करीब 4.30 बजे हम लोग ट्रेकिंग के लिये निकल गये। समय कम होने के कारण हमने थोड़ा रास्ता गाड़ी से तय किया। उसके बाद करीब 7-8 किमी. ट्रेकिंग की। हम जैसे ही थोड़ा आगे बढ़े कि सुनकड़िया गांव आया। यहां आते ही गांव की गंध आने लगी। हालांकि अब गांवों में शहरीपन का असर बढ़ने लगा है पर फिर भी थोड़े बहुत गंाव अभी बचे हुए हैं। देखने में गांव छोटा था पर मकान काफी अच्छे बने हुए थे। हमारा आगे का रास्ता एक घर से होकर जाता था इसलिये हम उसे घर की तरफ बढ़ गये। घर के बाहर गाय-भैंसे बंधे हुए थे और महिलायें खेतों में काम कर रही थी। एक बच्चा कटोरे में कुछ खा रहा था और हमें देख कर घर के अंदर भाग गया और एक कुत्ते ने जोरों से भोंकना शुरू कर दिया। खुशकिस्मिती से एक महिला आयी, जिसकी पोशाक बिल्कुल पहाड़ी थी और उसके सिर में एक कपड़ा बंधा था। उसने पहाड़ी भाषा में बोला जो मैं नहीं समझी। पिथौरागढ़ में काली कुमाउं बोली जाती है जो बांकी कुमाउंनी भाषा से थोड़ी अलग और कठिन होती है। खैर उसने कुत्ते को बांध दिया और हम आगे निकल गये।
आजकल खेतों में सरसों खिली हुई थी और कुछ मौसमी सब्जियां लगी थी। गांव में एक मंदिर भी था जो यहां के ईष्ट देव का था। अब धीरे-धीरे गांव पीछे छूटता जा रहा था। कुछ आगे पहुंचने पर एक बौद्ध मठ दिखायी दिया। लाल रंग और अच्छे आर्किटेक्ट के कारण दूर से ही नजर आ रहा था, और उसके बैकग्राउंड में हिमालय की चोटियां उसे ज्यादा आकर्षक बना रही थी।
धीरे-धीरे हम ऊंचाई की ओर बढ़ने लगे थे और पिथौरागढ़ नीचे होता जा रहा था। जब हम थोड़ा आगे बढ़े थे कि एक बंद पड़ी मैग्निज फैक्ट्री को दिखाते हुए नवल दा ने मुझे बताया कि - इस फैक्ट्री से यहां काफी अच्छा काम हुआ। पिथौरागढ़ में इसका होना यहां के विकास के लिये बेहद मददगार था पर स्थानीय राजनीति का शिकार हो गयी। इसका मालिक इतने कर्जे में आ गया कि अंत में उसे फैक्ट्री बंद करनी पड़ी और अब ये खंडहर बन कर रह गयी है।
इस रास्ते में पत्थरों के ऊपर कुछ इस तरह का आकृतियां बनी हुई थी जो बेहद कलात्मक लग रही थी। एक पत्थर के ऊपर मगरमच्छ की खाल जैसे निशान बने थे। हम धीरे-धीरे जंगल की ओर बढ़ते जा रहे थे। जब मैंने कहा कि - जंगल काफी घना है तो साथ वालों ने कहा - अभी असली जंगल तो आया ही नहीं है। यह तो चीड़ का जंगल है जब आगे बढ़ेंगे तब देखना कैसा होता है। हम लोग अपनी बातों के साथ रास्ते में आगे बढ़ ही रहे थे कि मेरे एक दोस्त ने मुझे भृगु पर्वत दिखाया। जिसका नाम भृगु महाराज के नाम पर पड़ा है।
जब हम इस रास्ते में काफी आगे पहुंचे तो अचानक जंगल इतना घना हो गया कि उसके अंदर बिल्कुल अंधेरा हो गया और ठंडी बहुत ही ज्यादा बढ़ गयी थी। यह देवदार का जंगल था। इस जंगल में भालू भी हैं पर किस्मत से वो हमें दिखायी नहीं दिये। इस रास्ते में हम काफी चलने के बाद हम अपने पाइंट पर पहुंच गये जिसका नाम ह्यूंपाणी था। कुमाउंनी में ‘ह्यू’ का मतलब बर्फ और ‘पाणी’ का माने पानी होता है। इस जगह का मतलब हुआ बर्फ का पानी। इसलिये ही यहां पर इतनी ज्यादा ठंडी भी थी। खैर इस समय सूर्यास्त होने लगा था इसलिये यहां पर रुके बगैर हम वापस लौट लिये। हम सभी अच्छे ट्रैकर हैं इसलिये बिना किसी परेशानी के अच्छा खासा लम्बा रास्ता आसानी से तय कर लिया।
वापस लौटने के बाद मैं फिर अपने दोस्त की दुकान पर चली गयी। शाम के समय बाजार में सन्नाटा पसरने लगा था। कुछ लोग ठंडी से बचने के लिये बाजार का पूरा कूड़ा इकट्ठा कर उसे जला रहे थे। हम भी कुछ बाजार की ओर निकल गये। मेरा दोस्त मुझे एक नमकीन की दुकान में ले गया। उसने बताया - यहां की मडुवे (कोदो) की नमकीन बहुत प्रसिद्ध हैं। मैंने वहां से अपने लिये कुछ नमकीन ली और फिर पिथौरागढ़ के माॅल में चले गये। लौटते हुए एक पान की दुकान दिख गयी तो मीठा पान भी खाना ही पड़ा। हालांकि पहले हम दोनों शर्त लगाने वाले थे कि कौन कितने पान खा सकता है पर फिर इरादा छोड़ दिया। उसके बाद मैं होटल वापस आ गयी। कल सुबह 4.45 पर मुझे नैनीताल के लिये वापस निकलना था। हालांकि मैं दिल से वहां कुछ समय और रुकना चाहती थी पर...
अगली सुबह कैब वाले ने होटल के बाहर से मुझे फोन कर दिया। मैं कैब की ओर चली गयी। कैब में कुछ लोग बैठे थे और दो लोग मेरे पहुंचने के बाद आये। जिसके बाद हम निकल गये। इस समय घुप्प अंधेरा था और अच्छी खासी ठंडी भी पड़ रही थी। जब अचानक ठंडी का अहसास हुआ तो मैंने देखा ड्राइवर ने खिड़की खोली है। उसने कहा - शीेशे में बार-बार भाप बन रही है इसलिये। इतनी ही देर में पीछे बैठी एक महिला ने भी उल्टियां करना शुरू कर दिया। मैं तो ठंडी से बेहाल हो गयी और ड्राइवर को बोला - गाड़ी में वाइपर अंदर की तरफ से क्यों नहीं होते हैं ? इतने में पीछे बैठे एक सज्जन ने कहा - वाइपर तो अंदर हो जायेंगे पर उल्टियों का क्या होगा। दूसरे सज्जन ने कहा - दवाइ खा लेनी चाहिये। तीसरे ने कहा - बीयर पीने से भी उल्टी नहीं होती। सबसे मजेदार ड्राइवर का आइडिया था, जिसे याद करके अभी तक हंसी आती है, वो बोला - अखबार के ऊपर बैठना चाहिये। खैर जो भी था हमें ठंड खानी थी सो खायी...
जब हम घाट पहुंचे वहां कैब की चैकिंग हुई। जो चैक करने के लिये आये उनकी नजर सीधे मेरे बैग पर पड़ी और बोले - ये नीला बैग किसका है ? खोल के दिखाओ। ड्राइवर ने बोला - पत्रकार मैम का है और मजे से मेरा ट्राइपाॅड पकड़ के भी उनके हाथ में रख दिया। मैं कुढ़ती हुई बाहर निकली, बैग दिखाया फिर चिढ़ते हुए उनसे पूछ भी लिया - आपने मेरा बैग ही क्यों देखा ? वो बोला - क्योंकि आपका बैग बहुत अच्छे स्टैंडर्ड का लग रहा था इसलिये। खैर मुझे चैकिंग से चिढ़ नहीं थी पर उस ठंडी मैं बाहर आना...उफ। अब हल्का सा उजाला होने लगा था। मुझे एक भेड़ों का बड़ा झुंड दिखायी दिया। ड्राइवर ने बताया - ये खानाबदोश हैं जो ठंडी में मुनस्यारी से गर्म जगहों की तरफ जाते हैं और गर्मियों में पहाड़ों में वापस आते हैं। ये पूरा रास्ता पैदल तय करते हैं और बीच-बीच में रूक कर आराम करते हैं। इनके पूरे झुड मैं दो-तीन कुत्ते भी रहते हैं जो हमेशा इनके साथ ही चलते हैं और कुछ खच्चर होते हैं जिनमें ये अपना सामान रखते हैं। मैंने इनके बारे में सुना था पर देखा आज पहली बार।
करीब 9.15 पर हम अल्मोड़ा पहुंच गये। वहां पहुंचने पर पता चला कि सिलेंडर का ट्रक रास्ते में पलट गया है इसलिये स्टेशन जाना मुश्किल है। खैर थोड़ा पैदल चल कर मैंने नैनीताल के लिये दूसरी टैक्सी की और करीब 11.15 पर मैं नैनीताल पहुंच गयी...
समाप्त
आजकल खेतों में सरसों खिली हुई थी और कुछ मौसमी सब्जियां लगी थी। गांव में एक मंदिर भी था जो यहां के ईष्ट देव का था। अब धीरे-धीरे गांव पीछे छूटता जा रहा था। कुछ आगे पहुंचने पर एक बौद्ध मठ दिखायी दिया। लाल रंग और अच्छे आर्किटेक्ट के कारण दूर से ही नजर आ रहा था, और उसके बैकग्राउंड में हिमालय की चोटियां उसे ज्यादा आकर्षक बना रही थी।
धीरे-धीरे हम ऊंचाई की ओर बढ़ने लगे थे और पिथौरागढ़ नीचे होता जा रहा था। जब हम थोड़ा आगे बढ़े थे कि एक बंद पड़ी मैग्निज फैक्ट्री को दिखाते हुए नवल दा ने मुझे बताया कि - इस फैक्ट्री से यहां काफी अच्छा काम हुआ। पिथौरागढ़ में इसका होना यहां के विकास के लिये बेहद मददगार था पर स्थानीय राजनीति का शिकार हो गयी। इसका मालिक इतने कर्जे में आ गया कि अंत में उसे फैक्ट्री बंद करनी पड़ी और अब ये खंडहर बन कर रह गयी है।
इस रास्ते में पत्थरों के ऊपर कुछ इस तरह का आकृतियां बनी हुई थी जो बेहद कलात्मक लग रही थी। एक पत्थर के ऊपर मगरमच्छ की खाल जैसे निशान बने थे। हम धीरे-धीरे जंगल की ओर बढ़ते जा रहे थे। जब मैंने कहा कि - जंगल काफी घना है तो साथ वालों ने कहा - अभी असली जंगल तो आया ही नहीं है। यह तो चीड़ का जंगल है जब आगे बढ़ेंगे तब देखना कैसा होता है। हम लोग अपनी बातों के साथ रास्ते में आगे बढ़ ही रहे थे कि मेरे एक दोस्त ने मुझे भृगु पर्वत दिखाया। जिसका नाम भृगु महाराज के नाम पर पड़ा है।
जब हम इस रास्ते में काफी आगे पहुंचे तो अचानक जंगल इतना घना हो गया कि उसके अंदर बिल्कुल अंधेरा हो गया और ठंडी बहुत ही ज्यादा बढ़ गयी थी। यह देवदार का जंगल था। इस जंगल में भालू भी हैं पर किस्मत से वो हमें दिखायी नहीं दिये। इस रास्ते में हम काफी चलने के बाद हम अपने पाइंट पर पहुंच गये जिसका नाम ह्यूंपाणी था। कुमाउंनी में ‘ह्यू’ का मतलब बर्फ और ‘पाणी’ का माने पानी होता है। इस जगह का मतलब हुआ बर्फ का पानी। इसलिये ही यहां पर इतनी ज्यादा ठंडी भी थी। खैर इस समय सूर्यास्त होने लगा था इसलिये यहां पर रुके बगैर हम वापस लौट लिये। हम सभी अच्छे ट्रैकर हैं इसलिये बिना किसी परेशानी के अच्छा खासा लम्बा रास्ता आसानी से तय कर लिया।
वापस लौटने के बाद मैं फिर अपने दोस्त की दुकान पर चली गयी। शाम के समय बाजार में सन्नाटा पसरने लगा था। कुछ लोग ठंडी से बचने के लिये बाजार का पूरा कूड़ा इकट्ठा कर उसे जला रहे थे। हम भी कुछ बाजार की ओर निकल गये। मेरा दोस्त मुझे एक नमकीन की दुकान में ले गया। उसने बताया - यहां की मडुवे (कोदो) की नमकीन बहुत प्रसिद्ध हैं। मैंने वहां से अपने लिये कुछ नमकीन ली और फिर पिथौरागढ़ के माॅल में चले गये। लौटते हुए एक पान की दुकान दिख गयी तो मीठा पान भी खाना ही पड़ा। हालांकि पहले हम दोनों शर्त लगाने वाले थे कि कौन कितने पान खा सकता है पर फिर इरादा छोड़ दिया। उसके बाद मैं होटल वापस आ गयी। कल सुबह 4.45 पर मुझे नैनीताल के लिये वापस निकलना था। हालांकि मैं दिल से वहां कुछ समय और रुकना चाहती थी पर...
अगली सुबह कैब वाले ने होटल के बाहर से मुझे फोन कर दिया। मैं कैब की ओर चली गयी। कैब में कुछ लोग बैठे थे और दो लोग मेरे पहुंचने के बाद आये। जिसके बाद हम निकल गये। इस समय घुप्प अंधेरा था और अच्छी खासी ठंडी भी पड़ रही थी। जब अचानक ठंडी का अहसास हुआ तो मैंने देखा ड्राइवर ने खिड़की खोली है। उसने कहा - शीेशे में बार-बार भाप बन रही है इसलिये। इतनी ही देर में पीछे बैठी एक महिला ने भी उल्टियां करना शुरू कर दिया। मैं तो ठंडी से बेहाल हो गयी और ड्राइवर को बोला - गाड़ी में वाइपर अंदर की तरफ से क्यों नहीं होते हैं ? इतने में पीछे बैठे एक सज्जन ने कहा - वाइपर तो अंदर हो जायेंगे पर उल्टियों का क्या होगा। दूसरे सज्जन ने कहा - दवाइ खा लेनी चाहिये। तीसरे ने कहा - बीयर पीने से भी उल्टी नहीं होती। सबसे मजेदार ड्राइवर का आइडिया था, जिसे याद करके अभी तक हंसी आती है, वो बोला - अखबार के ऊपर बैठना चाहिये। खैर जो भी था हमें ठंड खानी थी सो खायी...
जब हम घाट पहुंचे वहां कैब की चैकिंग हुई। जो चैक करने के लिये आये उनकी नजर सीधे मेरे बैग पर पड़ी और बोले - ये नीला बैग किसका है ? खोल के दिखाओ। ड्राइवर ने बोला - पत्रकार मैम का है और मजे से मेरा ट्राइपाॅड पकड़ के भी उनके हाथ में रख दिया। मैं कुढ़ती हुई बाहर निकली, बैग दिखाया फिर चिढ़ते हुए उनसे पूछ भी लिया - आपने मेरा बैग ही क्यों देखा ? वो बोला - क्योंकि आपका बैग बहुत अच्छे स्टैंडर्ड का लग रहा था इसलिये। खैर मुझे चैकिंग से चिढ़ नहीं थी पर उस ठंडी मैं बाहर आना...उफ। अब हल्का सा उजाला होने लगा था। मुझे एक भेड़ों का बड़ा झुंड दिखायी दिया। ड्राइवर ने बताया - ये खानाबदोश हैं जो ठंडी में मुनस्यारी से गर्म जगहों की तरफ जाते हैं और गर्मियों में पहाड़ों में वापस आते हैं। ये पूरा रास्ता पैदल तय करते हैं और बीच-बीच में रूक कर आराम करते हैं। इनके पूरे झुड मैं दो-तीन कुत्ते भी रहते हैं जो हमेशा इनके साथ ही चलते हैं और कुछ खच्चर होते हैं जिनमें ये अपना सामान रखते हैं। मैंने इनके बारे में सुना था पर देखा आज पहली बार।
करीब 9.15 पर हम अल्मोड़ा पहुंच गये। वहां पहुंचने पर पता चला कि सिलेंडर का ट्रक रास्ते में पलट गया है इसलिये स्टेशन जाना मुश्किल है। खैर थोड़ा पैदल चल कर मैंने नैनीताल के लिये दूसरी टैक्सी की और करीब 11.15 पर मैं नैनीताल पहुंच गयी...
समाप्त
9 comments:
बहुत सुन्दर यात्रा वृतांत ,, आपका कम अपना ज्यादा लगा , परिवेच बिलकुल वैसा जैसा हमारे यहाँ होता है ,, सफर कि कठिनाई या सफर का मज़ा भी बिलकुल अपने जैसा ही ,, उम्मीद है गुफाओं के फोटो आप ज़रूर पोस्ट करेंगी
वाकई गाँवों की सुगंध अलग ही होती है.
पत्थरों के ऊपर बनी कलात्मक आकृतियों में से कुछ की तसवीरें भी देतीं तो और बेहतर होता,क्योंकि कभी-कभी इनका प्राकृतिक के अलावे एन्थ्रोपोलौजिकल महत्त्व भी हो जाता है.
आपकी यात्रा विवरण के साथ उसकी शुरुआत और समाप्ति के अनुभव भी लाजवाब ही होते हैं.
आपका सफर तो समाप्त हो गया, मगर हमारा - "दिल अभी भरा नहीं".
बहुत सुंदर यात्रा वृत्तान्त,मुझे अपनी अल्मोड़ा -नैनीताल यात्रा की सुधि हो आयी.
Nice presentation... Poori yatra shaandar rahee aur hum bhi aapke sath Pithoragarh ghoom aaye..
Happy Blogging
यात्रा संस्मरण रोचक लगा!
Really a truly beautiful post.maza ayaa.
Thnx Sunita, Abhishek, Dr. Manoj, Ashish, Gyan chand ji and Munish...
Abhishek : dil to abi mera bi nahi bhara...
Too good a post. An art this, writing the way it's written.
Amitabh ji : Thanks for this inspiring comment...
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