जैसा कि हमेशा ही मेरे साथ होता है कि कहीं भी जाने की प्लान अचानक ही बना जाता है मेरी पूर्णागिरी यात्रा का भी कुछ ऐसा ही रहा। शाम को अचानक ही नैनीताल में रहने वाले मेरे एक भाईसाब का फोन आया कि - विन्नी हम लोग कल सुबह पूर्णागिरी जा रहे हैं। तू भी चलती है ? अब घूमने को मिले और मैं ना कह दूं ये तो संभव ही नहीं है इसलिये हां ही कह दिया और छुट्टी का जुगाड़ करके जाने की तैयारी की।
हम लोगों को सुबह 5.30 बजे नैनीताल से निकल जाना था। जनवरी का महीना था अच्छी खासी सर्दी थी और काफी अंधेरा भी। ऐसे में सुबह जल्दी उठना सबसे मुश्किल काम है पर मैं समय से उठ कर तैयार हो गयी। बाहर काफी गहरा अंधेरा था इसलिये भाईसाब मुझे लेने के लिये घर के पास आ गये थे सो उनके साथ मैं उस जगह चली गयी जहां सबने इकट्ठा होना था। हमारे साथ में भाईसाब, भाभी, उनकी एक बेटी और उनके दो मित्र भी थे जो सब मेरे अच्छे परिचित थे इसलिये ज्यादा कोई परेशानी नहीं थी। हालांकी हमें निकल तो 5.30 बजे जाना था पर हमारे साथ के एक सज्जन को तैयार होने में कुछ ज्यादा ही वक्त लग गया जिस कारण हम लोग 6 बजे नैनीताल से पाये।
हमने जो टैक्सी की थी उसका ड्राइवर भी मशा अल्ला था। उस भाई ने गाड़ी की स्पीड 18-19 से आगे बढ़ाई ही नहीं। हम लोगों को ये महसूस हुआ कि हल्द्वानी का रास्ता कुछ ज्यादा ही लम्बा हो रहा है तो मेरी नजर मीटर पर पड़ी, देखा तो स्पीड 18-19 की थी। पहले मुझे लगा कि शायद मैं कुछ गलत देख रही हूं पर जब पीछे से भाईसाब ने भी ड्राइवर से कहा - यार मुझे भी गाड़ी चलानी आती है अगर तुम्हें परेशानी हो रही है तो मैं चला लूं। तब लगा की मैं ठीक ही देख रही थी।
जैसे-तैसे करते हुए हल्द्वानी तो पहुंच गये। हल्द्वानी से हमने उधमसिंह नगर पहुंचने के लिये जो रास्ता पकड़ना था उस रास्ते का तो मालिक सिर्फ और सिर्फ भगवान ही हो सकता है क्योंकि ये पता ही नहीं चल रहा था कि रास्ते में गड्ढे हैं या गडढों में रास्ता। हम गाड़ी के पायलट साब जब हाइवे में 18-19 की स्पीड से जा रहे थे तो इस सड़क में तो उनकी स्पीड का क्या हाल हुआ होगा वो तो समझा ही जा सकता है। बहरहाल आजकल सर्दियों का मौसम था और खेतों में दूर-दूर तक सरसों फैली हुई दिख रही थी जिसे देखना बेहद सुकुनदायक अहसास था। गडढों वाली सड़क में धक्के खाते-खाते और अपनी बातें करते हुए हम लोग आगे बढ़ रहे थे। बीच के तराई भाभर वाले इलाके में सर्दी के मौसम में भी अजीब सी उमस भरी गर्मी का अहसास था। मैं आगे बैठी हुई थी और मेरे साथ भाईसाब की बेटी थी पर वो अपने आईपॉड में गाने सुनने में ही व्यस्त थी सो मुझे थोड़ा बेचेनी भी हो रही थी क्योंकि मुझे रास्ते में दिखने वाली हर चीज के बारे में बातें करना अच्छा लगता है और वैसे भी यात्रा के दौरान हैडफोन लगाके संगीत सुुनना या किताब पढ़ना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है। इसलिये मुझे बातें करने के लिये बार-बार पीछे मुढ़ते रहना पड़ रहा था।
हल्द्वानी से हम लालकुंआ, किच्छा होते हुए नानकमत्ता पहुंच गये। अब मौसम में गर्माहट बढ़ने लगी थी और थोड़ा उमस वाला मौसम भी होने लगा था। ड्राइवर ने स्पीड थोड़ा बढ़ा जरूर दी थी पर ज्यादा फर्क नहीं पड़ा था। उस पर से यह सड़क इतनी खस्ता हाल कि धक्कों से हाल बेहाल हो गया। दोपहर 12 बजे हम लोग नानकसागर के सामने थे। हमारी नजरों के सामने विशाल नानकसागर फैला हुआ था। मैं काफी देर तक में खड़े होकर अपनी नजरों के सामने फैले अथाह सागर को देखती रही और कुछ देर बाद सागर के किनारे जा कर पानी में पैर डाल के बैठ गई। इस समय यहां पर सभी लोग अपनी रोजना की दिनचर्या में व्यस्त थे। हम लोगों ने यह फैसला किया हुआ था कि यहीं से हम नानकमत्ता गुरुद्वारा भी जायेंगे और कुछ समय वहां बिताने के बाद आगे बढ़ेंगे।
नानकमत्ता गुरूद्वारा में जाना एक अच्छा अनुभव रहा। हमें सर ढकने के लिये कपड़े गुरूद्वारे के बाहर से मिल गये। जिन्हें सर में बांध के हम लोग अंदर चले गये। गुरुद्वारे के अंदर जो शांति महसूस हुई उससे हमारी अभी तक की यात्रा की सारी थकावट गायब होती रही। इस गुरूद्वारे के अंदर के छोटा सा तालाब भी है।
कहा जाता है कि अपनी यात्रा के दौरान गुरु नानक साहब इस स्थान में पहुंचे थे पर यहाँ के कुछ लोगों को उनका आना अच्छा नहीं लगा और उन्होंने तरह-तरह से नानक साहब को तंग करने लगे। जिस पीपल के पेड़ के नीचे नानक साहब आराम कर रहे थे उन लोगों ने उस पेड़ को भी हिलाना शुरू कर दिया जिससे उसकी जड़ें भी बाहर निकल गई परंतु गुरू नानक देव ने अपने जब अपना हाथ पेड़ की जड़ों पर लगाया तो पेड़ उसके बाद हिलना बंद हो गया। उन लोगों ने उसके बाद पेड़ में आग लगा दी गई जिसे नानक साहब ने केसर के छींटों से बुझा दिया। इस पेड़ की जड़ें आज भी बाहर की तरफ हैं और पत्तों में केशर के निशान भी देखे जा सकते हैं।
यहां पर हम लोगों ने काफी अच्छा समय बिताया प्रसाद लिया और पूर्णागिरी की तरफ बढ़ गये।
जारी....
nice journey, nice description... looking forward for your next post
ReplyDeleteHappy Blogging :)
नानक सागर देख कर आँखों को ठंडक मिल गयी..वाह...
ReplyDeleteनीरज
कुछ अधुरा अधुरा सा छूट रहा है। पूर्णागिरी पहुंचाओ न।
ReplyDelete@''यात्रा के दौरान हैडफोन लगाके संगीत सुुनना या किताब पढ़ना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है। इसलिये मुझे बातें करने के लिये बार-बार पीछे मुढ़ते रहना पड़ रहा था।''
ReplyDeleteI agree ! same here !
achhi jankaripurn yatra vritant
ReplyDeleteaap ke sath is yatra mai achha lag raha hai. agli post ka intzaar rahega.
ReplyDeleteNamaskar Vinita ji,
ReplyDeleteMere liye Acchi jankari nahi thi
ab aap poocheinge ki kyoun ? Kyunki ye sab to jiya hai ji...
...to dobara kahoonga ki acchi jaankari nahi thi balki usse bhi badhkar ek nostalgic post thi mere liye...
"हल्द्वानी से हमने उधमसिंह नगर पहुंचने के लिये जो रास्ता पकड़ना था उस रास्ते का तो मालिक सिर्फ और सिर्फ भगवान ही हो सकता है क्योंकि ये पता ही नहीं चल रहा था कि रास्ते में गड्ढे हैं या गडढों में रास्ता। "
Uffffffff.... !!
aap bus yun hi poorani yaadein taaza karte rahiye.
Poornagir wali post (jaari) ka palak pawdein bichakar intzaar !!
Pelag.
विनीता एक बार फिर सुन्दर पोस्ट बस अब मेरा मन तुम्हारे साथ यात्रा करने का हो रहा है अगली बार मुझे भी साथ ले कर जाना। बहुत सुन्दर वर्णन है आशीर्वाद अगली यात्रा का इन्तज़ार रहेगा।
ReplyDeleteसुन्दर post है ......... जैसे सब कुछ आँखों से saamne से guzar रहा है ........
ReplyDeleteमाफी चाहूँगा, आज आपकी रचना पर कोई कमेन्ट नहीं, सिर्फ एक निवेदन करने आया हूँ. आशा है, हालात को समझेंगे. ब्लागिंग को बचाने के लिए कृपया इस मुहिम में सहयोग दें.
ReplyDeleteक्या ब्लागिंग को बचाने के लिए कानून का सहारा लेना होगा?
आपके लिखे लफ्जों के साथ हमारा भी घूमना हो जाता है नानकमत्ता के चित्र देख कर बहुत अच्छा लगा ..
ReplyDeleteआपका संस्मरण ज्ञानवर्धक रहा।
ReplyDeleteबधाई।
यह एक महत्वपूर्ण यात्रा वृत्तांत बन पड़ा है. आभार.
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