबह जल्दी उठना सबसे मुश्किल काम है पर मैं समय से उठ कर तैयार हो गयी। बाहर काफी गहरा अंधेरा था इसलिये भाईसाब मुझे लेने के लिये घर के पास आ गये थे सो उनके साथ मैं उस जगह चली गयी जहां सबने इकट्ठा होना था। हमारे साथ में भाईसाब, भाभी, उनकी एक बेटी और उनके दो मित्र भी थे जो सब मेरे अच्छे परिचित थे इसलिये ज्यादा कोई परेशानी नहीं थी। हालांकी हमें निकल तो 5.30 बजे जाना था पर हमारे साथ के एक सज्जन को तैयार होने में कुछ ज्यादा ही वक्त लग गया जिस कारण हम लोग 6 बजे नैनीताल से पाये।
हमने जो टैक्सी की थी उसका ड्राइवर भी मशा अल्ला था। उस भाई ने गाड़ी की स्पीड 18-19 से आगे बढ़ाई ही नहीं। हम लोगों को ये महसूस हुआ कि हल्द्वानी का रास्ता कुछ ज्यादा ही लम्बा हो रहा है तो मेरी नजर मीटर पर पड़ी, देखा तो स्पीड 18-19 की थी। पहले मुझे लगा कि शायद मैं कुछ गलत देख रही हूं पर जब पीछे से भाईसाब ने भी ड्राइवर से कहा - यार मुझे भी गाड़ी चलानी आती है अगर तुम्हें परेशानी हो रही है तो मैं चला लूं। तब लगा की मैं ठीक ही देख रही थी।
जैसे-तैसे करते हुए हल्द्वानी तो पहुंच गये। हल्द्वानी से हमने उधमसिंह नगर पहुंचने के लिये जो रास्ता पकड़ना था उस रास्ते का तो मालिक सिर्फ और सिर्फ भगवान ही हो सकता है क्योंकि ये पता ही नहीं चल रहा था कि रास्ते में गड्ढे हैं या गडढों में रास्ता। हम गाड़ी के पायलट साब जब हाइवे में 18-19 की स्पीड से जा रहे थे तो इस सड़क में तो उनकी स्पीड का क्या हाल हुआ होगा वो तो समझा ही जा सकता है। बहरहाल आजकल सर्दियों का मौसम था और खेतों में दूर-दूर तक सरसों फैली हुई दिख रही थी जिसे देखना बेहद सुकुनदायक अहसास था। गडढों वाली सड़क में धक्के खाते-खाते और अपनी बातें करते हुए हम लोग आगे बढ़ रहे थे। बीच के तराई भाभर वाले इलाके में सर्दी के मौसम में भी अजीब सी उमस भरी गर्मी का अहसास था। मैं आगे बैठी हुई थी और मेरे साथ भाईसाब की बेटी थी पर वो अपने आईपॉड में गाने सुनने में ही व्यस्त थी सो मुझे थोड़ा बेचेनी भी हो रही थी क्योंकि मुझे रास्ते में दिखने वाली हर चीज के बारे में बातें करना अच्छा लगता है और वैसे भी यात्रा के दौरान हैडफोन लगाके संगीत सुुनना या किताब पढ़ना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है। इसलिये मुझे बातें करने के लिये बार-बार पीछे मुढ़ते रहना पड़ रहा था।
हल्द्वानी से हम लालकुंआ, किच्छा होते हुए नानकमत्ता पहुंच गये। अब मौसम में गर्माहट बढ़ने लगी थी और थोड़ा उमस वाला मौसम भी होने लगा था। ड्राइवर ने स्पीड थोड़ा बढ़ा जरूर दी थी पर ज्यादा फर्क नहीं पड़ा था। उस पर से यह सड़क इतनी खस्ता हाल कि धक्कों से हाल बेहाल हो गया। दोपहर 12 बजे हम लोग नानकसागर के सामने थे। हमारी नजरों के सामने विशाल नानकसागर फैला हुआ था। मैं काफी देर तक में खड़े होकर अपनी नजरों के सामने फैले अथाह सागर को देखती रही और कुछ देर बाद सागर के किनारे जा कर पानी में पैर डाल के बैठ गई। इस समय यहां पर सभी लोग अपनी रोजना की दिनचर्या में व्यस्त थे। हम लोगों ने यह फैसला किया हुआ था कि यहीं से हम नानकमत्ता गुरुद्वारा भी जायेंगे और कुछ समय वहां बिताने के बाद आगे बढ़ेंगे।
नानकमत्ता गुरूद्वारा में जाना एक अच्छा अनुभव रहा। हमें सर ढकने के लिये कपड़े गुरूद्वारे के बाहर से मिल गये। जिन्हें सर में बांध के हम लोग अंदर चले गये। गुरुद्वारे के अंदर जो शांति महसूस हुई उससे हमारी अभी तक की यात्रा की सारी थकावट गायब होती रही। इस गुरूद्वारे के अंदर के छोटा सा तालाब भी है।
कहा जाता है कि अपनी यात्रा के दौरान गुरु नानक साहब इस स्थान में पहुंचे थे पर यहाँ के कुछ लोगों को उनका आना अच्छा नहीं लगा और उन्होंने तरह-तरह से नानक साहब को तंग करने लगे। जिस पीपल के पेड़ के नीचे नानक साहब आराम कर रहे थे उन लोगों ने उस पेड़ को भी हिलाना शुरू कर दिया जिससे उसकी जड़ें भी बाहर निकल गई परंतु गुरू नानक देव ने अपने जब अपना हाथ पेड़ की जड़ों पर लगाया तो पेड़ उसके बाद हिलना बंद हो गया। उन लोगों ने उसके बाद पेड़ में आग लगा दी गई जिसे नानक साहब ने केसर के छींटों से बुझा दिया। इस पेड़ की जड़ें आज भी बाहर की तरफ हैं और पत्तों में केशर के निशान भी देखे जा सकते हैं।
यहां पर हम लोगों ने काफी अच्छा समय बिताया प्रसाद लिया और पूर्णागिरी की तरफ बढ़ गये।
जारी....
हम लोगों को सुबह 5.30 बजे नैनीताल से निकल जाना था। जनवरी का महीना था अच्छी खासी सर्दी थी और काफी अंधेरा भी। ऐसे में सुबह जल्दी उठना सबसे मुश्किल काम है पर मैं समय से उठ कर तैयार हो गयी। बाहर काफी गहरा अंधेरा था इसलिये भाईसाब मुझे लेने के लिये घर के पास आ गये थे सो उनके साथ मैं उस जगह चली गयी जहां सबने इकट्ठा होना था। हमारे साथ में भाईसाब, भाभी, उनकी एक बेटी और उनके दो मित्र भी थे जो सब मेरे अच्छे परिचित थे इसलिये ज्यादा कोई परेशानी नहीं थी। हालांकी हमें निकल तो 5.30 बजे जाना था पर हमारे साथ के एक सज्जन को तैयार होने में कुछ ज्यादा ही वक्त लग गया जिस कारण हम लोग 6 बजे नैनीताल से पाये।
हमने जो टैक्सी की थी उसका ड्राइवर भी मशा अल्ला था। उस भाई ने गाड़ी की स्पीड 18-19 से आगे बढ़ाई ही नहीं। हम लोगों को ये महसूस हुआ कि हल्द्वानी का रास्ता कुछ ज्यादा ही लम्बा हो रहा है तो मेरी नजर मीटर पर पड़ी, देखा तो स्पीड 18-19 की थी। पहले मुझे लगा कि शायद मैं कुछ गलत देख रही हूं पर जब पीछे से भाईसाब ने भी ड्राइवर से कहा - यार मुझे भी गाड़ी चलानी आती है अगर तुम्हें परेशानी हो रही है तो मैं चला लूं। तब लगा की मैं ठीक ही देख रही थी।
जैसे-तैसे करते हुए हल्द्वानी तो पहुंच गये। हल्द्वानी से हमने उधमसिंह नगर पहुंचने के लिये जो रास्ता पकड़ना था उस रास्ते का तो मालिक सिर्फ और सिर्फ भगवान ही हो सकता है क्योंकि ये पता ही नहीं चल रहा था कि रास्ते में गड्ढे हैं या गडढों में रास्ता। हम गाड़ी के पायलट साब जब हाइवे में 18-19 की स्पीड से जा रहे थे तो इस सड़क में तो उनकी स्पीड का क्या हाल हुआ होगा वो तो समझा ही जा सकता है। बहरहाल आजकल सर्दियों का मौसम था और खेतों में दूर-दूर तक सरसों फैली हुई दिख रही थी जिसे देखना बेहद सुकुनदायक अहसास था। गडढों वाली सड़क में धक्के खाते-खाते और अपनी बातें करते हुए हम लोग आगे बढ़ रहे थे। बीच के तराई भाभर वाले इलाके में सर्दी के मौसम में भी अजीब सी उमस भरी गर्मी का अहसास था। मैं आगे बैठी हुई थी और मेरे साथ भाईसाब की बेटी थी पर वो अपने आईपॉड में गाने सुनने में ही व्यस्त थी सो मुझे थोड़ा बेचेनी भी हो रही थी क्योंकि मुझे रास्ते में दिखने वाली हर चीज के बारे में बातें करना अच्छा लगता है और वैसे भी यात्रा के दौरान हैडफोन लगाके संगीत सुुनना या किताब पढ़ना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है। इसलिये मुझे बातें करने के लिये बार-बार पीछे मुढ़ते रहना पड़ रहा था।
हल्द्वानी से हम लालकुंआ, किच्छा होते हुए नानकमत्ता पहुंच गये। अब मौसम में गर्माहट बढ़ने लगी थी और थोड़ा उमस वाला मौसम भी होने लगा था। ड्राइवर ने स्पीड थोड़ा बढ़ा जरूर दी थी पर ज्यादा फर्क नहीं पड़ा था। उस पर से यह सड़क इतनी खस्ता हाल कि धक्कों से हाल बेहाल हो गया। दोपहर 12 बजे हम लोग नानकसागर के सामने थे। हमारी नजरों के सामने विशाल नानकसागर फैला हुआ था। मैं काफी देर तक में खड़े होकर अपनी नजरों के सामने फैले अथाह सागर को देखती रही और कुछ देर बाद सागर के किनारे जा कर पानी में पैर डाल के बैठ गई। इस समय यहां पर सभी लोग अपनी रोजना की दिनचर्या में व्यस्त थे। हम लोगों ने यह फैसला किया हुआ था कि यहीं से हम नानकमत्ता गुरुद्वारा भी जायेंगे और कुछ समय वहां बिताने के बाद आगे बढ़ेंगे।
नानकमत्ता गुरूद्वारा में जाना एक अच्छा अनुभव रहा। हमें सर ढकने के लिये कपड़े गुरूद्वारे के बाहर से मिल गये। जिन्हें सर में बांध के हम लोग अंदर चले गये। गुरुद्वारे के अंदर जो शांति महसूस हुई उससे हमारी अभी तक की यात्रा की सारी थकावट गायब होती रही। इस गुरूद्वारे के अंदर के छोटा सा तालाब भी है।
कहा जाता है कि अपनी यात्रा के दौरान गुरु नानक साहब इस स्थान में पहुंचे थे पर यहाँ के कुछ लोगों को उनका आना अच्छा नहीं लगा और उन्होंने तरह-तरह से नानक साहब को तंग करने लगे। जिस पीपल के पेड़ के नीचे नानक साहब आराम कर रहे थे उन लोगों ने उस पेड़ को भी हिलाना शुरू कर दिया जिससे उसकी जड़ें भी बाहर निकल गई परंतु गुरू नानक देव ने अपने जब अपना हाथ पेड़ की जड़ों पर लगाया तो पेड़ उसके बाद हिलना बंद हो गया। उन लोगों ने उसके बाद पेड़ में आग लगा दी गई जिसे नानक साहब ने केसर के छींटों से बुझा दिया। इस पेड़ की जड़ें आज भी बाहर की तरफ हैं और पत्तों में केशर के निशान भी देखे जा सकते हैं।
यहां पर हम लोगों ने काफी अच्छा समय बिताया प्रसाद लिया और पूर्णागिरी की तरफ बढ़ गये।
जारी....
Tuesday, October 6, 2009
नैनीताल की दुर्गा पूजा और रावण दहन की कुछ तस्वीरें - 2009
मां दुर्गा की प्रतिमायें मंदिर में दर्शनों के लिये
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विसर्जन से पहले शहर में मां दुर्गा के डोले को घुमाते हुए
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रामलीला के पात्रों की झांकियां : रावण और उसकी सेना
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रावण, कुम्भकरण और मेघनाथ के पुतलों का दहन
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